नवरात्रि के नौ दिनों के लिए माँ दुर्गा के नौ रूपों की कथा
नौ दुर्गा देवियों को पापों की विनाशिनी कहा जाता है, हर देवी के अलग अलग वाहन हैं, अस्त्र शस्त्र हैं परन्तु यह सब एक हैं और सभी परम भगवती दुर्गा जी से ही प्रकट होती है।
नवरात्रि के पहले दिन मां शैलपुत्री की कथा
मां शैलपुत्री की कथा, देवी सती का त्याग और पुनर्जन्म की पौराणिक कथा है, जो नवदुर्गा के पहले स्वरूप के रूप में पूजनीय हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार - मां शैलपुत्री का दूसरा नाम सती भी है, एक बार प्रजापति दक्ष ने अपने घर पर यज्ञ का आयोजन करने का सोचा तो उन्होंने सभी देवी-देवताओं को अपने यहां आने का निमंत्रण भेज दिया, लेकिन राजा दक्ष ने भगवान शिव को नहीं बुलाया। देवी सती को लगा था कि उन्हें भी बुलावा भेजा जाएगा। परंतु उनके यहां यज्ञ में आने का निमंत्रण नहीं आया। फिर भी देवी सती को उस यज्ञ में जाने का मन हुआ, लेकिन शिवजी ने उन्हें मना कर दिया। शिवजी ने सती को बोला कि अभी उनके पास यज्ञ में जाने के लिए कोई निमंत्रण नहीं आया है इसलिए वहां जाना ठीक नहीं होगा। फिर भी देवी सती ने उनकी बात नहीं मानीं। बार-बार यज्ञ में जाने का आग्रह करने के कारण भगवान शिव ने उन्हें जाने की अनुमति दे दी।
फिर देवी सती जब अपने पिता राजा दक्ष के यहां पहुंची तो जाकर उन्होंने देखा कि अपने पिता के यहां कोई भी उनसे सम्मान और प्रेम के साथ बात नहीं कर रहा था। वहीं देवी सती की अन्य बहनें भी उनका तथा शिवजी का मजाक उड़ा रहीं थीं। स्वयं देवी सती जे पिता प्रजापति दक्ष ने भी सती का अपमान करने का मौका नहीं छोड़ा। इस प्रकार वहां मौजूद सभी लोग सती के साथ रूखा व्यवहार कर रहे थे लेकिन जब सती जी की माता ने अपनी बेटी को देखा तो प्यार से गले लगा लिया। परंतु अन्य सभी का ऐसा व्यवहार देखकर सती बहुत ही दुखी हो गईं। तब अपना और अपने पति शिवजी का अपमान उनसे सहन न हुआ। इसके बाद इस अपमान से अत्यंत दुखी होकर सती ने उसी समय वहां यज्ञ की अग्नि में कूदकर स्वयं के प्राण त्याग दिए। जैसे ही भगवान शिव को इस बात का पता चला कि क्रोधित हो गए और पूरे यज्ञ को ध्वस्त कर दिया. उसके बाद सती ने हिमालय के यहां पार्वती के रूप में जन्म लिया. जहां उनका नाम शैलपुत्री पड़ा. कहते हैं मां शैलपुत्री काशी नगर वाराणसी में वास करती हैं.
नवरात्रि के दूसरा दिन मां ब्रह्मचारिणी की कथा
मां ब्रह्मचारिणी ने राजा हिमालय के घर जन्म लिया था । वह सुंदरता की धनी तथा ज्ञान से परिपूर्ण थीं। एक दिन नारदजी ने उन्हें उपदेश दिया जिससे प्रभावित होकर उन्होंने यह प्रण किया कि वह अपना विवाह शिवजी के साथ ही करेंगी। भगवान शंकर को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए देवी ब्रह्मचारिणी ने घोर तपस्या तथा तप करना प्रारंभ कर दिया। कई वर्षों तक उन्होंने तपस्या की जिस कारण उन्हें ब्रह्मचारिणी तथा तपश्चरणी के नाम से जाना जाने लगा। देवी ब्रह्मचारिणी ने तीन हज़ार वर्षों तक मात्र बिल्व पत्रों का सेवन करके वन में तपस्या की। अत्यंत कष्टों को सहन करते हुए भी उन्होंने शिवजी को पति के रूप में पाने की तपस्या नहीं छोड़ी। इसके पश्चात् उन्होंने बिल्व पत्रों का सेवन भी त्याग दिया तथा कई हज़ार वर्षों तक निर्जल तथा निराहार रहकर तपस्या की।
इस प्रकार उनका नाम अपर्णा रखा गया। अधिक वर्षों तक कठिन तपस्या, तप करने के कारण उनका शरीर कमज़ोर हो गया। विभिन्न देवी देवताओं, ऋषि, मुनियों तथा सिद्धगणों ने उनकी तपस्या की सराहना करते हुए देवी ब्रह्मचारिणी को प्रोत्साहन दिया सभी ने कहा कि आपकी तपस्या अवश्य पूर्ण होगी। उनकी गहन तपस्या को देखते हुए अंत में ब्रह्मा जी ने आकाशवाणी के माध्यम से प्रसन्नचित स्वर में कहा, "देवी! आज तक किसी भी कन्या ने इस प्रकार की घोर तपस्या नहीं की। तुम्हारे इस स्वरूप की तीनों लोक सराहना कर रहे हैं। तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी। भगवान शिव तुम्हें अवश्य शिव के रूप में प्राप्त होंगे। अंततः तुम अपनी तपस्या को यही समाप्त करते हुए, घर वापस लौट जाओ।" देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा अर्चना करने वाले भक्तों को सर्वसिद्धि प्राप्त होती है। मां की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए। मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्व सिद्धि प्राप्त होती है।
नवरात्रि के तीसरा दिन मां चंद्रघंटा की कथा
पौराणिक कथा के मुताबिक - दानवों के आतंक को समाप्त करने के लिए देवी मां दुर्गा ने मां चंद्रघंटा का स्वरूप धारण किया था। पौराणिक कथा के मुताबिक, माता दुर्गा ने मां चंद्रघंटा का अवतार तब लिया था जब दैत्यों का आतंक बढ़ने लगा था। उस समय महिषासुर का भयंकर युद्ध देवताओं से चल रहा था। महिषासुर देवराज इंद्र का सिंहासन प्राप्त करना चाहता था। वह स्वर्ग लोक पर राज करने की इच्छा पूरी करने के लिए यह युद्ध कर रहा था। जब देवताओं को उसकी इस इच्छा का पता चला तो वे परेशान हो गए और भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश के सामने पहुंचे। ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने देवताओं की बात सुन क्रोध प्रकट किया और क्रोध आने पर उन तीनों के मुख से ऊर्जा निकली। यह ऊर्जा दसों दिशाओं में व्याप्त होने लगी। तभी वहां एक कन्या उत्पन्न हुई। तब शंकर भगवान ने देवी को अपना त्रिशूल भेंट किया। भगवान विष्णु ने भी उनको चक्र प्रदान किया। इसी तरह से सभी देवता ने माता को अस्त्र-शस्त्र देकर सजा दिया। इंद्र ने भी अपना वज्र एवं ऐरावत हाथी माता को भेंट किया। सूर्य ने अपना तेज, तलवार और सवारी के लिए शेर प्रदान किया। तब देवी सभी शास्त्रों को लेकर महिषासुर से युद्ध करने के लिए युद्ध भूमि में आ गई। उनका यह विशाल का रूप देखकर महिषासुर भय से कांप उठा। तब महिषासुर ने अपनी सेना को मां चंद्रघंटा के पर हमला करने को कहा। तब देवी ने अपने अस्त्र-शस्त्र से असुरों की सेनाओं को भर में नष्ट कर दिया। इस तरह से मां चंद्रघंटा ने असुरों का वध करके देवी मां ने देवताओं की रक्षा की।
नवरात्रि के चौथा दिन मां कुष्मांडा की कथा
नवरात्रि में चौथे दिन देवी को कुष्मांडा के रूप में पूजा जाता है। माना जाता है कि सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व जब चारों ओर अंधकार था लेकिन फिर दिव्य प्रकाश की एक किरण, चारों ओर फैलती है, अंधेरा उजालों में परिवर्तित होने लगता है। उस प्रकाश की कोई सीमा नहीं थी। सहसा प्रकाश एक दिव्य देवी के रूप में बदल गईं। वह कोई और नहीं बल्कि खुद देवी माता कुष्मांडा थीं। अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा अण्ड यानी ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्मांडा नाम से संबोधित किया गया है। देवी कुष्मांडा की मूक मुस्कान के कारण ब्रह्मांड का जन्म हुआ। इन्होंने ही पृथ्वी,सभी ग्रहों, चंद्र, सूर्य, तारे और आकाश गंगाएँ को अस्तित्व में लाया। संसार में जीवन बनाए रखने के लिए सूर्य देवता की आवश्यकता थी, तो मां कुष्मांडा ने अपने-आपको सूर्य में समाहित कर लिया। सूर्य संसार में जीवन का पर्याय है, तो देवी उनकी शक्ति हैं। माता कुष्मांडा ही समस्त ऊर्जा का स्रोत हैं। जब वह सूर्य भगवान के मूल में रहती हैं तो देवी का आलौकिक तेज दिनकर को जीवन प्रदान करने की क्षमता देती है। कुष्मांडा देवी के बिना सूर्य शक्तिहीन है। यह देवी की ही शक्ति है, कुष्मांडा ही शक्तिशाली है, इनसे ही जग रोशन है।
नवरात्रि के पांचवां दिन मां स्कंदमाता की कथा
देवी मां का पांचवा रूप देवी स्कंदमाता की कथा प्राचीन कथा के अनुसार तारकासुर नाम एक राक्षस ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या कर रहा था। उस कठोर तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न होकर उनके सामने आए। ब्रह्मा जी से वरदान मांगते हुए तारकासुर ने अमर करने के लिए कहा। तब ब्रह्मा जी ने उसे समझाया कि इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया है उसे मरना ही है। निराश होकर उसने ब्रह्मा जी कहा कि प्रभु ऐसा कर दें कि भगवान शिव के पुत्र के हाथों ही उसकी मृत्यु हो। तारकासुर की ऐसी धारणा थी कि भगवान शिव कभी विवाह नहीं करेंगे। इसलिए उसकी कभी मृत्यु नहीं होगी। फिर उसने लोगों पर हिंसा करनी शुरू कर दी। तारकासुर के अत्याचारों से परेशान होकर सभी देवता भगवान शिव के पास पहुंचे और तारकासुर से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। तब शिव ने पार्वती से विवाह किया और कार्तिकेय के पिता बनें। बड़े होने के बाद कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया। देवी स्कंद माता ही हिमालय की पुत्री पार्वती हैं इन्हें ही माहेश्वरी और गौरी के नाम से जाना जाता है। यह पर्वत राज की पुत्री होने से पार्वती कहलाती हैं, महादेव की वामिनी यानी पत्नी होने से माहेश्वरी कहलाती हैं और अपने गौर वर्ण के कारण देवी गौरी के नाम से पूजी जाती हैं। माता को अपने पुत्र से अधिक प्रेम है अत: मां को अपने पुत्र के नाम के साथ संबोधित किया जाना अच्छा लगता है। जो भक्त माता के इस स्वरूप की पूजा करते है मां उस पर अपने पुत्र के समान स्नेह लुटाती हैं। बोलिये स्कंध माता की जय।
नवरात्रि के छठा दिन मां कात्यायनी की कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार - एक महर्षि कात्यायन थे जिनके कोई पुत्री नहीं थी। एक दिन उन्होंने भगवती जगदम्बा को अपनी पुत्री के रूप में प्राप्त करने की कामना के साथ घोर तपस्या की। जिसके परिणामस्वरूप उन्हें देवी उनकी पुत्री के रूप में प्राप्त हुई थीं। बता दे देवी का जन्म महार्षि कात्यान के आश्राम में हुआ था। इनकी पुत्री होने के कारण ही इन्हें कात्यायनी पुकारा जाता है। दरअसल देवी का जन्म जब हुआ था उस समय महिषासुर नाम के राक्षस का अत्याचार बहुत ज्यादा बढ़ गया था। असुरों ने धरती के साथ-साथ स्वर्ग में त्राही मचा रखी थी। बता दे त्रिदेवों के तेज देवी ने ऋषि कात्यायन के घर अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन जन्म लिया था। दरअसल इसके बाद ऋषि कात्यायन ने मां का पूजन तीन दिन तक किया। जिसके बाद दशमी तिथि के दिन महिषासुर का अंत मां ने किया था। दरअसल बता दे कि इतना ही नहीं, शुम्भ और निशुम्भ ने भी स्वर्गलोक पर आक्रमण कर दिया था। वही, इंद्रदेव का सिंहासन भी छीन लिया था। इसके अलावा नवग्रहों को बंधक भी बना लिया था और असुरों ने अग्नि और वायु का बल भी अपने कब्जे में कर लिया था। जब स्वर्ग से अपमानित कर असुरों ने देवताओं को निकाल दिया। बता दे तब सभी देवता देवी के शरण में गए और उनसे प्रार्थना की कि वो उन्हें असुरों के अत्याचार से मुक्ति दिलाए। दरअसल मां ने इन असुरों का वध किया और सबको इनके आतंक से मुक्त किया।
नवरात्रि के सातवां दिन मां कालरात्रि की कथा
पौराणिक कथा के अनुसार - एक बार रक्तबीज नाम के राक्षस ने चारों ओर हाहाकार मचा दिया था। मनुष्य के साथ देवता भी उसके आतंक से परेशान थे. रक्तबीज को वरदान था कि जैसे ही उसके रक्त की एक बूंद भी जमीन पर गिरेगी, उसी की तरह एक और शक्तिशाली दानव तैयार हो जाएगा। इस तरह रक्तबीज की सेना तैयार हो जाती। तबगवान शिव शंकर ने माता पार्वती से अनुरोध किया कि हे देवी तुम तुरंत उस राक्षस का संहार करके देवताओं को उनके राजभोग वापस दिलाओं। रक्तबीज को वरदान प्राप्त था की उसके रक्त की हर एक बूँद जो भूमि पर गिरेगी उससे एक और रक्तबीज जन्म ले लेगा। जब मां दुर्गा रक्तबीज का वध कर रहे थीं, उस वक्त रक्तबीज के शरीर से जितना रक्त भूमि पर गिरता था, उससे वैसे ही सैकड़ों दानव उत्पन्न हो जाते थे। तब देवी पार्वती ने वहां साधना की।
माता के साधना की तेज से कालरात्रि उत्पन्न हुई। तब माँ पार्वती ने कालरात्रि से उन राक्षसों को खा जाने का निवेदन किया। जब माता ने उसका वध किया तो उसका सारा रक्त पी गईं और रक्त की एक बूँद भी भूमि पर गिरने नहीं दी। इसीलिये माता के इस रूप मे उनकी जीभ रक्त रंजित लाल है । इस तरह से मां कालिका रणभूमि में असुरों का गला काटते हुए गले में मुंड की माला पहनने लगी। इस तरह से रक्तबीज युद्ध में मारा गया। मां दुर्गे का यह स्वरूप कालरात्रि कहलाता है। कालरात्रि दो शब्दों को मिला कर बना है, एक शब्द है काल जिसका अर्थ है "मृत्यु" यह दर्शाता है वह है जो अज्ञानता को नष्ट करती है। और एक शब्द है रात्रि, माता को रात के अंधेरे के गहरे रंग का प्रतीक दर्शाया है। कालरात्रि का रूप दर्शाता है
नवरात्रि के आठवां दिन मां महागौरी की कथा
नवरात्रि के आठवें दिन देवी महागौरी के रूप का पूजन किया जाता है।
पौराणिक शिव पुराण की कथा के अनुसार, महागौरी जब मात्र आठ वर्ष की थी तभी से उन्हें अपने पूर्व जन्म की घटनाओं का स्पष्ट स्मरण होने लगा था। उसी समय से उन्होंने भगवान भोलेनाथ को अपने पति के रूप में मान लिया और शिवजी को अपने पति के रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या करनी भी आरंभ कर दी।
जिसके चलते देवी ने वर्षों तक घोर तपस्या की। वर्षों तक निराहार तथा निर्जला तपस्या करने के कारण इनका शरीर काला पड़ गया। इनकी तपस्या को देखकर भगवान शिव प्रसन्न हो गए व उन्होंने इन्हें गंगा जी के पवित्र जल से पवित्र किया जिसके पश्चात् माता महागौरी विद्युत के समान चमक तथा कांति से उज्ज्वल हो गई। इसके साथ ही वह महागौरी के नाम से विख्यात हुई। देवी महागौरी अत्यंत सरल, मोहक और शीतल रूप की हैं। इनका वाहन वृषभ है। मां महागौरी की उपासना करने वाले भक्तों की मनोकामना पूर्ति का दायित्व देवी अपने ऊपर लेती हैं। देवी महागौरी चतुर्भुजी देवी हैं। इनके दाहिनी ओर के ऊपर वाले हाथ में अभय मुद्रा तथा नीचे वाले हाथ में त्रिशूल उपस्थित है। माता महागौरी ने बाहिनी ओर के ऊपर वाले हाथ में डमरू एवं नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा धारण कर रखी है।
नवरात्रि के नौवां दिन मां सिद्धिदात्री की कथा
पुराणों के अनुसार, एक बार जब भगवान शिव माँ सिद्धिदात्री के घोर तप में लीन थे। तभी माँ सिद्धदात्री उनके कठिन तप से प्रसन्न होकर, भगवान शिव को आठ सिद्धियों की प्राप्ति का वरदान देती हैं। तभी इस वरदान के फलस्वरूप भगवान शिव का आधा शरीर देवी के रूप में बदल गया। जिसके बाद से भगवान शिव को अर्धनारीश्वर के नाम से जगत में विख्याति प्राप्त हुई। शिवजी का ये रूप पूरे ब्रम्हांड में पूजनीय हुआ। एक बार जब पृथ्वी पर अनेकों राक्षसों का जन्म होने लगा और ऋषि मुनियों व लोगो का पृथ्वी पर रहना मुश्किल हो गया था। इसी के साथ-साथ पृथ्वी पर महिषासुर नाम के राक्षस के अत्याचारों की अति हो गई, तब उस राक्षस के वध हेतु सभी देवतागण भगवान शिव तथा विष्णु जी से सहायता लेने पहुंचते हैं।
महिषासुर के अंत के लिए सभी देवताओं ने मिलकर तेज उत्पन्न किया जिससे माँ सिद्धिदात्री की उत्पत्ति हुई। माँ सिद्धदात्री ने ही महिषासुर का वध किया। इसलिए वे महिषासुर मर्दनी भी कहलायी।
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