लिंग की उत्पत्ति का वर्णन,Ling Kee Utpatti Ka Varnan
सूतजी बोले- हे ऋषियो! मैंने आप लोगों को यह कथा सुनाई। जिसके सुनने, पढ़ने तथा ब्राह्मणों को सुनाने से भगवान की कृपा से मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। ऋषि बोले- हे सूतजी! भगवान तो अलिंगी हैं फिर उनके लिंग किस प्रकार हैं तथा उन शंकर भगवान के लिंग की अर्चना कैसे की जाती है? लिंग क्या है तथा लिंगी क्या है ? यह सब आप बताने में समर्थ हैं। कृपा करके हमें बताइये। रोम हर्षण जी बोले- हे ऋषियो ! इस प्रकार एक बार देवताओं ने पितामह ब्रह्मा जी से पूछा था कि भगवान का लिंग किस प्रकार का है तथा लिंग में महेश्वर रुद्र की किस प्रकार पूजा अर्चना की जाती है? तब ब्रह्मा जी ने जो कहा था, वह मैं आपसे कहता हूँ। ब्रह्मा जी बोले- प्रधान (प्रकृति) को तो लिंग कहा गया है और लिंगी तो स्वयं परमेश्वर ही हैं। हे श्रेष्ठ देवताओ ! सृष्टि के स्थिति काल में सभी देवताओं के जन लोक में चले जाने पर जल में मेरी रक्षा के लिये भगवान विष्णु थे। चारों युगों में हजारों बार बीत जाने पर तथा देवताओं के सत्य लोक में चले जाने पर, मुझ ब्रह्मा के बिना अधिपति पद पर रहने पर, बिना वर्षा के सभी स्थावर (वृक्षादि) के सूख जाने पर, पशु, मनुष्य, वृक्ष, पिशाच, राक्षस, गन्धर्व आदि सूर्य की किरणों से क्रमशः जल गये थे।
तब उस महान् घोर अन्धकारमय समुद्र में वह विश्वात्मा महान् योगी परब्रह्म जिसके हजारों सिर हैं तथा हजारों नेत्र हैं, हजारों पैर हैं, हजारों बाहु हैं तथा जो सर्वज्ञ हैं और सम्पूर्ण संसार को उत्पन्न करने वाले हैं तथा जिनके रजोगुण से ब्रह्मा, तमोगुण से शंकर एवं सतोगुण से विष्णु की उत्पत्ति है। ऐसे काल के भी काल निर्गुण नारायण स्वरूप को मैंने देखा। उन कमलनयन भगवान को उस घोर समुद्र के जल में शयन करते देख कर उनकी माया से मोहित होकर मैं बैर के स्वभाव में उनसे बोला- आप कौन हैं? यह मुझे बताइये। ऐसा कह कर मैंने उन शयन करते हुए हरि को हाथ से उठाया। मेरे हाथ के तीव्र और दृढ़ प्रहार के कारण वह शीघ्र शयन से उठ बैठे। वह निर्मल कमल के से नेत्र वाले हरि भगवान मेरे सामने निद्रा त्याग कर स्थित हुए और मीठी प्यारी वाणी में मुझसे कहने लगे।
हे महान शोभा वाले पितामह ! हे वत्स ! आपका स्वागत है, स्वागत है। उनके इस प्रकार के वचन सुनकर मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ। रजोगुण के कारण बढ़ गया है वैर जिसमें ऐसा मैं उन जनार्दन भगवान से बोला- आप सृष्टि के संहार के कारण होकर मुझे वत्स ! वत्स ! कहकर पुकारते हो। हे अनघ ! मेरे साथ आप गुरु शिष्य के समान बर्ताव करते हो। मोह में पड़कर इस प्रकार आप क्यों कह रहे हो? इसके बाद भगवान शंकर विष्णु मुझ अहंकार से युक्त को देखकर बोले- हे पितामह ! मैं ही परब्रह्म हूँ, मैं ही परमतत्व हूँ, संसार का कर्त्ता हूँ, चलाने वाला हूँ तथा मैं ही इस संसार का नाश करने वाला हूँ। मैं स्वयं ही परम ज्योति स्वरूप हूँ, परमात्मा हूँ, ईश्वर हूँ। संसार में चर अचर जो भी दीख रहा है अथवा सुनाई दे रहा है, उस सबको सब कुछ मेरे ही निहित जानना चाहिए। यह संसार पूर्व में मेरे द्वारा ही चौबीस तत्वों से मिलकर बनाया गया है। अपने प्रसाद (कृपा) से अनेकों ब्रह्माण्डों को लीला मात्र में बना देता हूँ। मेरी बुद्धि के द्वारा पहले सत, रज, तम, तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ इसके बाद पाँच प्रकार की तन्मात्रा (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश) छटा मन इसके बाद दस इन्द्रियाँ उत्पन्न हुए। आकाश से लेकर पृथ्वी तक सभी की रचना लीला मात्र ही हुई हैं।
हे देवताओ ! भगवान हरि के ऐसा कहने पर हम दोनों का घोर युद्ध हुआ। उस युद्ध को देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। वह युद्ध उसी प्रलय के सागर के मध्य मेरे द्वारा रजोगुण की वृद्धि होने पर बैर बढ़ जाने के कारण हुआ। उसी अवसर पर हम दोनों के बीच में अत्यन्त प्रकाशमान एक लिंग हमारे प्रबोध करने के लिए प्रकट हो गया। वह लिंग अनेकों प्रकार की ज्वाला से घिरा हुआ सैकड़ों कालाग्नि से भी महान तेजस्वी, घटने और बढ़ने से रहित, आदि, मध्य, अन्त से भी रहित अव्यक्त विश्व की उत्पत्ति का कारण था। उसे देखकर भगवान हरि तथा मैं भी स्वयं मोहित हो गये। उस लिंग को देखकर भगवान हरि मुझसे कहने लगे कि इस अग्नि को उत्पन्न करने वाले तेजस्वी लिंग की परीक्षा करनी चाहिये। मैं इसके नीचे की तरफ इसके मूल को देखूंगा तथा आप ऊपर की ओर शीघ्र प्रयत्न पूर्वक जाइये। हे देवताओ ! तब उसी समय भगवान विष्णु ने वाराह का स्वरूप धारण किया और मैंने शीघ्र ही हंस का स्वरूप बनाया। तभी से लेकर मुझे मनुष्य हंस भगवान कहने लगे। सफेद पंख, सफेद वर्ण का मैं सुन्दर हंस बन गया। मन और हवा के वेग के समान मैं ऊपर को उड़ा।
नारायण भगवान ने भी दस योजन लम्बे चौड़े सौ योजन के आयत वाले मेरु पर्वत के समान आकार धारण करके वाराह रूप बनाया। उनके सफेद पैने-पैने दाँत थे। काल के समान महान तेजस्वी चमकते हुए सूर्य के समान काले वाराह का रूप धारण करके पृथ्वी में नीचे की ओर चले गये। इस प्रकार भगवान विष्णु एक हजार वर्ष तक बड़ी शीघ्रता से नीचे ही चलते चले गए। परन्तु उन सूकर रूपधारी नारायण ने लिंग के मूल का कुछ भी पता नहीं पाया। उसी प्रकार उतने ही समय तक मैं भी ऊपर को गया। परन्तु अहंकार के कारण थककर मैं नीचे आकर गिर पड़ा। उसी तरह विष्णु भगवान भी क्लान्त होकर ऊपर आकर चुपचाप पड़ गये। उनका चित्त बड़ा खिन्न था तथा नेत्र थक गये थे। उसी समय उस लिंगमें से बड़े जोर का शब्द हुआ। उसमें से "ॐ" ऐसी ध्वनि प्लुत लक्षण से निकली। उस महान घोर नाद को सुनकर "यह क्या" ऐसा हमने कहा। तभी उस लिंग के दाहिने भाग में सनातन भगवान को भी देखा। उस 'ॐ' सनातन भगवान के आदि में अकार इसके बाद उकार तथा उससे परे में मकार है, मध्य में नाद है। इस प्रकार 'ॐ' ऐसा स्वरूप है।
आदि वर्ण सूर्य मण्डलवत् देखे तथा उत्तर में उकार है जो पावक नाम से प्रसिद्ध है। मकार चन्द्रमण्डल की संज्ञा वाला है जो मध्य में है उसके ऊपर शुद्ध स्फटिक वर्ण स्वरूप प्रभु विराजमान हैं। वह प्रभु तुरीया अवस्था से भी परे हैं। द्वन्द्व रहित हैं, शून्य हैं, भीतर बाहर से परम पवित्र हैं। आदि अन्त और मध्य से रहित हैं, आनन्द के भी मूल कारण हैं। ऋगु, यजु, सामवेद के तथा मात्राओं के द्वारा उन्हें ब्रह्म कहा जाता है, वे माधव हैं। वेद शब्द से उन विश्वात्मा का तत्व चिन्तन किया जाता है। इसलिये ऋषियों के परम सार कारण वेद को भी ऋषिर्वेद कहते हैं। इसी से परमेश्वर ऋषियों के द्वारा जाना जाता है। देवता बोले- वह रुद्र भगवान वाणी और चिन्ता से रहित हैं। उन एकाक्षर ब्रह्म को वाणी भी प्राप्त न करके लौट आती है। उन एकाक्षर ब्रह्म को ही अमृत तथा परम कारण सत्य आनन्द, परब्रह्म परमात्मा जानना चाहिए। उन एकाक्षर से जो अकार स्वरूप हैं वह ब्रह्मा के स्वरूप हैं। एकाक्षर से उकार स्वरूप परम कारण भगवान हरि हैं तथा एकाक्षर से मकार नाम वाले नीललोहित शंकर जी हैं। सृष्टि के कर्त्ता जो अकार नाम वाले हैं, उकार उसमें मोहने वाले हैं तथा मकार नाम वाले नित्य ही कृपा करने वाले हैं। मकार नाम वाले बीजी हैं तथा अकार वाले बीज हैं। उकार वाले जो हरि हैं वह उत्पत्ति स्थान हैं, प्रधान हैं, पुरुषेश्वर हैं।
बीजी बीज तथा योनी तीनों ही नाम वाले भगवान महेश्वर हैं। इस लिंग में अकार तो बीज है प्रभु ही बीजी हैं तथा उकार योनि है। अन्तरिक्ष आदि एक सोने के पिंड में लिपटा हुआ एक अण्ड था। अनेकों वर्षों तक वह दिव्य अण्ड भली भांति रखा रहा। हजारों वर्षों के बाद उस अण्ड के दो भाग हो गये। उस सुवर्ण के अण्ड का ऊपर का कपाल जैसा भाग आकाश कहलाया तथा नीचे का कपाल जैसा भाग रूप, रस, गन्ध आदि पाँच लक्षणों सहित पृथ्वी जाननी चाहिये। उस अण्ड से अकार नाम वाले चुतुर्मुख ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए हैं, जो सम्पूर्ण लोकों के रचने वाले हैं। इस प्रकार वेदों के जानने वाले ऋषि लोग उस ॐ का वर्णन करते हैं। इस प्रकार यजुर्वेद के जानकारों के वचनों को सुनकर ऋग् और सामवेद के ज्ञाता भी आदर सहित यही कहते हैं कि वह ऐसा ही है। अकार उस ब्रह्म का मूर्धा अर्थात् दीर्घ ललाट है। इकार दायाँ नेत्र है ईकार वाम नेत्र है, उकार दक्षिण कान है, अकार बायाँ कान है, ऋकार उस ब्रह्म का दायाँ कपोल है, ऋकार उसका बायाँ कपोल है तथा लृ लृ उसके दोनों नाक के छेद हैं। एकार उसका होंठ है, ऐकार उसका अधर है। ओ और औ क्रमशः उसकी दोनों दन्त पंक्ति हैं। अं उसका तालु स्थान है। क आदि (क ख ग घ ङ) उसके दायें तरफ से पाँच हाथ हैं।
च आदि (चछ ज झ ञ) उसके बायें ओर के पाँच हाथ हैं। ट आदि (टठडढण) तथा तआदि (तथदधन) उसके दोनों तरफ के पैर हैं। पकार उसका उदर, फकार दायीं ओर की बगल हैं। व कार बायीं ओर की बगल है। व, भ, कार दोनों कन्धे हैं, म कार उस महादेव जी का हृदय है। य कार से स कार तक उसकी सात धातु हैं। ह कार आत्म रूप है, क्षकार उसका क्रोध है। इस प्रकार के स्वरूप वाले उन महादेव जी को उमा के साथ देखकर भगवान विष्णु ने उन्हें प्रणाम किया और उन भगवान शंकर को जो ॐकार मन्त्र से युक्त हैं, शुद्ध स्फटिक माला से युक्त या स्फटिक माला के समान सफेद हैं बुद्धि करने वाले हैं, सर्व धर्मों के साधन करने वाले हैं, गायत्री मन्त्र के प्रभु हैं तथा सबको वश में करने वाले हैं, चौबीस वर्णों से युक्त हैं, अथर्व वेद के मन्त्रों के स्वरूप हैं, कला काष्ठ से युक्त हैं, ३ ३ अक्षरों से शुभ स्वरूप हैं, श्वेत हैं, शान्ति कारण हैं, तेरह कला से युक्त हैं, संसार के आदि, अन्त और वृद्धि के कारक हैं, इस प्रकार के शिव को देखकर भगवान विष्णु ने पंचाक्षर मन्त्र (नमः शिवाय) से जप किया। इसके बाद उन काल, वर्ण, ऋग, यजु, सामवेद के जो स्वरूप हैं, ऐसे पुरुष पुरातन, ईशान, मुकुट, जिनका अघोर मन्त्र ही हृदय है, सर्प राज भूषण सदाशिव को, जो ब्रह्मादि की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण हैं, उन वाणी और वरदान को देने वाले ईश्वर महादेव जी को देखकर प्रसन्न करने के लिये विष्णु भगवान स्तुति करने लगे।
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