लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] एक सौ तीनवाँ अध्याय
भगवान् शिव एवं पार्वती के विवाह की मांगलिक कथा तथा विवाह के अनन्तर भगवान् शिव का काशी-आगमन और पार्वती को मुक्ति क्षेत्र काशी की महिमा बताना
सूत उवाच
अथ ब्रह्मा महादेवमभिवन्द्य कृताञ्जलिः ।
उद्वाहः क्रियतां देव इत्युवाच महेश्वरम् ॥ १
सूतजी बोले [हे ऋषियो!] इसके बाद ब्रह्मते हाथ जोड़कर महादेव महेश्वरको प्रणाम करके पह कहा- 'हे देव। अब विवाह कीजिये ' ॥१॥
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा ब्रह्मणः परमेष्ठिनः।
यथेष्टमिति लोकेशं प्राह भूतपतिः प्रभुः ॥ २
उद्वाहार्थ महेशस्य तत्क्षणादेव सुव्रताः ।
ब्रह्मणा कल्पितं दिव्यं पुरं रत्नमयं शुभम् ॥ ३
उन परमेष्ठी ब्रह्माका वह वचन सुनकर भूतपति शिवने लोकेश [ब्रह्मा] से कहा-'जो आपको इच्छा हो' हे सुव्रतो । ब्रह्माने महेशके विवाहके लिये उसी क्षण रत्नमय, दिव्य तथा सुन्दर नगरका निर्माण किया॥ २-३॥
अधादितिर्दितिः साक्षाद्दनुः कद्रुः सुकालिका।
पुलोमा सुरसा चैव सिंहिका विनता तथा ॥ ४
सिद्धिर्माया क्रिया दुर्गा देवी साक्षात्सुधा स्वधा।
सावित्री वेदमाता च रजनी दक्षिणा द्युतिः ॥ ५
स्वाहा स्वधा मतिर्बुद्धिऋद्धिवृद्धिः सरस्वती ।
राका कुहूः सिनीवाली देवी अनुमती तथा ॥ ६
धरणी धारणी चेला शची नारायणी तथा।
एताश्चान्याश्च देवानां मातरः पत्नयस्तथा ॥ ७
उद्वाहः शङ्करस्येति जग्मुः सर्वा मुदान्विताः ।
उरगा गरुडा यक्षा गन्धर्वाः किन्नरा गणाः ॥ ८
सागरा गिरयो मेघा मासाः संवत्सरास्तथा।
वेदा मन्त्रास्तथा यज्ञाः स्तोमा धर्माश्च सर्वशः ॥ ९
हुङ्कारः प्रणवश्चैव प्रतिहाराः सहस्त्रशः।
कोटिरप्सरसो दिव्यास्तासां च परिचारिकाः ॥ १०
वाश्च सर्वेषु द्वीपेषु देवलोकेषु निम्नगाः।
ताश्च स्त्रीविग्रहाः सर्वाः सञ्जग्मुर्हृष्टमानसाः ॥ ११
गणपाश्च महाभागाः सर्वलोकनमस्कृताः ।
उद्वाहः शङ्करस्येति तत्राजग्मुर्मुदान्विताः ॥ १२
इसके बाद अदिति, दिति, साक्षात् दनु, कटु सुकालिका, पुलोमा, सुरसा, सिंहिका, विनता, सिद्धि, माया, क्रिया, साक्षात् देवी दुर्गा, सुधा, स्वधा, वेदमाता सावित्र, रजनी, दक्षिणा, द्युति, स्वाहा, स्वधा, मति, बुद्धि, ऋद्धि. वृद्धि, सरस्वती, राका, कुडू, सिनीवाली, देवी अनुमत, धरणी, धारणी, इला, शची, नारायणी- ये सब एवं अन्य सभी देवमाताएँ तथा देवपत्नियाँ 'शंकरका विवाह हो रहा है' ऐसा सोचकर आनन्दमग्न होकर [वहाँ] गयीं। सभी उरग, गरुड़, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, गण, समुद्र, पर्वत मेघ, मास, संवत्सर, वेद, मन्त्र, यज्ञ, स्तोम, धर्म, हुंकार, प्रणव, हजारों प्रतिहार, करोड़ों दिव्य अप्सराएँ तथा उनकी परिचारिकाएँ और समस्त द्वीपों तथा देवलोकोंमें जो भी नदियाँ हैं, वे सब स्त्रीका रूप धारण करके प्रसन्नचित होकर वहाँ गयीं। सभी लोकोंसे नमस्कृत महाभाग गणेश्वर भी 'यह शंकरका विवाह है'- यह सोचकर प्रसन्नतासे युक्त हो वहाँ आये ॥ ४-१२॥
अभ्ययुः शङ्खवर्णाश्च गणकोट्यो गणेश्वराः ।
दशभिः केकराक्षश्च विद्युतोऽष्टाभिरेव च ॥ १३
चतुःषष्ट्या विशाखाश्च नवभिः पारयात्रिकः।
षड्भिः सर्वान्तकः श्रीमान् तथैव विकृताननः ॥ १४
ज्वालाकेशो द्वादशभिः कोटिभिर्गणपुङ्गवः ।
सप्तभिः समदः श्रीमान् दुन्दुभोऽष्टाभिरेव च ॥ १५
पञ्चभिश्च कपालीशः षद्भिः सन्दारकः शुभः ।
कोटिकोटिभिरेवेह गण्डकः कुम्भकस्तथा ॥ १६
शंखके समान वर्णवाले गणेश्वर [अपने] करोड़ों गणोंके साथ पहुँचे। केकराक्ष दस करोड़ गणोंके साथ, विद्युत आठ करोड़ गणोंके साथ, विशाख चौसठ करोड़ गणोंके साथ, पारयात्रिक नौ करोड़ गणोंके साथ, श्रीमान् सर्वान्तक छः करोड़ गणोंके साथ, विकृतानन भी छः करोड़ गणोंके साथ, गणोंमें श्रेष्ठ ज्वालाकेश बारह करोड़ गणोंक साथ, श्रीमान् समद सात करोड़ गणोंके साथ, दुन्दुभ आठ करोड़ गणोंके साथ, कपालोश पाँच करोड़ गणोंके साथ, उत्तम संदारक छः करोड़ गणोंके साथ और गण्डक तथा कुम्भक करोड़ों करोड़ों गणोंके साथ आये ॥ १३-१६ ॥
विष्टम्भोऽष्टाभिरेवेह गणपः सर्वसत्तमः ।
पिप्पलश्च सहस्त्रेण सन्नादश्च तथा द्विजाः ॥ १७
आवेष्टनस्तथाष्टाभिः सप्तभिश्चन्द्रतापनः ।
महाकेशः सहस्त्रेण कोटीनां गणपो वृतः ॥ १८
कुण्डी द्वादशभिर्वीरस्तथा पर्वतकः शुभः।
कालश्च कालकश्चैव महाकालः शतेन वै।। १९
आग्निकः शतकोट्या वै कोट्याग्निमुख एव च।
आदित्यमूर्धा कोट्या च तथा चैव धनावहः ।। २०
हे द्विनो! सर्वश्रेष्ठ गणेश्वर विष्टम्भ आठ करोड़ गणोंके साथ और पिप्पल तथा सन्नाद एक-एक हजार करोड़ गणोंके साथ आये। आवेष्टन [नामक गणेश्वर] आठ करोड़ गणोंके साथ, चन्द्रतापन सात करोड़ गणोंके साथ और गणेश्वर महाकेश हजार करोड़ गणोंके साथ आये पराक्रमशाली [गणेश्वर] कुण्डी तथा शुभ पर्वतक बारह करोड़ गणोंके साथ और काल, कालक तथा महाकाल सौ करोड़ गणोंके साथ आये। आग्निक सौ करोड़ गणोंके साथ तथा अग्निमुख एक करोड़ गणोंके साथ आये। उसी प्रकार आदित्यमूर्धा तथा धनावह [नामक गणेश्वर] भी एक करोड़ गणोंके साथ आये ॥ १७-२० ॥
सन्नामश्च शतेनैव कुमुदः कोटिभिस्तथा।
अमोघः कोकिलश्चैव कोटिकोट्या सुमन्त्रकः ॥ २१
काकपादोऽपरः षष्ट्या षष्ट्या सन्तानकः प्रभुः।
महाबलश्च नवभिर्मधुपिङ्गश्च पिङ्गलः॥ २२
नीलो नवत्या देवेशः पूर्णभद्रस्तथैव च।
कोटीनां चैव सप्तत्या चतुर्वक्कत्रो महाबलः ॥ २३
कोटिकोटिसहस्त्राणां शतैर्विशतिभिर्वृताः ।
तत्राजग्मुस्तथा देवास्ते सर्वे शङ्करं भवम् ॥ २४
सन्नाम तथा कुमुद सौ करोड़ गणोंके साथ आये। अमोघ, कोकिल तथा सुमन्त्रक करोड़ करोड़ गणोंके साथ आये। दूसरे गणेश्वर काकपाद साठ करोड़ गणोंके साथ, प्रभुतासम्पन्न सन्तानक साठ करोड़ गणोंके साथ और महाबल, मधु, पिंग तथा पिंगल नौ करोड़ गणोंके साथ आये। नील, देवेश तथा पूर्णभद्र नब्बे करोड़ गणोंके साथ और महाबलशाली चतुर्वक्त्र सत्तर करोड़ गणोंके साथ आये। वे सभी देव अपने बीस सौ हजार करोड़ गणोंसे घिरे हुए वहाँ भगवान् शंकरके पास पहुँचे ॥ २१-२४॥
भूतकोटिसहस्त्रेण प्रमथः कोटिभिस्त्रिभिः ।
वीरभद्रश्चतुःषष्ट्या रोमजाश्चैव कोटिभिः ।। २५
करणश्चैव विंशत्या नवत्या केवलः शुभः ।
पञ्चाक्षः शतमन्युश्च मेघमन्युस्तथैव च ॥ २६
काष्ठकूटश्चतुःषष्ट्या सुकेशो वृषभस्तथा।
विरूपाक्षश्च भगवान् चतुःषष्ट्या सनातनः ॥ २७
तालकेतुः षडास्यश्च पञ्चास्यश्च सनातनः ।
संवर्तकस्तथा चैत्रो लकुलीशः स्वयं प्रभुः ॥ २८
लोकान्तकश्च दीप्तास्यो तथा दैत्यान्तकः प्रभुः ।
मृत्युहृत्कालहा कालो मृत्युञ्जयकरस्तथा ॥ २९
विषादो विषदश्चैव विद्युतः कान्तकः प्रभुः ।
देवो भृङ्गी रिटिः श्रीमान् देवदेवप्रियस्तथा ॥ ३०
अशनिर्भासकश्चैव चतुःषष्ट्या सहस्त्रपात्।
एते चान्ये च गणपा असंख्याता महाबलाः ॥ ३१
सर्वे सहस्त्रहस्ताश्च जटामुकुटधारिणः ।
चन्द्ररेखावतंसाश्च नीलकण्ठास्त्रिलोचनाः ॥ ३२
हारकुण्डलकेयूरमुकुटाद्यैरलङ्कृताः ।
ब्रहोन्द्रविष्णुसङ्काशा अणिमादिगुणैर्वृताः ॥ ३३
सूर्यकोटिप्रतीकाशास्तत्राजग्मुर्गणेश्वराः ।
पातालचारिणश्चैव सर्वलोकनिवासिनः ॥ ३४
तुम्बरुर्नारदो हाहा हूहूश्चैव तु सामगाः।
रत्नान्यादाय वाद्यांश्च तत्राजग्मुस्तदा पुरम् ॥ ३५
प्रमथ [अपने] हजार करोड़ भूतों तथा तीन करोड़ गणोंके साथ आये। वीरभद्र चौंसठ करोड़ गणोंके साथ और रोमज करोड़ों गणोंके साथ आये। करण बौस करोड़ गणोंके साथ और केवल, शुभ, पंचाक्ष, शतमन्नु तथा मेघमन्यु भी नब्बे करोड़ गणोंके साथ आये। काष्ठकूट, सुकेश तथा वृषभ चौंसठ करोड़ गणोंकि साथ और भगवान् सनातन विरूपाक्ष भी चौंसठ करोड़ गणोंके साथ आये। इसी प्रकार तालकेतु, षडास्य, पंचात्य, सनात्तन, संवर्तक, चैत्र, साक्षात् प्रभु लकुलीश, लोकान्तक, दीप्तास्य, प्रभु दैत्यान्तक, मृत्युहत्, कालहा, काल, मृत्युंजयकर, विषाद, विषद, विद्युत, प्रभु कान्तक, देव, भृंगी, रिटि, श्रीमान् देवदेवप्रिय, अशनि, भासक तथा सहस्त्रपात् चौंसठ करोड़ गोंके साथ आये। ये सब तथा अन्य असंख्य महाबली गणेश्वर भी वहाँ आये। वे सभी हजार हाथोंवाले, जटा मुकुट धारण किये हुए, मस्तकपा चन्द्ररेखासे विभूषित, नीलकण्ठवाले, तीन नेत्रोंवाले, हार-कुण्डल-केयूर-मुकुट आदिसे अलंकृत, ब्रहम- इन्द्र विष्णुके समान प्रतीत होनेवाले, अणिमा आदि सिद्धियोंसे युक्त थे; करोड़ों सूर्योक सदृश आभावाते पाताललोक में विचरण करनेवाले तथा सभी लोकोंमें निवास करने वाले वे गणेश्वर वहाँ आये। तुम्बुरु, नारद, हाहा, हुडू एवं साम गान करनेवाले भी रत्नों तथा वाद्ययन्त्रोंको लेकर उस पुरमें आये ॥ २५-३५ ॥
ऋषयः कृत्स्नशस्तत्र देवगीतास्तपोधनाः ।
पुण्यान् वैवाहिकान् मन्त्रानजपुर्हष्टमानसाः ।। ३६
देवताओंद्वारा स्तुत तथा तपोधन बहुत-से ऋषिगण प्रसन्नचित्त होकर विवाहसम्बन्धी पवित्र मन्त्रोंका उच्चारण करने लगे ॥ ३६ ॥
तत एवं प्रवृत्ते तु सर्वतश्च समागमे।
गिरिजां तामलङ्कृत्य स्वयमेव शुचिस्मिताम् ॥ ३७
पुरं प्रवेशयामास स्वयमादाय केशवः ।
सदस्याह च देवेशं नारायणमजो हरिम् ॥ ३८
भवानग्रे समुत्पन्नो भवान्या सह दैवतैः।
वामाङ्गादस्य रुद्रस्य दक्षिणाङ्गादहं प्रभो ॥ ३९
मन्मूर्तिस्तुहिनाद्रीशो यज्ञार्थं सृष्ट एव हि।
एषा हैमवती जज्ञे मायया परमेष्ठिनः ॥ ४०
श्रौतस्मार्तप्रवृत्यर्थमुद्वाहार्थमिहागतः ।
अतोऽसौ जगतां धात्री धाता तव ममापि च।। ४१
अस्य देवस्य रुद्रस्य मूर्तिभिर्विहितं जगत् ।
क्ष्माबग्निखेन्दुसूर्यात्मपवनात्मा यतो भवः ॥ ४२
तथापि तस्मै दातव्या वचनाच्च गिरेर्मम।
एथा हाजा शुक्लकृष्णा लोहिता प्रकृतिर्भवान्।। ४३
श्रेयोऽपि शैलराजेन सम्बन्धोऽयं तवापि च।
तव पादो समुद्भूतः कल्पे नाभ्यम्बुजादहम् ।। ४४
इस प्रकार पूर्णरूपसे सबके उपस्थित हो जानेपर विष्णुने स्वयं पवित्र मुसकानवाली पार्वतीको अलंकृत करके तथा स्वयं उन्हें ला करके पुरमें प्रवेश कराया। तदनन्तर ब्रह्माने देवताओंके स्वामी नारायण विष्णुसे सभामें कहा-'हे प्रभो। पहले आप इन रुद्रके बाएँ अंगसे भवानी तथा देवताओंके साथ उत्पन्न हुए और मैं इनके दाहिने अंगसे उत्पन्न हुआ। मेरे अंशस्वरूप पर्वतराज हिमालय वास्तवमें इस यज्ञके लिये ही उत्पन्न किये गये हैं। इन पार्वतीने परमेष्ठी [शिव] की मायासे हिमवान्की पुत्रीके रूपमें जन्म लिया है। अतः ये सभी हुए ये रुद्र सबके धाता (जनक) हैं। चूंकि पृथ्वी, जल, लोकोंकी, आपकी तथा मेरी भी धात्री (जननी) हैं और श्रीत-स्मार्त प्रवृत्तिके लिये विवाहके उद्देश्यसे यहाँ आये अग्नि, आकाश, चन्द्र, सूर्य, आत्मा तथा पवन शिवके ही विग्रहस्वरूप हैं, अतः इन रुद्रदेवकी [इन्हीं] मूर्तियोंसे ही जगत् उत्पन्न हुआ है। तथापि हिमवान्के तथा मेरे वचनसे शुक्ल-कृष्ण-लोहित वर्णवाली मायारूपा इन पार्वतीको उन शिवके निमित्त प्रदान कर देना चाहिये; [हे विष्णो!] आप भी प्रकृतिरूप हैं। पर्वतराजके साथ यह सम्बन्ध आपके लिये भी कल्याणप्रद है। मैं पद्मकल्पमें आपके नाभिकमलसे उत्पन्न हुआ था; अतः आप मेरे अंशस्वरूप इन हिमालयके तथा मेरे भी गुरु हैं ।॥ ३७-४४ ॥
मदंशस्यास्य शैलस्य ममापि च गुरुर्भवान्।
सूत उवाच
बाढमित्यजमाहासौ देवदेवो जनार्दनः ॥ ४५
देवाश्च मुनयः सर्वे देवदेवश्च शङ्करः ।
ततश्चोत्थाय विद्वान् सः पद्मनाभः प्रणम्य ताम् ॥ ४६
पादौ प्रक्षाल्य देवस्य कराभ्यां कमलेक्षणः ।
अभ्युक्षदात्मनो मूर्छिन ब्रह्मणश्च गिरेस्तथा ।। ४७
त्वदीयैषा विवाहार्थं मेनजा हानुजा मम।
इत्युक्त्वा सोदकं दत्त्वा देवीं देवेश्वराय ताम् ।। ४८
स्वात्मानमपि देवाय सोदकं प्रददौ हरिः।
अध सर्वे मुनिश्रेष्ठाः सर्ववेदार्थपारगाः ।॥ ४९
ऊचुर्दाता गृहीता च फलं द्रव्यं विचारतः ।
एष देवो हरो नूनं मायया हि ततो जगत् ॥ ५०
सूतजी बोले [है ऋषियो!] तब उन देवदेव जनार्दनने ब्रह्मासे कहा- 'ठीक है।' तब देवतागण, सभी मुनि तथा देवदेव शिव प्रसन्न हो गये। तदनन्तर कमलके समान नेत्रवाले उन विद्वान् पद्मनाभ विष्णुने उठकर उन [पार्वती] को प्रणाम करके अपने हाथोंसे शिवके दोनों चरणोंको धोकर अपने, ब्रह्माके तथा हिमालयके सिरपर जल छिड़का। [हे शिव।] आपकी नित्यसम्बन्धिनी ये [पार्वती] विवाहविधिकी सिद्धिके लिये ही मेनासे उत्पन्न हुई हैं; ये मेरी छोटी बहन हैं'- ऐसा कहकर विष्णुने उन पार्वतीको देवेश्वरके लिये जलसहित समर्पित करके स्वयं अपनेको भी उन देवके लिये जल सहित समर्पित कर दिया इसके बाद सभी वेदोंके अर्थोंमें पारंगत श्रेष्ठ मुनियोंने कहा- 'विचार करनेपर वस्तुतः ये महादेव शिव ही दाता, गृहीता, द्रव्य तथा फल सब कुछ हैं और इन्हींकी मायासे यह जगत् स्थित है' ऐसा कहकर प्रसन्नतासे रोमांचित उन सभीने शिवजीको प्रणाम किया ॥ ४५-५०॥
इत्युक्त्वा तं प्रणेमुश्च प्रीतिकण्टकितत्वचः ।
ससृजुः पुष्पवर्षाणि खेचराः सिद्धचारणाः ॥५१
देवदुन्दुभयो नेदुर्ननृतुश्चाप्सरोगणाः ।
वेदाश्च मूर्तिमन्तस्ते प्रणेमुस्तं महेश्वरम् ॥ ५२
उस समय आकाशचारी सिद्धों तथा चारणोंने पुष्पवृष्टि की, देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं औरअप्सराएँ नृत्य करने लगीं। सभी वेदोंने शरीर धारण करके ब्रह्मा तथा मुनियोंके साथ उन देवदेव उमापति महेश्वरको प्रणाम किया ॥ ५१-५२ ॥
ब्रह्मणा मुनिभिः सार्धं देवदेवमुमापतिम् ।
देवोऽपि देवीमालोक्य सलज्जां हिमशैलजाम् ॥ ५३
न तृप्यत्यनवद्याङ्गी सा च देवं वृषध्वजम्।
वरदोऽस्मीति तं प्राह हरिं सोऽप्याह शङ्करम् ॥ ५४
त्वयि भक्तिः प्रसीदेति ब्रह्याख्यां च ददौ तु सः।
ततस्तु पुनरेवाह ब्रह्मा विज्ञापयन् प्रभुम् ॥ ५५
हविर्जुहोमि वह्रौ तु उपाध्यायपदे स्थितः ।
ददासि मम यद्याज्ञां कर्तव्यो ह्यकृतो विधिः ॥ ५६
लज्जासे भरी हुई देवी पार्वतीको देखकर शिव तृप्त नहीं होते थे और दूषणरहित शरीरवाली वे [पार्वती] भी देवदेव वृषभध्वजको देखकर तृप्त नहीं होती थीं। तब शिवने विष्णुसे कहा- 'मैं वरदाता हूँ।' इसपर उन्होंने भी शंकरसे कहा- आपमें मेरी भक्ति बनी रहे; मुझपर प्रसन्न होइये।' तब शिवने उन्हें ब्रह्मत्व प्रदान किया। इसके बाद ब्रह्माने पुनः प्रभुसे प्रार्थना करते हुए कहा-'मैं उपाध्याय (आचार्य) के पदपा स्थित होकर अग्निमें हवन करता हूँ और यदि आप आज्ञा दें, तो जो विधि अभीतक नहीं की गयी है, उसे सम्पन्न करूँ' ॥ ५३-५६ ॥
तमाह शङ्करो देवं देवदेवो जगत्पतिः ।
यद्यदिष्टं सुरश्रेष्ठ तत्कुरुष्व यथेप्सितम् ॥ ५७
कर्तास्मि वचनं सर्वं देवदेव पितामह।
ततः प्रणम्य हृष्टात्मा ब्रह्मा लोकपितामहः ।। ५८
हस्तं देवस्य देव्याश्च युयोज परमं प्रभुः ।
ज्वलनश्च स्वयं तत्र कृताञ्जलिरुपस्थितः ।। ५९
श्रऔतैरेतैर्महामन्त्रैर्मूर्तिमद्भिरुपस्थितैः।
यथोक्तविधिना हुत्वा लाजानपि यथाक्रमम् ॥ ६०
आनीतान् विष्णुना विप्रान् सम्पूज्य विविधैवरैः ।
त्रिश्च तं ज्वलनं देवं कारयित्वा प्रदक्षिणम् ॥ ६१
मुक्त्वा हस्तसमायोगं सहितैः सर्वदैवतैः।
सुरैश्च मानवैः सर्वैः प्रहृष्टेनान्तरात्मना ॥ ६२
तब जगत्के स्वामी देवदेव शंकरने उन देव ब्रह्मासे कहा- 'हे सुरश्रेष्ठ ! जो-जो अभीष्ट हो, उसे आप इच्छानुसार कीजिये। हे देवदेव! हे पितामह। मैं [आपके] समस्त वचनका पालन करूँगा' ,तदनन्तर [उन्हें] प्रणाम करके प्रसन्न चित परम प्रभु लोकपितामह ब्रह्माने शिव तथा देवी [पार्वती]-के हाथोंको [परस्पर] मिला दिया। स्वयं अग्निदेव हाथ जोड़े हुए वहाँ उपस्थित हुए। [साक्षात्] मूर्तिमान् होकर उपस्थित वैवाहिक श्रौत महामन्त्रोंके द्वारा यथोत विधिसे हवन करनेके अनन्तर विष्णुके द्वारा लाये गये लाजा (धानका लावा) का भी यथाक्रम हवन करके विविध गोदानोंसे विप्रोंकी पूजाकर पुनः तीन बार अग्निदेवकी प्रदक्षिणा कराकर उनके मिले हुए हाथको मुक्त कराकर भगवान् ब्रह्माने प्रसन्न मनसे सभी देवताओं, ऋषियों तथा मनुष्योंके साथ देवदेव उमापतिको प्रणाम किया ॥ ५७-६२ ॥
ततः पाद्यं तयोर्दत्वा शम्भोराचमनं तथा ॥ ६३
ननाम भगवान् ब्रह्मा देवदेवमुमापतिम् ।
मधुपर्क तथा गां च प्रणम्य च पुनः शिवम्।
अतिष्ठद्भगवान् ब्रह्मा देवैरिन्द्रपुरोगमैः ॥ ६४
भृग्वाद्या मुनयः सर्वे चाक्षतैस्तिलतण्डुलैः ।
सूर्योदयः समभ्यर्च्य तुष्टुवुर्वृषभध्वजम् ॥ ६५
शिवः समाप्य देवोक्तं वह्निमारोप्य चात्मनि।
तया समागतो रुद्रः सर्वलोकहिताय वै ॥ ६६
यः पठेच्छृणुयाद्वापि भवोद्वाहं शुचिस्मितः ।
श्रवयेद्वा द्विजान् शुद्धान् वेदवेदाङ्गपारगान् ॥ ६७
स लब्ब्वा गाणपत्यं च भवेन सह मोदते।
यत्रायं कीर्त्यते विप्रैस्तावदास्ते तदा भवः ॥ ६८
तस्मात्सम्पूज्य विधिवत्कीर्तयेनान्यथा द्विजाः ।
उद्वाहे च द्विजेन्द्राणां क्षत्रियाणां द्विजोत्तमाः ।। ६९
समस्त भृगु आदि मुनियों तथा सूर्य आदि ग्रहोंने अक्षतों तथा तिल-तण्डुलोंसे वृषभध्वजका अर्चन करके उनको स्तुति की तत्पश्चात् वे रुद्र शिव ब्रह्मोक्त समस्त [वैवाहिक] कृत्य सम्पन्न करके तथा अग्निको अपनेमें आरोपित करके सभी लोकोंके हितके लिये उन पार्वतीके साथ वहाँसे प्रस्थित हुए जो [व्यक्ति] पवित्र होकर प्रसन्नतापूर्वक शिवके विवाह-आख्यानको पढ़ता अथवा सुनता है अथवा वेद- वेदांगमें पारंगत शुद्ध द्विजोंको सुनाता है, वह गणपति-पद शिवजी विराजमान रहते हैं, इसमें सन्देह नहीं है। अतः प्राप्त करके शिवके साथ आनन्दित होता है। जहाँ भी ब्राह्मणोंद्वारा इस विवाह-प्रसंगको कहा जाता है, वहाँपर हे द्विजो! विधिवत् उनकी पूजा करके इस आख्यानको अवश्य कहना चाहिये। हे उत्तम ब्राह्मणो। श्रेष्ठ द्विजों तथा क्षत्रियोंके विवाहमें इस अत्युत्तम सम्पूर्ण शिवविवाह- प्रसंगका कीर्तन करना चाहिये ॥ ६३-६९॥
कीर्तनीयमिदं सर्वं भवोद्वाहमनुत्तमम् ।
कृतोद्वाहस्तदा देव्या हैमवत्या वृषध्वजः ॥ ७०
सगणो नन्दिना सार्धं सर्वदेवगणैर्वृतः ।
पुरीं वाराणसीं दिव्यामाजगाम महाद्युतिः ॥ ७१
अविमुक्ते सुखासीनं प्रणम्य वृषभध्वजम्।
अपृच्छत् क्षेत्रमाहात्म्यं भवानी हर्षितानना ॥ ७२
तब विवाह कर लेनेके उपरान्त महाकान्तिसम्पन्न शिवजी [अपने] गणों, नन्दी तथा देवी पार्वतीके साथ दिव्य वाराण सीपुरी में आये इसके बाद हर्षयुक्त मुखमण्डलवाली भवानी अविमुक्त (वाराणसी) में सुखपूर्वक आसीन वृषभध्वज को प्रणाम करके [उस] क्षेत्रका माहात्म्य पूछने लगीं ॥ ७०-७२ ॥
अथाहार्थेन्दुतिलकः क्षेत्रमाहात्म्यमुत्तमम् ।
अविमुक्तस्य माहात्म्यं विस्तराच्छक्यते नहि ।। ७३
वक्तुं मया सुरेशानि ऋषिसङ्घाभिपूजितम्।
किं मया वर्ण्यते देवि ह्यविमुक्तफलोदयः ।। ७४
पापिनां यन्त्र मुक्तिः स्यान्मृतानामेकजन्मना ।
अन्यत्र तु कृतं पापं वाराणस्यां व्यपोहति ॥ ७५
वाराणस्यां कृतं पापं पैशाच्यनरकावहम् ।
कृत्वा पापसहस्त्राणि पिशाचत्वं वरं नृणाम् ॥ ७६
न तु शक्रसहस्त्रत्वं स्वर्गे काशीपुरीं विना।
यत्र त्रिविष्टपो देवो यत्र विश्वेश्वरो विभुः ॥ ७७
तब अर्धचन्द्रको तिलकरूपमें धारण करनेवाले शिवजी उत्तम क्षेत्रमाहात्म्यका वर्णन करने लगे-'हे सुरेशानि ! मेरे द्वारा अविमुक्तक्षेत्रका माहात्म्य विस्तारपूर्वक नहीं कहा जा सकता है; यह क्षेत्र ऋषियोंद्वारा पूजित है। हे देवि । मैं अविमुक्तक्षेत्रमें होनेवाले पुण्यफलका वर्णन कैसे करूँ, जहाँपर मरनेवाले पापियोंकी एक ही जन्ममें मुक्ति हो जाती है। [लोगोंद्वारा] अन्यत्र किया गया पाप वाराणसीमें नष्ट हो जाता है और वाराणसीमें किया गया पाप पिशाचयो निरूपी नरककी प्राप्ति करानेवाला होता है। हजारों पाप करके मनुष्योंके लिये पिशाचत्व श्रेष्ठ है, किंतु काशीपुरीके बिना स्वर्गमें हजार बार इन्द्रपद प्राप्त करना भी श्रेष्ठ नहीं है। जहाँपर भगवान् त्रिविष्टर विश्वेश्वर तथा कृत्तिवास ओंकारेश [सदा) विराजमान हैं, उस काशीमें मरनेवालोंका पुनर्जन्म नहीं होता ' ॥ ७३-७७ ॥
ओङ्कारेशः कृत्तिवासा मृतानां न पुनर्भवः।
उक्त्वा क्षेत्रस्य माहात्म्यं सक्षेपाच्छशिशेखरः ॥ ७८
दर्शयामास चोद्यानं परित्यज्य गणेश्वरान्।
तत्रैव भगवान् जातो गजवक्त्रो विनायकः ॥ ७९
दैत्यानां विघ्नरूपार्थमविघ्नाय दिवौकसाम्।
एतद्वः कथितं सर्व कथासर्वस्वमुत्तमम् ॥ ८०
यथाश्रुतं मया सर्व प्रसादाद्वः सुशोभनम् ॥ ८१
इस प्रकार संक्षेपमें क्षेत्रका माहात्म्य कहकर गणेश्वरोंको विदा करके चन्द्रशेखरने पार्वतीको [अपना] उद्यान दिखाया । भगवान् गजानन विनायक दैत्योंको विघ्न उत्पन्न करनेके लिये तथा देवताओंका विघ्न दूर करनेके लिये वहीं पर उत्पन्न हुए थे। [हे ऋषियोः। मैंने आपलोगों को कथा का सम्पूर्ण उत्तम तथा सुन्दर तत्त्व संक्षेपमें बता दिया, जैसा कि मैंने व्यासजीकी कृपाछे सुना था॥ ७८-८१॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे पार्वतीविवाहवर्णनं नाम त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०३ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'पार्वतीविवाहवर्णन' नामक एक सौ तीनों अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १०३॥
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