लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] तिरसठवाँ अध्याय
दक्षप्रजापति द्वारा मैथुनी सृष्टिका प्रादुर्भाव, दक्षकन्याओं की वंश-परम्परा तथा ऋषिवंश वर्णन
ऋषय ऊचु:
देवानां दानवानां च गन्धर्वोरगरक्षसाम्।
उत्पत्ति ब्रूहि सूताद्य यथाक्रममनुत्तमम्॥ १
ऋषिगण बोले--हे सूतजी ! अब आप देवताओं, दानवों, गन्धर्वों, उरगों और राक्षसों की उत्पत्ति का उत्तम विधि से यथा क्रम वर्णन कीजिये॥ १॥
यूत उवाच
सड्डल्पादर्शनात्स्पर्शात्पूर्वेषां. सृष्टिरुच्यते ।
दक्षात्प्राचेतसादूर्ध्व सृष्टिमैं थुनसम्भवा॥ २
यदा तु सृजतस्तस्यथ देवषिगणपन्नगान्।
न वृद्धिमगमल्लोकस्तदा मैथुनयोगतः ॥ ३
दक्ष: पुत्रसहस्त्राण पञ्च सूत्यामजीजनतू।
तांस्तु दृष्ट्वा महाभागान् सिसृक्षुर्विविधा: प्रजा: ॥ ४
सूतजी बोले--पूर्व पुरुषोंकी सृष्टि संकल्पसे, दर्शनसे तथा स्पर्शसे कही जाती है। प्रचेतसके पुत्र दक्षके बाद [स्त्री-पुरुषके] संयोगसे सृष्टि प्रारम्भ हुई। जब देवताओं, ऋषियों और पननगोंका सृजन करते हुए उन प्रजापतिसे लोक वृद्धिको प्राप्त नहीं हुआ, तब दक्षने मैथुनयोगसे [अपनी भार्या] सूतिसे पाँच हजार पुत्र उत्पन्न किये। तत्पश्चातू उन महाभाग्यवालोंको देखकर वे अनेक प्रकारकी प्रजाओंकी सृष्टिके इच्छुक हो गये॥ २--४॥
नारदः प्राह हर्यश्वान् दक्षपुत्रान् समागतानू।
भुव: प्रमाणं सर्व तु ज्ञात्वोर्ध्वमध एवं च॥५
ततः सृष्टि विशेषेण कुरुध्व॑ मुनिसत्तमा:।
ते तु तद्गबचनं श्रुत्वा प्रयाता: सर्वतोदिशम्॥ ६
तब नारदजी ने उत्पन्न हुए [उन] हर्यश्व नाम वाले दक्ष-पुत्रोंसे कहा--ऊपर तथा नीचे पृथ्वीका प्रमाण जानकर आपलोग विशेष रूपसे सृष्टि कीजिये । है मुनिश्रेष्ठझो! उनका वचन सुनकर वे सभी दिशाओंपे चले गये। वे आजतक नहीं लौटे, जैसे नदियाँ [ समुद्र मिलकर] समुद्रसे वापस नहीं लौटतीं॥ ५-६ ॥
अद्यापि न निवर्तन्ते समुद्रादिव सिन्धव:।
हर्यश्वेषु च नष्टेषु पुनर्दक्षः प्रजापति:॥ ७
सूत्यामेव च पुत्राणां सहस्त्रमसृजत्प्रभु:।
शबला नाम ते विप्रा: समेता: सृष्टिहेतव:॥ ८
नारदोनुगतान् प्राह पुनस्तान् सूर्यवर्चस:।
भुव: प्रमाणं सर्व तु ज्ञात्वा भ्रातृनू पुनः पुन:॥ ९
आगत्य वाथ सृष्टिं वै करिष्यथ विशेषत:।
तेडपि तेनेव मार्गेण जम्मुभ्रातृगतिं तथा॥ १०
हर्यश्वसंज्ञक पुत्रोंके नष्ट हो जानेपर प्रजापति प्रभु दक्षने सूतिसे पुनः एक हजार पुत्रोंको उत्पन्न किया हे विप्रो! जब शबल नामवाले वे पुत्र सृष्टि करनेके लिये एकत्रित हुए, तब नारदने सूर्यके समान तेजवाले उन आये हुए पुत्रोंसे पुनः कहा-- पृथ्वीका सम्पूर्ण विस्तार जानकर तथा अपने भाइयोंका बार-बार पता लगाकर यहाँ आकरके आपलोग विशेषरूपसे सृष्टि कीजिये।' वे भी उसी मार्गसे [अपने] भाइयोंकी गतिको प्राप्त हुए्॥७--१०॥
ततस्तेष्वषि नष्टेषु षष्टिकन्या: प्रजापति: ।
बैरिण्यां जनयामास दक्ष: प्राचेतसस्तदा॥ १९
प्रादास्स दशक धर्म कश्यपाय त्रयोदश।
विंशत्सप्त च सोमाय चतस्त्रो रिष्टनेमये॥ १२
द्वे चेव भृगुपुत्राय द्वे कुशाश्वाय धीमते।
द्वे चेवाड्रसे तद्वत्तासां नामानि विस्तरात्॥ १३
तदनन्तर उनके भी नष्ट हो जानेपर प्रचेतसके पुत्र प्रजापति दक्षने वैरिणी [नामक भार्या]-से साठ कन्याएँ उत्पन्न कीं। उन्होंने दस [कन्याएँ] धर्मको, तेरह [कन्याएँ] कश्यपको, सत्ताईस [कन्याएँ] चन्द्रमाको, चार [कन्याएँ] अरिष्टनेमिको, दो [कन्याएँ] भृगपुत्रको, दो [कन्याएँ] बुद्धिमानू कृशाश्वको और दो [कन्याएँ] आंगिरसको प्रदान कीं। [हे विप्रो!] अब उन देवमाताओंके नाम तथा उनकी सन्तानोंके विस्तारको आरम्भसे सुनिये॥११--१३॥
श्रृणुध्व॑ देवमातृणां प्रजाविस्तारमादित:।
मरुत्वती वसूर्यामिलम्बा भानुररुन्धती॥ १४
सड्डुल्पा च मुहूर्ता च साध्या विश्वा च भामिनी।
धर्मपत्य: समाख्यातास्तासां पुत्रान् वदामि व: ॥ १५
विश्वेदेवास्तु विश्वाया: साध्या साध्यानजीजनत्।
मरुत्वत्यां मरुत्वन्तो वसोस्तु वसवस्तथा॥ १६
भानोस्तु भानव: प्रोक्ता मुहूर्ताया मुहूर्तका:।
लम्बाया घोषनामानो नागवीथीस्तु यामिज:॥ १७
सड्डल्पायास्तु सड्डल्पो वसुसर्ग वदामि वः।
ज्योतिष्मन्तस्तु ये देवा व्यापका: सर्वतोदिशम्॥ १
बसवस्ते समाख्याता: सर्वभूतहितैषिण:।
आपो ध्रुवश्च॒ सोमश्च धरएचैवानिलोइनल: ॥ १९
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोष्टौ प्रकीर्तिता:।
अजैकपादहिर्बुध्यो विरूपाक्ष: सभैरव:॥ २०
हरशएच बहुरूपश्च त्यम्बकश्च सुरेश्वरः।
सावित्रश्च जयन्तश्च पिनाकी चापराजित:॥ २९
मरुत्वती, वसु, यामि, लम्बा, भानु, अरुन्धती, संकल्पा, मुहूर्ता, साध्या और परम सुन्दरी विश्वा धर्मकी पत्नियाँ कही गयी हैं। [हे ऋषियो !] अब मैं उनके पुत्रोंको बताता हूँ--विश्वासे विश्वेदेव हुए। साध्याने साध्योंको जन्म दिया। मरुत्वतीसे मरुत्वान् हुए और वसुसे सभी बसु उत्पन्न हुए। भानुसे भानुगण तथा मुहूर्तासे मुहूर्तनण [उत्पन्न] बताये गये हैं। लम्बासे घोषनामवाले पुत्र हुए। यामिसे नागवीधि उत्पनन हुआ। संकल्पासे संकल्प [नामक पुत्र हुआ। अब मैं आपलोगोंको वसुओंकी सृष्टि बताती हूँ हा जो देवता ज्योतिष्मानू तथा सभी दिशाओं व्यापक हैं, वे बसु कहे गये हैं; वे सभी प्राणियोंके हितैषी हैं। आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष तथा प्रभास--ये आठ वसु कहे गये हैं। अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, विरूपाक्ष, भेरव, हर, बहुरूप, सुरेश्वर ज्यम्बक, सावित्र, जयन्त, पिनाकी तथा अपराजित - गणेश्वर ग्यारह रुद्र कहे गये हैं॥ १४--२१॥
एते रुद्रा: समाख्याता एकादश गणेश्वरा:।
कश्यपस्य प्रवक्ष्यामि पत्लीभ्य: पुत्रपौत्रकम्॥ २२
अदितिश्च दितिश्चैव अरिष्टा सुरसा मुनि:।
सुरभिर्विनता ताम्रा तद्बत् क्रोधवशा इला॥ २३
कद्रूस्त्विषा दनुस्तद्वत्तासां पुत्रान् वदामि व:।
तुषिता नाम ये देवाश्चाक्षुषस्यान्तरे मनो:॥ २४
बैवस्वतान्तरे ते वे आदित्या द्वादश स्मृता:।
इन्द्रो धाता भगस्त्वष्टा मित्रोथ वरुणोर्यमा॥ २५
विवस्वान् सविता पूषा अंशुमान् विष्णुरेव च।
एते सहस्त्रकिरणा आदित्या द्वादश स्मृता:॥ २६
[हे ऋषियो!] अब मैं कश्यपकी पत्लियोंसे उत्पन्न पुत्रों तथा पौत्रोंको बताऊँगा। अदिति, दिति, अरिष्टा, सुरसा, मुनि, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इला, कद्रू, त्विषा एवं दनु-ये कश्यपकी पत्नियाँ थीं। अब मैं आपलोगोंको उनके पुत्रोंको बताता हूँ। चाक्षुष मन्वन्तरमें जो तुषित नामवाले देवता थे, वे बैवस्वत मन्वन्तरमें बारह आदित्य कहे गये हैं। इन्द्र, धाता, भग, त्वष्टा, मित्र, वरुण, अर्यमा, विवस्वानू, सविता, पूषा, अंशुमानू तथा विष्णु-ये हजार किरणोंवाले बारह आदित्य कहे गये हैं॥२२--२६॥
दितिः पुत्रद्दय॑ लेभे कश्यपादिति नः श्रुतम्।
हिरण्यकशिपुं चैव हिरण्याक्षं तथेव च।॥ २७
दनुः पुत्रशतं लेभे कश्यपाद् बलदर्पितम्।
विप्रचित्ति: प्रधानोभूत्तेषां मध्ये द्विजोत्तमा: ॥ २८
ताम्रा च जनयामास षट् कन्या द्विजपुड़वा:।
शुकीं एयेनीं च भारी च सुग्रीवीं गृश्चिकां शुच्म्॥ २९
शुकी शुकानुलूकांश्च जनयामास धर्मतः।
श्येनी एयेनांस्तथा भासी कुरड्रांश्च व्यजीजनतू॥ ३०
गृश्ली गृश्नान् कपोतांश्च पारावतविहड्भमान्।
हंससारसकारण्डप्लवांश्छुचिरजीजनत् ॥ ३१
दितिने कश्यपसे हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष-इन दो पुत्रोंको प्राप्त किया था, ऐसा हमने सुना है। दनुने कश्यपसे बलके अभिमानवाले सौ पुत्र प्राप्त किये। हे श्रेष्ठ द्विजो! उनमें विप्रचित्ति प्रधान था। हे श्रेष्ठ द्विजो! ताग्राने शुकी, श्येनी, भासी, सुग्रीवी, गृध्रिका तथा शुचि--इन छ: कन्याओंको जन्म दिया। शुकीने धर्मसे शुकों तथा उलूकोंको उत्पन्न किया। श्येनीने श्येनों (बाज) तथा भासीने कुरंगोंको जन्म दिया। गृप्रीने गीधोंको, कपोतों तथा पारावत पक्षियोंकों जन्म दिया। शुचिने हंस, सारस तथा कारण्ड पक्षियोंको जन्म दिया। सुग्रीवीने अजों, अश्वों, मेषों, ऊँटों तथा गर्दभोंकों जन्म दिया॥२७--३१॥
अजाएवमेषोष्ट्रखरान् सुग्रीवी चाप्यजीजनत्।
विनता जनयामास गरुडं चारुणं शुभा॥ ३२
सौदामिनीं तथा कन्यां सर्वलोकभयद्डुरीम्।
सुरसाया: सहस्त्र॑ तु॒ सर्पाणामभवत्पुरा॥ ३३
कद्गू: सहस्त्रशिर्सां सहस्त्रं प्राप सुब्रता।
प्रधानास्तेषु विख्याता: षड्विंशतिरनुत्तमा:॥ ३४
शेषवासुकिकर्कोटशब्भैरावतकम्बला: ।
धनज्जयमहानीलपदाश्वतरतक्षका: ॥ ३५
एलापत्रमहापदाधृतराष्ट्रबलाहका: ।
शट्डुपालमहाशड्डपुष्पदंष्ट्रशुभानना: ॥ ३६
शट्डुलोमा च नहुषो वामनः फणितस्तथा।
कपिलो दुर्मुखश्चापि पतञ्जलिरिति स्मृतः ॥ ३७
शुभ विनताने गरुड़ तथा अरुणको और सभी लोकोंको भय प्रदान करनेवाली सौदामिनी [नामक] कन्याको उत्पन्न किया। सुरसासे हजारों सर्प उत्पन्न हुए। उत्तम ब्रतवाली कद्गूने हजार सिरवाले एक हजार सर्प उत्पन्न किये। उनमें छब्बीस [सर्प] उत्तम तथा प्रधान कहे गये हैं; वे शेष, वासुकि, कर्कोट, शंख, ऐरावत, कम्बल, धनंजय, महानील, पद्म, अश्वतर, तक्षक, एलापत्र, महापद्म, धृतराष्ट्र, बलाहक, शंखपाल महाशंख, पुष्पदंष्ट्, शुभानन, शंखलोमा, नहुष, वामन फणित, कपिल, दुर्मुख तथा पतंजलि [नामवाले] कहे गये हैं॥ ३२--३७॥
रक्षोगणं क्रोधवशा महामाय॑ व्यजीजनत्।
रुद्राणां च गणं तद्गद् गोमहिष्यौं वराड्गना॥ ३८
सुरभिर्जनयामास कश्यपादिति नः श्रुतम्।
मुनिर्मुननाँ च गणं गणमप्सरसां तथा॥ ३९
तथा किन्नरगन्धर्वानरिष्टाजनयद् बहून्।
तृणवृक्षलतागुल्ममिला.. सर्वमजीजनतू॥ ४०
त्विषा तु यक्षरक्षांसि जनयामास कोटिश:।
एते तु काश्यपेयाश्च सड्श्षेपात्परिकीर्तिता: ॥ ४९
क्रोधवशाने महामायावी राक्षसों तथा रुद्रगणों को जन्म दिया और सुन्दर स्त्री सुरभिने कश्यपसे गायों तथा भैंसोंको जन्म दिया; ऐसा हमने सुना है। मुनि [नामक कश्यपभार्या]-ने मुनियों एवं अप्सराओंको और अरिष्टाने बहुत-से किन्नरों तथा गन्धर्वोको जन्म दिया। इलाने समस्त तृणों, वृक्षों, लताओं तथा गुल्मोंको जन्म दिया। त्विषाने करोड़ों यक्षों और शाक्षसोंको पैदा किया। मैंने कश्यपकी इन सन्तानोंका संक्षेपमें वर्णन कर दिया। इन सबके बहुत-से पुत्र-पौत्र आदि वंश कहे गये हैं॥३८--४१ ॥
एतेषां पुत्रपौत्रादिवंशाएच बहव: स्मृता:।
एवं प्रजासु सृष्टासु कश्यपेन महात्मना॥ ४२
प्रतिष्ठितासु सर्वासु चरासु स्थावरासु च।
अभिषिच्याधिपत्येषु तेषां मुख्यान् प्रजापति: ॥ ४३
ततो मनुष्याधिपतिं चक्रे वैवस्वतं मनुम्।
स्वायम्भुवेउन्तरे पूर्व ब्रह्मणा येडभिषेचिता: ॥ ४४
तैरियं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।
यथोपदेशमद्यापि धर्मेण प्रतिपाल्यते॥ ४५
स्वायम्भुवेन्तरे पूर्वे ब्रह्मणा येडभिषेचिता: ।
ते होते चाभिषिच्यन्ते मनवश्च भवन्ति ते॥ ४६
मन्वन्तरेष्वतीतेषु गता होतेषु पार्थिवा:।
एवमन्येउभिषिच्यन्ते प्राप्त मन्वन्तरे ततः॥ ४७
इस प्रकार महात्मा कश्यपके द्वारा प्रजाओंकी सृष्टि कर लिये जानेपर तथा उन सभी चर-अचर प्रजाओंके प्रतिष्ठित हो जानेपर प्रजापतिने उनमेंसे मुख्योंकी अधिपतिके पदपर अभिषिक्त करके वैवस्वत मनुको मनुष्योंका अधिपति बनाया। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें पहले ब्रह्माने जिन्हें अभिषिक्त किया था, उन्हींके द्वारा पर्वतोंसहित सात द्वीपोंवाली सम्पूर्ण पृथ्वी आज भी आदेशके अनुसार धर्मपूर्वक पालित की जा रही है। ब्रह्माने पूर्व स्वायम्भुव मन्वन्तरमें जिनका अभिषेक किया था, वे ही यहाँ अभिषिक्त किये जाते हैं और मनु होते हैं। इन मन्वन्तरोंके बीत जानेपर राजा भी चले जाते हैं; इस प्रकार इनके बाद मन्वन्तर आनेपर अन्य [राजा] अभिषिक्त किये जाते हैं। अतीत तथा अनागत सभी राजा मन्वन्तरमें कहे गये हैं॥४२--४७ ॥
अतीतानागता: सर्वे नृपा मन्वन्तरे स्मृता:।
एतानुत्पाद्य पुत्रांस्तु प्रजासन्तानकारणातू॥ ४८
कश्यपो गोत्रकामस्तु चचार स पुनस्तप:।
पुत्रो गोत्रकरो मह्ं भवतादिति चिन्तयन्॥ ४९
तस्थेव॑ ध्यायमानस्य कश्यपस्य महात्मन:।
ब्रह्मययोगात्सुती पश्चात्प्रादर्भनी महौजसौ॥ ५०
वत्सरश्चासितश्चेव तावुभौ ब्रह्मवादिनौ।
वत्सरान्नैश्वों जज्ञे रैभ्यश्च सुमहायशा:॥ ५१
शैभ्यस्थ रैभ्या विज्ञेया नेश्रुवस्थ वदामि व:।
च्यवनस्यथ तु कन्यायां सुमेधा: समपद्यत॥ ५२
नैश्रुवस्थ तु सा पत्नी माता वै कुण्डपायिनाम्।
असितस्यैकपर्णायां ब्रह्मिष्ठठ समपद्यत॥ ५३
शाण्डिल्यानां वरः श्रीमान् देवल: सुमहातपा:।
शाण्डिल्या नैथ्रुवा रैभ्यास्त्रय: पक्षास्तु काश्यपा: ॥ ५४
प्रजा-संतानके कारण इन पुत्रोंको उत्पन्न करके अपने वंशकी कामना रखनेवाले उन कश्यपने “वंशकों बढ़ानेवाला पुत्र मुझे उत्पन्न हो'--ऐसा सोचते हुए पुनः तप करना आरम्भ किया। इस प्रकार ध्यान करते हुए उन महात्मा कश्यपके ब्रह्मययोगसे पुनः महान ओजस्वी दो पुत्र उत्पन्न हुए। वत्सर तथा असिते [नामवाले] वे दोनों ब्रह्मवादी थे। वत्सरसे महान यशवाले नैध्रुव तथा रैभ्य उत्पन्न हुए। रैभ्यके पुत्रों कों भी रैभ्य [नामवाला] जानना चाहिये। [हे ऋषियो !] अब मैं नैध्रुवके पुत्रोंके विषयमें बताता हूँ। च्यवनकी कन्यासे सुमेधा उत्पन्न हुई। वह नैश्लुवकी पत्नी तथा कुण्डपायियों की माता थी। असितकी एकपणसे शाण्डिल्योंमें श्रेष्ठ, ब्रह्मिष्ठ, श्रीमान् तथा महातपस्वी देवल उत्पन्न हुए। इस प्रकार शाण्डिल्य, नैश्रुव तथा रैभ्य-ये तीनों पक्ष काश्यप (कश्यपसे होनेवाले) हुए॥ ४८--५४॥
नवप्रकृतयो देवा: पुलस्त्यस्थ वदामि व:।
चतुर्युगे हतिक्रान्ते मनोरेकादशे प्रभो:॥ ५५
अर्धावशिष्टे तस्मिस्तु द्वापरे सम्प्रवर्तिते।
मानवस्य नरिष्यन्तः पुत्र आसीहम: किल॥ ५६
दमस्य तस्य दायादस्तृणबिन्दुरिति स्मृतः।
त्रेतायुगमुखे राजा तृतीये सम्बभूव ह॥५७
तस्य कन्या त्विलविला रूपेणाप्रतिमाभवत्।
पुलस्त्याय स राजर्षिस्तां कन्यां प्रत्यपादयत् ॥ ५८
ऋषिरिरविलो यस्यां विश्रवा: समपद्यत।
तस्य पत्यएचतस्त्रस्तु पौलस्त्यकुलवर्धना: ॥ ५९
बृहस्पते: शुभा कन्या नाम्ना वै देववर्णिनी।
पुष्पोत्तटा बलाका च सुते माल्यवत: स्मृते॥ ६०
अब में पुलस्त्यके नौ राक्षसवंशजोंका वर्णन करता हूँ--प्रभु मनुके ग्यारहवें चतुर्युगके अतिक्रान्त होनेपर उसका आधा अवशिष्ट रह जानेपर जब द्वापका आरम्भ हुआ, तब मनुकी पीढ़ीमें नरिष्यन्तका दम नामक पुत्र हुआ। उस दमका उत्तराधिकारी तृणबिन्दु कहा गया है; वह त्रेतायुगके तीन-चौथाई भागमें राजा हुआ। उसकी कन्या इलविला रूपमें अप्रतिम थी। उस राजर्षिने वह कन्या पुलस्त्यको दे दी। उस इलविलासे ऋषि विश्रवा उत्पन्न हुए। पौलस्त्यकुलकी वृद्धि करनेवाली उनकी चार पत्तियाँ थीं। पहली देववर्णिनी नामवाली थी, जो बृहस्पतिकी सुन्दर कन्या थी। [अन्य दो] पुष्पोत्कटरा तथा बलाका माल्यवान्की पुत्रियाँ कही गयी हैं। कैकसी मालीकी कन्या थी। [हे ऋषियो!)] अब उनकी सन्तानोंके विषयमें सुनिये ॥ ५५--६०॥
कैकसी मालिन: कन्या तासां वै श्रुणुत प्रजा: ।
ज्येष्ठ॑ वैश्रव्ं तस्मात्सुषुवे देववर्णिनी॥ ६९
कैकसी चाप्यजनयद्रावणं राक्षसाधिपम्।
कुम्भकर्ण शूर्पणखां धीमन्तं च विभीषणम्॥ ६२
पुष्पोत्कटा ह्ाजनयत्पुत्रांस्तस्माद् द्विजोत्तमा: ।
महोदरं प्रहस्तं च महापाएव॑ खरं तथा॥ ६३
कुम्भीनसीं तथा कन्यां बलायाः श्रुणुत प्रजा: ।
त्रिशिरा दूषणश्चैव विद्युज्जिहृश्च राक्षस:॥ ६४
कन्या वे मालिका चापि बलायाः प्रसवः स्मृतः ।
इत्येते क्ररकर्माण: पौलस्त्या राक्षता नव॥ ६५
विभीषणोतिशुद्धात्मा धर्मज्ञः परिकीर्तित:।
पुलस्त्यस्य मृगा: पुत्रा: सर्वे व्याप्राश्च दंष्ट्रिण: ॥ ६६
देववर्णिनीने उन [विश्रवा]-से ज्येष्ठ [पुत्र] वैश्रवणको उत्पन्न किया। कैकसीने राक्षसोंके राजा रावण, कुम्भकर्ण, शूर्पणखा तथा बुद्धिमान् विभीषणको जन्म दिया। हे द्विजश्रेष्ठो! पुष्पोत्कटाने उन [विश्रवा]से महोदर, प्रहस्त, महापाश्व तथा खर [नामक] पुत्रोंकी तथा कुम्भीनसी [नामक] कन्याको जन्म दिया। अब बलाकी सन्तानोंकों सुनिये। त्रिशिरा, दूषण तथा विद्युज्जिह्च राक्ष और मालिका [नामक] कन्या-ये सब बलासे उत्पन्न कहे गये हैं। पुलस्त्यके ये नौ पौत्र क्रूर कर्मवाले राक्षस थे। विभीषण अत्यन्त शुद्ध आत्मावाले तथा धर्मज्ञ कहे गये हैं। मृग, व्याप्र आदि दाढ़ोंवाले सभी पशु, भूत, पिशाच, सर्प, सूकर, हाथी,वानर, किन्नर तथा किम्पुरुष--ये सब पुलस्त्यके हे हुए॥ ६१--६७॥
भूता: पिशाचा: सर्पाश्च सूकरा हस्तिनस्तथा
बानरा: किननराश्चैव ये च किम्पुरुषास्तथा॥ ६७
अनपत्य: क्रतुस्तस्मिन् स्मृतों वैवस्वतेन्तरे।
अत्रे: पत्यो दशैवासन् सुन्दर्यश्च॒ पतिव्रता:॥ ६८
भद्राएवस्य घृताच्यां वै दशाप्सरसि सूनव:।
भद्राभद्रा च जलदा मन्दा नन््दा तथेव च॥ ६९
बलाबला च विप्रेन्द्रा या च गोपाबला स्मृता ।
तथा तामरसा चैव वरक्रीडा च वे दश॥ ७०
आत्रेयवंशप्रभवास्तासां भर्ता प्रभाकरः ।
स्वर्भानुपिहिते सूर्य पतितेउस्मिन् दिवो महीम्॥ ७१
तमोभिभूते लोकेस्मिन् प्रभा येन प्रवर्तिता।
स्वस्त्यस्तु हि तवेत्युक्ते पतन्निह दिवाकर:॥ ७२
ब्रह्मर्षवचनात्तस्य पपात न॒विशभुर्दिव:।
ततः प्रभाकरेत्युक्त: प्रभुरत्रिर्महषिभि: ॥ ७३
उस वैवस्वत मन्वन्तरमें क्रतु नि:सन्तान कहा गया है। अत्रिकी दस सुन्दर तथा पतित्रता भार्याएँ थी घृताची अप्सरासे भद्राश्वकी दस पुत्रियाँ हुईं। ३ विप्रेन्द्रों! वे भद्रा, अभद्रा, जलदा, मन्दा, नन््दा, बला, अबला, गोपाबला, तामरसा तथा वरक्रौड़ा-ये दस कही गयी हैं। ये सब आत्रेयवंशमें उत्पन्न हुईं; इनके पति प्रभाकर थे। जब राहुने सूर्यकों ढक लिया और यह सूर्य स्वर्गसे पृथ्वीपर गिरने लगा; तब इस लोकके अन्धकारसे व्याप्त हो जानेपर अत्रि ऋषिने प्रभा फैलायी थी। तुम्हारा कल्याण हो ' उनके ऐसा कहनेपर महर्षिके वचनसे उस समय गिरता हुआ विभु सूर्य स्वर्गलोकसे [पृथ्वीपर] नहीं गिरा। तब महर्षियोंने प्रभु अत्रिको 'प्रभाकर '--ऐसा कहा ॥ ६८--७३ ॥
भद्रायां जनयामास सोम॑ पुत्र॑ यशस्विनम्।
स॒तासु जनयामास पुनः पुत्रांस्तपपोधन:॥ ७४
स्वस्त्यात्रेया इति ख्याता ऋषयो वेदपारगा:।
तेषां द्वो ख्यातयशसो ब्रह्ष्ठो च महौजसौ ॥ ७५
दत्तो हत्रिवरो ज्येष्ठो दुर्वासास्तस्य चानुज:।
यवीयसी स्वसा तेषाममला ब्रह्मवादिनी॥ ७६
तस्य गोत्रद्दये जाताश्चत्वार: प्रथिता भुवि।
श्यावश्च प्रत्वस?चैव ववल्गुश्चाथ गहर:॥ ७७
आत्रेयाणां च चत्वारः स्मृता: पक्षा महात्मनाम्।
काश्यपो नारदश्चैव पर्वतोउनुद्धत्तस्तथा॥ ७८
उन्होंने भद्रासे यशस्वी पुत्र 'सोम' को उत्पन्न किया। उन तपोधन [ऋषि]-ने उन पत्लियोंसे पुनः अन्य पुत्र भी उत्पन्न किये। वे सब स्वस्त्यात्रेय कहलाये और वेदोंके पारंगत ऋषि हुए। उनमें दो प्रसिद्ध यशवाले, ब्रह्मिष्ठ तथा महान् ओजस्वी हुए; दत्त अत्रिके ज्येष्ठ पुत्र थे और दुर्वासा उनके छोटे भाई थे। उनकी छोटी बहन अमला थी; वह ब्रह्मवादिनी थी। उनके दो गोत्रोंमें श्याव, प्रत्वस, ववल्गु तथा गह्र-ये चार उत्पन्न हुए, जो भूलोकमें प्रसिद्ध हैं। महान् आत्मावाले आत्रेयोंके चार पक्ष कहे गये हैंकाश्यप, नारद, पर्वत और अनुद्धत। ये मानस पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुए हैं। अब अरुन्धतीकी सन्तानोंके विषयमें सुनिये॥७४--७८ ॥
जज्ञिरि मानसा होते अरुन्धत्या निबोधत।
नारदस्तु वसिष्ठायारुन्धतीं प्रत्यपादयत्॥ ७९
ऊर्ध्वरता महातेजा दक्षशापात्तु नारदः।
पुरा देवासुरे युद्धे घोरे बै तारकामये॥ ८०
अनावृष्ट्या हते लोके ह्युग्रे लोकेश्वरै: सह।
वसिष्ठस्तपसा धीमान् धारयामास बै प्रजा: ॥ ८९
अनोदकं॑ मूलफलं ओषधीश्च प्रवर्तयन्।
तानेताउ्जीवयामास कारुण्यादौषधेन च॥ ८२
अरुन्धत्यां वसिष्ठस्तु सुतानुत्पादयच्छतम्।
ज्यायसोजनयच्छक्तेरदृश्यन्ती पराशरम्॥ ८३
नारदजीने वसिष्ठके लिये अरुन्धतीको प्रदान किया। महातेजस्वी नारद दक्षके शापसे ब्रह्मचारी हो गये। पूर्वकालमें तारकासुरके कारण भयानक देवासुरंसंग्राममें अनावृष्टिसि हत लोकके उग्र हो जानैपर बुद्धिमानू वसिष्ठजीने [अपनी] तपस्यासे अं जल, मूल, फल तथा औषधियाँ उत्पन्न करते हैं' लोकेश्वरोंके साथ प्राणियोंकी रक्षा की थी और दयापूर्वक उन्होंने औषधिसे उन सबको जीवित किया थीं वसिष्ठने अरुन्धतीसे सौ पुत्र उत्पन्न किये। उनमें ज्येष्ठ पुत्र शक्तिसे अदृश्यन्तीने पराशरको जन्म दिया था॥ ७९--८३॥
रक्षसा भक्षिते शक्तौ रुधिरिण तु वै तदा।
काली पराशराजन्ञे कृष्णद्वैपायनं प्रभुम्॥ ८४
द्वैणायनो हारण्यां वे शुकमुत्पादयत्सुतम्।
उपमन्युं च पीवर्या विद्धीमे शुकसूनवः॥ ८५
भूरिश्रवा: प्रभु: शम्भु: कृष्णो गौरस्तु पञचम:।
कन्या कीर्तिमती चैव योगमाता धृतब्रता॥ ८६
जननी ब्रह्मदत्तस्यथ पत्नी सा त्वनुहस्य च।
श्वेत: कृष्णएच गौरएच एयामो धूप्रस्तथारुण: ॥ ८७
नीलो बादरिकश्चैव सर्वे चैते पराशराः।
पराशराणामष्टो ते पक्षा: प्रोक्ता महात्मनाम्॥ ८८
राक्षस रुधिरके द्वारा शक्तिका भक्षण कर लिये जानेपर कालीने पराशरसे प्रभु कृष्णट्वैपायन (व्यासजी )को जन्म दिया। तदनन्तर कृष्णद्वैपायनने अरणीसे शुक और उपमन्युको पुत्ररूपमें उत्पनन किया और पीवरीसे उत्पन्न शुकदेवके इन पुत्रोंकी जानिये-भूरिश्रवा, प्रभु, शम्भु, कृष्ण तथा पाँचवाँ गौर। उनकी कीर्तिमती [नामक] कन्या भी हुई, जो योगमाता तथा ब्रत धारण करनेवाली थी। वह ब्रह्मदत्तकी माता एवं अनुहकी पत्नी थी। श्वेत, कृष्ण, गौर, श्याम, धूम्र, अरुण, नील तथा बादरिक--ये सब पराशरके वंशज थे। इस प्रकार महात्मा पराशरवंशजोंके वे आठ पक्ष कहे गये हैं॥ ८४--८८ ॥
अत ऊर्ध्व॑ निबोधध्वमिन्द्रप्रमितिसम्भवम्।
वसिष्ठस्थ कपिज्जल्यो घृताच्यामुदपद्यत॥ ८९
त्रिमूर्तिय: समाख्यात इन्द्रप्रमितिरुच्यते।
पृथो: सुतायां सम्भूतो भद्रस्तस्थाभवद्वसु:॥ ९०
उपमन्यु;: सुतस्तस्यथ बहवो ह्यौपमन्यव:।
मित्रावरुणयोश्चैव कौण्डिन्या ये परिश्रुता:॥ ९१
एकार्षेयास्तथा चान्ये वासिष्ठा नाम विश्रुता: ।
एते पक्षा वसिष्ठानां स्मृता दश महात्मनाम्॥ ९२
इत्येते ब्रह्मण: पुत्रा मानसा विश्रुता भुवि।
भर्तारश्च महाभागा एषां वंशाः प्रकीर्तिता:॥ ९३
त्रिलोकधारणे शक्ता देवर्षिकुलसम्भवा:।
तेषां पुत्राएच पौन्राएच शतशोथ सहसत्रशः॥ ९४
यैस्तु व्याप्तास्त्रयो लोका: सूर्यस्येव गर्भस्तिभि: ॥ ९५
[हे ऋषियो!] अब इसके आगे इन्द्रप्रमतिकी उत्पत्तिके विषयमें जानिये। वसिष्ठका पुत्र कपिंजल्य घृताचीसे उत्पन्न हुआ था, जो त्रिमूर्ति नामसे भी विख्यात हुआ; उसे इन्द्रप्रमति कहा जाता है। पृथुकी पुत्रीसे भद्र उत्पन्न हुआ और उस [भद्र]-का पुत्र वसु हुआ। उसका पुत्र उपमनन््यु और उपमन्युके बहुत पुत्र हुए। कौण्डिन्य नामसे जो प्रसिद्ध हैं, वे मित्र तथा वरुणकी सन््तानें हैं और जो अन्य एकार्षेय हैं, वे वासिष्ठ नामसे प्रसिद्ध हैं। महात्मा वसिष्ठवंशजोंके ये दस पक्ष कहे गये हैं ये सब ब्रह्माके मानस पुत्रके रूपमें पृथ्वीपर विख्यात हैं। ये महाभाग [सबका] भरण करनेवाले हैं। [हे विप्रो!] मैंने इनके वंशोंका वर्णन कर दिया। देवर्षिकुलमें उत्पन्न होनेवाले ये सब तीनों लोकोंको धारण करने में समर्थ हैं। उनके पुत्र-पौत्र सैकड़ों तथा हजारों हैं, जिनके द्वारा सूर्यकी किरणोंकी भाँति तीनों लोक व्याप्त हैं॥८९--९५॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे देवादिसृष्टिकथनं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'देवादिसृष्टिकथन' नामक तिरसठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६३ ॥
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