दस महाविद्याओं के प्रादुर्भाव की कथा
काली-दस महाविद्याओंमें काली प्रथम हैं। कालिकापुराणमें कथा आती है कि एक बार देवताओंने हिमालयपर जाकर महामायाका स्तवन किया। इस स्थानपर मतङ्गमुनिका आश्रम था। स्तुतिसे प्रसन्न होकर भगवतीने देवताओंको दर्शन दिया और पूछा कि 'तुमलोग किसकी स्तुति कर रहे हो?' तत्काल उनके श्रीविग्रहसे काले पहाड़के समान वर्णवाली दिव्य महातेजस्विनीने प्रकट होकर स्वयं ही देवताओंकी ओरसे उत्तर दिया कि 'ये लोग मेरा ही स्तवन कर रहे हैं।' वे गाढ़े काजलके समान कृष्णा थीं, इसलिये उनका नाम 'काली' पड़ा। लगभग इसीसे मिलती-जुलती कथा 'श्रीदुर्गासप्तशती' में भी है। शुम्भ निशुम्भके उपद्रवसे व्यथित देवताओंने हिमालयपर देवीसूकसे देबीको बार-बार जब प्रणाम निवेदित किया, तब गौरी-देहसे कौशिकीका प्राकट्य हुआ और उनके अलग होते ही अम्बा पार्वतीका स्वरूप कृष्ण हो गया। वे ही 'काली' नामसे विख्यात हुई-
तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत् सापि पार्वती।
कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताम्रया ।।
वास्तवमें कालीको ही नीलरूपा होनेसे 'तारा' भी कहा गया है। वचनान्तरसे तारा नामका रहस्य यह भी है कि वे सर्वदा मोक्ष देनेवाली-तारनेवाली हैं, इसलिये तारा हैं। अनायास ही वे वाक् प्रदान करनेमें समर्थ हैं, इसलिये 'नीलसरस्वती' भी हैं। भयंकर विपत्तियोंसे रक्षणकी कृपा प्रदान करती हैं, इसलिये वे उग्रतारिणी या 'उग्रतारा' हैं। नारद-पाञ्चरात्रके अनुसार एक बार कालीके मनमें आया कि वे पुनः गौरी हो जायें। यह सोचकर वे अन्तर्धान हो गयीं। उसी समय नारदजी प्रकट हो गये। शिवजीने नारदजीसे उनका पता पूछा। नारदजीने उनसे सुमेरुके उत्तरमें देवीके प्रत्यक्ष उपस्थित होनेकी बात कही। शिवकी प्रेरणापर नारदजी वहाँ गये और उन्होंने उनसे शिवजीसे विवाहका प्रस्ताव रखा। देवी क्क्रुद्ध हो गर्मी और उनकी देहसे एक अन्य विग्रह षोडशी सुन्दरीका प्राकट्य हुआ और उससे छायाविग्रह त्रिपुरभैरवीका प्राकट्य हो गया। मार्कण्डेयपुराणमें देवीके लिये 'विद्या' और 'महाविद्या' दोनों शब्दोंका प्रयोग हुआ है।
ब्रह्माकी स्तुतिमें 'महाविद्या' तथा देवताओंकी स्तुतिमें 'लक्ष्मि लजे महाविद्ये' सम्बोधन आये हैं। 'अ' से लेकर 'क्ष' तक पचास मातृकाएँ आधारपीठ हैं, इनके भीतर स्थित शकियोंका साक्षात्कार शक्ति-उपासना है। शफिसे शक्तिमान्का अभेद-दर्शन, जीवभावका लोप और शिवभावका उदय किंवा पूर्ण शिवत्व-बोध शक्ति-उपासनाकी चरम उपलब्धि है। तारा-तारा और काली यद्यपि एक ही हैं, बृहनीलतन्त्रादि ग्रन्थोंमें उनके विशेष रूपकी चर्चा है। हयग्रीवका वध करनेके लिये देवीको नील-विग्रह प्राप्त हुआ। शव-रूप शिवपर प्रत्यालीद मुद्रामें भगवती आरूढ हैं और उनकी नीले रंगकी आकृति नीलकमलोंकी भाँति तीन नेत्र तथा हाथोंमें कैची, कपाल, कमल और खड्ग हैं। व्मानचर्मसे विभूषिता उन देवीके कण्ठमें मुण्डमाला है। वे उग्रतारा हैं, पर भक्तोंपर कृपा करनेके लिये उनकी तत्परता अमोष है। इस कारण वे महाकरुणामयी हैं।
छिन्नमस्ता 'छिन्नमस्ता' के प्रादुर्भावकी कथा इस प्रकार है-एक बार भगवती भवानी अपनी सहचरियों जया और विजयाके साथ मन्दाकिनीमें स्नान करनेके लिये गर्मी। वहाँ स्नान करनेपर क्षुधाग्रिसे पीड़ित होकर वे कृष्णवर्णकी हो गयीं। उस समय उनकी सहचरियोंने उनसे कुछ भोजन करनेके लिये माँगा। देवीने उनसे कुछ प्रतीक्षा करनेके लिये कहा। कुछ समय प्रतीक्षा करनेके बाद पुनः याचना करनेपर देवीने पुनः प्रतीक्षा करनेके लिये कहा। बादमें उन देवियोंने विनम्र स्वरमें कहा कि 'माँ तो शिशुओंको भूख लगनेपर तुरंत भोजन प्रदान करती है।' इस प्रकार उनके मधुर वचन सुनकर कृपामयीने अपने कराग्रसे अपना सिर काट दिया। कटा हुआ सिर देवीके बायें हाथमें आ गिरा और कबन्धसे तीन धाराएँ निकलीं। वे दो धाराओंको अपनी दोनों सहेलियोंकी ओर प्रवाहित करने लगीं, जिसे पीती हुई वे दोनों प्रसन्न होने लगीं और तीसरी धारा जो ऊपरकी ओर प्रवाहित थी, उसे वे स्वयं पान करने लगीं। तभीसे ये 'छिन्नमस्ता' कही जाने लगीं।
बगला-बगलाकी उत्पत्तिके विषयमें कथा आती है कि सत्ययुगमें सम्पूर्ण जगत्को नष्ट करनेवाला तूफान आया। प्राणियोंके जीयनपर संकट आया देखकर महाविष्णु चिन्तित हो गये और वे सौराष्ट्र देशमें हरिद्रा सरोवरके समीप जाकर भगवतीको प्रसन्न करनेके लिये तप करने लगे। श्रीविद्याने उस सरोवरसे निकलकर पीताम्बराके रूपमें उन्हें दर्शन दिया और बढ़ते हुए जल-वेग तथा विध्वंसकारी उत्पातका स्तम्भन किया। वास्तवमें दुष्ट वही है, जो जगत्के या धर्मके छन्दका अतिक्रमण करता है। बगला उसका किंवा नियन्त्रण करनेवाली महाशक्ति हैं। वे परमेश्वरकी सहायिका हैं और वाणी, विद्या तथा गतिको अनुशासित करती हैं। ब्रह्मास्त्र होनेका यही रहस्य है। 'ब्रह्माद्विषे शरवे हन्त वा उ' आदि वाक्योंमें बगलाशचि ही पर्यायरूपमें संकेतित हैं। वे सर्वसिद्धि देनेमें समर्थ और उपासकोंकी बाञ्छाकल्पतरु हैं। धूमावती - धूमावतीदेवीके विषयमें कथा आती है कि एक बार पार्वतीने महादेवजीसे अपनी क्षुधाका निवारण करनेका निवेदन किया। महादेवजी चुप रह गये। कई बार निवेदन करनेपर भी जब देवाधिदेवने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया, तब उन्होंने महादेवजीको ही निगल लिया। उनके शरीरसे धूमराशि निकली। तब शिवजीने शिवासे कहा कि 'आपकी मनोहर मूर्ति बगला अब 'धूमावती' या 'धूम्रा' कही जायगी।' यह धूमावती वृद्धास्वरूपा, डरावनी और भूख-प्याससे व्याकुल स्त्री- विग्रहवत् अत्यन्त शक्तिमयी है। अभिचार कर्मोंमें इनकी उपासनाका विधान है।
त्रिपुरसुन्दरी-महाशक्ति 'त्रिपुरा' त्रिपुर महादेवकी स्वरूपा-शक्ति हैं। कालिकापुराणके अनुसार शिवजीकी भार्या त्रिपुरा श्रीचक्रकी परम नायिका हैं। परम शिव इन्हींके सहयोगसे सूक्ष्म-से-सूक्ष्म और स्थूल-से-स्थूल रूपोंमें भासते हैं। त्रिपुरभैरवी महात्रिपुरसुन्दरीकी रथवाहिनी हैं, ऐसा उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार अन्य देवियोंके विषयमें पुराणोंमें यथास्थान कथा मिलती है। वास्तवमें काली, तारा, छिन्नमस्ता, बगलामुखी, मातङ्गी, घूमावती वे रूप और विग्रहमें कठोर तथा भुवनेश्वरी, षोडशी, कमला और भैरवी अपेक्षाकृत माधुर्यमयी रूपोंकी अधिष्ठात्री विधाएँ हैं। करुणा और भक्तानुग्रहाकाङ्क्षा तो सबमें समान हैं। दुष्टोंके दलन-हेतु एक ही महाशक्ति कभी रौद्र तो कभी सौम्य रूपोंमें विराजित होकर नाना प्रकारकी सिद्धियाँ प्रदान करती हैं। इच्छासे अधिक वितरण करनेमें समर्थ इन महाविद्याओंका स्वरूप अचिन्त्य और शब्दातीत है, पर भक्तों और साधकोंके लिये इनकी कृपाका कोष नित्य-निरन्तर खुला रहता है। महाविद्याओंकी उपासनाका पृथक् पृथक् वर्णन इस प्रकार है-
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दस महाविद्याएं, आदि शक्ति माता पार्वती के रूप मानी जाती हैं. ये दसों महाविद्याएं विभिन्न दिशाओं की अधिष्ठातृ शक्तियां हैं. इनके नाम इस प्रकार हैं:-
- माता काली
- माता तारा
- माता त्रिपुर सुंदरी (षोडशी
- माता देवी भुवनेश्वरी
- माता भैरवी
- माता छिन्नमस्ता
- माता धूमावती
- माता बगलामुखी
- माता मातंगी
- माता कमला
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