युधिष्ठिर एवम भीष्म का अंतिम संवाद
युधिष्ठिर और भीष्म के बीच युद्ध के अंतिम दिन एक महत्वपूर्ण संवाद हुआ था जो महाभारत महाकाव्य के अनुसार वर्णित है। यह संवाद महाभारत के भीष्म पर्व (भीष्म संतान पर्व) में स्थित है।
युधिष्ठिर ने अपने सेनापति और पितामह भीष्म से युद्धभूमि पर उनकी सलाह, उपदेश, और आत्मशिक्षा का प्रश्न किया। भीष्म पितामह ने उनके प्रश्नों का उत्तर देते हुए अपने अनुभव, ज्ञान, और धर्म के सिद्धांतों पर चर्चा की। इस संवाद के दौरान, भीष्म ने युधिष्ठिर को अनेक महत्वपूर्ण शिक्षाएं दीं और उन्हें धर्म, नीति, और राजनीति के तत्त्वों के बारे में बताया।
भीष्म संतान पर्व में भीष्म ने अपने विचार, ज्ञान, और अनुभव को साझा करते हुए युद्धभूमि पर धार्मिक और राजनीतिक चरित्रों का वर्णन किया था। इसमें भीष्म के उद्धारण और सुझाव युधिष्ठिर को जीवन के विभिन्न पहलुओं में दृष्टिकोण बदलने के लिए प्रेरित करते थे। यह विशेषकर युद्ध के समय, राजनीतिक नीतियों, और कर्मयोग के महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर बताया गया था।
यह संवाद महाभारत का एक महत्वपूर्ण भाग है जो धार्मिक, नैतिक, और राजनीतिक मुद्दों पर भीष्म के विचारों को ब्रह्माण्ड के सभी विद्वान् और योगीयों के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत बनाता है।
युधिष्ठिर एवम भीष्म का अंतिम संवाद
महाभारत का युद्ध एक ऐसा युद्ध था जिसमे भाई ही भाई के विरुद्ध लड़ रहा था | सगा सगे का ही रक्त बहा रहा था ऐसे में मृत्यु को कोई भी प्राप्त हो दुःख दोनों पक्षों में बराबर का होता था |
जब पितामह भीष्म बाणों की शैया पर लेते हुए थे तब युधिष्ठिर उनसे मिलने आये | युधिष्ठिर बहुत दुखी एवम शर्मिंदा थे | अपने पितामह की हालत का जिम्मेदार खुद को मानकर अत्यंत ग्लानि महसूस कर रहे थे | उनकी यह स्थिती देख पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को अपने समीप बुलाकर पूछा – हे पुत्र ! तुम इतना दुखी क्यूँ हो क्या तुम मेरी इस स्थिती का उत्तरदायी खुद को समझ रहे हो ? तब युधिष्ठिर ने नम आँखों के साथ हाँ में उत्तर दिया | जिस पर पितामह ने उन्हें एक कथा सुनाई | क्या थी वह कथा
एक समय में देय नामक एक अत्यंत बलशाली महा विद्वान राजा हुआ करता था लेकिन उसकी प्रवत्ति क्रूर थी वो अपनी प्रजा पर अन्याय करता था | अपने नाम की कीर्ति फ़ैलाने के लिए वो प्रजा पर डर का शासन कर रहा था | जिस कारण प्रजा बहुत दुखी थी | शारीरिक एवम मानसिक कष्ट में पुरे राज्य का जीवन कट रहा था क्यूंकि राजा का शासन कुशासन था | अतः धर्म की स्थापना हेतु ब्राह्मणों ने उस राजा का वध किया उसके बाद उसके पुत्र पृथु को राजा बनाया गया जिसका स्वभाव धर्म के अनुरूप था जिसके कारण उस राज्य में सुशासन होने लगा | और प्रजा में खुशहाली आने लगी |उसी प्रकार आज हस्तिनापुर की प्रजा भी दुखी हैं | उनका सुख तुम्हारे शासन में हैं | इस प्रकार प्रजा के सुख एवम धर्म की स्थापना हेतु किये गये कार्य के लिए तुम्हे दुखी होने की आवश्यक्ता नहीं हैं |तुम धर्म के नये स्थापक बनोगे अगर इसके लिए तुम्हे अपनों से भी लड़ना पड़े तो उसका शौक मत करों |
पितामह भीष्म की बात सुन युधिष्ठिर को आत्म शांति का अनुभव होता हैं और वह पुरे उत्साह के साथ युद्ध के आगे के दौर में भाग लेता हैं
महाभारत का युध्द यही सिखाता हैं कि धर्म की रक्षा के लिए किये गये कार्य कोई भी हो गलत नहीं होते | अपनों के प्रेम में पड़कर अधर्मी का साथ देना गलत होता हैं | जिस प्रकार महाभारत युद्ध में जितने भी महा पुरुषों ने कौरवो का साथ दिया उनका अंत बुरा हुआ | उनके सारे सत्कर्मो का नाश हुआ क्यूंकि उन्होंने अपने व्यक्तिगत धर्म को देश एवम मातृभूमि के उपर रखा जिसके फलस्वरूप उनका नाश हुआ
धर्म का रास्ता सरल नहीं हैं लेकिन जो उस पर चलते हैं | उन्ही का जीवन सार्थक होता हैं |युधिष्ठिर एवम भीष्म का अंतिम संवाद आपको यह महाभारत कथा कैसी लगी कमेंट बॉक्स में लिए |
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