विष्णु पुराण तृतीय अंश का 3 अध्याय,Vishnu Purana Trteey Ansh Ka 3 Chapter

विष्णु पुराण तृतीय अंश का 3 अध्याय संस्कृत और हिंदी में ,Vishnu Purana Trteey Ansh Ka 3 Chapter  in Sanskrit and Hindi

तीसरा अध्याय चतुर्युगानुसार भिन्न-भिन्न व्यासोंके नाम तथा ब्रह्मज्ञानके माहात्म्यका वर्णन !

  • श्रीमैत्रेय उवाच
ज्ञातमेतन्मया त्वत्तो यथा सर्वमिदं जगत् । 
विष्णुर्विष्णौ विष्णुतश्च न परं विद्यते ततः ॥ १
एतत्तु श्रोतुमिच्छामि व्यस्ता वेदा महात्मना ।
वेदव्यासस्वरूपेण तथा तेन युगे युगे ॥ २ 
यस्मिन्यस्मिन्युगे व्यासो यो य आसीन्महामुने। 
तं तमाचक्ष्व भगवञ्छाखाभेदांश्च मे वद ॥ ३
  • श्रीपराशर उवाच

वेदद्रुमस्य मैत्रेय शाखाभेदास्सहस्त्रशः ।
न शक्तो विस्तराद्वक्तुं सक्षेपेण शृणुष्व तम् ॥ ४ 
द्वापरे द्वापरे विष्णुर्व्यासरूपी महामुने। 
वेदमेकं सुबहुधा कुरुते जगतो हितः ॥ ५
वीर्यं तेजो बलं चाल्पं मनुष्याणामवेक्ष्य च।
हिताय सर्वभूतानां वेदभेदान्करोति सः ॥ ६
ययासौ कुरुते तन्वा वेदमेकं पृथक् प्रभुः । 
वेदव्यासाभिधाना तु सा च मूर्तिर्मधुद्विषः ॥ ७

Vishnu Purana Trteey Ansh Ka 3 Chapter

श्रीमैत्रेयजी बोले- हे भगवन्! आपके कथनसे मैं यह जान गया कि किस प्रकार यह सम्पूर्ण जगत् विष्णुरूप है, विष्णुमें ही स्थित है, विष्णुसे ही उत्पन्न हुआ है तथा विष्णुसे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है?  अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि भगवान्ने वेदव्यासरूपसे युग-युगमें किस प्रकार वेदोंका विभाग किया  हे महामुने! हे भगवन्! जिस-जिस युगमें जो-जो वेदव्यास हुए उनका तथा वेदोंके सम्पूर्ण शाखा-भेदोंका आप मुझसे वर्णन कीजिये  श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय! वेदरूप वृक्षके सहस्रों शाखा-भेद हैं, उनका विस्तारसे वर्णन करनेमें तो कोई भी समर्थ नहीं है, अतः संक्षेपसे सुनो हे महामुने ! प्रत्येक द्वापरयुगमें भगवान् विष्णु व्यासरूपसे अवतीर्ण होते हैं और संसारके कल्याणके लिये एक वेदके अनेक भेद कर देते हैं  मनुष्योंके बल, वीर्य और तेजको अल्प जानकर वे समस्त प्राणियोंके हितके लिये वेदोंका विभाग करते हैं जिस शरीरके द्वारा वे प्रभु एक वेदके अनेक विभाग करते हैं भगवान् मधुसूदनकी उस मूर्तिका नाम वेदव्यास है॥ १ - ७॥

यस्मिन्मन्वन्तरे व्यासा ये ये स्युस्तान्निबोध मे। 
यथा च भेदश्शाखानां व्यासेन क्रियते मुने । ८
अष्टाविंशतिकृत्वो वै वेदो व्यस्तो महर्षिभिः ।
वैवस्वतेऽन्तरे तस्मिन्द्वापरेषु पुनः पुनः ॥ ९
वेदव्यासा व्यतीता ये ह्यष्टाविंशति सत्तम। 
चतुर्धा यैः कृतो वेदो द्वापरेषु पुनः पुनः ॥ १०
द्वापरे प्रथमे व्यस्तस्स्वयं वेदः स्वयम्भुवा।
द्वितीये द्वापरे चैव वेदव्यासः प्रजापतिः ॥ ११
तृतीये चोशना व्यासश्चतुर्थे च बृहस्पतिः ।
सविता पञ्चमे व्यासः षष्ठे मृत्युस्स्मृतः प्रभुः ॥ १२
सप्तमे च तथैवेन्द्रो वसिष्ठश्चाष्टमे स्मृतः । 
सारस्वतश्च नवमे त्रिधामा दशमे स्मृतः ॥ १३
एकादशे तु त्रिशिखो भरद्वाजस्ततः परः । 
त्रयोदशे चान्तरिक्षो वर्णी चापि चतुर्दशे ॥ १४
त्रय्यारुणः पञ्चदशे षोडशे तु धनञ्जयः । 
ऋतुञ्जयः सप्तदशे तदूर्ध्वं च जयस्स्मृतः ॥ १५
ततो व्यासो भरद्वाजो भरद्वाजाच्च गौतमः । 
गौतमादुत्तरो व्यासो हर्यात्मा योऽभिधीयते ॥ १६
अथ हर्यात्मनोऽन्ते च स्मृतो वाजश्रवा मुनिः । 
सोमशुष्मायणस्तस्मात्तृणबिन्दुरिति स्मृतः ॥ १७ 
ऋक्षोऽभूद्भार्गवस्तस्माद्वाल्मीकिर्योऽभिधीयते। 
तस्मादस्मत्पिता शक्तिर्व्यासस्तस्मादहं मुने । १८ 
जातुकर्णोऽभवन्मत्तः कृष्णद्वैपायनस्ततः । 
अष्टाविंशतिरित्येते वेदव्यासाः पुरातनाः ॥ १९ 
एको वेदश्चतुर्धा तु तैः कृतो द्वापरादिषु ॥ २० 
भविष्ये द्वापरे चापि द्रौणिर्व्यासो भविष्यति । 
व्यतीते मम पुत्रेऽस्मिन् कृष्णद्वैपायने मुने ॥ २१
ध्रुवमेकाक्षरं ब्रह्म ओमित्येव व्यवस्थितम् । 
बृहत्वाबृंहणत्वाच्च तद्ब्रह्मेत्यभिधीयते ॥ २२
प्रणवावस्थितं नित्यं भूर्भुवस्स्वरितीर्यते। 
ऋग्यजुस्सामाथर्वाणो यत्तस्मै ब्रह्मणे नमः ॥ २३

हे मुने ! जिस-जिस मन्वन्तरमें जो-जो व्यास होते हैं और वे जिस-जिस प्रकार शाखाओंका विभाग करते हैं-वह मुझसे सुनो  इस वैवस्वत- मन्वन्तरके प्रत्येक द्वापरयुगमें व्यास महर्षियोंने अबतक पुनः पुनः अट्ठाईस बार वेदोंके विभाग किये हैं हे साधुश्रेष्ठ ! जिन्होंने पुनः पुनः द्वापरयुगमें वेदोंके चार-चार विभाग किये हैं उन अट्ठाईस व्यासोंका विवरण सुनो - पहले द्वापरमें स्वयं भगवान् ब्रह्माजीने वेदोंका विभाग किया था। दूसरे द्वापरके वेदव्यास प्रजापति हुए तीसरे द्वापरमें शुक्राचार्यजी और चौथेमें बृहस्पतिजी व्यास हुए तथा पाँचवेंमें सूर्य और छठेमें भगवान् मृत्यु व्यास कहलाये सातवें द्वापरके वेदव्यास इन्द्र, आठवेंके वसिष्ठ, नवेंके सारस्वत और दसवेंके त्रिधामा कहे जाते हैं ग्यारहवेंमें त्रिशिख, बारहवेंमें भरद्वाज, तेरहवेंमें अन्तरिक्ष और चौदहवेंमें वर्णी नामक व्यास हुए पन्द्रहवेंमें त्रय्यारुण, सोलहवेंमें धनंजय, सत्रहवेंमें ऋतुंजय और तदनन्तर अठारहवेंमें जय नामक व्यास हुए फिर उन्नीसवें व्यास भरद्वाज हुए, भरद्वाजके पीछे गौतम हुए और गौतमके पीछे जो व्यास हुए वे हर्यात्मा कहे जाते हैं हर्यात्माके अनन्तर वाजश्रवामुनि व्यास हुए तथा उनके पश्चात् सोमशुष्मवंशी तृणबिन्दु (तेईसवें) वेदव्यास कहलाये उनके पीछे भृगुवंशी ऋक्ष व्यास हुए जो वाल्मीकि कहलाये, तदनन्तर हमारे पिता शक्ति हुए और फिर मैं हुआ मेरे अनन्तर जातुकर्ण व्यास हुए और फिर कृष्णद्वैपायन- इस प्रकार ये अट्ठाईस व्यास प्राचीन हैं। इन्होंने द्वापरादि युगोंमें एक ही वेदके चार-चार विभाग किये हैं हे मुने ! मेरे पुत्र कृष्णद्वैपायनके अनन्तर आगामी द्वापरयुगमें द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा वेदव्यास होंगे ॐ यह अविनाशी एकाक्षर ही ब्रह्म है। यह बृहत् और व्यापक है; इसलिये 'ब्रह्म' कहलाता है भूर्लोक, भुवोंक और स्वोंक-ये तीनों प्रणवरूप ब्रह्ममें ही स्थित हैं तथा प्रणव ही ऋक्, यजुः, साम और अथर्वरूप है; अतः उस ओंकाररूप ब्रह्मको नमस्कार है ८ - २३ !!

जगतः प्रलयोत्पत्त्योर्यत्तत्कारणसंज्ञितम् ।
महतः परमं गुह्यं तस्मै सुब्रह्मणे नमः ॥ २४
अगाधापारमक्षय्यं जगत्सम्मोहनालयम् ।
स्वप्रकाशप्रवृत्तिभ्यां पुरुषार्थप्रयोजनम् ॥ २५ 
सांख्यज्ञानवतां निष्ठा गतिश्शमदमात्मनाम् ।
यत्तदव्यक्तममृतं प्रवृत्तिब्रह्म शाश्वतम् ॥ २६ 
प्रधानमात्मयोनिश्च गुहासंस्थं च शब्दद्यते ।
अविभागं तथा शुक्रमक्षयं बहुधात्मकम् ॥ २७ 
परमब्रह्मणे तस्मै नित्यमेव नमो नमः ।
यद्रूपं वासुदेवस्य परमात्मस्वरूपिणः ॥ २८
एतद्ब्रह्म त्रिधा भेदमभेदमपि स प्रभुः । 
सर्वभेदेष्वभेदोऽसौ भिद्यते भिन्नबुद्धिभिः ॥ २९
स ऋङ्मयस्साममयः सर्वात्मा स यजुर्मयः । 
ऋग्यजुस्सामसारात्मा स एवात्मा शरीरिणाम् ॥ ३० 
स भिद्यते वेदमयस्स्ववेदं करोति भेदैर्बहुभिस्सशाखम् ।
शाखाप्रणेता स समस्तशाखा- ज्ञानस्वरूपो भगवानसङ्गः ॥ ३१

जो संसार के उत्पत्ति और प्रलयका कारण कहलाता है तथा महत्तत्त्वसे भी परम गुह्य (सूक्ष्म) है उस ओंकाररूप ब्रह्म को नमस्कार है जो अगाध, अपार और अक्षय है, संसारको मोहित करनेवाले तमोगुणका आश्रय है, तथा प्रकाशमय सत्त्वगुण और प्रवृत्तिरूप रजोगुणके द्वारा पुरुषोंके भोग और मोक्षरूप परमपुरुषार्थका हेतु है जो सांख्यज्ञानियोंकी परमनिष्ठा है, शम-दमशालियोंका गन्तव्य स्थान है, जो अव्यक्त और अविनाशी है तथा जो सक्रिय ब्रह्म होकर भी सदा रहनेवाला है जो स्वयम्भू, प्रधान और अन्तर्यामी कहलाता है तथा जो अविभाग, दीप्तिमान्, अक्षय और अनेक रूप है और जो परमात्म स्वरूप भगवान् वासुदेवका ही रूप (प्रतीक) है, उस ओंकाररूप परब्रह्मको सर्वदा बारम्बार नमस्कार है यह ओंकाररूप ब्रह्म अभिन्न होकर भी [ अकार, उकार और मकाररूपसे] तीन भेदों वाला है। यह समस्त भेदोंमें अभिन्नरूपसे स्थित है तथापि भेदबुद्धिसे भिन्न-भिन्न प्रतीत होता हैवह सर्वात्मा ऋड्मय, साममय और यजुर्मय है तथा ऋग्यजुः- सामका साररूप वह ओंकार ही सब शरीरधारियोंका आत्मा है वह वेदमय है, वही ऋग्वेदादिरूपसे भिन्न हो जाता है और वही अपने वेदरूपको नाना शाखाओंमें विभक्त करता है तथा वह असंग भगवान् ही समस्त शाखाओंका रचयिता और उनका ज्ञानस्वरूप है॥ २४ - ३१ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

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