नन्दीकेश्वर अभिषेक वर्णन,Nandeekeshvar Abhishek Varnan
नन्दीकेश्वर बोले- मेरे पिता मेरे साथ शिवजी को प्रणाम करके अपनी झोंपड़ी में गये तब उस पर्णशाला में देवी रूप को छोड़कर मनुष्य रूप में बदल गया। मेरी दिव्य स्मृति नष्ट हो गई। इस मेरे मानुष रूप को देख मेरे पिता ने मेरा जात कर्म आदि संस्कार किया। ऋक् यजु साम आदि वेदों का तथा आयुर्वेद धनुर्वेद आदि का भी मुझे उपदेश किया। सात वर्ष पूरे हो जाने पर मित्रावरुण नाम वाले मुनि मेरे पिता के आश्रम में आये। मुझे बार-बार देख करके बोले कि यह नन्दी सर्व शास्त्र पारंगत है। परन्तु आश्चर्य है कि यह अल्प आयु वाला है। यह सुनकर मेरे पिता शिलाद हे पुत्र ! हे पुत्र! ऐसा विलाप करने लगे तथा मृतक के समान निश्चेष्ट होकर गिर गये। मृत्यु से भय वाला होकर मैं हृदय में त्रयम्बक का ध्यान करता हुआ
रुद्र जाप में तत्पर हो गया। तब प्रसन्न होकर चन्द्रशेखर शिवजी बोले- हे वत्स ! नन्दी तुमको मृत्यु का भय कहाँ ? मैंने ही इन दोनों ऋषियों को भेजा था उन्होंने लौकिक देह को देखा है दैविक को नहीं देखा। संसार का ऐसा स्वभाव ही है कि इसमें सुख दुःख होता रहता है। ऐसा कहकर भगवान ने मेरा स्पर्श किया तथा प्रसन्न होकर बोले- तुम गणपतियों को तथा हिमांचल की पुत्री देवी को देखो। ऐसा मुझ से कहा। फिर मेरे शरीर को जरा आदि से अक्षय करके कहा कि- तू मेरा गण है मेरे पास सदा रहेगा, अपनी अक्षय माला को गले से उतारकर मुझे पहना दिया। उस माला से मैं तीन नेत्र वाला दशभुजा वाला शंकर के समान ही हो गया। शंकर बोले- कि तुझे क्या वरदान दूँ। फिर जटाओं से शुद्ध जल लेकर पृथ्वी पर उन्होंने छोड़ा और कहा कि नदी होजा। वह स्वच्छ जल से युक्त कमल दल से पूर्ण महा नदी बन गया। जटा और उदक (जल) से उत्पन्न उस नदी का नाम जटोदका रखा तथा उस नदी से भगवान ने कहा कि जो तेरे में स्नान करेगा वह सभी पापों से मुक्त हो जायेगा। तब भगवान हाथ में जल लेकर पुत्रवत् प्रेम से मेरा अभिषेक करने लगे। प्रसन्न हुए वृष भगवान बड़ी गर्जना करने लगे तब उस नदी का नाम वृषध्वनी कहा गया। मुझे विश्वकर्मा के अद्भुत मुकुट और कुण्डल शंकर भगवान ने पहनाये।
फिर वह नदी जाम्बूनद नाम वाली भी कही गई और अब पंचनद नाम से प्रसिद्ध है। उसमें जो स्नान करके शिव की पूजा करता है वह शिव सायुज्य को प्राप्त करता है। तब भूतपति महादेव गिरिजा से बोले- कि हे देवी! नन्दीश्वर को मैं भूतपति तथा गणपति नाम से अभिषेक करूँगा। तुम वह ठीक मानती हो न। तब हँसती हुई देवी बोलीं- कि हे प्रभो! इसे सभी गणों का अधिपति बनाकर सब देने योग्य हो क्योंकि शिलाद का यह पुत्र मेरा ही पुत्र है। तब शंकर ने सभी गणपतियों का स्मरण किया। शैलादि बोले- रुद्र के स्मरण करने पर सभी गणपति हजारों की संख्या में हजारों प्रकार के वाहनों पर चढ़े हुये कालाग्नि के समान भेरी, मृदङ्ग, शंख आदि बाजे बजाते हुये शिव के पास आकर इकट्ठे हुये। प्रणाम करके शंकर से बोले- हे प्रभो! किस प्रकार हमारा स्मरण किया, कृपा करके आज्ञा करिये। क्या हम यमदूतों के साथ यम को मार दें। क्या हम समुद्रों का शोषण कर दें। वायु के साथ विष्णु को पकड़ लावें।
ऐसा सुनकर शिवजी बोले कि यह नन्दीश्वर मेरा पुत्र है सो मेरी आज्ञा से तुम सब अपने इस सेनापति का अभिषेक करो। जैसी आपकी आज्ञा कहकर वह गण सुवर्णमय आसन आदि सभी सामग्री इकट्ठा करने लगे। वैदूर्य मणि का मण्डप बनाया। हजारों स्वर्ण ताम्र मिट्टी आदि के पात्र भरकर रखे। दिव्य मुकुट कुण्डल और छत्र आदि सब इकट्ठे किये। फिर सब देवता इन्द्रादि विष्णु तथा मुनीश्वर वहाँ आये। अभिषेक विधिवत कराने के लिये शिव ने ब्रह्मा को आज्ञा दी। ब्रह्मा ने सब प्रकार पूजन किया। विष्णु तथा दिगपालों ने पूजन किया। ऋषियों ने पूजन कर स्तुति की। विष्णु ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की। सभी गणपतियों ने तथा देवताओं ने अभिषेक किया। देवी ने छत्र तथा चंवर उसे समर्पण किया। देवी ने अपना गले का हार भी उसे दिया। देवी ने शिव को देखकर गणों से प्रार्थना की। सबको पूजा करने की आज्ञा की, तब सभी मुनि लोगों ने और रुद्र के भक्तों ने पूजन किया। नमस्कार आदि से रहित ब्रह्महत्या के भागी होते हैं, इसलिए सभी को नमस्कार पूर्वक पूजन करना चाहिए, ऐसा देवी के कहने पर सबने प्रणाम करके पूजन किया।
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