जानिए माँ ताराचण्डी शक्तिपीठ - सासाराम
देवीके ५१ शक्तिपीठोंमें परिगणित माँ ताराचण्डी भवानी अपने भक्तोंको सर्वसुख प्रदान करने के लिये विन्ध्य पर्वत की कैमूर शृङ्खलामें अवस्थित हैं। कुछ विद्वान् इन्हें ही शोणतटस्था शक्ति मानते हैं। प्रजापति दक्षके यज्ञमें पतिनिन्दासे क्क्रुद्ध होकर देवी सतीने यज्ञकुण्डमें अपनी आहुति दे दी थी। उनके उस शरीरको भगवान् विष्णुने सुदर्शन चक्रसे ५१ खण्डोंमें काट दिया था। वे खण्ड विभिन्न स्थानोंपर गिरे। इनमेंसे एक खण्ड दक्षिण नेत्र यहाँ (सासाराममें) गिरा। जिस प्रकार मस्तक कटकर गिरनेसे वैष्णोदेवी, जिह्वा कटकर गिरनेसे शारदादेवी, कमर कटकर गिरनेसे विन्ध्यवासिनीदेवी, पैर कटकर गिरनेसे कलकत्ताकी काली और कन्याकुमारी तथा गुह्यभाग गिरनेसे कामरूपमें कामाख्या शक्तिपीठोंकी उत्पत्ति हुई, उसी प्रकार माँ ताराचण्डी शक्तिपीठ भी है, जहाँ देवीके दक्षिण नेत्रके पतनकी मान्यता है।
आँखको तारा भी कहते हैं, भगवतीके तीन नेत्र माने जाते हैं। बायाँ नेत्र रामपुर बंगालमें गिरा, जो तारापीठकें नामसे विख्यात हुआ। यह अघोर साधक वामाक्षेपाद्वारा जाग्रत् हुआ। दक्षिण नेत्र सोनभद्रनदी के किनारे-सटे मनौरम पहाड़ियोंसे घिरे जलप्रपात एवं प्राकृतिक सौन्दर्यके बीचमें गिरा, जिसे सोनभद्राके नामसे जाना गया। जो महर्षि विद्यामित्रद्वारा ताराके नामसे जाग्रत् किया गया। जमदग्नि ऋषिके पुत्र भगवान् परशुरामने उस क्षेत्रके राजा सहस्रबाहुको पराजित करनेहेतु यहाँ माँ ताराकी उपासना की, जिससे प्रसन्न होकर माँ ताराचण्डीने बालिकाके रूपमें प्रकट होकर विजयका वरदान दिया। श्रीदुर्गासप्तशती के अनुसार महिषासुरके दो सेनापतियों चण्ड और मुण्डमेंसे एकका वध भगवतीके हाथों यहींपर हुआ था। जिससे वे चण्डी नामसे विख्यात हुई और मुण्डका वध यहाँसे लगभग ६० कि० मी०को दूरीपर पश्चिमकी ओर हुआ, वहाँ वे मुण्डेश्वरीके नामसे विख्यात हुईं। यह स्थान वर्तमानमें कैमूर जिलेके अन्तर्गत ही है।
भगवान् बुद्धने बोधगयासे सारनाथ जाते समय अपने भक्तोंके साथ इक्कीस दिन यहाँ रहकर माँ भगवतीकी तारारूपमें उपासना की, जिसका उल्लेख मन्दिरके गर्भगृहमें लगे पत्थरपर पालि भाषामें उत्कीर्ण है। यहाँ समीप ही पूरब गोड़द्दला पहाड़पर तारकनाथ नामक स्थान है, जहाँपर ताड़का नामकी राक्षसी रहा करती थी, जो विश्वामित्रमुनिके यज्ञमें बराबर व्यवधान डाला करती थी। उसी ताड़काका वध करनेके लिये महर्षि विश्वामित्र अयोध्याके राजा दशरथसे उनके दो पुत्रों-राम और लक्ष्मणको माँगकर लाये थे और यहीं माँ ताराचण्डीधाम- स्थित अपने आक्रम (सिद्धाश्रम) में प्रशिक्षित किया था। राम और लक्ष्मणने महर्षि विश्वामित्रकी यज्ञ रक्षा करते हुए राक्षसी ताड़काका जिस स्थानपर वध किया था, वह स्थान आज बक्सरके नामसे प्रसिद्ध है। ताराचण्डी-मन्दिरके निकट एक गुरुद्वारा भी स्थित है। यहाँ गुरु तेगबहादुरने अपनी पत्नी एवं भक्तोंके साथ माँ ताराचण्डी भवानीका पूजन किया था। आज भी सिख सम्प्रदाय वहाँ जाकर तथा तीन दिन ठहरकर अरदास, जलक्रीड़ा और पूजा करता है। यहाँ वर्षमें तीन दिन गुरु महाराजकी यादमें गुरुग्रन्थ साहिबका राजभोग, अरदास पाठ होता है।
इस पूरे क्षेत्रको पहले कारूष प्रदेशके नामसे जाना जाता था। जहाँका राजा हैहय वंशीय क्षत्रिय कार्तवीर्य नामसे विख्यात था। इसी कार्तवीर्यका पुत्र सहस्रबाहु प्रचण्ड प्रतापी राजा हुआ, जो माँ ताराचण्डी भवानीका अनन्य भक्त तथा उपासक था। माँ ताराचण्डी भवानी सहस्रबाहुकी कुलदेवी हुई और इस पूरे कारूष प्रदेशको भी कुलदेवीके रूपमें प्रसिद्ध हुई, जिसका उल्लेख श्रीमद्वाल्मीकीय रामायणमें मिलता है। आवणके महीनेमें सहलबाहु माँ ताराचण्डी भवानीकी विशेषरूपसे पूजा करता और ठरसव मनाता था। यह देख कारूष प्रदेशको जनता भी ब्रावणमासमें अपने-अपने घरों से माँ ताराचण्डी भवानीके पूजनके निमित्त कड़ड्या प्रसाद, चढ़ावा, चुनरी एवं बाजे-गाजेके साथ आकर पूजन-अर्चन करती और उत्सव मनाती थी। यह परम्परा माज भी कायम है। कारूष प्रदेशका क्षेत्र कर्मनाशानदीसे लेकर सोनभद्रनदीके बीचका विशाल भूखण्ड है जो मनोरम पहाड़, जंगल, नदी एवं तराइयोंसे युक्त है।
एक आख्मानमें आया है कि एक बार राजा सहस्रबाहु जमदग्नि ऋषिके आश्रममें (जो जमनियाँके नामसे जाना जाता है पहले जमदग्निपुरम् नामसे विख्यात था) गया, वहाँपर जमदग्नि ऋषिकी कामधेनु गाय उसे पसंद आ गयी। उसने उस गायको बलपूर्वक ले लिया, जब यह बात जमदग्निपुत्र परशुरामको मालूम हुई तो वे क्रोषमें आकर अपना परशु लेकर सहस्रबाहुसे युद्ध करने आ पड़े। युद्धके दौरान परशुराम सहस्रबाहुसे कमजोर पड़ने लगे, तब वे सहस्रबाहुकी कुलदेवी माँ ताराचण्डी भवानीकी उपासना उसी गुफामें बैठकर करने लगे, उपासनोपरान्त माँ ताराचण्डी भवानीने परशुरामको चण्डी (बालिका) के रूपमें दर्शन दिया और विजगका वरदान दिया, तब माँ भगवती ताराचण्डीसे शक्ति पाकर परशुरामने अपने परशुसे सहस्रबाहुके बाहु काट दिये। चूंकि परशुरामके परशुसे सहस्रबाहुके बाहु कटे थे। अतः सहस्रबाहुके नामसे बाहु शब्द हटा दिया गया तथा परशुरामके नामसे परशु शब्दा हटा दिया गया। दोनोंके सन्धिस्वरूप यादगार बनानेके लिये नाम जोड़कर सहस्र राम अर्थात् 'सहलराम' इस क्षेत्रका नामकरण हुआ। कालान्तरमें अंग्रेजोंको सहसराम कहनेमें असुविधा होती थी जिससे वे सहसराम कहते थे। आज यह क्षेत्र सासारामके नामसे प्रसिद्ध है। जिस कुण्डस्थानपर परशुरामने माँ भगवती ताराचण्डीकी उपासना की थी, उस कुण्डको परशुरामकुण्डके नामसे जाना जाता है, जो माँ ताराचण्डी भवानीके ठीक सामने स्थित है और भगवतीके श्रीचरणोंको पखारता है। आज भी इस कुण्डमें अनेक भक्त स्रानकर माँ ताराचण्डी भवानीका पूजन-अर्चन करते हैं। सहस्रबाहुकी समाधि आज भी नगर थानेके दक्षिणी किनारेपर स्थित है। माँ ताराचण्डी भवानीके साथ अनेक प्राचीन इतिहास जुड़े हुए हैं।
माँ ताराचण्डी भवानीके समीप ही भैरव चण्डिकेश्वर महादेवका मन्दिर है जो सोनवागढ़ शिव मन्दिरके नामसे विख्यात है। माँ ताराचण्डी धाममें वर्षमें तीन बार उत्सव मनाया जाता है। पहला उत्सव वासन्तिक नवरात्रमें, चैत्र शुक्लपक्ष प्रतिपदासे नवमीतक मनाया जाता है। दूसरा शारदीय नवरात्र उत्सव आश्विन शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे लेकर दशमी (दशहरा) तक मनाया जाता है। तीसरा उत्सव बड़े धूमधामसे आषाढ़ पूर्णिमा (गुरुपूर्णिमा) गुरु- पूजनसे प्रारम्भ होकर अगले दिन श्रवणकी प्रतिपदासे पूर्णिमातक मनाया जाता है। माँ भगवती ताराचण्डीको स्थानीय लोग कुलदेवीके रूपमें मानते हैं। आवणमासमें महाँ महीने भर मेला लगा रहता है तथा पूर्णिमाको विशाल शोभा यात्रा निकाली जाती है।
टिप्पणियाँ