श्रीगणेश-पुराण
श्री गणेश पुराण नवम खण्ड का द्वितीय अध्याय ! नीचे दिए गए 4 शीर्षक के बारे में वर्णन किया गया है-
- नारदजी की शंका का समाधान कथन
- गणेशजी के बारहों महीने के व्रत-विधान
- चन्द्र-दर्शन का निषेध वर्णन
- गणेश-व्रत सम्बन्धी फलश्रुति कथन
नारदजी की शंका का समाधान कथन
नारदजी बोले- 'हे महर्षे ! आज आपने गणेश-पूजन के विधान में शिव-शिवा के पूजन का निर्देश किया है, वह क्यों करना चाहिए ? यह बात मुझे स्पष्ट बताने की कृपा करें।' महर्षि ने बताया- 'देवर्षे ! शिव-शिवा गणेशजी के माता-पिता हैं। भला पुत्र की पूजा के साथ उनकी पूजा क्यों नहीं होनी चाहिए ? अनेक पूजनों में पंचायतन पूजन का विधान है। पहले इष्टदेव का, फिर अग्नि, फिर निर्ऋति का, फिर वागीश का क्रमशः पूजन करें। पंचायतन-पूजन में मध्य में भगवान् विष्णु रहें तो क्रमशः पूर्व की ओर से गणपति, सूर्य, अम्बिका और भगवान् आशुतोष की स्थापना करनी चाहिए। इसी प्रकार सूर्य, अम्बिका, शंकर आदि देवों का पंचायतन जिस प्रकार हो, उसी का क्रमशः पूजन करे । गणेश पूजन की प्रधानता वाले पंचायतन में गणेशजी का पूजन करते हुए उनकी प्रतिमा को मध्य में स्थापित करे । इस स्थिति में पूर्व में शंकर और फिर क्रमशः देवी, सूर्य और विष्णु का पूजन करना चाहिए। हे नारदजी ! कुछ अनुष्ठानों में मातृन्यास का भी विधान है। इसे करने में वैष्णव और शैव मातृकान्यास के पश्चात् शिवशक्ति का ध्यान करते हुए विघ्नराज गणेश्वर का न्यास करना चाहिए। इसका विधान इस प्रकार है-प्रारम्भ में मातृका स्थान में गणेश बीज लगाने के पश्चात् एक-एक मातृवर्ण ले और अन्त में चतुर्थी विभक्ति के साथ नमः पद जोड़े। तथा- 'गं अं विघ्नेश ह्रींभ्यां नमः ललाटे। गं आं विघ्नराज श्रीभ्यां नमः मुखवृत्ते ।
Shri Ganesh Puran | Ganesh Vrat Sambandhit Phalashruti Kathan |
उक्त मन्त्र में ह्रीं के साथ विघ्नेश का, श्री के साथ विघ्नराज का न्यास करना चाहिए। हे मुने ! अब आपको इससे आगे का क्रम बताता हूँ-पुष्टि-विनायक, शान्ति-शिवोत्तम, स्वस्ति-विघ्नकृत्, सरस्वती-विघ्नहर्त्ता, स्वाहा-गणनाथ, सुमेधा एकदन्त, कान्ति-द्विदन्त, कामिनी-गजमुख, मोहिनी-निरञ्जन, नटी-कपर्दी, पार्वती-दीर्घजिह्व, ज्वालिनी-शंकुकर्ण, नन्दा-वृषभध्वज, सुरेशी गणनायक, कामरूपिणी-गजेन्द्र, उमा-शूर्पकर्ण, तेजोवती-वीरोचन, सती-लम्बोदर, विघ्नेशी-महानन्द, सुरूपधी-चतुर्मुख, कामदा-सदाशिव, पदजिह्व-आमोद, भूति-दुर्मुख, भौतिकी-सुमुख, सिता- प्रमोद, रया-एकपाद-महिषी-द्विजिह्न, जंभिनी-शूर, विकर्ण-वीर, भृकुटी षण्मुख, लज्जा वरद, दीर्घघोषा वामदेवेश, धनुर्धरी-वक्रतुण्ड, यामिनी-द्विरण्ड, रात्रि-सेनानी, ग्रामणी-कामान्ध, शशिप्रभा-मत्तं, लोलनेत्रा-विमत्त, चंचला-मत्तवाह, दीप्ति-जटी, सुभगा-मुण्डी, दुर्भगा-खड्गी, शिवा वरेण्य, भगा-वृषकेतन, भगिनी-भक्तप्रिय, भोगिनी-गणेश, सुभगा-मेघनाद, कालरात्रि-व्यापी और कालिका-गणेश ।
इन गणेश मातृकाओं के गण ऋषि कहते हैं। इसका छन्द-निबूद गायत्री एवं देवता शक्ति सहित गणपति हैं। इसका बीज गां गीं गूं गौं गः इन छः स्वरों से युक्त है। इस प्रकार अंगन्यास करते हुए भगवान् श्री गणेश्वर का ध्यान निम्न प्रकार करना चाहिए-हस्तीन्द्राननमिन्द्रचूडमरुणच्छायं त्रिनेत्रं रसा-
दाश्लिष्टं प्रियया सपद्मकरया स्वाङ्कस्थया संततम् ।
बीजापूरगदाधनुस्त्रिशिखयुक्चक्राब्जपाशोत्पल-
व्रीह्यग्रस्वविषाणरत्नकलशान् हस्तैर्वहन्तं भजे ॥
श्रीगणेशवर का श्रेष्ठ गजेन्द्र के समान मुख है, उनके मस्तक में अर्द्धचन्द्र सुशोभित है तथा उनकी शरीर-कान्ति अरुण वर्ण की है। वे तीन नेत्र वाले प्रभु अपने अंक में स्थित पद्महस्ता प्रिया के द्वारा प्रेमपूर्वक आलिंगित हो रहे हैं। उनकी दस भुजाएँ हैं, जिनमें क्रमशः दाड़िम, गदा, धनुष, त्रिशूल, चक्र, पद्म, पाश, उत्पल, धान्यगुच्छक, स्वदन्त, रम्य कलश स्थित हैं। इस प्रकार श्रीगणेशजी का ध्यान करते हैं।
गणेशजी के बारहों महीने के व्रत-विधान
सूतजी बोले- 'हे शौनक ! महर्षि सनन्दन ने उक्त विधान संक्षेप में बता दिया और बोले- 'हे मुने ! तुम्हारी जिज्ञासा शान्त हो गई होगी। यदि और कुछ पूछना चाहो तो मैं बताने को प्रस्तुत हूँ।' इसपर नारदजी ने कहा- 'प्रभो ! अनेक विद्वान् गणेशजी के व्रत की बड़ी महिमा कहते हैं, इसलिए उसके सम्बन्ध में भी बताने की कृपा करें ।' ऋषि बोले- 'तुम धन्य हो नारदजी ! जो बार-बार भगवान् गणेश्वर से सम्बन्धित प्रश्न करते हो। यद्यपि तुम स्वयं सभी कुछ जानते हो, फिर भी अनजान के समान जो कुछ पूछते हो, वह सब लोक-कल्याणार्थ ही है, वह बताता हूँ। देवर्षे ! गणेशजी का व्रत प्रतिमास की चतुर्थी के दिन किया जाता है। प्रत्येक मास की चतुर्थी अपना विशेष महत्त्व रखती है। इसलिए उनमें किये गये व्रतों के फल भी भिन्न-भिन्न होते हैं। प्रथम मैं उन सबके फलों का वृत्तान्त ही पृथक् रूप से बताता हूँ, सुनो !
चैत्र मास की चतुर्थी में भगवान् वासुदेव स्वरूप गणेशजी का व्रत किया जाता है। उस दिन श्रद्धानुसार षोड़शोपचार से अथवा पंचोपचार से उनका पूजन करे और ब्राह्मणों को श्रद्धानुसार दक्षिणा दे। इस व्रत के फलस्वरूप पूजनकर्ता मनुष्यों को विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। यह व्रत भोग और मोक्ष दोनों का ही देने वाला है। वैशाख मास की चतुर्थी को भगवान् संकर्षण गणेश का व्रत करना चाहिए। उस दिन भक्तिभावपूर्वक उनका पूजन करे और ब्राह्मणों को शंख दान दे। इस व्रत के फलस्वरूप मनुष्य को भगवान् संकर्षण के श्रेष्ठ लोक की प्राप्ति होती है। ज्येष्ठ मास की चतुर्थी में प्रद्युम्न रूपी गणेश्वर के व्रत का विधान है। इस दिन उन भगवान् का अनन्य भाव से पूजन करना चाहिए। पूजन के पश्चात् ब्राह्मणों को श्रेष्ठ, मीठे सुस्वादु फलों का दान करे। इसके फलस्वरूप पूजक को स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। यह व्रत स्त्री-पुरुष सभी कर सकते हैं, किन्तु केवल स्त्रियों के लिए एक विशेष व्रत और है, जो ज्येष्ठ मास की चतुर्थी में ही किया जाता है। इसके फलस्वरूप वे पार्वतीजी के लोक को गमन करती हैं। इसे 'सतीव्रत' कहते हैं।
आषाढ़ मास की चतुर्थी में अनिरुद्धस्वरूप गणपति का व्रत किया जाता है। इसमें भगवान् का पूजन कर संन्यासियों को कमण्डलु दान करना चाहिए । यह समस्त संन्यासियों की मनुष्यों की समस्त कामनाएँ पूर्ण करनेवाला है।
आषाढ़ी चतुर्थी का ही एक पुत्रदायक गणेश-व्रत भी है। हे नारद ! यह रथन्तर कल्प के प्रथम दिवस किया गया था। उस दिन श्रद्धा-भक्ति सहित गणेशजी का विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए। उसके फलस्वरूप दुर्लभ पुत्र-रत्न की प्राप्ति होती है। श्रावण मास की चतुर्थी में चन्द्रोदय होने पर गणेशजी को अर्घ्य दे और भक्तिपूर्वक उनके रूप का ध्यान करे। फिर विधिपूर्वक षोड़शोपचार पूजन कर भोग में स्वादिष्ट एवं मिष्ठ मोदक भेंट करे। फिर मोदक का ही भक्षण कर रात्रि में गणेशजी का पुनः पूजन करें। इस व्रत के प्रभाव से समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है।
भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी में बहुला गौ रूपी श्रीगणेशजी का षोड़शोपचार से पूजन करे और ब्राह्मणों को शक्तिभर दक्षिणा दे। यह व्रत पाँच वर्ष, दस वर्ष, सोलह वर्ष, निरन्तर करना चाहिए। अन्त में व्रत का उद्यापन करे जिसमें दुधारू गाय का दान करे। इस व्रत के प्रभाव से व्रतकर्त्ता को भगवान् श्रीकृष्ण के गोलोकधाम की प्राप्ति होती है। भाद्रपद में ही एक अन्य व्रत भी किया जाता है, जिसे 'सिद्धिविनायक- व्रत' कहते हैं। भाद्रपद के शुक्लपक्ष की चतुर्थी में इसे करे। प्रारम्भ में सिद्धिविनायक का ध्यान कर उनके इक्कीस नामों का उच्चारण करें। प्रत्येक नाम का उच्चारण करते समय एक प्रकार के वृक्ष की पत्ती समर्पित करे ।' वस्तुतः इक्कीस प्रकार वृक्षों की पत्तियाँ पहले ही एक कर लेनी चाहिए और क्रमानुसार नाम ले लेकर चढ़ाना चाहिए। यथा-- ॐ सुमुखाय नमः का उच्चारण करके शमी पत्र चढ़ावे,
- ॐ गणाधीशाय नमः' कहकर माकापत्र चढ़ावे,
- ॐ उमापुत्राय नमः' कहकर बिल्वपत्र,
- ॐ गणमुखाय नमः' कहकर दूर्वादल,
- ॐ लम्बोदराय नमः' कहकर बेरीपत्र,
- ॐ हरसूनवे नमः' कहकर धत्तूरफल,
- ॐ शूर्पकर्णाय नमः' कहकर तुलसीपत्र,
- ॐ वक्रतुण्डाय नमः' कहकर वरवटी पत्र,
- ॐ गुहाग्रजाय नमः' कहकर आघाडापत्र,
- ॐ एकदन्ताय नमः' कहकर रिंगाणीपत्र,
- ॐ हेरम्बाय नमः' कहकर पलाशपत्र,
- ॐ चतुर्हात्रे नमः' कहकर दालचीनी,
- ॐ सर्वेश्वराय नमः' कहकर अगत्स्य-पत्र,
- ॐ विकटाय नमः' कहकर कन्हेरीपत्र,
- ॐ इभतुण्डाय नमः' कहकर पत्थर पुष्प,
- ॐ विनायकाय नमः' कहकर रुई का पत्र,
- ॐ कपिलाय नमः' कहकर अर्जुनपत्र,
- ॐ कटवे नमः' कहकर देवदारुपत्र,
- ॐ भालचन्द्राय नमः' कहकर मरुवा,
- ॐ सुराग्रजाय नमः' कहकर गान्धारी पत्र,
- ॐ सिद्धिविनायकाय नमः' कहकर केतकी पत्र चढ़ावे ।
हे देवर्षे ! श्रीगणेश्वर के लिए उनके उक्त नामों के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार के पत्र-पुष्प समर्पित करने के पश्चात् दूर्वा, गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि के द्वारा उन भगवान् का पूजन करना चाहिए। फिर उन्हें पाँच, दस या अधिक मोदकों का नैवेद्य समर्पित कर आचमन करावे, ताम्बूल अर्पित करे तथा पुष्पांजलि, प्रणाम, प्रार्थना, प्रदक्षिणा आदि के साथ विसर्जन करना चाहिए। अन्त में समस्त सामग्री सहित गणपति प्रतिमा भी ब्राह्मण को दे दें। साथ ही, शक्त्यनुसार दान-दक्षिणा भी दे। गणपति की प्रतिमा हो तो अत्युत्तम, अन्यथा अन्य किसी सौम्य धातु की बनवानी चाहिए।
चन्द्र-दर्शन का निषेध वर्णन
उक्त व्रत-पूजन प्रतिवर्ष एक दिन किया जाता है। उसे पाँच वर्ष तक तो करे ही, अधिक करे तो अधिक फल होता है। इस व्रत के फलस्वरूप उपासक को गणेशजी के स्वानन्द लोक की प्राप्ति होती है। यह गणेश- व्रत अत्यन्त प्रभावशाली है। किन्तु नारदजी! इस चतुर्थी में रात्रि समय चन्द्रमा का दर्शन न करे। क्योंकि उस दिन चन्द्र-दर्शन से मिथ्या अभियोग लग जाता है तथा अन्य अनिष्टों की भी सम्भावना रहती है। यदि भूल से चन्द्रमा का दर्शन हो जाये तो उसके दोष-निवारणार्थ भगवान् गणेश्वर का चिन्तन करे। निम्न श्लोक का पाठ चन्द्र-दर्शन के दोष-निवारण में बहुत महत्त्वपूर्ण है-
सिंहप्रसेनमधीत् सिंहो जाम्बवता हतः ।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ॥
हे नारदजी ! अब आश्विन मास की चतुर्थी के व्रत का फल कहता हूँ। उस दिन भगवान् कपिर्दीश विनायक का षोड़शोपचार से पूजन करे तो सर्वप्राप्ति कराता है। कार्तिक मास की चतुर्थी करका चतुर्थी या 'करवा चौथ' कहलाती है। यह व्रत प्रायः महिलाएँ करती हैं। उन्हें शुद्ध जल से स्नान कर नवीन वस्त्र धारण करने चाहिए । तदुपरान्त प्रसन्नचित्त से गणपति का पूजन करे और चौदह थालियों में स्वादिष्ट पकवान ब्राह्मणों को दे। हे मुने ! सामर्थ्य के अनुसार ही दान करना चाहिए। कम देने की शक्ति हो तो चौदह स्थानों पर कुछ दे। कुछ विद्वान् दस स्थानों पर देने का विधान बताते हैं। इस प्रकार का दान ब्राह्मणों को अथवा गुरुजनों को या बड़ी-बूढ़ी महिलाओं को भी दे सकते हैं। रात्रि में चन्द्रमा के दर्शन कर विधिपूर्वक अर्घ्य देने के पश्चात् स्वयं भोजन करे। यह व्रत प्रतिवर्ष बारह या सोलह वर्ष तक निरन्तर करना चाहिए। फिर उसका विधिवत् उद्यापन कार्य सम्पन्न करना उचित है। बाद में भी यदि पुनः आरम्भ करना चाहो तो कर सकते हैं।
मार्गशीर्ष मास की चतुर्थी 'वर व्रत' का आरम्भ किया जाता है। यह व्रत चार वर्ष तक निरन्तर करना चाहिए। इसमें प्रत्येक चतुर्थी को व्रत करने का विधान है। उन दिन प्रथम वर्ष श्रीगणेशजी का पूजन कर एक बार दिन में ही भोजन करे। दूसरे वर्ष दिन में भोजन न कर रात्रि में ही भोजन करना चाहिए। तीसरे वर्ष प्रत्येक चतुर्थी बिना माँगे, बिना प्रयास किये जो कुछ भी मिल जाये वही एक बार खा ले। चौथे वर्ष चतुर्थी में पूरे दिन-रात्रि उपवास करे। इस प्रकार चार वर्ष निरन्तर व्रत करने के पश्चात् व्रत-स्नान करने का विधान है।
महर्षि को मौन देखकर नारदजी ने पूछा- 'प्रभो! व्रत-स्नान की विधि भी बताने की कृपा कीजिये।' यह सुनकर महर्षि बोले- 'नारदजी ! वह भी कहता हूँ, सुनो ! यदि सामर्थ्य हो तो उस दिन के लिए गणेशजी की स्वर्ण प्रतिमा बनवावे । यदि यह सम्भव न हो तो किसी काष्ठादि पवित्र पट पर हरिद्रा अथवा चन्दन से गणपति की प्रतिमा आलेखन करे। फिर धरती को लेपकर उसपर चौक पूरें और कलश स्थापित करे। उस कलश में अक्षत और पुष्प डालकर उसे दो लाल वस्त्रों में ढककर गणेशजी की वह प्रतिमा स्थापित कर दे, तदुपरान्त गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप आदि के द्वारा विधिपूर्वक पूजन करके मोदकों का भोग लगाकर आचमन, ताम्बूल, पुष्पमाला आदि समर्पित करे ।
रात्रि के समय गायन, भजन, कीर्तन आदि करते हुए रात्रि में जागरण करे। फिर प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर शास्त्रोक्त विधि से सुगन्धित द्रव्यों के द्वारा हवन करना चाहिए। हे मुने ! गण, गणाधिप, ब्रह्मा, यम, वरुण, सोम, सूर्य, हुताशन, गन्धमादि और परमेष्ठी, इन सोलह नामों से आहुतियाँ देनी चाहिए। प्रत्येक नाम के प्रारम्भ में ओंकार और अन्त में चतुर्थी विभक्ति के साथ 'नमः' लगाकर प्रत्येक नाम से एक-एक आहुति दे । तदुपरान्त 'वक्रतुण्डाय हुम्' मन्त्र के साथ १०८ आहुतियाँ देकर शेष हव्य की पूर्णाहुति करे। फिर दिक्पालों को पूजन कर चौबीस ब्राह्मणों को केवल मोदक और खीर से भोजन कराकर दक्षिणा दे। यदि सामर्थ्य हो तो पुरोहित को बछड़े वाली दुग्धवती नीरोग गाय का दक्षिणा सहित दान करे।
गणेश-व्रत सम्बन्धी फलश्रुति कथन
नारदजी ! यह तो इस व्रत की कार्य-विधि हुई। इसके अनन्तर प्रसन्न- चित्त से अपने सब परिजनों के साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करे। गणपति का यह सर्वश्रेष्ठ व्रत माना गया है। इसके प्रभाव से उपासक मर्त्यलोक में सब प्रकार के सुखों को भोगता है और अन्त में विष्णुपद भी प्राप्त होकर गणपति जी की कृपा से अत्युच्च लोक को प्राप्त होता है।'
हे मुने ! अब तुम्हें पौष मास की चतुर्थी के विषय में कहता हूँ। इस दिन प्रसन्नचित्त से एवं परम भक्तिपूर्वक श्रीगणपति का पूजन कर ब्राह्मणों को मिष्ठान्न का भोजन कराकर शक्ति के अनुसार दक्षिणा दे। इस व्रत के प्रभाव से धन की प्राप्ति होती है।
माघ मास की चतुर्थी में किये जाने वाले व्रत को 'संकष्टीव्रत' कहते हैं। उस दिन उपवास करे और प्रातःकाल से सायंकाल तक गणेशजी का ध्यान करे। रात्रि में चन्द्रोदय होने पर गणेशजी की मूर्ति को प्रतिष्ठापित कर षोड़शोपचार से पूजन करे तथा नैवेद्य से मोदक प्रस्तुत करे । तदुपरान्त लाल चन्दन, कुश, दूर्वा, शमीपत्र, अक्षत, पुष्प, दही और जल को एक ताम्रपात्र में भरकर चन्द्रमा को अर्घ्य दे। उस समय निम्न मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए-
गगनार्णव माण्डव्य चन्द्रदाक्षायणीपते ।
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं गणेश प्रतिरूपक ॥
इस प्रकार चन्द्रमा को अर्घ्य देकर यथाशक्ति ब्राह्मण-भोजन करावे और अन्त में स्वयं भी भोजन करे। इस व्रत के प्रभाव से व्रतकर्त्ता को धन-धान्य, समृद्धि, पशु, वाहन आदि सुखों की प्राप्ति होती है।
माघ मास की चतुर्थी में जो व्रत किया जाता है, उसे 'गौरी-व्रत' कहते हैं। उस दिन गणों के सहित श्रीगौरी का पूजन किया जाता है। माता के पूजन के कारण भगवान् गणेश्वर भी प्रसन्न होते हैं। । यह व्रत भी प्रायः महिलाओं के लिए ही है। इसमें जगज्जननी गौरी की मूर्ति या प्रतीक स्थापित कर गन्ध, अक्षत, लाल पुष्प, लाल सूत्र, दीपक, अगरबत्ती, अदरक, पालक, गुड़, दूध, खीर, सेंधा नमक आदि से भक्तिभावपूर्वक पूजन करे। अन्त में माता की आरती करे। यह व्रत सौभाग्य-वृद्धि के लिए भी किया जाता है। इस तिथि से जो जप, तप, हवन, दान आदि जो कुछ सत्कार्य किया जाता है, वह भगवान् गणेश्वर के अनुग्रह से सहस्र गुणा हो जाता है।
अब फाल्गुन मास की चतुर्थी के व्रत के विषय में बताते हैं। इसे 'ढुण्डिराज-व्रत' कहते हैं। इस व्रत की भी बड़ी महिमा कही गई है। उस दिन भी बुण्ढिराज-गणेश की स्वर्ण प्रतिमा बनवाकर उसका पूजन करना अधिक श्रेयस्कर होता है। जो उपासक वित्त की असमर्थता के कारण स्वर्ण प्रतिमा नहीं बनवा सकते, वे अन्य शुभ धातु की अथवा मृत्तिका की मूर्त्ति का पूजन करे। विधि सहित विभिन्न उपचारों से पूजन के पश्चात् तिलों का दान एवं हवन करना चाहिए। इस व्रत के प्रभाव से सब प्रकार की सिद्धि होती है। नारदजी ने पूछा- 'हे महर्षे ! गणेशजी को कौन-सा वार अधिक प्रिय है ?' इसके उत्तर में सनन्दन ऋषि ने कहा- 'हे मुने ! यद्यपि समस्त वार ही शुभ हैं, जिस वार में भी गणेशजी का पूजन किया जाता है उसी वार में किया गया पूजन शुभ फलदायक होता है। भगवान् गणेश्वर काल के भी काल एवं अधिपति हैं इसलिए कोई भी काल उन्हें बाधित नहीं कर सकता। फिर भी हे देवर्षे ! मंगलवार या बुधवार अधिक हर्षदायक होता है। कुछ विद्वान् भक्त रविवार को अधिक शुभ मानते हैं। यदि रविवार या मंगलवार को चतुर्थी पड़ती हो तब तो क्या कहने ? उस दिन गणेश्वर के पूजन का बड़ा भारी महत्त्व है तथा उसके प्रभाव से विशेष सुख, समृद्धि और पुण्य की प्राप्ति होती है।' नारदजी ने पूछा- 'महामते ! एक वरद-चतुर्थी कहलाती है, उसका उपदेश भगवान् शंकर ने स्कन्द के लिए किया बताया जाता है, उसके विषय में बताने की कृपा करें ।'
सननन्दन बोले- 'देवर्षे ! आपने अच्छा प्रश्न किया। इसके विषय में तो मैं भूल ही गया था। वरद-चतुर्थी श्रावण मास के शुक्लपक्ष में ही आती है। भगवान् शंकर ने उसकी विधि का उपदेश करते हुए कहा था कि इस दिन गणेश्वर की प्रतिमा स्थापित कर उसका विधिपूर्वक षोड़शोपचार से पूजन करे। इसमें इक्कीस दूर्वांकुर समर्पित करे और मन्त्र-पुष्पांजलि के उच्चारणपूर्वक एक मास पर्यन्त उपवास करे ।'
एक मास के पश्चात् व्रत का उद्यापन कर मूर्ति का भी विसर्जन कर देना चाहिए। इस व्रत में गणेश के षडक्षरी मन्त्र के जप का भी विधान है। इस व्रत के प्रभाव से उपासक को समस्त अभीष्टों की सहज ही प्राप्ति हो जाती है। इस लोक में सब प्रकार के सुख भोग सुलभ हो जाते हैं तथा परलोक में आनन्द मिलता है। हे मुने ! भगवान् शंकर के उपदेशानुसार स्कन्द ने उक्त व्रत का अनुष्ठान करके ही भगवान् गणेश्वर को प्रसन्न किया और सिद्धि प्राप्त कर तारकासुर नामक महादैत्य का संहार किया था। हे देवर्षे ! गणपति के व्रतों की ऐसी ही अनुपम महिमा है। भक्तिभाव-पूर्वक जो भी उपासक इन विघ्नराज को प्रसन्न कर लेता है वही समस्त कामनाओं को प्राप्त करके अन्त में उच्च लोकों में परमानन्द की प्राप्ति कर लेता है।
॥ इति श्रीगणेश-पुराणं सम्पूर्णम् ॥
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