मासोपवास व्रत की विधि और महिमा,Maasopavaas Vrat Kee Vidhi Aur Mahima

मासो पवास व्रत की विधि और महिमा

श्रीसनकजी कहते हैं- नारदजी ! अब मैं मासोपवास नामक दूसरे श्रेष्ठ व्रतका वर्णन करूंगा; एकाग्रचित्त होकर सुनिये। वह सब पापोंको हर लेनेवाला, पवित्र तथा सब लोकों का उपकार करने वाला है। विप्रवर! आषाढ़, श्रावण, भादों अथवा आश्विन मासमें इस व्रतको करना चाहिये। इनमेंसे किसी एक मासके शुक्ल पक्षमें जितेन्द्रिय पुरुष पञ्चगव्य पीये और भगवान् विष्णुके समीप शयन करे। तदनन्तर प्रातःकाल उठकर नित्यकर्म समाप्त करनेके पश्चात् मन और इन्द्रियोंको वशमें करके क्रोधरहित हो, श्रद्धापूर्वक भगवान् विष्णुकी पूजा करे। विद्वानोंके साथ भगवान् विष्णुका यथोचित पूजन करके स्वस्तिवाचनपूर्वक यह संकल्प करे-

मासमेकं निराहारो ह्यद्यप्रभृति केशव।
मासान्ते पारणं कुर्वे देवदेव तवाज्ञया ॥
तपोरूप नमस्तुभ्यं तपसां फलदायक।
ममाभीष्टफलं देहि सर्वविघ्नान् निवारय ॥

(ना० पूर्व० २२। ६-७) 'देवदेव ! केशव ! आजसे एक मासतक मैं निराहार रहकर मासके अन्तमें आपकी आज्ञासे पारण करूँगा। प्रभो! आप तपस्यारूप हैं और तपस्याके फल देनेवाले हैं। आपको नमस्कार है। आप मुझे अभीष्ट फल दें और मेरे सम्पूर्ण विघ्नोंका निवारण करें।' इस प्रकार भगवान् विष्णुको शुभ मासव्रत समर्पण करके उस दिनसे लेकर महीनेके अन्ततक भगवान् विष्णुके मन्दिरमें निवास करे और प्रतिदिन पञ्चामृतकी विधिसे भगवानको स्रान करावे। उस महीनेमें निरन्तर भगवान्के मन्दिरमें दीप जलावे। नित्यप्रति अपामार्ग (ऊँगा- चिरचिरा)- की दातुन करे और भगवान् नारायणके चिन्तनमें रत हो विधिपूर्वक स्नान करे। तदनन्तर पहलेकी भाँति संयमपूर्वक भगवान् विष्णुको स्नान करावे और उनकी पूजा करे। इस प्रकार मासोपवास पूरा होनेपर भगवत्पूजनपूर्वक यथाशक्ति ब्राह्मणोंको भोजन करावे और भक्तिपूर्वक उन्हें दक्षिणा दे। फिर स्वयं भी इन्द्रियोंको वशमें करके बन्धुजनोंके साथ भोजन करे। इस प्रकार व्रती पुरुष तेरह बार मासोपवास अर्थात् प्रतिवर्ष एक मासोपवास-व्रत करता हुआ तेरह वर्षतक व्रत करे। उसके अन्तमें वेदवेत्ता ब्राह्मणको दक्षिणासहित गोदान करे। बारह ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक भोजन करावे और अपनी शक्तिके अनुसार उन्हें वस्त्र, आभूषण तथा दक्षिणा दे। इस प्रकार जो मनुष्य इन्द्रियसंयमपूर्वक तेरह पराक पूर्ण कर लेता है, वह परमानन्द पदको प्राप्त होता है, जहाँ जाकर कोई शोक नहीं करता। मासोपवास-व्रतमें लगे हुए, गङ्गास्नानमें तत्पर तथा धर्ममार्गका उपदेश करनेवाले मनुष्य निस्संदेह मुक्त ही हैं। विधवा स्त्रियों, संन्यासियों, ब्रह्मचारियों और विशेषतः वानप्रस्थियोंको यह मासोपवास व्रत करना चाहिये। स्त्री हो या पुरुष, इस परम दुर्लभ व्रतका अनुष्ठान करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है, जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है। गृहस्थ हो या वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी हो या संन्यासी तथा मूर्ख हो या पण्डित- इस प्रसंगको सुनकर कल्याणका भागी होता है। जो भगवान् नारायणकी शरण होकर इस पुण्यमय व्रतका वर्णन सुनता अथवा पढ़ता है, वह पापोंसे मुक्त हो जाता है।

हरिपञ्चक-व्रत की विधि और माहात्म्य

श्री सनकजी कहते हैं- नारदजी! अब मैं दूसरे व्रतका यथार्थ रूप से वर्णन करता हूँ, सुनिये। यह व्रत हरिपञ्चक नामसे प्रसिद्ध है और सम्पूर्ण लोकों में दुर्लभ है। मुनिश्रेष्ठ ! स्त्रियों तथा पुरुषोंके सम्पूर्ण दुःखोंका इससे निवारण हो जाता है तथा यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला एवं सम्पूर्ण मनोरथों और समस्त व्रतोंके फलको देनेवाला है। मार्गशीर्ष मासके शुक्लपक्षकी दशमी तिथिको मनुष्य अपने मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए शौच, दन्तधावन और स्नान करके शास्त्र विहित नित्य कर्म करे। फिर भलीभाँति देवपूजन तथा पञ्च महायज्ञोंका अनुष्ठान करके उस दिन नियमपूर्वक रहकर केवल एक समय भोजन करे। मुनीश्वर! दूसरे दिन एकादशीको प्रातः काल उठकर स्नान और नित्यकर्मसे निवृत्त होकर अपने घरपर भगवान् विष्णुकी पूजा करे। पञ्चामृतकी विधिसे देवदेवेश्वर श्री हरि को स्नान करावे। तत्पश्चात् गन्ध, पुष्प आदिसे तथा धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल और परिक्रमाद्वारा उत्तम भक्तिभावके साथ क्रमशः भगवान्‌की अर्चना करे। देवदेवेश्वर भगवान्‌की भलीभाँति पूजा करके इस मन्त्रका उच्चारण करे-

नमस्ते ज्ञानरूपाय ज्ञानदाय नमोऽस्तु ते ॥ 
नमस्ते सर्वरूपाय सर्वसिद्धिप्रदायिने।

'प्रभो! आप ज्ञानस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। आप ज्ञानदाता हैं, आपको नमस्कार है। आप सर्वरूप तथा सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाले हैं, आपको नमस्कार है।' इस प्रकार सर्वव्यापी देवेश्वर भगवान् जनार्दनको प्रणाम करके आगे बताये जानेवाले मन्त्रके द्वारा अपना उपवास- व्रत भगवान्‌को समर्पित करे- 

पञ्चरात्रं निराहारो ह्यद्यप्रभृति केशव ॥ 
त्वदाज्ञया जगत्स्वामिन् ममाभीष्टप्रदो भव ।

'सम्पूर्ण जगत्के स्वामी केशव ! आपकी आज्ञासे मैं आजसे पाँच राततक निराहार रहूँगा। आप मुझे मेरी अभीष्ट वस्तु प्रदान करें।' इस प्रकार भगवान्‌को उपवास समर्पित करके जितेन्द्रिय पुरुष रातमें जागरण करे। मुने ! एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमाको इन्द्रियसंयम एवं उपवासपूर्वक इसी प्रकार भगवान् विष्णुका पूजन करना चाहिये। विप्रवर! एकादशी तथा पूर्णिमाकी रात्रिमें ही जागरण करना चाहिये। पञ्चामृत आदि सामग्रियोंसे की जानेवाली पूजा तो पाँचों दिन समानरूपसे आवश्यक है; परंतु पूर्णिमाके दिन यथाशक्ति दूधके द्वारा भगवान् विष्णुको स्नान कराना चाहिये। साथ ही तिलका होम और दान भी करना चाहिये। तत्पश्चात् छठा दिन आनेपर अपना आश्रमोचित कर्म करके पञ्चगव्य पीकर विधिपूर्वक श्रीहरिकी पूजा करे। यदि अपने पास धन हो तो ब्राह्मणोंको बेरोक-टोक भोजन करावे। तदनन्तर भाई-बन्धुओंके साथ स्वयं भी मौन होकर भोजन करे। नारदजी! इस प्रकार पौषसे लेकर कार्तिकतकके महीनोंमें भी शुक्लपक्षमें मनुष्य पूर्वोक्त विधिसे इस व्रतको करे। इस प्रकार इस पापनाशक व्रतको एक वर्षतक करे। फिर मार्गशीर्ष मास आनेपर व्रती पुरुष उसका उद्यापन करे। ब्रह्मन् ! एकादशीको पहलेकी ही भाँति निराहार रहना चाहिये और द्वादशीको एकाग्रचित्त हो पञ्चगव्य पीना चाहिये। फिर गन्ध, पुष्प आदि सामग्रियोंसे देवदेव जनार्दनकी भलीभाँति पूजा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मणको भेंट दे। मुनीश्वर ! मधु और घृतयुक्त खीर, फल, सुगन्धित जलसे भरा और वस्त्रसे ढका हुआ पञ्चरत्न और दक्षिणासहित कलश अध्यात्मतत्त्वके ज्ञाता ब्राह्मणको दान करे। (उस समय निम्नाङ्कितरूपसे प्रार्थना करे-)

सर्वात्मन् सर्वभूतेश सर्वव्यापिन् सनातन ।
परमान्नप्रदानेन सुप्रीतो भव माधव ॥

'सबके आत्मा, सम्पूर्ण भूतोंक स्वामी, सर्वव्यापी, सनातन माधव ! आप इस उत्तम अन्नके दानसे अत्यन्त प्रसन्न हों।' इस मन्त्रसे खीर दान करके यथाशक्ति ब्राह्मण भोजन करावे और स्वयं भी मौन होकर भाई-बन्धुओंके साथ भोजन करे। जो इस हरिपञ्चक नामक व्रतका पालन करता है, उसका ब्रह्मलोक अर्थात् परमात्माके परम धामसे कभी पुनरागमन नहीं होता। उत्तम मोक्षकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको यह व्रत अवश्य करना चाहिये। ब्रह्मन् ! यह व्रत सम्पूर्ण पापरूपी दुर्गम वनको जलानेके लिये दावानलके समान है। जो मानव भगवान् नारायणके चिन्तनमें तत्पर हो भक्तिपूर्वक इस प्रसंगको सुनता है, वह महाघोर पातकोंसे मुक्त हो जाता है।

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