शिव महिम्न स्तोत्र PDF
विषयसूची
- स्तोत्र का सार
- शिव महिम्न स्तोत्र का महत्व
- शिव महिम्न स्तोत्र की विधि
- शिव महिम्न स्तोत्र के पाठ नियम
- शिव महिम्न स्तोत्र का नियमित पाठ करने से लाभ
- शिव महिम्न स्तोत्र ! Shiva Mahimna Stotra
- निष्कर्ष
- शिव महिम्न स्तोत्र PDF
शिव महिम्न स्तोत्र का रचनाकार पुष्पदन्त हैं। यह स्तोत्र भगवान शिव की महिमा का गान करता है और उन्हें समर्पित है। इस स्तोत्र में भगवान शिव के असीमित गुणों और शक्तियों का वर्णन किया गया है। यहाँ प्रस्तुत किया गया शिव महिम्न स्तोत्र भगवान शिव की अद्वितीय महिमा का गान करते हुए उन्हें जगत के पालनहार, संहारक और उत्पत्ति के कारण के रूप में पूजा गया है।
स्तोत्र का सार
महिमा की परिधि:
- इस स्तोत्र की शुरुआत भगवान शिव के असीम महिमा से होती है, जो न केवल देवताओं से परे है, बल्कि उनका प्रभाव सब पर होता है। उनके महात्म्य का कोई परिमाण नहीं है।
वाग्देवी की महिमा:
- शिव के महिम्न को समझने के लिए वाणी और विचार भी असमर्थ होते हैं। भगवान शिव का स्तुति करने से उनके गुण और महिमा का प्रत्यक्ष अनुभव होता है।
सर्वव्यापकता और अद्वितीयता:
- शिव के महिमा का विस्तार पूरे ब्रह्माण्ड में फैला हुआ है। उनका स्वरूप न केवल ब्रह्मा, विष्णु जैसे देवताओं के लिए वरन् समस्त संसार के लिए है। वे जगत के कर्ता, पालनहार और संहारक हैं।
शिव की सत्ता:
- भगवान शिव की सत्ता का कोई अनुमान नहीं लगा सकता। उनके लिए कोई गुण विशेष नहीं है, बल्कि सभी गुण उनमें समाहित हैं। उनका व्यक्तित्व अद्वितीय है।
शिव और आस्थाएँ:
- शिव के भक्तों में निरंतर भक्ति और श्रद्धा की भावना जाग्रत रहती है। वे ही संसार को मार्गदर्शन देते हैं और सभी कष्टों से मुक्त करते हैं। जो भगवान शिव की भक्ति में समर्पित होते हैं, उनके जीवन में निश्चित ही सुख और शांति का वास होता है।
प्राकृतिक और आध्यात्मिक शक्तियाँ:
- शिव के पास संपूर्ण ब्रह्मांड की शक्तियाँ हैं। वे न केवल विश्व के कर्ता हैं, बल्कि सभी शक्तियों के स्त्रोत भी हैं। उनका स्वरूप संपूर्णता और भव्यता का प्रतीक है।
शिव की उपासना का फल:
- इस स्तोत्र में यह बताया गया है कि जो लोग शिव की उपासना सच्चे मन से करते हैं, उनके जीवन में सुख, शांति और समृद्धि आती है। उनकी भक्ति हर प्रकार के संकट को दूर करती है।
शिव महिम्न स्तोत्र का महत्व
असीम महिमा:
- भगवान शिव की महिमा का कोई अंत नहीं है। वे पूरी सृष्टि के कर्ता और रक्षक हैं।
शक्ति का प्रतीक:
- भगवान शिव के पास अत्यधिक शक्ति है, जो उन्हें समस्त सृष्टि के ऊपर शासन करने का अधिकार देती है।
भक्ति के मार्ग:
- इस स्तोत्र में भक्तों को भगवान शिव की भक्ति करने के लिए प्रेरित किया जाता है। यह स्तोत्र उन भक्तों के लिए है जो भगवान शिव के गुणों को जानने और समझने के इच्छुक हैं।
उद्धार:
- शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति का उद्धार होता है, और वह पापों से मुक्त हो जाता है। यह स्तोत्र विशेष रूप से मानसिक शांति और जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए है।
शिव महिम्न स्तोत्र की विधि (ritual) का पालन करते समय कुछ महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना चाहिए, ताकि इसका सही और प्रभावी रूप से पाठ किया जा सके। यहां पर शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने की विधि दी जा रही है:
शिव महिम्न स्तोत्र की विधि:
स्थान का चयन:
- सबसे पहले एक स्वच्छ और पवित्र स्थान पर बैठें। यदि संभव हो तो शिव मंदिर में या घर में शिवलिंग के सामने बैठना उत्तम होता है।
- एक आसन पर बैठें, जिससे मन और शरीर दोनों स्थिर रहें।
स्नान और शुद्धता:
- शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ शुद्ध और पवित्र मन से करना चाहिए। इसलिए, यदि संभव हो, तो स्नान करके स्वच्छ और शुद्ध अवस्था में बैठें।
विधान के अनुसार पूजा:
- पहले भगवान शिव की पूजा करें। शिवलिंग पर जल, दूध, बेल पत्र, चंदन, और अन्य पूजा सामग्री अर्पित करें।
- ॐ नमः शिवाय का मंत्र 108 बार जप करें।
संकल्प लें:
- मन में संकल्प लें कि आप भगवान शिव की महिमा का गायन कर रहे हैं और इस पाठ के माध्यम से आप उनकी कृपा प्राप्त करने की प्रार्थना करते हैं।
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करें:
- अब शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ शुरू करें। यदि आप पहली बार इसका पाठ कर रहे हैं, तो ध्यान रखें कि सही उच्चारण और विधिपूर्वक पाठ करें। आप इसे अपने रोज़ के पूजा में भी समाहित कर सकते हैं।
स्मरण और ध्यान:
- स्तोत्र का पाठ करते समय, भगवान शिव के चित्र या शिवलिंग का ध्यान करें। शिव महिम्न स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक का अर्थ समझने का प्रयास करें ताकि वह आपके मन में गहरे रूप से बैठ सके।
अर्चना और प्रार्थना:
- पाठ के बाद, भगवान शिव से आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करें। आपकी इच्छाओं के अनुसार, शांति, समृद्धि, और मोक्ष के लिए भगवान शिव से आशीर्वाद प्राप्त करें।
आरती और प्रसाद:
- पाठ के बाद, शिव की आरती करें और शिव के प्रिय प्रसाद (जैसे बेलपत्र, धतूरा, या जल) का भोग अर्पित करें।
समाप्ति:
- अंत में, भगवान शिव की महिमा का गान करते हुए उनकी पूजा समाप्त करें और आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद संतुष्ट होकर उठें।
ध्यान दें कि शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ नियमित रूप से करने से आपके जीवन में सुख, शांति और सफलता का वास हो सकता है।
शिव महिम्न स्तोत्र के पाठ के लिए कुछ महत्वपूर्ण नियम (नियम) हैं, जिन्हें अनुसरण करना चाहिए:
1. साधन और श्रद्धा:
- शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ हमेशा पूरी श्रद्धा और निष्ठा के साथ करें। यदि पाठ करते समय मन में विश्वास और श्रद्धा नहीं होती, तो उसका पूरा लाभ नहीं मिल पाता है।
2. स्वच्छता और शुद्धता:
- पूजा करने से पहले स्नान करना और शुद्ध वस्त्र पहनना चाहिए। यह शरीर और मन की पवित्रता को दर्शाता है, जो पूजा में सफलता का प्रमुख कारण है।
3. मंत्र जाप और उच्चारण:
- स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक का उच्चारण सही रूप से और स्पष्टता के साथ करना चाहिए। सही उच्चारण से मंत्र की शक्ति बढ़ती है।
- 'ॐ नमः शिवाय' का जप भी महत्वपूर्ण है। इसे हर श्लोक के बाद, और विशेष रूप से पूजा शुरू करने से पहले और पूजा समाप्त होने के बाद करें।
4. दिन और समय का ध्यान:
- सोमवार का दिन भगवान शिव की पूजा के लिए विशेष रूप से शुभ माना जाता है। यदि सप्ताह के किसी भी दिन शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ किया जा रहा है तो सोमवार को यह अत्यधिक फलदायक होता है।
- अवधि: सुबह या शाम का समय अच्छा होता है। यदि आप विशेष लाभ की कामना करते हैं, तो रात्रि के समय भी पाठ कर सकते हैं, क्योंकि रात्रि में वातावरण शांत होता है और ध्यान केंद्रित करना आसान होता है।
5. शिवलिंग या शिव मूर्ति की स्थापना:
- शिवलिंग या भगवान शिव की मूर्ति को अच्छे से स्नान कराएं। चंदन, बेलपत्र, धतूरा, दूध, शहद, फल और फूल अर्पित करें।
- शिवलिंग पर गंगाजल भी अर्पित करें, यह विशेष लाभकारी माना जाता है।
6. पाठ का संपूर्णता में करना:
- शिव महिम्न स्तोत्र के सभी श्लोकों का पाठ करें। अगर समय की कमी हो, तो कम से कम ५-१० श्लोक नियमित रूप से पढ़ने का प्रयास करें।
- संपूर्ण स्तोत्र का पाठ करने से विशेष फल प्राप्त होता है। यदि कोई विशेष इच्छा या समस्या हो, तो उसका ध्यान करते हुए पाठ करें।
7. ध्यान और एकाग्रता:
- पाठ करते समय, मन को शांत और एकाग्रित रखें। ध्यान लगाने से, पाठ के साथ-साथ भगवान शिव के दिव्य रूप की कल्पना भी करें।
- पूजा के समय मानसिक रूप से भगवान शिव की महिमा में लीन हो जाएं।
8. पाठ की संख्या:
- यदि आप विशेष फल प्राप्त करने के इच्छुक हैं, तो आप मूल मंत्र का जप 108 बार करें, या फिर कम से कम 27 बार जप करने की कोशिश करें।
- विशेष अवसरों (जैसे महाशिवरात्रि) पर १०८ बार श्लोक का पाठ करने से विशेष लाभ होता है।
9. प्रसाद अर्पण:
- पूजा के अंत में भगवान शिव को प्रसाद अर्पित करें, जिसमें तुलसी के पत्ते, बेलपत्र, दूध, शहद, फल, और गंगाजल शामिल हो सकते हैं। इससे आपकी पूजा को पूर्णता मिलती है।
10. पाठ के बाद धन्यवाद और आशीर्वाद:
- जब आप पाठ समाप्त करें, तो भगवान शिव का धन्यवाद करें और उनसे आशीर्वाद की प्रार्थना करें। ध्यान रखें कि पाठ करने के बाद कभी भी आक्रोशित या हताश न हों।
इन नियमों का पालन करने से शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ शुभ और फलदायक होता है और भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है।
शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ अत्यधिक लाभकारी माना जाता है। यह स्तोत्र भगवान शिव की महिमा और शक्ति का बखान करता है, और इसके पाठ से कई प्रकार के आध्यात्मिक, मानसिक और भौतिक लाभ प्राप्त होते हैं। यहां कुछ प्रमुख लाभ दिए गए हैं जो शिव महिम्न स्तोत्र का नियमित पाठ करने से होते हैं:
1. संसारिक समस्याओं का समाधान:
- शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से जीवन की सभी प्रकार की समस्याओं, जैसे वित्तीय संकट, पारिवारिक विवाद, और मानसिक तनाव में कमी आती है। यह जीवन में शांति और सुख लाता है।
- इस स्तोत्र का पाठ करने से व्यापार, नौकरी या शिक्षा में सफलता मिलती है, और बाधाएं दूर होती हैं।
2. दुष्ट ग्रहों और बाधाओं से मुक्ति:
- जो व्यक्ति अपने जीवन में ग्रह दोष या किसी अन्य प्रकार की बाधाओं का सामना कर रहा होता है, वह शिव महिम्न स्तोत्र के पाठ से शिव की कृपा प्राप्त करता है, और इन बाधाओं से मुक्ति मिलती है।
- यह स्तोत्र शनि, राहु, केतु जैसे ग्रहों के प्रतिकूल प्रभाव को शांत करने में मदद करता है।
3. आध्यात्मिक उन्नति:
- शिव महिम्न स्तोत्र के पाठ से व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना जाग्रत होती है। यह मन को शुद्ध करने और आत्मज्ञान प्राप्त करने में मदद करता है।
- नियमित पाठ से व्यक्ति की आस्था मजबूत होती है, और वह आत्मा के उच्च स्तर पर पहुंचता है।
4. सभी प्रकार के रोगों से राहत:
- यह स्तोत्र शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के रोगों को दूर करने में सहायक होता है। शिव को आयुर्वेद और उपचार के देवता माना जाता है, इसलिए यह पाठ किसी भी शारीरिक कष्ट या रोग के निवारण में सहायक हो सकता है।
5. संकटों में सुरक्षा:
- शिव महिम्न स्तोत्र का नियमित पाठ व्यक्ति को सभी प्रकार के संकटों से सुरक्षित रखता है। यह व्यक्ति को भय, डर, और शत्रुओं से मुक्ति दिलाता है और उसे दुरात्माओं से बचाता है।
- इसे विशेष रूप से शिवरात्रि और सोमवार को पढ़ने से अधिक फल मिलता है।
6. आर्थिक समृद्धि और सफलता:
- यह स्तोत्र धन और समृद्धि में वृद्धि करने के लिए भी प्रसिद्ध है। व्यक्ति यदि आर्थिक तंगी से गुजर रहा हो, तो शिव महिम्न स्तोत्र के पाठ से वह अपने जीवन में आर्थिक उन्नति देख सकता है।
- यह व्यापार, नौकरी, और पेशेवर सफलता में भी मदद करता है।
7. शिव की कृपा और आशीर्वाद:
- शिव महिम्न स्तोत्र के पाठ से भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त होती है। भगवान शिव भक्तों की हर प्रकार से सहायता करते हैं, और उनके जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का संचार होता है।
- यह व्यक्ति को आत्मविश्वास प्रदान करता है और उसे कठिन समय से निकलने की शक्ति देता है।
8. सिद्धि और मुक्ति:
- शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ जीवन के सिद्धि की प्राप्ति का मार्ग खोलता है। इसके पाठ से व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
- यह स्तोत्र सिद्धियां और अनंत आशीर्वाद प्रदान करता है, जिससे व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से उच्चतम स्तर पर पहुंचता है।
9. शांति और मानसिक बल:
- मन की शांति और आत्मबल के लिए भी यह स्तोत्र बहुत प्रभावी है। जो लोग मानसिक तनाव या अवसाद से जूझ रहे होते हैं, उन्हें यह स्तोत्र आंतरिक शांति और संतुलन प्रदान करता है।
- यह मानसिक स्थिरता और संतुलन बनाए रखता है, जिससे व्यक्ति मानसिक दबाव और चिंता से मुक्त हो जाता है।
10. सुखमय जीवन और पारिवारिक समृद्धि:
- शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ पारिवारिक जीवन में भी खुशहाली और प्रेम का संचार करता है। परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे से प्रेम करते हैं और आपसी विवादों का समाधान होता है।
शिव महिम्न स्तोत्र ! Shiva Mahimna Stotra
पुष्पदन्त उवाच -
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी ।
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ।।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन् ।
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ।।1।।
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः ।
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः ।
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ।।२।।
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः ।
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः ।
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता ।।३।।
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् ।
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु ।।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं ।
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ।।४।।
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं ।
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः ।
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः ।।५।।
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां ।
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति ।।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो ।
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ।।६।।
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति ।
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।७।।
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः ।
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां ।
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ।।८।।
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं ।
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव ।
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ।।९।।
तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः ।
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः ।।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत् ।
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ।।१०।।
अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं ।
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान् ।।
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः ।
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ।।११।।
अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं ।
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः ।।
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि ।
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ।।१२।।
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं ।
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः ।।
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः ।
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ।।१३।।
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा ।
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः ।।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो ।
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्यसनिनः ।।१४।।
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे ।
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत् ।
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः ।।१५।।
मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं ।
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम् ।।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा ।
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ।।१६।।
वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः ।
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते ।।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति ।
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ।।१७।।
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो ।
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति ।।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः ।
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ।।१८।।
हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः ।
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः ।
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् ।।१९।।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां ।
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं ।
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः ।।२०।।
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां ।
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः ।।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः ।
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः ।।२१।।
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं ।
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं ।
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ।।२२।।
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत् ।
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात् ।
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ।।२३।।
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः ।
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः ।।
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं ।
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि ।।२४।।
मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः ।
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः ।।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये ।
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान् ।।२५।।
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः ।
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं ।
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि ।।२६।।
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान् ।
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति ।।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः ।
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ।।२७।।
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान् ।
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि ।
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते ।।२८।।
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः ।
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः ।।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः ।
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः ।।२९।।
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः ।
प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः ।।
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः ।
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ।।३०।।
कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं ।
क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः ।।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद् ।
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ।।३१।।
असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे ।
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं ।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ।।३२।।
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः ।
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।।
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः ।
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार ।।३३।।
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत् ।
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः ।।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र ।
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ।।३४।।
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः ।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ।।३५।।
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः ।
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।३६।।
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः ।
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः ।।
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् ।
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः ।।३७।।
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं ।
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः ।।
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः ।
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ।।३८।।
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम् ।
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम् ।।३९।।
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः ।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ।।४०।।
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर ।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ।।४१।।
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः ।
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते ।।४२।।
श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन ।
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण ।।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन ।
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ।।४३।।
।। इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं समाप्तम् ।।
निष्कर्ष
शिव महिम्न स्तोत्र एक अत्यंत शक्तिशाली स्तोत्र है जो भगवान शिव के महिम्न का बखान करता है। यह स्तोत्र न केवल शिव के अद्वितीय गुणों को प्रकट करता है, बल्कि शिव की भक्ति के माध्यम से जीवन को सफल और समृद्ध बनाने का मार्ग भी प्रशस्त करता है। जो व्यक्ति इस स्तोत्र का नियमित पाठ करते हैं, उन्हें भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है और उनका जीवन सुखमय होता है।
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