लिंग पुराण : उमापति शिवके माहात्यका वर्णन तथा शिवके आदेशसे ही सृष्टि-पालन आदि सभी कार्योंका संचालन | लिंग पुराण : उमापति शिवके माहात्यका वर्णन तथा शिवके आदेशसे ही सृष्टि-पालन आदि सभी कार्योंका संचालन | Linga Purana: Description of the greatness of Umapati Shiva and carrying out all the works of creation, maintenance etc. only by the orders of Shiva

श्रीलिङ्गमहापुराण लिंग पुराण [ उत्तरभाग ] दसवाँ अध्याय

उमापति शिव के माहात्य का वर्णन तथा शिव के आदेशसे ही सृष्टि-पालन आदि सभी कार्योंका संचालन

सनत्कुमार उवाच

भूय एव ममाचक्ष्व महिमानमुमापतेः । 
भवभक्त महाप्राज्ञ भगवन्नन्दिकेश्वर ॥ १

सनत्कुमार बोले- हे शिवभक्त! हे महाप्राज्ञ। है भगवन्! हे नन्दिकेश्वर। आप उमापति शिवजीकी महिमाका पुनः वर्णन कीजिये ॥ १॥ 

शैलादिरुवाच

सनत्कुमारसङ्क्षेपात्तव वक्ष्याम्यशेषतः ।
महिमानं महेशस्य भवस्य परमेष्ठिनः ॥ २

नास्य प्रकृतिबन्धोऽभूद्बुद्धिबन्धो न कश्चन।
न चाहङ्कारबन्धश्च मनोबन्धश्च नोऽभवत् ।। ३

चित्तबन्धो न तस्याभूच्छ्रोत्रबन्धो न चाभवत् ।
न त्वचां चक्षुषां वापि बन्धो जज्ञे कदाचन ॥ ४

जिह्वाबन्धो न तस्याभूद्वाणबन्धो न कश्चन।
पादबन्धः पाणिबन्धो वाग्बन्धश्चैव सुव्रत ॥ ५

उपस्थेन्द्रियबन्धश्च भूततन्मात्रबन्धनम् ।
नित्यशुद्धस्वभावेन नित्यबुद्धो निसर्गतः ॥ ६

शैलादि बोले- हे सनत्कुमार। मैं परमेष्ठी भगवान् महेश्वरको सम्पूर्ण महिमाको आपसे संक्षेपमें हो कहूँगा। इन शिवजीको प्रकृतिका बन्धन तथा बुद्धिका बन्धन कभी नहीं हुआ, इसी प्रकार अहंकारबन्धन तथा मनोबन्धन भी इन्हें नहीं हुआ। उन्हें न तो चित्तका बन्ध हुआ और न तो श्रोत्रका बन्ध हुआ, उन्हें त्वचा और नेत्रका भी बन्ध कभी नहीं हुआ। हे सुव्रत ! उन शिवको जिल्हा, घ्राण, पाद, हाथ, वाणी, जननेन्द्रिय और शब्द आदि पाँच गुणोंका भी कोई बन्धन नहीं हुआ। तत्त्ववेत्ता मुनियोंने नित्य शुद्ध स्वभावके कारण उन शिवको नैसर्गिकरूपसे नित्यबुद्ध तथा नित्यमुक्त बतलाया है॥ २-६ ॥

नित्यमुक्त इति प्रोक्तो मुनिभिस्तत्त्ववेदिभिः ।
अनादिमध्यनिष्ठस्य शिवस्य परमेष्ठिनः ॥ ७

बुद्धिं सूते नियोगेन प्रकृतिः पुरुषस्य च।
अहङ्कारं प्रसूतेऽस्या बुद्धिस्तस्य नियोगतः ॥ ८

अन्तर्यामीति देहेषु प्रसिद्धस्य स्वयम्भुवः ।
इन्द्रियाणि दशैकं च तन्मात्राणि च शासनात् ।। ९

अहङ्कारोऽतिसंसूते शिवस्य परमेष्ठिनः ।
तन्मात्राणि नियोगेन तस्य संसुवते प्रभोः ॥ १०

महाभूतान्यशेषेण महादेवस्य धीमतः ।
ब्रह्मादीनां तृणान्तं हि देहिनां देहसङ्गतिम् ॥ ११

महाभूतान्यशेषाणि जनयन्ति शिवाज्ञया।
अध्यवस्यति सर्वार्थान् बुद्धिस्तस्याज्ञया विभोः ॥ १२

आदि, मध्य तथा अन्तसे रहित परमेष्ठी पुरुषरूप शिवकी आज्ञासे प्रकृति बुद्धिको उत्पन्न करती है और पुनः उन्हीं शिवके आदेशसे इस प्रकृतिकी बुद्धि अहंकारकी उत्पत्ति करती है। अन्तर्यामीरूपसे देहमें स्थित रहनेवाले प्रसिद्ध स्वयम्भू परमेष्ठी शिवके आदेशसे अहंकार दस इन्द्रियों, मन तथा शब्द आदि तन्मात्राओंको उत्पन्न करता है। उन्हीं धीमान् प्रभु महादेवके आदेशसे ये तन्मात्राएँ आकाशादि महाभूतोंको उत्पन्न करती हैं। तदनन्तर शिवकी आज्ञासे ये सब महाभूत ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त देहधारियोंके देहको उत्पन्न करते हैं। उन्हीं सर्वव्यापी शिवकी आज्ञासे बुद्धि समस्त अथोंका निश्चय करती है॥ ७-१२॥

अन्तर्यामीति देहेषु प्रसिद्धस्य स्वयम्भुवः ।
स्वभावसिद्धमैश्वर्यं स्वभावादेव भूतयः ॥ १३

तस्याज्ञया समस्तार्थानहङ्कारो ऽतिमन्यते ।
चित्तं चेतयते चापि मनः सङ्कल्पयत्यपि ॥ १४

श्रोत्रं शृणोति तच्छक्त्या शब्दस्पर्शादिकं च यत्।
शम्भोराज्ञाबलेनैव भवस्य परमेष्ठिनः ॥ १५

वचनं कुरुते वाक्यं नादानादि कदाचन। 
शरीराणामशेषाणां तस्य देवस्य शासनात् ॥ १६

करोति पाणिरादानं न गत्यादि कदाचन।
सर्वेषामेव जन्तूनां नियमादेव वेधसः ॥ १७

विहारं कुरुते पादो नोत्सर्गादि कदाचन। 
समस्तदेहिवृन्दानां शिवस्यैव नियोगतः ॥ १८

उत्सर्ग कुरुते पायुर्न वदेत कदाचन। 
जन्तोर्जातस्य सर्वस्य परमेश्वरशासनात् ॥ १९

आनन्दं कुरुते शश्वदुपस्थं वचनाद्विभोः । 
सर्वेषामेव भूतानामीश्वरस्यैव शासनात् ॥ २०

देहोंमें अन्तर्यामीरूपसे प्रसिद्ध स्वयम्भू शिवका ऐश्वर्य स्वभावसिद्ध है और उनकी विभूतियाँ भी स्वभावसे ही हैं। उन्हीं शिवकी आज्ञासे अहंकार सभी अर्थोंका स्वायत्तीकरण करता है, चित्त स्मरण कराता है और मन संकल्प करता है। कान उन्हींकी शक्तिसे श्रवण करता है। उन्हीं परमेष्ठी प्रभु शम्भुके आज्ञाबलसे ही शब्द-स्पर्श आदि जो भी हैं, वे अपने-अपने विषयोंमें व्यवहार करते हैं। उन्हीं भगवान् शिवके आदेशसे सभी देहधारियोंकी वाणी बोलनेका काम करती है; वह ग्रहण आदिका कार्य कभी नहीं करती। उन्हीं शिवके [बनाये गये] नियमसे हो सभी प्राणियोंका हाथ ग्रहणका कार्य करता है, वह चलने-फिरनेका कार्य कभी नहीं कर सकता। शिवके आदेशसे सभी प्राणिसमुदायका पैर गमनकार्य करता है, वह [मल आदिका] उत्सर्जन कभी नहीं कर सकता। उन परमेश्वरके आदेशसे सम्पूर्ण प्राणिसमुदायका गुदास्थल उत्सर्जन कार्य करता है, वह बोलनेका कार्य कभी नहीं करता। उन्हीं सर्वव्यापी ईश्वरके वचन तथा आदेशसे सभी प्राणियोंकी जननेन्द्रिय सदा आनन्द प्रदान करतो है॥ १३-२०॥

अवकाशमशेषाणां भूतानां सम्प्रयच्छति। 
आकाशं सर्वदा तस्य परमस्यैव शासनात् ॥ २१

निर्देशेन शिवस्यैव भेदैः प्राणादिभिर्निजैः । 
बिभर्ति सर्वभूतानां शरीराणि प्रभञ्जनः ॥ २२

निर्देशाद्देवदेवस्य सप्तस्कन्धगतो मरुत् । 
लोकयात्रां वहत्येव भेदैः स्वैरावहादिभिः ॥ २३

नागाद्यैः पञ्चभिर्भेदैः शरीरेषु प्रवर्तते। 
अपदेशेन देवस्य परमस्य समीरणः ॥ २४

उन्हीं परमेश्वरके आदेशसे आकाश सभी प्राणियोंको अवकाश प्रदान करता है। उन्हीं शिवके निर्देशसे अपने प्राण आदि भेदोंसे प्रभंजन (वायु) सभी प्राणियोंके शरीरको धारण करता है। सात स्कन्धोंवाला मरुत् उन्हीं देवदेवके निर्देशपर अपने आवह आदि भेदोंसे स्थित होकर लोकयात्रा करता है। यही वायु परम प्रभु शिवकी आज्ञासे नाग आदि पाँच भेदोंसे शरीरोंमें विद्यमान रहता है॥ २१-२४॥ 

हव्यं वहति देवानां कव्यं कव्याशिनामपि। 
पाकं च कुरुते वह्निः शङ्करस्यैव शासनात् ॥ २५

भुक्तमाहारजातं यत्पचते देहिनां तथा। 
उदरस्थः सदा वह्निर्विश्वेश्वरनियोगतः ।। २६

सञ्जीवयन्त्यशेषाणि भूतान्यापस्तदाज्ञया। 
अविलङ्ख्या हि सर्वेषामाज्ञा तस्य गरीयसी ॥ २७

चराचराणि भूतानि बिभत्यैव तदाज्ञया। 
आज्ञया तस्य देवस्य देवदेवः पुरन्दरः ॥ २८

जीवतां व्याधिभिः पीडां मृतानां यातनाशतैः । 
विश्वम्भरः सदाकालं लोकैः सर्वैरलङ्ख्यया ॥ २९

देवान् पात्यसुरान् हन्ति त्रैलोक्यमखिलं स्थितः । 
अधार्मिकाणां वै नाशं करोति शिवशासनात् ॥ ३०

शंकरकी आज्ञासे ही अग्नि देवताओंके लिये हव्य तथा पितरोंके लिये कव्यका वहन करती है और भोजनका परिपाक करती है। उदरमें स्थित अग्नि उन विश्वेश्वरके ही आदेशसे प्राणियोंके द्वारा ग्रहण किये गये सम्पूर्ण आहारको पचाती है। जल उन्हींकी आज्ञासे सभी प्राणियोंको जीवन प्रदान करता है। उनकी श्रेष्ठ आज्ञा सबके लिये अनुल्लंघनीय है। पृथ्वी उन्हींकी आज्ञासे चराचर जीवोंको धारण करती है और उन्हीं देव शिवकी आज्ञासे इन्द्र भी सभी प्राणियोंका पालन करते हैं। यमराज भी उन्हीं शिवकी आज्ञासे जीवित प्राणियोंको व्याधियोंसे तथा मृतलोगोंको सैकड़ों प्रकारको यातनाओंसे कष्ट प्रदान करते हैं। तीनों लोकोंमें हर समय विद्यमान रहकर भगवान् विष्णु उन्हीं शिवकी सभी लोगोंके द्वारा अनुल्लंघ्य आज्ञासे देवताओंकी रक्षा करते हैं और असुरोंका संहार करते हैं तथा उन्हीं शिवके शासनसे अधा्मिकोंका नाश करते हैं॥२५--३०॥

वरुण: सलिलैलोॉकान्‌ सम्भावयति शासनात्‌। 
मजयत्याज्ञया तस्व पाशेर्बध्नाति चासुरान्‌॥ ३९

पुण्यानुरूपं सर्वेषां प्राणिनां सम्प्रयच्छति। 
वित्त वित्तेश्वरस्तस्थ शासनात्परमेष्ठिन: ॥ ३२

उदयास्तमये कुर्वन्‌ कुरुते कालमाज्ञया। 
आदित्यस्तस्य नित्यस्य सत्यस्य परमात्मन:॥ ३३

पुष्पाण्यौषधिजातानि प्रह्मादयति च॒ प्रजा: । 
अमृतांशु: कलाधार: कालकालस्य शासनात्‌॥ ३४

उन्हीं शिवकी आज्ञासे वरुणदेव अपने जलसे सभी लोकोंको सन्तुष्ट करते हैं और उन्हींकी आज्ञासे असुरोंकों अपने पाशोंसे बाँधते हैं तथा बादमें जलमें डुबा देते हैं। उन परमेष्ठी शिवके ही आदेशसे धनके स्वामी कुबेर समस्त प्राणियोंको उनके पुण्यके अनुसार धन प्रदान करते हैं। उन्हीं शाश्वत तथा सत्यस्वरूप परमात्माको आज्ञासे सूर्यदेव उदय तथा अस्तरूप कार्यको करते हुए कालनिर्धारण करते हैं। कालके भी काल शिवके ही आदेशसे कलाधार चन्द्रमा पुष्पों, औषधियों तथा जीवोंको आनन्दित करते हैं॥ ३१--३४॥

आदित्या वसवो रुद्रा अश्विनौ मरुतस्तथा। 
अन्याश्च देवता: सर्वास्तच्छासनविनिर्मिता: ॥ ३५

गन्धर्वा देवसड्डाश्च सिद्धा: साध्याएच चारणा:। 
यक्षरक्ष:पिशाचाएच स्थिता: शास्त्रेषु वेधस: ॥ ३६

ग्रहनक्षत्रताराश्च यज्ञा वेदास्तपांसि च। 
ऋषीणां च गणा: सर्वे शासन तस्य धिष्ठिता: ॥ ३७

कव्याशिनां गणा: सप्तसमुद्रा गिरिसिन्धव:। 
शासने तस्य वर्तन्ते काननानि सरांसि च॥ ३८

कला: काष्ठा निमेषाएच मुहूर्ता दिवसा: क्षपा:। 
ऋत्वब्दपक्षमासाश्च नियोगात्तस्य धिष्ठिता: ॥ ३९

युगमन्वन्तराण्यस्य शम्भोस्तिष्ठन्ति शासनात्‌ । 
पराशएचेव परार्धाशएच कालभेदास्तथापरे॥ ४०

सभी आदित्य, वसुगण, समस्त रुद्र, दोनों अश्विनीकुमार, मरुदगण तथा अन्य समस्त देवता उन्हीं शिवके शासनसे विनिर्मित हैं। गन्धर्व, देवसमुदाय, सिद्ध, साध्य, चारण, यक्ष, राक्षस तथा पिशाच शिवके ही शासनमें स्थित हैं। ग्रह, नक्षत्र, तारा, यज्ञ, वेद, तप तथा ऋषिगण--ये सब उन्हींके शासनमें अधिष्छठित हैं । पितरोंके समूह, सातों समुद्र, पर्वत, नदियाँ, वन तथा सरोवर भी उन्हींके शासनमें रहते हैं। कला, काष्ठा, निमेष, मुहूर्त, दिन, रात, ऋतु, वर्ष, पक्ष तथा मास उन्हींके अनुशासनमें अधिष्ठित हैं; उसी प्रकार युग, मन्वन्तर, पर, परार्ध तथा दूसरे अन्य कालभेद भी इन्हीं शम्भुके शासनसे प्रवर्तित होते हैं॥ ३५--४० ॥

देवानां जातयश्चाष्टो तिरशचां पठ्चजातय:। 
मनुष्याएच प्रवर्तन्ते देवदेवस्थ धीमतः॥ ४१

जातानि भूतवृन्दानि चतुर्दशसु योनिषु। 
सर्वलोकनिषण्णानि तिष्ठन्त्यस्यैव शासनात्‌ ॥ ४२

चतुर्दशसु लोकेषु स्थिता जाताः प्रजा: प्रभो:। 
सर्वेश्वस्थ. तस्यैव नियोगवशवर्तिनः ॥ ४३

पातालानि समस्तानि भुवनान्यस्य शासनात्‌। 
ब्रह्मण्डानि च शेषाणि तथा सावरणानि च॥ ४४

वर्तमानानि सर्वाणि ब्रह्माण्डानि तदाज्ञया। 
वर्तन्ते सर्वभूताद्ः समेतानि समन्तत:॥ ४५

अतीतान्यप्यसंख्यानि ब्रह्माण्डानि तदाज्ञया।
प्रवृत्तानि पदार्थाघै: सहितानि समन्ततः ॥ ४६

ब्रह्माण्डानि भविष्यन्ति सह वस्तुभिरात्मकै:। 
करिष्यन्ति शिवस्याज्ञां सर्वेरावरणै: सह ॥ ४७ 

उन्हीं बुद्धिसम्पन्न देवदेवके शासनसे देवताओंकी [विद्याधर आदि] आठ जातियाँ, पशु-पक्षियोंकी पाँच जातियाँ तथा मनुष्य प्रवर्तित होते हैं। सभी लोकोंमें रहनेवाले इन देवता आदि चौदह योनियोंमें उत्पन्न सभी प्राणीसमूह इन्हीं शिवके शासनमें रहते हैं। चौदह लोकोंमें स्थित रहनेवाली सभी प्रजाएँ उन्हीं परमेश्वर प्रभु शिवके शासनके अधीन रहती हैं पाताल आदि समस्त भुवन तथा [जल आदि] आवरणोंसे युक्त ब्रह्माण्ड इन्हींके शासनसे स्थित हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र आदि सभीसे युक्त समस्त वर्तमान ब्रह्माण्ड सब प्रकारसे उन्हींकी आज्ञासे स्थित  उन्हींकी आज्ञासे असंख्य ब्रह्माण्ड अनेक पदार्थोसहि  उत्पन्न हुए और समाप्त भी हो गये। इसी प्रकार आगे होनेवाले अनेक ब्रह्माण्ड होंगे और वे अपने सभी  पदार्थों तथा आवरणोंके साथ शिवकी आज्ञाका पालन करेंगे॥ ४१--४७॥

॥ श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे उमापतेर्महिमवर्णनं नाम दशमोउध्याय: ॥ १० ॥ 

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तभाय् उपापतियहियावर्णन ! नायक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ १० ॥

टिप्पणियाँ