वामन अवतार के वैभव का वर्णन
श्री महादेव जी कहते हैं- पार्वती! प्रह्लाद के विरोचन नामक पुत्र हुआ। विरोचनसे महाबाहु बलिका जन्म हुआ। बलि धर्मज्ञों में श्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, नित्य धर्मपरायण, पवित्र और श्रीहरिके प्रियतम भक्त थे। वे महान् बलवान् थे। उन्होंने इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं और मरुद्रणोंको जीतकर तीनों लोकोंको अपने अधीन कर लिया था। इस प्रकार वे समस्त त्रिलोकीका राज्य करते थे। उनके शासन कालमें पृथ्वी बिना जोते ही पके धान पैदा करती थी और खेतीमें बहुत अधिक अन्नकी उपज होती थी। सभी गौएँ पूरा दूध देतीं और सम्पूर्ण वृक्ष फल-फूलोंसे लदे रहते थे। सब मनुष्य पापोंसे दूर हो अपने-अपने धर्ममें लगे रहते, थे। किसीको किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं थी। सब लोग सदा भगवान् हृषीकेशकी पूजा किया करते थे। इस प्रकार दैत्यराज बलि धर्मपूर्वक राज्यका पालन करने लगे। इन्द्र आदि देवता दासभावसे उनकी सेवामें खड़े रहते थे। बलिको अपने बलका अभिमान था। वे तीनों लोकोंका ऐश्वर्य भोग रहे थे।
इधर महर्षि कश्यप अपने पुत्र इन्द्रको राज्यसे वश्चित देख उनके हितकी इच्छासे श्रीहरिको प्रसन्न करनेके लिये पत्नीसहित तपस्या करने लगे। धर्मात्मा कश्यपने अपनी भार्या अदितिके साथ पयोव्रतका अनुष्ठान किया और उसमें देवताओंके स्वामी भगवान् जनार्दनका पूजन किया। उसके बाद भी एक सहस्त्र वर्षांतक वे श्रीहरिकी आराधनामें संलग्न रहे। तब सनातन देवता भगवान् विष्णु भगवती लक्ष्मीके साथ उनके सामने प्रकट हुए। जगदीश्वर श्रीहरिको सामने देख द्विजश्रेष्ठ कश्यपका हृदय आनन्दमें मग्न हो गया। उन्होंने अदितिके साथ प्रणाम करके भगवान्की स्तुति की। तब भगवान् बोले- विप्रवर ! तुम्हारा कल्याण हो। तुमने भक्तिपूर्वक मेरी पूजा की है। इससे मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ। तुम कोई वर माँगो। मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँगा।
कश्यपजीने कहा- देवेश्वर ! दैत्यराज बलिने तीनों लोकोंको बलपूर्वक जीत लिया है। आप मेरे पुत्र होकर देवताओंका हित कीजिये। जिस किसी उपायसे भी मायापूर्वक बलिको परास्त करके मेरे पुत्र इन्द्रको त्रिलोकीका राज्य प्रदान कीजिये। कश्यपजीके ऐसा कहनेपर भगवान् विष्णुने 'तथास्तु' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की और देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे वहीं अन्तर्धान हो गये। इसी समय महात्मा कश्यपके संयोगसे देवी अदितिके गर्भमें भूतभावन भगवान्का शुभागमन हुआ। तदनन्तर एक हजार वर्ष बीतनेके बाद अदितिने वामनरूपधारी भगवान् विष्णुको जन्म दिया। वे ब्रह्मचारीका वेष धारण किये हुए थे। सम्पूर्ण वेदाङ्गोंमें उन्हींका तत्त्व दृष्टिगोचर होता है। वे मेखला, मृगचर्म और दण्ड आदि चिह्नोंसे उपलक्षित हो रहे थे।
इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता उनका दर्शन करके महर्षियोंके साथ उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान्ने प्रसन्न होकर उन श्रेष्ठ देवताओंसे कहा- 'देवगण ! बताइये, इस समय मुझे क्या करना है ?' देवता बोले- मधुसूदन । इस समय राजा बलिका यज्ञ हो रहा है। अतः ऐसे अवसरपर वह कुछ देनेसे इन्कार नहीं कर सकता। प्रभो! आप दैत्यराज से तीनों लोक माँगकर इन्द्रको देनेकी कृपा करें। देवताओंके ऐसा कहनेपर भगवान् वामन यज्ञ शालामें महर्षियोंके साथ बैठे हुए राजा बलिके पास आये। ब्रह्मचारीको आया देख दैत्यराज सहसा उठकर खड़े हो गये और मुसकराते हुए बोले- 'अभ्यागत सदा विष्णुका ही स्वरूप है। अतः आप साक्षात् विष्णु ही यहाँ पधारे हैं।' ऐसा कहकर उन्होंने ब्रह्मचारीको फूलोंके आसनपर बिठाकर उनका विधिपूर्वक पूजन किया और चरणोंमें गिरकर प्रणाम करके गद्गद वाणीमें कहा- 'विप्रवर ! आपका पूजन करके आज मैं धन्य और कृतार्थ हो गया। मेरा जीवन सफल है। कहिये मैं कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? द्विजश्रेष्ठ! आप जिस वस्तुको पानेके उद्देश्यसे मेरे पास पधारे हैं,
उसे शीघ्र बताइये। मैं अवश्य दूँगा।' वामनजी बोले - महाराज! मुझे तीन पग भूमि दे दीजिये; क्योंकि भूमिदान सब दानोंमें श्रेष्ठ है। जो भूमिका दान करता और जो उस दानको ग्रहण करता है, वे दोनों ही पुण्यात्मा हैं। वे दोनों अवश्य ही स्वर्गगामी होते हैं। अतः आप मुझे तीन पग भूमिका दान कीजिये। यह सुनकर राजा बलिने प्रसन्नतापूर्वक कहा- 'बहुत अच्छा ।' तत्पश्चात् उन्होंने विधिपूर्वक भूमिदानका विचार किया। दैत्यराजको ऐसा करते देख उनके पुरोहित शुक्राचार्यजी बोले- 'राजन् ! ये साक्षात् परमेश्वर विष्णु हैं। देवताओंकी प्रार्थनासे यहाँ पधारे हैं और तुम्हें चकमेमें डालकर सारी पृथ्वी हड़प लेना चाहते हैं। अतः इन महात्माको पृथ्वीका दान न देना। मेरे कहनेसे कोई और ही वस्तु इन्हें दान करो, भूमि न दो।' यह सुनकर राजा बलि हँस पड़े और धैर्यपूर्वक गुरुसे बोले- 'ब्रह्मन् ! मैंने सारा पुण्य भगवान् वासुदेवकी प्रसन्नताके ही लिये किया है। अतः यदि स्वयं विष्णु ही यहाँ पधारे हैं, तब तो आज मैं धन्य हो गया। उनके लिये तो आज मुझे यह परम सुखमय जीवनतक दे डालनेमें संकोच न होगा। अतः इन ब्राह्मणदेवताको आज मैं तीनों लोकोंका भी निश्चय ही दान कर दूँगा।'
ऐसा कहकर राजा बलिने बड़ी भक्ति के साथ ब्राह्मण के दोनों चरण पखारे और हाथमें जल लेकर विधिपूर्वक भूमिदानका संकल्प किया। दान दे, नमस्कार करके दक्षिणारूपसे धन दिया और प्रसन्न होकर कहा- 'ब्रह्मन् ! आज आपको भूमिदान देकर मैं अपनेको धन्य और कृतकृत्य मानता हूँ। आप अपने इच्छानुसार इस पृथ्वीको ग्रहण कीजिये।' तब भगवान् विष्णु ने दैत्य राज बलिसे कहा- 'राजन् ! मैं तुम्हारे सामने ही अब पृथ्वीको नापता हूँ।' ऐसा कहकर परमेश्वरने वामन ब्रह्मचारीका रूप त्याग दिया और विराट् रूप धारण करके इस पृथ्वीको ले लिया। समुद्र, पर्वत, द्वीप, देवता, असुर और मनुष्योंसहित इस पृथ्वीका विस्तार पचास कोटि योजन है। किन्तु उसे भगवान् मधुसूदनने एक ही पैरसे नाप लिया। फिर दैत्यराजसे कहा- 'राजन् ! अब क्या करूँ ?' भगवान्का वह विराट् रूप महान् तेजस्वी था और महात्मा ऋषियों तथा देवताओंके हितके लिये प्रकट हुआ था। में तथा ब्रह्माजी भी उसे नहीं देख सकते थे। भगवान्का वह पग सारी पृथ्वीको लाँधकर सौ योजनतक आगे बढ़ गया। उस समय सनातन भगवान्ने दैत्यराज बलिको दिव्यचक्षु प्रदान किया और उन्हें अपने स्वरूपका दर्शन कराया। भगवान्के विश्वरूपका दर्शन करके दैत्यराज बलिके हर्षकी सीमा न रही। उनके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये। उन्होंने भगवान्को नमस्कार करके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति की और प्रसन्नचित्तसे गद्गदवाणीमें कहा- 'परमेश्वर !
आपका दर्शन करके मैं धन्य और कृतकृत्य हो गया। आप इन तीनों ही लोकोंको ग्रहण कीजिये ।' तब सर्वेश्वर विष्णुने अपने द्वितीय पगको ऊपरकी ओर फैलाया। वह नक्षत्र, ग्रह और देवलोकको लाँधता हुआ ब्रह्मलोकके अन्ततक पहुँच गया; किन्तु फिर भी पूरा न पड़ा। उस समय पितामह ब्रह्माने देवाधिदेव भगवान्के चक्र-कमलादि चिह्नोंसे अङ्कित चरणको देख हर्षयुक्त चित्तसे अपनेको धन्य माना और अपने कमण्डलुके जलसे भक्तिपूर्वक उस चरणको धोया। श्रीविष्णुके प्रभावसे वह चरणोदक अक्षय हो गया। वह तीर्थ भूत निर्मल जल मेरुपर्वतके शिखरपर गिरा और जगत्को पवित्र करनेके लिये चारों दिशाओंमें बह चला। वे चारों धाराएँ क्रमशः सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्राके नामसे प्रसिद्ध हुई। मेरुके दक्षिण ओर जो धारा चली, उसका नाम अलकनन्दा हुआ।
वह तीन धाराओंमें विभक्त होनेके कारण त्रिपथगा और त्रिस्स्रोता कहलायी। वह लोकपावनी गङ्गा तीन नामोंसे प्रसिद्ध हुई। ऊपर- स्वर्गलोकमें मन्दाकिनी, नीचे पाताललोकमें भोगवती तथा मध्य अर्थात् मर्त्यलोकमें वेगवती गङ्गा कहलाने लगी। ये गङ्गा मनुष्योंको पवित्र करनेके लिये प्रकट हुई हैं। इनका स्वरूप कल्याणमय है। पार्वती ! जब गङ्गा मेरुपर्वतसे नीचे गिर रही थीं, उस समय मैंने अपनेको पवित्र करनेके लिये उन्हें मस्तकपर धारण कर लिया। जो श्रीविष्णुचरणोंसे निकली हुई गङ्गाका पावन जल अपने मस्तकपर धारण करेगा अथवा उनके जलका पान करेगा, वह निःसन्देह सम्पूर्ण जगत्का पूज्य होगा।
तदनन्तर राजा भगीरथ और महातपस्वी गौतमने तपस्या के द्वारा मेरी पूजा करके गङ्गाजी के लिये मुझसे याचना की। तब मैंने सम्पूर्ण विश्वका हित करने के लिये कल्याणमयी वैष्णवी गङ्गाका जल उन दोनों महानुभावों के लिये प्रसन्नता पूर्वक दान किया। महर्षि गौतम जिस गङ्गाको ले गये, वे गौतमी (गोदावरी) कही गयी हैं और राजा भगीरथने जिनको भूमिपर उतारा, वे भागीरथी गङ्गाके नाम से प्रसिद्ध हुई। यह मैंने प्रसङ्गवश तुमसे गङ्गाजीके प्रादुर्भावकी उत्तम कथा सुनायी है। तदनन्तर भक्तवत्सल भगवान् नारायणने दैत्यराज बलिको रसातलका उत्तम लोक प्रदान किया और उन्हें सब दानवों, नागों तथा जल-जन्तुओं का कल्पभर के लिये राजा बना दिया। इस प्रकार कश्यपनन्दन वामन का वेष धारण करके अविनाशी भगवान् विष्णु ने बलि से तीनों लोक लेकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक इन्द्रको दे दिया। तब देवता, गन्धर्व तथा परम तेजस्वी ऋषियोंने दिव्य स्तोत्रोंसे भगवान्का स्तवन और पूजन किया। तत्पश्चात् अपना विराट् रूप समेटकर भगवान् अच्युत वहीं अन्तर्धान हो गये। इस तरह प्रभावशाली श्रीविष्णुने इन्द्रकी रक्षा की और इन्द्रने उन की कृपा से तीनों लोकों का महान् ऐश्वर्य प्राप्त किया। शुभे! यह मैंने तुम से वामन अवतार के वैभव का वर्णन किया है।
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