श्री राम के द्वारा शम्बूक का वध
पुलस्त्यजी बोले राजन् ! पूर्वकाल में स्वयं भगवान ने जब रघुवंश में अवतार लिया था तब वहाँ वे श्री राम नाम से विख्यात हुए। तब उन्होंने लद्ढामें जाकर रावणको मारा ओर देवताओंका कार्य किया था। इसके बाद जब वे वन से लोटकर पृथ्वीके राज्यसिंहासन पर स्थित हुए, उस समय उनके दरबार में [अगस्त्य आदि] बहुत-से महात्मा ऋषि उपस्थित हुए। महर्षि अगस्त्यजीकी आज्ञासे द्वारपालने तुरंत जाकर महाराजको ऋषियों के आगमन की सूचना दी । सूर्यके समान तेजस्वी महर्षियों को द्वारपर आया जान श्री राम चन्द्र जी ने द्वारपालसे कहा 'तुम शीघ्र ही उन्हें भीतर ले आओ ।' श्री राम की आज्ञासे द्वारपालने उन मुनियोंकों सुखपूर्वक महलके भीतर पहुँचा दिया। उन्हें आया देख रघुनाथजी हाथ जोड़कर खड़े हो गये और उनके चरणोंमें प्रणाम करके उन्होंने उन सबको आसनोंपर बिठाया।
तदनन्तर पुरोहित वसिष्ठजीने पाद्य, अर्धय ओर आचमनीय निवेदन करके उनका आतिथ्य-सत्कार किया। तत्पश्चात् श्री रामचन्द्र जी ने जब उनसे कुशल-समाचार पूछा, तब वे वेदवेत्ता महर्षि [महर्षि अगस्त्य को आगे करके] इस प्रकार बोले “महाबाहो ! आपके प्रतापसे सर्वत्र कुशल है। रघुनन्दन ! बड़े सौभाग्यकी बात है कि शत्रुदकका संहार करके लोटे हुए आपको हमलोग सकुशल देख रहे हैं। कुलघाती, पापी एवं दुरात्मा रावणने आपकी पल्लीको हर लिया था । वह उन््हींके तेजसे मारा गया। आपने उसे युद्धमें मार डाला। रघुसिंह ! आपने जैसा कर्म किया है, वैसा कर्म करनेवाला इस संसारमें दूसरा कोई नहीं है| राजेन्द्र । हम सब लोग यहाँ आपसे वार्तालाप करने के लिये आये हैं। इस समय आपका दर्शन करके हम पवित्र हो गये । आपके दर्शनसे हम वास्तवमें आज तपस्वी हुए हैं। आपने सबसे शत्रुता रखनेवाले रावण का वध करके हमारे आँसू पोंछे हैं ओर सब लोगोंको अभयदान दिया है। काकुत्स्थ ! आपके पराक्रमकी कोई थाह नहीं है। आपकी विजयसे वृद्धि हो रही है, यह बड़े आनन्दकी बात है । हमने आपका दर्शन और आपके साथ सम्भाषण कर लिया, अब हमलोग अपने-अपने आश्रमको जायेंगे। रघुनन्दन ! आप भविष्यमें कभी हमारे आश्रमपर भी आइयेगा ।' पुलस्त्यजी कहते हैंभीष्म ! ऐसा कहकर वे मुनि उसी समय अन्तर्धान हो गये। उनके चले जानेपर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजनी सोचा अहो !
मुनि अगस्त्यने मेरे सामने जो यह प्रस्ताव रखा है कि 'रघुनन्दन ! फिर कभी मेरे आश्रमपर भी आना' तब अवदय ही मुझे महर्षि अगस्त्यके यहाँ जाना चाहिये ओर देवताओंकी कोई गुप्त बात हो तो उसे सुनना चाहिये। अथवा यदि वे कोई दूसरा काम बतायें तो उसे भी करना चाहिये । ऐसा विचारकर महात्मा रघुनाथ जी पुनः प्रजा-पालनमें लग गये । एक दिन एक बूढ़ा ब्राह्मण, जो उसी प्रान्तका रहने वाला था, अपने मरे हुए पुत्रको लेकर राजद्वारपर आया ओर इस प्रकार कहने लगा बेटा ! मैंने पूर्वजन्ममें ऐसा कौन-सा पाप किया है, जिससे तुझ इकलोते पुत्रको आज मैं मौतके मुख में पड़ा देख रहा हूँ। निश्चय ही यह महाराज श्रीरामका ही दोष है, जिसके कारण तेरी मृत्यु [इतनी जल्दी] आ गयी। रघुनन्दन ! अब में भी स्रीसहित प्राण त्याग दूँगा। फिर आपको बालहत्या, ब्रह्महत्या ओर स्त्रीहत्या तीन पाप लगेंगे। रघुनाथजीने उस ब्राह्मणकी दुःख और शोकसे भरी सारी बात सुनी। फिर उसे चुप कराकर महर्षि वसिष्ठ जी से पूछा “गुरुदेव ! ऐसी अवस्थामें इस अवसरपर मुझे क्या करना चाहिये ? इस ब्राह्मणकी कही हुईं बात सुनकर मैं किस प्रकार अपने दोषका मार्जन करूँ कैसे इस बालकको जीवन-दान दूँ ? [इतनेमें ही देवर्षि नारद वहाँ आ पहुँचे।] वे वसिष्ठके सामने खड़े हो अन्य ऋषियोंके समीप महाराज श्री राम से बोले 'रघुनन्दन ! इस बालककी जिस प्रकार अकालमृत्यु हुई है, उसका कारण बताता हूँ; सुनिये।
पहले सत्ययुगमें सब ओर ब्राह्मणोंकी ही प्रधानता थी। कोई ब्राह्मणेतर पुरुष तपस्वी नहीं होता था। उस समय सभी अकालमृत्युसे रहित ओर चिरजीवी होते थे। फिर त्रेतायुग आनेपर ब्राह्मण ओर क्षत्रिय दोनोंकी प्रधानता हो जाती है दोनों ही तपमें प्रवत्त होते हैं द्वापरमें वैद्योंमें भी तपस्याका प्रचार हो जाता है। यह तीनों युगोंके धर्मकी विशेषता है इन तीनों युगोंमें शूद्रजातिका मनुष्य तपस्या नहीं कर सकता, केवल कलियुगमें शुद्रजातिको भी तपस्थाका अधिकार होगा। राजन्! इस समय आपके राज्यकी सीमापर एक खोटी बुद्धिवाला शाद्र अत्यन्त कठोर तपस्या कर रहा है। उसीके शास्त्रविरुद्ध आचरणके प्रभावसे इस बालककी मृत्यु हुई है। राजाके राज्य या नगरमें जो कोई भी अधर्म अथवा अनुचित कर्म करता है, उसके पापका चतुर्थाश राजाके हिस्सेमें आता है। अतः पुरुषश्रेष्ट ! आप अपने राज्यमें घूमिये और जहाँ कहीं भी पाप होता दिखायी दे, उसे रोकनेका प्रयल कीजिये। ऐसा करनेसे आपके धर्म, बल और आयुकोी वृद्धि होगी । साथ ही यह बालक भी जी उठेगा । नारदजी के इस कथनपर श्री रघुनाथ जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे अत्यन्त हर्ष में भरकर लक्ष्मण से बोले 'सौम्य ! जाकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण को सान्त्वना दो और उस बालकके शरीरको तेलसे भरी नावमें रखवा दो । जिस प्रकार भी उस निरपराध बालक के शरीर की रक्षा हो सके, वह उपाय करना चाहिये उत्तम लक्षणों से युक्त सुमित्राकुमार लक्ष्मणको इस प्रकार आदेश देकर भगवान् श्री राम ने पुष्पक विमानका स्मरण किया।
रघुनाथ जी का अभिप्राय जानकर इच्छानुसार चलनेवाला वह स्वर्णभूषित विमान एक ही मुहूर्त्त में उनके समीप आ पहुँचा और हाथ जोड़कर बोला महाराज आपका आज्ञाकारी यह दास सेवामें उपस्थित है ।' पुष्पककी सुन्दर उक्ति सुनकर महाराज श्रीराम महर्षि वसिष्ठको प्रणाम करके विमानपर आरूढ़ हुए और धनुष, भाथा एवं चमचमाता हुआ खड्ढ लेकर तथा लक्ष्मण ओर भरतको नगरका भार सौंप दक्षिण दिशाकी ओर चल दिये। [दण्डकारण्यके पास पहुँचनेपर] एक पर्वतके दक्षिण किनारे बहुत बड़ा तालाब दिखायी दिया। रघुनाथजीने देखा उस सरोवरके तटपर एक तपस्वी नीचा मुँह किये लटक रहा है और बड़ी कठोर तपस्या कर रहा है। भगवान् श्रीराम उस तपस्वीके पास जाकर बोले 'तापस ! मैं दशरथका पुत्र राम हूँ और कौतूहलवश तुमसे एक प्रश्न पूछता हूँ। मैं यह जानना चाहता हूँ, तुम किसलिये तपस्या करते हो, ठीक-ठीक बताओ तुम ब्राह्मण हो या दुर्जय क्षत्रिय ? तीसरे वर्णमें उत्पन्न वैद्य हो या छुद्र ? तपस्या सत्य स्वरूप ओर नित्य है। उसका उद्देश्य है स्वर्गादि उत्तम ल्लेकोंकी प्राप्ति। तप सात्तिक, राजस ओर तामस तीन प्रकारका होता है। ब्रह्माजीने जगत॒के उपकारके लिये तपस्याकी सृष्टि की है। [अतः परोपकारके उद्देशयसे किया हुआ तप 'सात्तिक' होता है;] क्षत्रियोचित तेजकी प्राप्तिके लिये किया जानेवाला भयड्डूर तप 'राजस' कहलाता है तथा जो दूसरोंका नाश करनेके लिये [अपने शरीरको अस्वाभाविक रूपसे कष्ट देते हुए] तपस्या की जाती है
वह “आसुर' (तामस) कही गयी है। तुम्हारा भाव आसुर जान पड़ता है; तथा मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुम द्विज नहीं हो ।' अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्री रघुनाथजी के उपर्युक्त वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ शूद्र उसी अवस्थामें बोला नपश्रेष्ठ ! आपका स्वागत है। रघुनन्दन ! चिरकालके बाद मुझे आपका दर्शन हुआ है। मैं आपके पुत्रके समान हूँ, आप मेरे लिये पिताके तुल्य हैं। क्योंकि राजा तो सभीके पिता होते हैं । महाराज ! आप हमारे पूजनीय हैं। हम आपके राज्यमें तपस्या करते हैं; उसमें आपका भी भाग है। विधाताने पहलेसे ही ऐसी व्यवस्था कर दी है । राजन् ! आप धन्य हैं, जिनके राज्यमें तपस्वीलोग इस प्रकार सिद्धिकी इच्छा रखते हैं। मैं शूद्रयोनिमें उत्पन्न हुआ हूँ और कठोर तपस्यामें लगा हूँ। पृथ्वीनाथ ! मैं झूठ नहीं बोलता; क्योंकि मुझे देवलोक प्राप्त करने की इच्छा है। का कुत्स्थ ! मेरा नाम शम्बूक है।'वह इस प्रकार बातें कर ही रहा था कि श्रीरधुनाथजीने म्यानसे चमचमाती हुई तलवार निकाली और उसका उज्ज्वल मस्तक धड़ से अलग कर दिया। उस शुद्रके मारे जानेपर इन्द्र ओर अग्नि आदि देवता 'साधु-साधु' कहकर बारम्बार श्रीरामचन्द्रजीकी प्रशंसा करने लगे। आकाझसे श्रीरामचन्द्रजेके ऊपर वायु देवताके छोड़े हुए दिव्य फूलोंकी सुगन्धभरी वृष्टि होने लगी। जिस क्षण यह शूद्र मारा गया, ठीक उसी समय वह बालक जी उठा।
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