श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे तथा पाँचवें अध्याय का महत्त्व,Shreemadbhagavadgeeta Ke Chauthe Tatha Paanchaven Adhyaay Ka Mahattv
श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे तथा पाँचवें अध्याय का महत्त्व
श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय का महत्त्व
श्रीभगवान् कहते हैं- प्रिये! अब मैं चौथे अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, सुनो। भागीरथीके तटपर वाराणसी (बनारस) नामकी एक पुरी है। वहाँ विश्वनाथ जी के मन्दिर में भरत नाम के एक योगनिष्ठ महात्मा रहते थे, जो प्रतिदिन आत्म चिन्तन में तत्पर हो आदर पूर्वक गीताके चतुर्थ अध्याय का पाठ किया करते थे। उसके अभ्यास से उनका अन्तःकरण निर्मल हो गया था। वे शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे कभी व्यथित नहीं होते थे। एक समय की बात है, वे तपोधन नगरकी सीमामें स्थित देवताओं का दर्शन करनेकी इच्छा से भ्रमण करते हुए नगरसे बाहर निकल गये। वहाँ बेरके दो वृक्ष थे। उन्हींकी जड़में वे विश्राम करने लगे। एक वृक्षकी जड़में उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दूसरे वृक्षके मूलमें उनका एक पैर टिका हुआ था। थोड़ी देर बाद जब वे तपस्वी चले गये, तब बेरके वे दोनों वृक्ष पाँच-ही-छः दिनोंके भीतर सूख गये। उनमें पत्ते और डालियाँ भी नहीं रह गयीं। तत्पश्चात् वे दोनों वृक्ष कहीं ब्राह्मणोंके पवित्र गृहमें दो कन्याओंके रूपमें उत्पन्न हुए। वे दोनों कन्याएँ जब बढ़कर सात वर्षकी हो गयीं, तब एक दिन उन्होंने दूर देशोंसे घूमकर आते हुए भरतमुनिको देखा। उन्हें देखते ही वे दोनों उनके चरणोंमें पड़ गयीं और मीठी वाणीमें बोलीं- 'मुने ! आपकी ही कृपासे हम दोनोंका उद्धार हुआ है। हमने बेरकी योनि त्यागकर मानव शरीर प्राप्त किया है।' उनके इस प्रकार कहनेपर मुनिको बड़ा विस्मय हुआ।
उन्होंने पूछा- 'पुत्रियो। मैंने कब और किस साधनसे तुम्हें मुक्त किया था ? साथ ही यह भी बताओ कि तुम्हारे बेरके वृक्ष होनेमें क्या कारण था ? क्योंकि इस विषयमें मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है।' तब वे कन्याएँ पहले उन्हें अपने बेर हो जानेका कारण बतलाती हुई बोलीं- "मुने ! गोदावरी नदीके तटपर छिन्नपाप नामका एक उत्तम तीर्थ है, जो मनुष्योंको पुण्य प्रदान करनेवाला है। वह पावनताकी चरम सीमापर पहुँचा हुआ है। उस तीर्थमें सत्यतपा नामक एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे। वे ग्रीष्म ऋतुमें प्रज्वलित अग्नियोंके बीचमें बैठते थे, वर्षाकालमें जलकी धाराओंसे उनके मस्तकके बाल सदा भींगे ही रहते थे तथा जाड़ेके समय जलमें निवास करनेके कारण उनके शरीरमें हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे। वे बाहर भीतरसे सदा शुद्ध रहते, समयपर तपस्या करते तथा मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए परम शान्ति प्राप्त करके आत्मामें ही रमण करते थे। वे अपनी विद्वत्ताके द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे, उसे सुननेके लिये साक्षात् ब्रह्माजी भी प्रतिदिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न करते थे। ब्रह्माजीके साथ उनका संकोच नहीं रह गया था; अतः उनके आनेपर भी वे सदा तपस्यामें मन रहते थे। परमात्माके ध्यानमें निरन्तर संलग्न रहनेके कारण उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी। सत्यतपाको जीवन्मुक्तके समान मानकर इन्द्रको अपने समृद्धिशाली पदके सम्बन्धमें कुछ भय हुआ।
तब उन्होंने उनकी तपस्यामें सैकड़ों विघ्न डालने आरम्भ किये। अप्सराओंके समुदायसे हम दोनोंको बुलाकर इन्द्रने इस प्रकार आदेश दिया- 'तुम दोनों उस तपस्वी की तपस्या में विघ्न डालो, जो मुझे इन्द्र पद से हटाकर स्वयं स्वर्ग का राज्य भोगना चाहता है। "इन्द्रका यह आदेश पाकर हम दोनों उनके सामने से चलकर गोदावरी के तीरपर, जहाँ वे मुनि तपस्या करते थे, आयीं। वहाँ मन्द एवं गम्भीर स्वरसे बजते हुए मृदङ्ग तथा मधुर वेणुनादके साथ हम दोनोंने अन्य अप्सराओं सहित मधुर स्वरमें गाना आरम्भ किया। इतना ही नहीं, उन योगी महात्माको वशमें करनेके लिये हमलोग स्वर, ताल और लयके साथ नृत्य भी करने लगीं। बीच-बीचमें जरा जरा-सा अंचल खिसकनेपर उन्हें हमारी छाती भी दीख जाती थी। हम दोनोंकी उन्मत्त गति कामभावका उद्दीपन करनेवाली थी, किन्तु उसने उन निर्विकार चित्तवाले महात्माके मनमें क्रोधका सञ्चार कर दिया। तब उन्होंने हाथसे जल छोड़कर हमें क्रोधपूर्वक शाप दिया- 'अरी! तुम दोनों गङ्गाजी के तटपर बेरके वृक्ष हो जाओ।' यह सुनकर हमलोगोंने बड़ी विनयके साथ कहा- 'महात्मन् ! हम दोनों पराधीन थीं; अतः हमारे द्वारा जो दुष्कर्म बन गया है
उसे आप क्षमा करें।' यों कहकर हमने मुनिको प्रसन्न कर लिया। तब उन पवित्र चित्तवाले मुनिने हमारे शापोद्धारकी अवधिं निश्चित करते हुए कहा- 'भरत मुनिके आनेतक ही तुमपर यह शाप लागू होगा। उसके बाद तुमलोगोंका मर्त्यलोकमें जन्म होगा और पूर्व जन्म की स्मृति बनी रहेगी।"मुने ! जिस समय हम दोनों बेर-वृक्षके रूपमें खड़ी थीं, उस समय आपने हमारे समीप आकर गीताके चौथे अध्यायका जप करते हुए हमारा उद्धार किया था; अतः हम आपको प्रणाम करती हैं। आपने केवल शापसे ही नहीं, इस भयानक संसारसे भी गीताके चतुर्थ अध्यायके पाठद्वारा हमें मुक्त कर दिया। श्रीभगवान् कहते हैं- उन दोनोंके इस प्रकार कहनेपर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजित हो विदा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये तथा वे कन्याएँ भी बड़े आदरके साथ प्रतिदिन गीताके चतुर्थ अध्यायका पाठ करने लगीं, जिससे उनका उद्धार हो गया।
श्रीमद्भगवद्गीता के पाँचवें अध्याय का माहात्म्य
श्रीभगवान् कहते हैं- देवि ! अब सब लोगों द्वारा सम्मानित पाँचवें अध्यायका माहात्म्य संक्षेपसे बतलाता हूँ, सावधान होकर सुनो। मद्रदेशमें पुरुकुत्सपुर नामक एक नगर है। उसमें पिङ्गल नामका एक ब्राह्मण रहता था। वह वेदपाठी ब्राह्मणोंके विख्यात वंशमें, जो सर्वथा निष्कलङ्क था, उत्पन्न हुआ था; किन्तु अपने कुलके लिये उचित वेद-शास्त्रोंके स्वाध्यायको छोड़कर ढोल आदि बजाते हुए उसने नाच-गानमें मन लगाया। गीत, नृत्य और बाजा बजानेकी कलामें परिश्रम करके फ्ङ्गिलने बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली और उसीसे उसका राजभवनमें भी प्रवेश हो गया। अब वह राजाके साथ रहने लगा और परायी स्त्रियोंको बुला-बुलाकर उनका उपभोग करने लगा। स्त्रियोंके सिवा और कहीं इसका मन नहीं लगता था। धीरे-धीरे अभिमान बढ़ जानेसे उच्छृङ्खल होकर वह एकान्तमें राजासे दूसरोंके दोष बतलाने लगा। पिङ्गलकी एक स्त्री थी, जिसका नाम था अरुणा। वह नीच कुलमें उत्पन्न हुई थी और कामी पुरुषोंके साथ विहार करनेकी इच्छासे सदा उन्हींकी खोजमें घूमा करती थी। उसने पतिको अपने मार्गका कण्टक समझकर एक दिन आधी रातमें घरके भीतर ही उसका सिर काटकर मार डाला और उसकी लाशको जमीनमें गाड़ दिया। इस प्रकार प्राणोंसे वियुक्त होनेपर वह यमलोकमें पहुँचा और भीषण नरकोंका उपभोग करके निर्जन वनमें गिद्ध हुआ।
अरुणा भी भगन्दर रोगसे अपने सुन्दर शरीरको त्याग कर घोर नरक भोगनेके पश्चात् उसी वनमें शुकी हुई। एक दिन वह दाना चुगनेकी इच्छासे इधर-उधर फुदक रही थी
इतने में ही उस गिद्धने पूर्वजन्मके वैरका स्मरण करके उसे अपने तीखे नखोंसे फाड़ डाला। शुकी घायल होकर पानीसे भरी हुई मनुष्यकी खोपड़ीमें गिरी । गिद्ध पुनः उसकी ओर झपटा। इतनेमें ही जाल फैलाने- वाले बहेलियोंने उसे भी बाणोंका निशाना बनाया। उसकी पूर्वजन्मकी पत्नी शुकी उस खोपड़ीके जल में डूबकर प्राण त्याग चुकी थी। फिर वह क्रूर पक्षी भी उसीमें गिरकर डूब गया। तब यमराजके दूत उन दोनोंको यमराजके लोकमें ले गये। वहाँ अपने पूर्वकृत पाप- कर्मको याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे। तदनन्तर यमराजने जब उनके घृणित कर्मोंपर दृष्टिपात किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि मृत्युके समय अकस्मात् खोपड़ीके जलमें स्नान करनेसे इन दोनोंका पाप नष्ट हो चुका है। तब उन्होंने उन दोनोंको मनोवाञ्छित लोकमें जानेकी आज्ञा दी। यह सुनकर अपने पापको याद करते हुए वे दोनों बड़े विस्मय में पड़े और पास जाकर धर्म राजके चरणोंमें प्रणाम करके पूछने लगे- 'भगवन् ! हम दोनोंने पूर्वजन्ममें अत्यन्त घृणित पापका सञ्चय किया है। फिर हमें मनोवाञ्छित लोकोंमें भेजनेका क्या कारण है? बताइये।
यमराजने कहा- गङ्गाके किनारे वट नामक एक उत्तम ब्रह्मज्ञानी रहते थे। वे एकान्तसेवी, ममतारहित, शान्त, विरक्त और किसीसे भी द्वेष न रखनेवाले थे। प्रतिदिन गीताके पाँचवें अध्यायका जप करना उनका सदाका नियम था। पाँचवें अध्यायको श्रवण कर लेनेपर महापापी पुरुष भी सनातन ब्रह्मका ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उसी पुण्यके प्रभावसे शुद्धचित्त होकर उन्होंने अपने शरीरका परित्याग किया था। गीताके पाठसे जिनका शरीर निर्मल हो गया था, जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके थे, उन्हीं महात्माकी खोपड़ीका जल पाकर तुम दोनों पवित्र हो गये हो। अतः अब तुम दोनों मनोवाञ्छित लोकोंको जाओ; क्योंकि गीताके पाँचवें अध्यायके माहात्म्यसे तुम दोनों शुद्ध हो गये हो। श्री भगवान् कहते हैं- सबके प्रति समान भाव रखने वाले धर्म राज के द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर ये दोनों बहुत प्रसन्न हुए और विमान पर बैठ कर वैकुण्ठ- धाम को चले गये।
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