श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड Shriramcharitmanas aranyakand
चौपाई :
जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी॥
गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा॥1॥
इसका अर्थ है:"मैं घर में किसी के सुख-दुख को ध्यान से सुनकर उन्हें धन्य समझता हूँ। जैसे गुरु मूर्ख को बुद्धि दे देते हैं, वैसे ही जगत् मुझे समान को दोधता है।"
यह चौपाई जीवन में सहानुभूति की महत्ता और दयालुता को बताती है। यह भी दिखाती है कि किसी व्यक्ति को दीन-हीनता के समय में सहायता करना बहुत महत्त्वपूर्ण होता है।
तब मारीच हृदयँ अनुमाना। नवहि बिरोधें नहिं कल्याना॥
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बंदि कबि भानस गुनी॥2॥
इसका अर्थ है:"तब मारीच ने अपने हृदय को समझा, और वह बिरोध नहीं करने वाला था।
भगवान सीता राम का हृदय से जोड़े हुए थे, जैसे बैद्य विद्वान् मरम्म को जानते हैं, कवि गुणों को बयान करते हैं।"
यह चौपाई मारीच की बुद्धि और विवेक की महत्ता को बताती है। वह अपने हृदय की बात समझकर दुर्बल और असंतोषपूर्ण भावनाओं को नहीं मानता था।
उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकिसि रघुनायक सरना॥
उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागें॥3॥
इसका अर्थ है:"मैंने अपनी मृत्यु को दोनों तरह से देखा, फिर भी मैंने रघुनाथ (भगवान राम) के शरण में जाना।
मुझे विचारने का समय भी नहीं मिलता, कि मैं किस रूप में मरूं, क्योंकि मैंने रामचंद्र के प्रति अपनी समर्पणभावना जताई है।"
यह चौपाई अन्तिम समय में अपने जीवन की अवस्था को समझने और भगवान के शरण में जाने की महत्ता को बताती है। यहाँ बताया गया है कि जीवन के अंतिम समय में भी मनुष्य को भगवान की शरण में ही जाना चाहिए।
अस जियँ जानि दसानन संगा। चला राम पद प्रेम अभंगा॥
मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही॥4॥
इसका अर्थ है:"रावण! जैसे वह जीता है, जो भगवान राम के साथ है। मैं भी राम के प्रेम में अभंग हो चला।
मेरा मन अत्यंत हर्षित है, लेकिन वह हर्ष मेरे प्रिय राम के दर्शन से ही है।"
इस चौपाई में भक्त ने भगवान राम के प्रेम में अपना मन समर्पित किया है। उनका हर्ष और उत्साह भगवान के दर्शन से ही है।
चौपाई :
तेहि बननिकट दसानन गयऊ। तब मारीच कपटमृग भयऊ॥
अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई॥1॥
इसका अर्थ है:"रावण के बगीचे के पास गया तो मारीच का छलाना भयंकर लगा।
उसकी बनाई हुई रूपरेखा बहुत विचित्र थी, वह काया काँच की तरह थी, मन में स्वर्ण बनी हुई थी।"
यह चौपाई मारीच की रावण के बाग में उसकी छलावाज़ी रूपरेखा को वर्णित करती है। उसका विवरण बहुत ही अजीब और अद्भुत था, जैसे कि उसका शरीर स्वर्ण से बना हो।
सीता परम रुचिर मृग देखा। अंग अंग सुमनोहर बेषा॥
सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुंदर छाला॥2॥
इसका अर्थ है:"राघव, दयालु देवता! मैंने सीता को एक अत्यंत सुंदर मृग की तरह देखा।
उसके हर अंग में सुंदर सुमनोहर वस्त्र ढंके हुए थे।"
यह चौपाई भगवान राम के विशेष भक्ति भावना को व्यक्त करती है। इसमें वर्णित है कि सीता माँ को उनके अंगों पर पहने हुए आकर्षक वस्त्रों के साथ देखा गया था।
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही॥
तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन॥3॥
इसका अर्थ है:"जब सत्यसंध प्रभु राम ने इस कारण से सीता माँ का छल किया,
तब रघुपति ने सभी कारणों को जानकर स्वर्गीय देवताओं के कार्य को हर्षित करते हुए सुधारा।"
इस चौपाई में वर्णित है कि भगवान राम ने सत्य का पालन करते हुए सीता माँ का छल किया था। यह छल उन्होंने देवताओं के कार्य को सुधारने के लिए किया था।
मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा॥
प्रभु लछिमनहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई॥4॥
इसका अर्थ है:"सीता माँ ने मृग को देखकर उसके परिकरों को काटकर, उसके हाथों में ताल और धनुष बाँधे।
प्रभु राम ने लक्ष्मण से कहा और समझाया कि वह निसिचर (राक्षसों) के बीच में फिरता हुआ बहुत सावधानी से चलता रहे।"
इस चौपाई में वर्णित है कि सीता माँ ने मृग को देखकर उसके परिकरों को काटकर और उसे शस्त्रों से युक्त करके पूरी तरह से तैयार किया था। और भगवान राम ने लक्ष्मण से निसिचरों के बीच सावधानी से चलने की सलाह दी थी।
सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी॥
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी॥5॥
इसका अर्थ है:"सीता माँ ने भगवान राम से कहा, 'आप ही मेरी सुरक्षा करें। मेरी बुद्धि, विवेक, और समय का सही उपयोग कीजिए।'
फिर भगवान राम ने मृग को देखकर अपना तिरछा धनुष उठाया और तेजस्वी बाण छोड़ा।"
यहां बताया गया है कि सीता माँ ने भगवान राम से अपनी सुरक्षा का आग्रह किया और राम ने मृग को देखकर अपने विशाल धनुष को उठाया और बाण छोड़ा।
निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा॥
कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई। कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई॥6॥
इसका अर्थ है:"जैसे नेति शिव को नहीं पाया जा सकता, उसी तरह मायामय मृग (जो माया का प्रतीक है) को ध्यान में नहीं पाया जा सकता।
कभी वह निकट होता है, फिर दूर चला जाता है, कभी प्रकट होता है और कभी छुप जाता है।"
यह चौपाई माया के मार्ग को समझाने के लिए है, जिसमें सिव और मायामय मृग की तुलना की गई है। माया की अनयोग्यता और उसकी अनिश्चितता को दर्शाने के लिए यह चौपाई का उपयोग किया गया है।
प्रगटत दुरत करत छल भूरी। एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी॥
तब तकि राम कठिन सर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा॥7॥
इसका अर्थ है:"मायामय मृग ने बहुत धूरता और छल का प्रदर्शन किया। भगवान राम ने इस प्रकार में उस दूरी को जाने की अनुमति दी।
उस समय तक, राम ने कठोर तीर से मृग को मारा और भूमि पर गहरी पुकार की।"
यह चौपाई मायावी मृग और भगवान राम के बीच के एक संघर्ष को वर्णित करती है, जहां भगवान राम ने मायामय मृग को धरती पर उसकी दूरी बढ़ाने की अनुमति दी, ताकि वह दूरी को बढ़ा सके।
लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा॥
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमिरेसि रामु समेत सनेहा॥8॥
इसका अर्थ है:"लक्ष्मण ने पहले ही राम का नाम लिया। फिर मन में राम की स्मरण की और उन्हें चित्त में ध्यान किया।
प्राणों को छोड़कर वे अपने शुद्ध देह को प्रगट कर दिया और राम की स्मृति में ही प्रेम रखते हुए समाप्त हुए।"
इस चौपाई में दिखाया गया है कि भक्त लक्ष्मण ने पहले ही भगवान राम का नाम लिया और फिर उनकी चिंतना में मन लगा दिया। उन्होंने अपने प्राणों को त्याग दिया और अपने शुद्ध देह को प्रकट किया, जबकि उनका मन और प्रेम हमेशा भगवान राम की स्मृति में रहा।
अंतर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना॥9॥
इसका अर्थ है:"जो अंतरंगी प्रेम को जानता है, वही सच्चा प्रेमी है। मुनि (संत) वह बहुत ही दुर्लभ गति है, जो सुजानों (ज्ञानी लोगों) ने दी है।"
इस चौपाई में बताया गया है कि जो व्यक्ति अंतरंगी प्रेम को समझता है वही सच्चा प्रेमी है। वास्तविक संतों या ज्ञानी लोगों द्वारा दी गई वह गति बहुत ही दुर्लभ होती है, जो समझने वालों को प्राप्त होती है।
चौपाई :
खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा॥
आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥1॥
इसका अर्थ है:"खल ने भगवान राम को बाहर भगाया, तब राम ने उसको तीर चलाकर मारा।
जब सीता ने उसका पतन देखा, तो लक्ष्मण से बहुत परम विश्वासपूर्वक कहा।"
इस चौपाई में बताया गया है कि खल ने भगवान राम को धोखा दिया और तब राम ने उसको तीर से मारा। सीता ने उसके पतन को देखा और फिर लक्ष्मण से इस बारे में बात की।
जाहु बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता॥
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ संकट परइ कि सोई॥2॥
इसका अर्थ है:"जो बहुत वेग से संकट को प्राप्त होता है, वह वास्तविक भाई होता है। लछिमन उससे हंसते हुए माँ सीता से कहते हैं, 'सुनो माँ।'
भृकुटि (मुख की झुर्रियाँ) का खिलवाड़, सृष्टि का उत्पन्न होना और नाश होना, वे सब सपनों के समान होते हैं जो संकट को भविष्य में दर्शाते हैं।"
यह चौपाई संकट के प्रति जागरूकता और उसके असली रूप को समझाने के लिए है। यह बताता है कि जो व्यक्ति बहुत तेजी से संकट में फंसता है, वह वास्तविक भाई होता है। इस चौपाई में भृकुटि और सृष्टि के उत्पन्न होने की विविधता को एक सपने के समान बताया गया है, जो संकट की प्राप्ति की स्थिति को सूचित करते हैं।
मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला॥
बन दिसि देव सौंपि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू॥3॥
इसका अर्थ है:"जब सीता ने गुप्त रहस्य को बोला, तब हरि (भगवान राम) के प्रेरित होने से लछिमन का मन हिला।
सब दिशाओं में उसने देवताओं को समर्पित किया और वहाँ चला जहाँ रावण का आश्रय था।"
इस चौपाई में बताया गया है कि जब सीता ने गुप्त रहस्य को बोला, तब उसके शब्दों का प्रभाव लछिमन के मन को भी प्रभावित किया। फिर लछिमन ने सभी दिशाओं में देवताओं को समर्पित किया और वहाँ चले गए जहाँ रावण का आश्रय था।
सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥
इसका अर्थ है:"सीता ने दसकंधर की वादियों में सुन देखा। वह जल्दी से निकट आने वाले जीव का विशेष रूप देखी।
जिससे देवता और असुर भयभीत होते थे, और वहां रहने के दौरान वे न रात्रि में सोते थे और न दिन में अन्न खाते थे।"
इस चौपाई में बताया गया है कि सीता ने दसकंधर के पर्वतीय क्षेत्रों में आवाज सुनी और उनके निकट आने वाले जीव का विशेष रूप देखा। जिससे देवता और असुर भयभीत होते थे, और वहाँ रहते समय वे न रात्रि में सोते थे और न दिन में अन्न खाते थे।
सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥
वही दस सिरवाला रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता हुआ भड़िहाई (चोरी) के लिए चला। (काकभुशुंडि कहते हैं - ) हे गरुड़! इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते ही शरीर में तेज तथा बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता।॥5॥नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥6॥
रावण ने अनेकों प्रकार की सुहावनी कथाएँ रचकर सीताजी को राजनीति, भय और प्रेम दिखलाया। सीताजी ने कहा- हे यति गोसाईं! सुनो, तुमने तो दुष्ट की तरह वचन कहे॥6।तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा॥
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा॥7॥
चौपाई का अर्थ है:"तब जब रावण अपना सच्चा रूप दिखाया, तब सीता माता ने भय और आश्चर्य का अनुभव किया। सीताजी ने विचार किया और फिर मन धैर्यपूर्वक धारण किया, और प्रभु श्रीराम ने रावण को मारकर उन्हें शांति प्रदान की।"
यह चौपाई सीता माता की धैर्य, समझ, और उनकी चतुराई को दर्शाती है, जब रावण ने अपना विषयस्थ रूप प्रकट किया। सीताजी ने धैर्यपूर्वक रहकर भगवान श्रीराम की कृपा का आश्रय लिया और अन्त में उन्होंने रावण को वध कर दिया।
जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा॥
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बंदि सुख माना॥8॥
चौपाई का अर्थ है:"हनुमानजी ने जैसे सीताजी को हरी बधाई दी, वैसे ही राक्षसों को भी बधाई दी। उनकी सुनी हुई बातों को राक्षस डर गए, और उनके मन में श्रीराम के चरणों की भक्ति की अनुभूति हुई और वे सुखी हो गए।"
यह चौपाई हनुमानजी की चतुराई, विवेक, और भक्ति की महिमा को बताती है। उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता से रावण की सेना को भी बुद्धिमत्ता से जीत लिया और उन्होंने श्रीराम के चरणों की भक्ति में आनंदित होकर सुख प्राप्त किया।
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