जानिए काशी के श्री विशालाक्षी शक्तिपीठ के बारे में,Know about Shri Vishalakshi Shaktipeeth of Kashi

काशी के श्री विशालाक्षी शक्तिपीठ

दक्षप्रजापति की सुपुत्री श्रीसतीजीके दिव्य अङ्गोंके गिरने से जिन ५१ शक्तिपीठों के आविर्भाव की जो कथा देवीपुराण आदि ग्रन्थोंमें मिलती है, उनमेंसे वाराणसीमें प्रादुर्भूत शक्तिपीठका नाम श्रीविशालाक्षी शक्तिपीठ है। तन्त्रचूड़ामणि में प्राप्त उपाख्यानमें कहा गया है कि भगवान् विष्णुके सुदर्शन चक्रसे कटकर श्रीसतीजीके विभिन्न अङ्गों जहाँ-वहाँ गिरे, वहाँ-वहाँ एक-एक शक्ति एवं एक-एक भैरव विराजमान हो गये। इसी आख्यानमें यह भी कहा गया है कि काशी में भगवतीसती की कर्ण-मणि गिरी थी, जिससे यहाँ भी एक शक्तिपीठका आविर्भाव हुआ। इस शक्तिपीठपर श्रीविशालाक्षीजी विराजमान हुईं। मत्स्यपुराणमें वर्णन आया है


कि पिता दक्षप्रजापतिसे अपमानित होकर जब देवी सतीने अपने शरीरसे प्रकट हुए तेजसे स्वयंको जलाना प्रारम्भ किया तो उस समय दक्षप्रजापतिने क्षमा माँगते हुए उनकी प्रार्थना करते हुए कहा-'देवि! आप इस जगत्‌की जननी तथा जगत्‌को सौभाग्य प्रदान करनेवाली हैं, आप मुझपर अनुग्रह करनेकी कामनासे ही मेरी पुत्री होकर अवतीर्ण हुई हैं। धर्मज्ञे। मद्यपि इस चराचर जगत्‌में आपकी ही सत्ता सर्वत्र व्याप्त है, फिर भी मुझे किन-किन स्थानोंमें जाकर आपका दर्शन करना चाहिये, बतानेकी कृपा करें।'

इसपर देवीने कहा दक्ष। यद्यपि भूतलपर समस्त प्राणियोंमें सब और मेरा ही दर्शन करना चाहिये; क्योंकि सभी पदार्थोंमें मेरी ही सत्ता विद्यमान है। फिर भी जिन-जिन स्थानोंमें मेरी विशेष सत्ता व्याप्त है, उन उन स्थानोंका मैं वर्णन कर रही हूँ। इतना कहनेके बाद देवीने अपने १०८ शक्तिपीठोंके नामोंका परिगणन किया, जिसमें सर्वप्रथम वाराणसीमें स्थित भगवती विशालाक्षीका ही नामोल्लेख हुआ है, यथा- 

वाराणस्यां विशालाक्षी नैमिषे लिङ्गधारिणी।
प्रयागे ललिता देवी कामाक्षी गन्धमादने ।।

अन्तमें देवीने यहाँक माहात्म्यको बताते हुए कहा कि जो यहाँ तीर्थमें खान कर मेरा दर्शन करता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर कल्पपर्यन्त शिवलोकमें निवास करता है। भगवती विशालाक्षीकी महिमा अपार है। देवीभागवतमें तो काशीनें एकमात्र विशालाक्षीपीठ होनेका ही उल्लेख प्राप्त होता है। देवीके सिद्ध स्थानोंमें भी काशीपुरीके अन्तर्गत मात्र विशालाक्षीका ही वर्णन मिलता है-

'वाराणस्यां विशालाक्षी गौरीमुखनिवासिनी।'
'अविमुक्ते विशालाक्षी महाभागा महालये।'


स्कन्दपुराणान्तर्गत काशीखण्डमें श्रीविशालाक्षीजीको नौ गौरियोंमेंसे पाँचवीं गौरीके रूप में दर्शाया गया है तथा इनका विशेष महत्त्व बतलाया गया है। यहाँ भगवती श्रीविशालाक्षीके भवनको भगवान् विश्वनाथका विश्रामस्थल कहा गया है। काशीपति भगवान् विश्वनाथ भगवती श्रीविशालाक्षीके मन्दिरमें उनके समीप विश्राम करते हैं तथा इस असार संसारके अथाह कहोंको झेलनेसे खिन्न हुए मनुष्योंको सांसारिक कष्टोंसे विश्रान्ति देते हैं-

विशालाक्ष्या महासौधे मम विश्रामभूमिका।
तत्र संसृतिखिन्नार्ना विश्रामं आणयाम्यहम् ॥

काशीखण्डमें श्रीविशालाक्षीजीके दर्शन-पूजनहेतु विशेष निर्देश दिये गये हैं। भगवतीकी अभ्यर्थमाहेतु सर्वप्रथम काशीके विशालगङ्गा नामक तीर्थमें स्नान करनेका आदेश दिया गया है- 

'खात्या विशालगङ्गायां विशालाक्षीं ततो व्रजेत्।'

भगवती श्रीविशालाक्षीकी पूजायें धूप, दीप, सुगन्धित माला, मनोहर उपहार, मणियों एवं मोतियोंके आभरण, चामर, नवीन वस्त्र इत्यादि अर्पित करनेको कहा गया है। विशालाक्षी शक्तिपीठमें अर्पित किया गया स्वल्प भी अनन्तगुना होकर प्राप्त होता है। यहाँ दिया गया दान, जपा हुआ नाम, किया गया देवी-स्तवन एवं हवन मोक्षदायी होता है। विशालाक्षीजीकी अर्चनासे रूप और सम्पत्ति दोनों प्राप्त होते हैं-

वाराणस्यां विशालाक्षी पूजनीया प्रयत्नतः ।
धूपदीपैः शुभैर्माल्यैरुपहारैर्मनोहरैः ॥
मणिमुक्ताद्यलङ्कारैर्विचित्रोल्लोचचामरैः ।
शुभैरनुपभुक्तैश्च दुकूलैर्गन्धवासितैः ॥
मोक्षलक्ष्मीसमृद्धधर्थ यन्त्रकुत्रनिवासिभिः। 
अत्यल्पमपि यद्दत्तं विशालाक्ष्‌यै नरोत्तमैः ॥ 
तदानन्त्याय जायेत मुने लोकद्वयेऽपि हि। 
विशालाक्षीमहापीठे दत्तं जर्म हुतं स्तुतम् ॥
मोक्षस्तस्य परीपाको नात्र कार्या विचारणा।
विशालाक्षीसमर्थातो रूपसम्पत्तियुक्पतिः ॥

त्रिस्थलीसेतुमें काशीपुराधीश्वरी भगवती अन्नपूर्णा, भवानी एवं विशालाक्षीकी त्रिमूर्तिका ऐक्य दर्शाया गया है

शिवे सदानन्दमये ह्यधीश्वरि श्रीपार्वति ज्ञानधनेऽम्बिके शिवे। 
मातर्विशालाशि भवानि सुन्दरि त्वामजपूर्ण शरणं प्रपद्ये ॥

अन्नपूर्णोपनिषद्‌द्म विशालाक्षीको अन्नपूर्णा कहा गया है- 

'अन्नपूर्णा विशालाक्षी स्मयमानमुखाम्बुजा ।।'

काशीमें दक्षिण दिग्यात्रा क्रममें ११ वें क्रमपर श्रीविशालाक्षीजीके दर्शनका निर्देश है तथा प्रतिवर्ष भाद्रपद कृष्ण तृतीयाको माता विशालाक्षीकी वार्षिक यात्राकी परम्परा रही है। महाँ बासन्तिक नवरात्रमें नवगौरी- दर्शनक्रममें पाँचवें दिन पञ्चमी तिथिको विशालाक्षीजीके दर्शनका विधान है। नवरात्रमें एवं प्रत्येक मासके शुक्लपक्षकी तृतीयाको सभी नौ गौरियोंकी यात्रा करने एवं वहाँके तीथोंमें ज्ञान करनेका जो नियम काशीखण्ड (अध्याय १००) में दिया गया है, उसके अनुसार भी प्रतिमास शुक्ल तृतीयाको श्रीविशालाक्षीजीका दर्शन किया जाता है।

तन्त्रसारमें उनके ध्यान स्वरूप को बताते हुए कहा गया है कि भगवती विशालाक्षी साधकोंक समस्त शत्रुओंका विनाश कर डालती हैं तथा उन्हें उनका अभीष्ट प्रदान करती हैं। जगज्जननी विशालाक्षीदेवी सभी प्रकारके सौभाग्योंकी जननी हैं। जो भक्त इनकी शरणमें आते हैं, उनका सच्चा भाग्योदय हो जाता है। भगवतीकी असीम कृपा एवं दयालुतासे उनके भक्तजन देवताओंमें भी ईर्ष्या जगानेवाली अतुलनीय सम्पत्तिको अत्यन्त सरलतापूर्वक प्राप्त कर लेते हैं। विशालाक्षीदेवी गौरवर्ण की हैं तथा उनके दिव्य श्रीविग्रहसे तपाये हुए सुवर्णक समान कान्ति निरन्तर निकलती रहती है। भगवती अत्यन्त सुन्दरी और रूपवती हैं तथा वे सर्वदा षोडशवर्षीया दिखलायी देती हैं। जटाओंकि मुफुटसे मण्डित तथा नाना प्रकारके सौभाग्याभरणौसे अलंकृत भगवती रक्तवस्त्र धारण करती हैं और मुण्डोंकी माला पहने रहती हैं। दो भुजाओंवाली अम्बिका अपने एक हाथमें खड्‌ग तथा दूसरे में खप्पर धारण किये रहती हैं- 

ध्यायेदेवीं विशालाक्षीं तप्रजाम्बूनदप्रभाम्। 
द्विभुजामम्बिकां चण्डीं खड्ङ्गखर्परधारिणीम् ॥

नानालङ्कारसुभां रक्ताम्बरधरां शुभाम्।
सदा षोडशवर्षीयां प्रसन्नास्यां त्रिलोचनाम् ॥

मुण्डमालावर्ती रम्यां पीनोव्रतपयोधराम्।
शिवोपरि महादेवीं जटामुकुटमण्डिताम् ॥

शत्रुक्षयकरों देवीं साधकाभीष्टदायिकाम्।
सर्वसौभाग्यजननीं महासम्पत्प्रदां स्मरेत् ॥

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