मोहिनी एकादशी के मंत्र | आरती | कथा, Mohini Ekadashi Mantras Aarti Story

मोहिनी एकादशी के मंत्र | आरती | कथा, 

यह व्रत भी कृष्ण पक्ष की एकादशी की भाँति ही किया जाता है। इस व्रत को करने से निंदित कर्मों के पाप से छुटकारा मिल जाता है तथा मोह बन्धन एवं पाप समूह नष्ट होते हैं। सीताजी की खोज करते समय भगवान् श्री रामचन्द्रजी ने भी इस व्रत को किया था। उनके बाद मुनि कौण्डिन्य के कहने पर धृष्टबुद्धि ने और श्रीकृष्ण के कहने पर युधिष्ठिर ने इस व्रत को किया था। इस दिन भगवान् राम पुरुषोत्तम रूप की पूजा का विधान है। इस दिन भगवान् की प्रतिमा को स्नानादि से शुद्ध कर उत्तम वस्त्र पहनाना चाहिए, फिर उच्चासन पर बैठाकर धूप, दीप से आरती उतारनी चाहिए और मीठे फलों का भोग लगाना चाहिए। तथा ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देनी चाहिए। रात्रि में भगवान् का कीर्तन करते हुए मूर्ति के समीप ही शयन करना चाहिए।

Mohini Ekadashi Mantras Aarti Story

मोहिनी एकादशी के मंत्र

सनातन धर्म में एकादशी तिथि को बहुत फलदायी माना जाता है। इस दिन भगवान विष्णु और धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी की पूजा होती है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली एकादशी तिथि को मोहिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो लोग इस दिन का उपवास रखते हैं उन्हें धन-दौलत की प्राप्ति होती है। साथ ही उनके सभी पापों का नाश होता है। 

मोहिनी एकादशी के मंत्र
  • विष्णुजी का मूल मंत्र -  ॐ नमोः नारायणाय॥
  • श्री हरि के अन्य मंत्र - ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय
  • विष्णु गायत्री मंत्र -  ॐ श्री विष्णवे च विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥
  • विष्णु शांताकारम् मंत्र - 

शान्ताकारम् भुजगशयनम् पद्मनाभम् सुरेशम्
विश्वाधारम् गगनसदृशम् मेघवर्णम् शुभाङ्गम्।

लक्ष्मीकान्तम् कमलनयनम् योगिभिर्ध्यानगम्यम्
वन्दे विष्णुम् भवभयहरम् सर्वलोकैकनाथम्॥

  • मंगलम् भगवान विष्णु मंत्र -
मंगलम् भगवान विष्णुः, मंगलम् गरुणध्वजः।
मंगलम् पुण्डरी काक्षः, मंगलाय तनो हरिः॥

एकादशी माता की आरती ( Aarti )

ॐ जय एकादशी, जय एकादशी, जय एकादशी माता
। विष्णु पूजा व्रत को धारण कर, शक्ति मुक्ति पाता॥ ॐ जय एकादशी…॥

तेरे नाम गिनाऊं देवी, भक्ति प्रदान करनी।
 गण गौरव की देनी माता, शास्त्रों में वरनी॥ ॐ जय एकादशी…॥

मार्गशीर्ष के कृष्णपक्ष की उत्पन्ना, विश्वतारनी जन्मी। 
शुक्ल पक्ष में हुई मोक्षदा, मुक्तिदाता बन आई॥ ॐ जय एकादशी…॥

पौष के कृष्णपक्ष की, सफला नामक है।
 शुक्लपक्ष में होय पुत्रदा, आनन्द अधिक रहै॥ ॐ जय एकादशी…॥

नाम षटतिला माघ मास में, कृष्णपक्ष आवै। 
शुक्लपक्ष में जया, कहावै, विजय सदा पावै॥ ॐ जय एकादशी…॥

विजया फागुन कृष्णपक्ष में शुक्ला आमलकी।
 पापमोचनी कृष्ण पक्ष में, चैत्र महाबलि की॥ ॐ जय एकादशी…॥

चैत्र शुक्ल में नाम कामदा, धन देने वाली।
 नाम बरुथिनी कृष्णपक्ष में, वैसाख माह वाली॥ ॐ जय एकादशी…॥

शुक्ल पक्ष में होय मोहिनी अपरा ज्येष्ठ कृष्णपक्षी। 
नाम निर्जला सब सुख करनी, शुक्लपक्ष रखी॥ ॐ जय एकादशी…॥

योगिनी नाम आषाढ में जानों, कृष्णपक्ष करनी। 
देवशयनी नाम कहायो, शुक्लपक्ष धरनी॥ ॐ जय एकादशी…॥

कामिका श्रावण मास में आवै, कृष्णपक्ष कहिए।
 श्रावण शुक्ला होय पवित्रा आनन्द से रहिए॥ ॐ जय एकादशी…॥

अजा भाद्रपद कृष्णपक्ष की, परिवर्तिनी शुक्ला।
 इन्द्रा आश्चिन कृष्णपक्ष में, व्रत से भवसागर निकला॥ ॐ जय एकादशी…॥

पापांकुशा है शुक्ल पक्ष में, आप हरनहारी। 
रमा मास कार्तिक में आवै, सुखदायक भारी॥ ॐ जय एकादशी…॥

देवोत्थानी शुक्लपक्ष की, दुखनाशक मैया। 
पावन मास में करूं विनती पार करो नैया॥ ॐ जय एकादशी…॥

परमा कृष्णपक्ष में होती, जन मंगल करनी। 
शुक्ल मास में होय पद्मिनी दुख दारिद्र हरनी॥ ॐ जय एकादशी…॥

जो कोई आरती एकादशी की, भक्ति सहित गावै।
जन गुरदिता स्वर्ग का वासा, निश्चय वह पावै॥ ॐ जय एकादशी…॥

मोहिनी एकादशी(Mohini Ekadashi) की कथा

भगवान श्रीकृष्ण से चैत्र माह में कृष्णपक्ष में आने वाली वरुथिनी एकादशी का महात्म्य और कथा जानने के बाद राजा युधिष्ठिर भगवान श्री हरि से वैशाख माह की शुक्लपक्ष को आने वाली एकादशी के बारे में जानने को उत्सुक हो उठे। युधिष्ठर – “हे मधुसूदन..!! में आपके श्री मुख से वरुथिनी एकादशी की व्रत कथा और अनुष्ठान सुन कर कृतार्थ हो गया। आप कृपा कर के मुजे वैशाख माह के शुक्लपक्ष को आनेवाली एकादशी के बारे में विस्तार से बताये। उस एकादशी को किस नाम से जाना जाता है और उसका महात्मय क्या है? यह बताने की कृपा करें है प्रभु…!!”
राजा युधिष्ठिर की बात सुन श्री कृष्ण अति प्रसन्न हुए और इस विषय पर आगे कहने लगे –
श्रीकृष्ण – “हे राजन, वैशाख माह के शुक्लपक्ष में आनेवाली एकादशी को “मोहिनी एकादशी”(Mohini Ekadashi) के नाम से जाना जाता है। यह एकादशी मनुष्य के सारे मोह बंधन को काटने वाली पापनाशिनी और मोक्षदायिनी एकादशी है। अब में आपको इसकी कथा सुनता हूं जो महर्षि वशिष्ठ ने मेरे राम अवतार में मुजे कह कर सुनाई थी। अतः इसे ध्यान से सुने। एक समय की बात है जब त्रेता युग मे श्री राम अपना राज्याभिषेक होने के प्रश्चात प्रथम बार कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में उनसे मिलने जा पहुँचे। महर्षि वशिष्ठ के दर्शन कर उनका आशीर्वाद लेते हुए उनके समक्ष अपने व्याकुल स्वर में उन्होंने कहा –
श्री राम – “है गुरुदेव..!! मेरा मन कुछ समय से अत्यंत व्याकुल रह रहा है। वनवास काल मे मैंने जो सीता का वियोग सहा है वो अत्यंत दुःखदाई है। मन अभी तक उस दुःख से पूर्णरूप से उभर नहीं पाया है। में आपसे निवेदन करता हु की आप मेरी इस समस्या का समाधान करें। कोई ऐसा व्रत बताने की कृपा करें जिससे मेरा मन सागर की तरह शांत हो और में अपने राजकार्य में कुशलता से अपना योगदान दे सकू..!!”
महर्षि वशिष्ठ प्रभु श्री राम के वचन सुन उनके वखान करने लगे और कहा –
महर्षि वशिष्ठ – “हे राम, तुम धन्य हो.. तुमने जो वियोग सहा है वो आम मनुष्य के लिए मृत्यु के समान है। किंतु उस वियोग से उभरकर तुम अपनी प्रजा की सेवा हेतु मुजसे जो समाधान प्राप्त करने आये हो उसमे में तुम्हारी अवश्य सहायता करूँगा। है राम, तुम्हारी इस समस्या का समाधान एक परम हितकारी और मोक्षदायी व्रत में छुपा हुआ है। वो व्रत है “मोहिनी एकादशी”(Mohini Ekadashi) का व्रत। है राम वैसे तुम्हारे नाम के स्मरण मात्र से सभी जीवों के दुःख पीड़ा दूर हो जाते है किन्तु जनहित के उपलक्ष में यह व्रत जो भी मनुष्य श्रद्धापूर्वक करेगा उसके जन्मजन्मांतर के पाप नष्ट हो जायेंगे और वो सभी मोह बंधन से छूट कर भगवान विष्णु के परम धाम को प्राप्त करेगा। इस व्रत से जुड़ी एक कथा में आज तुम्हे सुनाने जा रहा हूँ अतः तुम इसे ध्यानपूर्वक सुनना।
सरस्वती नदी के तट पर भद्रावती नामक एक नगरी हुआ करती थी। धृतिमान नामक एक परम प्रतापी चंद्रवंशी राजा उस नगरी पर राज करता था। वह नगरी पूर्णरूप से समृद्ध और धनी थी। उस नगरी में धन संपत्ति सेपरिपूर्ण और धर्मकाज में अपना जीवन व्यतीत करने वाला धनपाल नामक एक वैश्य भी रहा करता था। वो अत्यंत पुण्यवान और परम विष्णु भक्त था। उसने अपने जीवनकाल में अपने नगर और जनहित में अनेक भोजनालय, धर्मशाला, कुँए, सरोवर और प्याऊ की रचना की थी। मार्गो पर आम, निम, जामुन आदि के वृक्ष भी लगवाए थे।
घनपाल सुखी और समृद्ध होने के साथ साथ संतान सुख से भी परिपूर्ण थे। उन्हें पांच संताने थी , सुमना, सुब्दुद्धि, मेघावी, सुकृति और धृष्टबुद्धि। इन संतानों में पांचवी संतान धृष्टबुद्धि अत्यंत दुराचारी और महापापी थी। वह वेश्यागमन, दुष्ट मित्रों की संगति में रह कर जुआ खेलता और पर स्त्री के साथ भोग विलास भी करता तथा हर रोज मद्द और मांस का सेवन करता था। इसी प्रकार के कुकर्मों से वो अपने पुण्यात्मा पिता के धन का व्यय करता था।पुत्र के इस कुकर्मो से पिता घनपाल अत्यंत दुःखी थे। एक बार पुत्र धृष्टबुद्धि मदिरा पान कर देर रात्रि घर आया और अपने पूज्य पिता का अपमान करने लगा। क्रोध में आकर पिता घनपाल से उसे घर से निकाल बाहर किआ। घर से विमुख हो कर उसने अपने शरीर पर धारण किये हुए वस्त्रों और अलंकारों को बेच कर अपना जीवन निर्वाह किया। जब वो भी समाप्त हो गए तब उसके सभी संगी साथी और वैश्याए  उसे अकेला छोड़ उसका अपमान कर चले गये। अब बिना धन और भूख प्यास से वो अति व्याकुल हो उठा। कोई सहारा ना मिलने पर अपने जीवन निर्वाह हेतु वो चोरी करना सिख गया।
चोरी करते करते एक बार वह पकड़ा गया किन्तु नगर में उसके पिता के कारण एक पुण्यात्मा वैश्य का पुत्र जान उसे चेतावनी दे कर छोड़ दिया गया। किंतु अपने दुष्टकर्मो के कारण वो दुबारा फिर पकड़ा गया। इस बार नागजनो ने उसे राजा को सौंप दिया। राजा ने उसका अपराध जान उसे कठिन कारावास की सज़ा सुनाई। कारावास में उसे अत्यंत दुःख प्राप्त हुए और अंतः राजा ने उसे अपने नगर से बाहर निकाल दिया।
अब वह अपनी नगरी छोड़ वन में निर्वाह करने लगा। अपनी भूख प्यास मिटाने उसने वन के पशु पक्षियों का शिकार करना शुरू कर दिया। अब वह कुशल बहेलिया बन गया था और अपने धनुष और बाण से पशु और पक्षियों का आखेड़ कर उसे खाने लगा। एक दिन वह भूख प्यास से बेसुद्ध हो कर आखेड़ की तलाश में घूमता हुआ कौण्डिन्य ऋषि में आ पहुँचा। उस समय वैशाख माह के चलते ऋषि गंगा स्नान कर के वापस अपने आश्रम में आ रहे थे। रास्ते मे ऋषि के भीगे वस्त्र के छींटे धृष्टबुद्धि पर गिरे और गंगाजल के प्रभाव से उसे सुबुद्धि प्राप्त हुई।
वह उसी क्षण कौण्डिन्य ऋषि के आश्रम जा कर उनके श्री चरणों मे गिर गया और कहने लगा –
धृष्टबुद्धि – “है मुनिश्रेठ..!! मेने अपने जीवनकाल में अत्याधिक पाप कर्म किये हुए है। और उसके फल स्वरूप आज मेरी यह दशा है। मेरे पास नहीं धन है और नहीं पर्याप्त अन्न। इस अवस्था मे मेरा जीवन निर्वाह करना कठिन हो गया है। इन सभी दुखों के निवारण हेतु क्या आप मुजे कोई उपाय बता सकते है जिस में धन की आवश्यकता ना हो और में अपने पाप कर्मों का प्राश्चित कर सकू।”
ऋषि ने दीन स्वर सुन अपने उच्च स्वर में कहा –
ऋषि कौण्डिन्य – “है वत्स, में जानता हूँ तुमने अपनी क्षीण बुद्धि के कारण बहोत पाप कर्म किये है और उसके फ़ल स्वरूप आज तुम्हारी यह दशा है अतः इस दशा के निवारण हेतु तुम्हे भगवान विष्णु की अति प्रिय एकादशी तिथि का व्रत रखना होगा। वैशाख माह के शुक्लपक्ष में आनेवाली “मोहनी एकादशी”(Mohini Ekadashi) तुम्हारे पाप कर्मो से तुम्हें मुक्ति दिलाने हेतु अति उत्तम तिथि है। इस एकादशी का व्रत करने से मनुष्य के मेरु पर्वत समान पाप भी क्षणभर में नष्ट हो जाते है और मनुष्य को सद्द्गति प्राप्त होती है।”ऋषि कौण्डिन्य के वचन सुन धृष्टबुद्धि अत्यंत प्रसन्न हुआ और बिना विलंब किये आने वाली “मोहिनी एकादशी”(Mohini Ekadashi) पर व्रत रख कर पूरे विधि विधान से भगवान श्री हरि की पूजा अर्चना की और द्वादशी के दिन सूर्योदय के बाद भगवान श्री हरि की आराधना करते हुए उस व्रत का समापन किआ।है राम! इस व्रत की पूर्ति से उसके सारे पाप नष्ट हो गये और उसके अंत समय मे वह गरुड़ पर बैठ कर विष्णुलोक को गया। संसार मे इस व्रत को करने से मोह के सारे बंधन छूट जाते है। संसार मे इस व्रत केअतिरिक्त और कोई व्रत श्रेष्ठ नही है। इस व्रत के महात्मय को पढ़ने या श्रवण मात्र से एक हज़ार गौ दानों का पुण्य फ़ल प्राप्त होता है।

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