तुलसीदास जी के द्वारा रचित "रामचरितमानस दोहा 105 -115 अर्थ सहित

तुलसीदास जी के द्वारा रचित "रामचरितमानस दोहा 105 -115 अर्थ सहित  "Ramcharitmanas Doha 105-115 with meaning" written by Tulsidas ji

तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥
सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान। 105
यह दोहा संस्कृत भाषा में है। इसका अर्थ है:-
"तुम्हारी कृपा मेरे लिए सरल और सुखद है, जैसे मिठे और सुंदर शब्द।
सरल कविता जो सच्ची और शुद्ध है, उसकी प्रशंसा करते हैं बुद्धिमान लोग।"
इस दोहे में कहा गया है कि ईश्वर की कृपा बहुत सुखद और सरल होती है, जैसे सुंदर शब्द और मीठे शब्द हमारे मन को प्रसन्न करते हैं। इसके साथ ही, सत्य और शुद्धता की कविता की प्रशंसा बुद्धिमान लोग करते हैं।

सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥
सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।106
यह दोहा तुलसीदास जी के द्वारा रचित "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:-

"जो दुश्मन मेरा बयर बयर करने को सुनकर भी उसको भूल जाता है,
वही मनुष्य शुद्ध मति के बिना नहीं हो सकता, क्योंकि बहुत अधिक मति बल उसे मोहित कर देता है।"
इस दोहे में कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने दुश्मन के बारे में सुनकर भी उसे भूल जाता है, वही सच्ची मानसिक शुद्धता का धनी होता है। इसके विपरीत, अत्यधिक मानसिक बल व्यक्ति को भ्रमित कर देता है और उसे शुद्ध मानसिक विचार नहीं करने देता।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥
कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।107
यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:-

"हे हरि, आपकी कृपा करें। मैं आपकी महिमा बार-बार कहता हूँ और बार-बार आपका ध्यान करता हूँ।
हे रघुवर (राम), कवि कोबिद (तुलसीदास) आपके चरित्र को मानस मंजु (मनोहारी) मानते हैं।"
यहां कहा गया है कि व्यक्ति ईश्वर से अपनी कृपा की प्रार्थना करता है और उसकी महिमा गाता रहता है, अपने मन में उसे बार-बार याद करता है। इसके साथ ही, तुलसीदास जी कहते हैं कि रामचंद्रजी के चरित्र को वे मनोहारी मानते हैं, जो कवि कोबिद रामायण के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं।

बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मोपर होहु कृपाल॥108
यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:-
"हे भगवान, आप सुरुचि (अनुभव) से बालक की विनय सुनकर दयालु बन जाते हैं।"
इस दोहे में कहा गया है कि भगवान विनयपूर्ण बालक की विनय को सुनकर दयालु बन जाते हैं। वे उनकी बिनय को ध्यान में रखकर कृपाशील हो जाते हैं।

-बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।
सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥109
यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:-
"मुनि रामायण के पद को बंदन करते हैं, जिसमें कोई दोष नहीं होता है, वहाँ सुखदायक और मनोहारी विचार होते हैं, सभी दोषों से रहित।"
इस दोहे में कहा गया है कि मुनियों के पद जो रामायण के होते हैं, वे निर्दोष होते हैं और उनमें सुखदायक और मनोहारी विचार होते हैं, सभी प्रकार के दोषों से मुक्त।

बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥110
यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:-
"मैं वेदों का बंदन करता हूँ, जो संसार समुद्र में तैरते हैं। पर जो रघुबर (राम) के गुणों को सुनकर नहीं खेद रोते, उनकी महिमा की जय-जयकार करता हूँ।"
यहां कहा गया है कि वेद जैसे महान ग्रंथों का भी समुद्र की तरह संसार में स्थान है, लेकिन जो लोग रामचंद्रजी के गुणों को नहीं समझते और उनके गुणों के सुनने में खेद रोते हैं, उनकी जय-जयकार करता हूँ।

बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जहँ।
संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥111
यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:-

"मैं बिधि के पद-रेणु (बूंदों) से समुद्र की भाँति हूँ, जो जहाँ भी गिरते हैं। उसी प्रकार, संतों की अनमोल वाणी समुद्र में धरती पर आते हैं, जिससे की अज्ञानी लोगों के लिए भी ज्ञान की बूंदें उतरती हैं।"
इस दोहे में कहा गया है कि मैं उन बूंदों की भाँति हूँ जो बिधि के पद (विचार) समुद्र में गिरते हैं। उसी तरह, संतों की अनमोल वाणी भी समुद्र में धरती पर आती है, जिससे कि अज्ञानी लोगों के लिए भी ज्ञान की बूंदें उतरती हैं।

बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥ 112
यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:-
"बुद्धिमान, ब्राह्मण, ज्योतिष, ग्रहण और चारों दिशाओं को बंद करके मैं वश में कहता हूँ।
जब तुम प्रसन्न हो जाते हो, तो सम्पूर्ण मेरी मनोरथ (इच्छाएं) पूरी करवा दो॥"
इस दोहे में कहा गया है कि जब सभी बुद्धिमान, ब्राह्मण, ज्योतिष, ग्रहण और चारों दिशाओं को वश में किया जाता है, तो भगवान से यह प्रार्थना की जाती है कि जब वे प्रसन्न होते हैं, तो मेरी सभी इच्छाएं पूरी करवा दें।

पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥113
यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:-
"फिर से बंदन करता हूँ सारदा सरिता (सरयू नदी) को, जिसमें युगल राम और सीता का पवित्र और मनोहर चरित्र है।
इसे पीकर एक ही पाप हर जाता है, यह सुनते और कहते हुए भी अनविलंबी व्यक्ति भी।"
इस दोहे में कहा गया है कि सारदा सरिता का फिर से बंदन किया जा रहा है, जो राम और सीता के पवित्र चरित्र से युक्त है। इसे पीकर एक ही पाप हर जाता है, यह सुनते और कहते हुए भी अनविलंबी व्यक्ति भी।

गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके॥114
यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:-

"हे गुरु, पिता, माता, भगवान शिव और भवानी (पार्वती), मैं श्रद्धा से प्रणाम करता हूँ।
मेरे सेवक, स्वामी, सखा, राम और सीता के, तुलसीदास के सब प्रकार के हितकारी हैं, बिना किसी सीमा के।"
इस दोहे में कहा गया है कि गुरु, पिता, माता, महादेव और पार्वती माँ को मैं सम्मान अर्पित करता हूँ। अपने स्वामी राम और सीता को सेवक, स्नेही और हितकारी मानते हैं, और सभी प्रकार के हित में संलग्न होते हैं, तुलसीदास के अनुसार किसी भी सीमा के बिना।

कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥ 115
यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:-
"कलियुग में हरि गिरिजा (शिव-पार्वती) संसार के हित के लिए देख रहे हैं। वे लोग जिन्होंने साबर मंत्र का जाल बाँधा है, उन्हें अनमिल वाणी का अर्थ नहीं समझना। भगवान की प्रभा और महेश का प्रताप प्रकट होता है।"
इस दोहे में कहा गया है कि कलियुग में हरि और गिरिजा संसार के हित के लिए विचार रहे हैं। जो लोग साबर मंत्र के जाल में फंसे हैं, उन्हें अनमिल वाणी का अर्थ नहीं समझना। भगवान की प्रकाशमय प्रासंगिकता और भगवान शिव का प्रताप प्रकट होता है।

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