लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] पचहत्तरवाँ अध्याय
शिव के निर्गुण एवं सगुण स्वरूप का निरूपण
ऋषय ऊचुः
निष्कलो निर्मलो नित्यः सकलत्वं कथं गतः ।
वक्तुमर्हसि चास्माकं यथापूर्वं यथाश्रुतम् ॥ १
ऋषिगण बोले- निष्कल (निर्गुण), निर्मल तथा नित्य (शाश्वत) शिव सकलत्व (सगुणता) को कैसे प्राप्त हुए? [हे सूतजी!] आपने जैसा पहले सुना है, उसे हम लोगोंको बताइये ॥ १ ॥
सूत उवाच
परमार्थविदः केचिदूचुः प्रणवरूपिणम् ।
विज्ञानमिति विप्रेन्द्राः श्रुत्वा श्रुतिशिरस्यजम् ॥ २
शब्दादिविषयं ज्ञानं ज्ञानमित्यभिधीयते।
तज्ज्ञानं भ्रान्तिरहितमित्यन्ये नेति चापरे ॥ ३
यज्ञ्जानं निर्मलं शुद्धं निर्विकल्पं निराश्रयम्।
गुरुप्रकाशकं ज्ञानमित्यन्ये मुनयो द्विजाः ॥ ४
सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ विप्रो ! कुछ तत्त्वज्ञोंने उपनिषदोंमें शिवको अजन्मा सुनकर उन्हें प्रणवरूप विज्ञान कहा है। शब्द आदि विषयोंका जो ज्ञान है, उसे 'ज्ञान' कहा जाता है। अन्य लोग कहते हैं कि जो भ्रान्तिरहित ज्ञान है, वही ज्ञान है; दूसरे लोग कहते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है हे द्विजो! अन्य मुनि लोग कहते हैं कि जो ज्ञान निर्मल, शुद्ध, निर्विकल्प, आश्रयरहित तथा गुरुके द्वारा प्रकाशित है, वह [वास्तविक ज्ञान है ॥ २-४॥
ज्ञानेनैव भवेन्मुक्तिः प्रसादो ज्ञानसिद्धये।
उभाभ्यां मुच्यते योगी तत्रानन्दमयो भवेत् ॥ ५
वदन्ति मुनयः केचित्कर्मणा तस्य सङ्गतिम्।
कल्पनाकल्पितं रूपं संहृत्य स्वेच्छयैव हि ॥ ६
द्यौर्मूर्धा तु विभोस्तस्य खं नाभिः परमेष्ठिनः ।
सोमसूर्याग्नयो नेत्रं दिशः श्रोत्रं महात्मनः ॥ ७
चरणौ चैव पातालं समुद्रस्तस्य चाम्बरम्।
देवास्तस्य भुजाः सर्वे नक्षत्राणि च भूषणम् ॥ ८
प्रकृतिस्तस्य पत्नी च पुरुषो लिङ्गमुच्यते।
वक्त्राद्वै ब्राह्मणाः सर्वे ब्रह्मा च भगवान् प्रभुः ॥ ९
इन्द्रोपेन्द्रौ भुजाभ्यां तु क्षत्रियाश्च महात्मनः ।
वैश्याश्चोरुप्रदेशात्तु शूद्राः पादात्पिनाकिनः ॥ १०
पुष्करावर्तकाद्यास्तु केशास्तस्य प्रकीर्तिताः ।
वायवो घ्राणजास्तस्य गतिः श्रौतं स्मृतिस्तथा ।। ११
ज्ञानसे ही मुक्ति प्राप्त होती है; ज्ञानसिद्धिके लिये [ईश्वरकी] प्रसन्नता आवश्यक है। दोनोंके द्वारा योगी मुक्त हो जाता है और वह आनन्दमय हो जाता है। कुछ मुनि स्वेच्छासे मायाविरचित रूपको हृदयमें भावित करके (विचारकर) विधिप्रतिपादित निष्काम कर्मद्वारा उस ज्ञानकी संगतिको बताते हैं द्यौ (स्वर्ग) उन विभुका सिर है, आकाश उन परमेश्वरकी नाभि है, चन्द्र-सूर्य-अग्नि [उनके] नेत्र हैं, दिशाएँ [उन] महात्माके कान हैं, पाताल ही [उनके] दोनों चरण हैं, समुद्र उनका वस्त्र है, सभी देवता उनकी भुजाएँ हैं, [सभी] नक्षत्र [उनके] आभूषण हैं। प्रकृतिको [उनकी] पत्नी तथा पुरुषको [उनका] लिङ्ग कहा जाता है। सभी ब्राह्मण, ब्रह्मा, भगवान् विष्णु, इन्द्र तथा उपेन्द्र उनके मुखसे; महात्मा क्षत्रिय भुजाओंसे; वैश्य उनके उरुप्रदेशसे तथा शूद्र उन पिनाकधारीके पैरसे उत्पन्न हुए हैं। पुष्कर, आवर्त आदि [मेघ] उनके केश कहे गये हैं। सभी वायु उनकी नासिकासे उत्पन्न हुए हैं। श्रुति तथा स्मृतिमें कथित कर्म उनकी गति हैं॥५-११॥
अथानेनैव कर्मात्मा प्रकृतेस्तु प्रवर्तकः ।
पुंसां तु पुरुषः श्रीमान् ज्ञानगम्यो न चान्यथा ।। १२
कर्मयज्ञसहस्त्रेभ्यस्तपोयज्ञो विशिष्यते।
तपोयज्ञसहस्त्रेभ्यो जपयज्ञो विशिष्यते ॥ १३
जपयज्ञसहस्त्रेभ्यो ध्यानयज्ञो विशिष्यते।
ध्यानयज्ञात्परो नास्ति ध्यानं ज्ञानस्य साधनम् ॥ १४
यदा समरसे निष्ठो योगी ध्यानेन पश्यति।
ध्यानयज्ञरतस्यास्य तदा सन्निहितः शिवः ।। १५
नास्ति विज्ञानिनां शौचं प्रायश्चित्तादिचोदना।
विशुद्धा विद्यया सर्वे ब्रह्मविद्याविदो जनाः ॥ १६
नास्ति क्रिया च लोकेषु सुखं दुःखं विचारतः ।
धर्माधर्मों जपो होमो ध्यानिनां सन्निधिः सदा ।। १७
परानन्दात्मकं लिङ्गं विशुद्धं शिवमक्षरम् ।
निष्कलं सर्वगं ज्ञेयं योगिनां हृदि संस्थितम् ॥ १८
इसी [शरीर] से वे [परमात्मा] कर्मरूप होकर प्रकृतिका प्रवर्तन करते हैं। वे ऐश्वर्यशाली पुरुष (परमात्मा) मनुष्योंके लिये ज्ञानगम्य हैं। इसमें सन्देह नहीं है। तपोयज्ञ हजार कर्मयज्ञोंसे बढ़कर है, जपयज्ञ हजार तपोयज्ञोंसे बढ़कर है और ध्यानयज्ञ हजार जपयज्ञोंसे बढ़कर है। ध्यानयज्ञसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है; ध्यान ज्ञानका साधन है। जब योगी समरसमें स्थित होकर ध्यानके द्वारा देखता है, तव शिव ध्यानयज्ञमें लीन उस [योगी] को प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं विज्ञानियोंके लिये शुद्धि, प्रायश्चित्त आदि कर्म आवश्यक नहीं हैं; ब्रह्मविद्याको जाननेवाले सभी लोग [ब्रह्म] विद्यासे पूर्णरूपसे शुद्ध हो जाते हैं। विचारकी दृष्टिसे ध्यानियोंके लिये लोकोंमें क्रिया, सुख, दुःख, धर्म, अधर्म, जप, होम आदि [आवश्यक] नहीं हैं; उनके लिये शिव-सन्निधि ही मुख्य है। परम आनन्दमय, विशुद्ध, कल्याणकारी, अविनाशी, निष्कल तथा सर्वव्यापी लिङ्गको योगियोंके हृदयमें [सदा] विराजमान जानना चाहिये ॥ १२-१८ ॥
लिङ्गं तु द्विविधं प्राहुर्बाह्यमाभ्यन्तरं द्विजाः ।
बाहां स्थूलं मुनिश्रेष्ठाः सूक्ष्ममाभ्यन्तरं द्विजाः ॥ १९
कर्मयज्ञरताः स्थूलाः स्थूललिङ्गार्चने रताः।
असतां भावनार्थाय नान्यथा स्थूलविग्रहः ॥ २०
आध्यात्मिकं च यल्लिङ्ग प्रत्यक्षं यस्य नो भवेत् ।
असौ मूढो बहिः सर्वं कल्पयित्वैव नान्यथा ॥ २१
ज्ञानिनां सूक्ष्मममलं भवेत्प्रत्यक्षमव्ययम् ।
यथा स्थूलमयुक्तानां मृत्काष्ठाडौः प्रकल्पितम् ॥ २२
अर्थो विचारतो नास्तीत्यन्ये तत्त्वार्थवेदिनः ।
निष्कलः सकलश्चेति सर्वं शिवमयं ततः ॥ २३
व्योमैकमपि दृष्टं हि शरावं प्रति सुव्रताः।
पृथक्त्वञ्चापृथक्त्वं च शङ्करस्येति चापरे।॥ २४
प्रत्ययार्थ हि जगतामेकस्थोऽपि दिवाकरः ।
एकोऽपि बहुधा दृष्टो जलाधारेषु सुव्रताः ॥ २५
हे द्विजो! लिङ्ग दो प्रकारका कहा गया है-बाह्य तथा आभ्यन्तर। हे श्रेष्ठ मुनियो। स्थूल [लिङ्ग] बाह्य होता है और सूक्ष्म [लिङ्ग] आभ्यन्तर होता है कर्मयज्ञमें निरत तथा स्थूलस्वभाववाले स्थूललिङ्गके अर्चनमें संलग्न रहते हैं। अज्ञानी जनोंकी भावनासिद्धिके लिये ही स्थूलविग्रह कल्पित किया गया है; इसमें दूसरा हेतु नहीं है। जो आध्यात्मिक सूक्ष्मलिङ्ग है, उसका प्रत्यक्ष दर्शन जिसे नहीं होता है, ऐसा वह अज्ञानी व्यक्ति 'सब कुछ बाहर है'- यह कल्पना करके ही पूजनादिमें प्रवृत्त होता है; इसमें सन्देह नहीं है। जैसे ज्ञानियोंके लिये प्रत्यक्षरूपसे सूक्ष्म, निर्मल तथा अव्यय (अविनाशी) लिङ्गकी कल्पना की गयी है, वैसे ही सामान्य लोगोंके लिये मिट्टी, काष्ठ आदिसे निर्मित स्थूल लिङ्ग प्रकल्पित है। अतः विचार करनेसे निरवयव तथा सावयव- सब कुछ शिवमय ही है। मोक्षरूप पुरुषार्थकी भी सत्ता नहीं है ऐसा अन्य तत्त्ववेत्तालोग कहते हैं। आकाशके एक होते हुए भी जैसे वह शराव (मिट्टीका कसोरा)- [आदि उपाधियोंके भेदसे] अनेक रूपोंगे प्रतीत होता है, वैसे ही भगवान् शिवके एक होनेपर भी उनकी एकता तथा अनेकता दिखायी देती है-ऐसा दूसरे लोग कहते हैं। हे सुव्रतो! एक स्थानपर स्थित होते हुए तथा एक होनेपर भी सूर्य जलके आश्रयभूत विभिन्न पात्रोंमें अनेक रूपोंमें दिखायी देते हैं- यह दृष्टान्त लोगोंको ज्ञान करानेके लिये है॥ १९-२५॥
जन्तवो दिवि भूमौ च सर्वे वै पाञ्चभौतिकाः ।
तथापि बहुला दृष्टा जातिव्यक्तिविभेदतः ॥ २६
दृश्यते श्रूयते यद्यत्तत्तद्विद्धि शिवात्मकम् ।
भेदो जनानां लोकेऽस्मिन् प्रतिभासो विचारतः ॥ २७
स्वप्ने च विपुलान् भोगान् भुक्त्वा मर्त्यः सुखी भवेत् ।
दुःखी च भोगं दुःखं च नानुभूतं विचारतः ॥ २८
एवमाहुस्तथान्ये च सर्वे वेदार्थतत्त्वगाः ।
हृदि संसारिणां साक्षात्सकलः परमेश्वरः ॥ २९
योगिनां निष्कलो देवो ज्ञानिनां च जगन्मयः ।
त्रिविधं परमेशस्य वपुर्लोके प्रशस्यते ॥ ३०
निष्कलं प्रथमं चैकं ततः सकलनिष्कलम्।
तृतीयं सकलं चैव नान्यथेति द्विजोत्तमाः ॥ ३१
अर्चयन्ति मुहुः केचित्सदा सकलनिष्कलम् ।
सर्वज्ञं हृदये केचिच्छिवलिङ्गे विभावसौ ॥ ३२
सकलं मुनयः केचित्सदा संसारवर्तिनः ।
एवमभ्यर्चयन्त्येव सदाराः ससुता नराः ॥ ३३
स्वर्ग तथा पृथ्वीके सभी प्राणी पंचभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) से निर्मित हैं; तथापि जाति तथा व्यक्तिके भेदसे वे अनेक रूपोंमें दिखायी देते हैं। जो कुछ भी दिखायी देता है अथवा सुनायी पड़ता है, उसे शिवमय जानिये; विचार करनेपर इस लोकमें लोगोंका भेद तो प्रतिभास (भ्रम) मात्र है स्वप्नमें बहुत-से सुखोंका उपभोग करके मनुष्य सुखी तथा दुःखी हो जाता है; विचार करनेसे देखा जाय, तो वास्तवमें सुख-दुःखका अनुभव नहीं होता। इसी प्रकार अन्य सभी वेदार्थतत्त्वज्ञ बन्धन तथा मोक्षको भी स्वप्नकी भाँति बताते हैं। परमेश्वर [शिव] संसारी लोगोंके हृदयमें साक्षात् सकल (सगुण)- रूपसे विराजमान रहते हैं और वे ही जगन्मय देव योगियों तथा ज्ञानियोंके हृदयमें निष्कल (निर्गुण)- रूपसे विराजमान रहते हैं परमेश्वरका तीन प्रकारका विग्रह लोकमें पूजित होता है। हे श्रेष्ठ द्विजो! पहला निष्कल (निर्गुण), दूसरा सकल-निष्कल (सगुण निर्गुण) और तीसरा सकल (सगुण); इसमें सन्देह नहीं है कुछ लोग सदा सकल-निष्कल रूपकी पूजा करते हैं; कुछ लोग उन सर्वज्ञकी पूजा हृदयमें, शिवलिङ्गमें तथा अग्निमें करते हैं और हे मुनियो। संसारमें रहनेवाले कुछ मनुष्य स्त्री-पुत्रोंसहित सकल (सगुण) रूपकी सर्वदा पूजा करते हैं॥ २६-३३॥
यथा शिवस्तथा देवी यथा देवी तथा शिवः ।
यजन्ति देहे बाह्ये च चतुष्कोणे षडस्त्रके।
दशारे द्वादशारे च षोडशारे त्रिरस्त्रके ॥ ३५
स स्वेच्छ्या शिवः साक्षाद्देव्या सार्धं स्थितः प्रभुः ।
सन्तारणार्थं च शिवः सदसद्व्यक्तिवर्जितः ।। ३६
तमेकमाहुर्द्विगुणं च केचित् केचित्तमाहुस्त्रिगुणात्मकं च।
ऊचुस्तथा तं च शिवं तथान्ये संसारिणं वेदविदो वदन्ति ॥ ३७
भक्त्या च योगेन शुभेन युक्ता विप्राः सदा धर्मरता विशिष्टाः ।
यजन्ति योगेशमशेषमूर्ति षडस्त्रमध्ये भगवन्तमेव ॥ ३८
ये तत्र पश्यन्ति शिवं त्रिरस्त्रे त्रितत्त्वमध्ये त्रिगुणं त्रियक्षम्।
ते यान्ति चैनं न च योगिनोऽन्ये तया च देव्या पुरुषं पुराणम् ॥ ३९
तस्मादभेदबुद्धचैव सप्तविंशत्प्रभेदतः ॥ ३४
जैसे शिव हैं, वैसे ही देवी हैं और जैसे देवी हैं, वैसे ही शिव हैं; अतः लोग सत्ताईस प्रभेदसे अभेद बुद्धिसे शरीरमें तथा शरीरके बाहर चतुष्कोण (मूलाधार) में, षडस्र (स्वाधिष्ठान) में, दस अरों (मूर्धा) में, बारह अरों (हृदय) में, सोलह अरों (कण्ठ) में तथा तीन अरों (भ्रूमध्य) में उनकी पूजा करते हैं सत्-असत्से रहित अर्थात् विलक्षण वे प्रभु शिव जगत्के उद्धारके लिये अपनी इच्छासे साक्षात् देवीके साथ स्थित हैं कुछ लोग उन अद्वितीय शिवको द्विगुण (प्रकृति- पुरुषरूप) कहते हैं, कुछ लोग त्रिगुणात्मक (ब्रह्मा- विष्णु-रुद्ररूप) कहते हैं और अन्य वेदज्ञ लोग उन्हें संसारका कारण बताते हैं भक्ति तथा शुभ योगसे समन्वित, धर्मपरायण तथा विशिष्ट ब्राह्मण [उन] योगेश्वर, अशेषमूर्ति भगवान्का पूजन षडस्रमें करते हैं जो लोग त्रिरस्न (भूमध्य) में, तीन तत्त्वोंके मध्यमें त्रिगुण तथा त्रिनेत्र शिवका दर्शन करते हैं, वे ही उन देवीके साथ इन पुरातन पुरुष [शिव] को प्राप्त करते हैं; अन्य योगी नहीं ॥ ३४-३९ ॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे शिवाद्वैतकथनं नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७५ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'शिवाद्वैतकथन' नामक पचहत्तरवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७५ ॥
टिप्पणियाँ