लिंग पुराण : बुध आदि ग्रहोंके रथोंका स्वरूप, ग्रह-नक्षत्रों एवं तारागणोंद्वारा श्रुवका परिभ्रमण | Linga Purana: Form of chariots of planets like Mercury, rotation of Shruva through planets, constellations and stars

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] सत्तावनवाँ अध्याय

बुध आदि ग्रहोंके रथों का स्वरूप, ग्रह-नक्षत्रों एवं तारागणोंद्वारा श्रुवका परिभ्रमण, ग्रहों का स्वरूप-विस्तार तथा उनकी गतिका निरूपण

सूत उवाच 

अष्टभिश्च हयैर्युक्त: सोमपुत्रस्थ वे रथः। 
वारितेजोमयश्चाथ पिशड्डैश्चैव शोभनेः:॥ १

दशर्भिशए्चाकृशैरश्वै्नानावर्णँ रथ: स्मृतः। 
शुक्रस्य क्ष्मामयैर्युक्तो दैत्याचार्यस्थ धीमतः॥ २

अष्टाशएवश्चाथ भौमस्य रथो हैम: सुशोभनः। 
जीवस्य हैमएचाष्टाश्वो मन्दस्यथायसनिर्मितः॥ ३

रथ आपोमयैरश्वैर्दशभिस्तु. सितेतरे:। 
स्वर्भानोर्भास्करारेश्च तथा चाष्टहय: स्मृतः॥ ४

सूतजी बोले--[है ऋषियो!] चन्द्रमाके पुत्र [बुध]-का रथ जल-अग्निमय और पिशंगवर्णवाले सुन्दर आठ घोड़ोंसे युक्त है। दैत्योंके आचार्य बुद्धिमान्‌ शुक्रका रथ पुष्ट, विभिन्‍न वर्णोवाले तथा पृथ्वीमय दस घोडोंसे युक्त कहा गया है। मंगलका रथ सुवर्णमय, परम सुन्दर एवं आठ घोड़ोंवाला है। बृहस्पतिका रथ सुवर्णमय है तथा आठ घोड़ोंसे युक्त है। शनैश्चरका रथ लोहेका बना हुआ है और वह काले वर्णवाले जलमय दस घोड़ोंसे युक्त है। राहु-केतुका रथ आठ घोड़ोंवाला कहा गया है॥ १--४॥

सर्वे श्रुवनिबद्धा वै ग्रहास्ते वातरश्मिभिः । 
एतेन भ्राम्यमाणाशएच यथायोगं बव्रजन्ति वै॥५

यावन्त्यश्चैव ताराश्च तावन्तश्चेव रश्मयः। 
सर्वे ध्रुवनिबद्धाएच भ्रमन्तो भ्रामयन्ति तम्‌॥ ६

अलातचक्रवद्यान्ति वातचक्रेरितानि तु। 
यस्माद्रहति ज्योतींषि प्रवहस्तेत स स्मृत:॥ ७ 

वे सभी ग्रह वायुरश्मियोंके द्वारा ध्रुवसे बँधे हुए हैं। इसके द्वारा घुमाये जाते हुए वे यथायोग चलते हैं। जितने तारे हैं, उतनी ही [वात] रश्मियाँ हैं। वे सब ध्रुवसे बँधे हुए हैं और [स्वयं] घूमते हुए उस ध्रुवको घुमाते हैं। वातचक्रसे प्रेरित तारागण अंगारचक्रके समान घूमते हैं। चूँकि इन ग्रह-नक्षत्रोंका वहन वायु करता है इसलिये उसे प्रवह कहा गया है॥ ५--७॥

नक्षत्रसूर्याश्य॒ तथा ग्रहतारागणैः: सह। 
उन्मुखाभिमुखा: सर्वे चक्रभूता: भ्रिता दिवि। ८

भ्रुवेणाधिष्ठिताश्चैव ध्रुवमेव प्रदक्षिणम्‌। 
प्रयान्ति चेश्वरं द्रष्ठ॑ मेढीभूतं धुवं दिवि॥ ९ 

ग्रहों तथा तारागणोंके साथ नक्षत्र तथा सूर्य सबके-सब चक्ररूपमें उन्‍्मुख एवं अभिमुख होकर आकाशमें स्थित हैं । ध्रुवके द्वारा नियन्त्रित वे सब ध्रुवकी प्रदक्षिणा करते हैं। वे धुरीरूप ईश्वर ध्रुवको देखनेके लिये आकाशमें भ्रमण करते हैं॥ ८-९॥

नवयोजनसाहस्त्रो विष्कम्भ: सवितु: स्मृतः।
त्रिगुणस्तस्य विस्तारो मण्डलस्य प्रमाणत:॥ १०

द्विगुण: सूर्यविस्ताराद्विस्तार: शशिनः स्मृतः ।
तुल्यस्तयोस्तु स्वर्भानुरभूत्वाधस्तात्प्रसर्पति॥ ११

उद्धृत्य पृथिवीछायां निर्मितां मण्डलाकृतिम्‌ ।
स्वर्भानोस्तु बृहत्स्थानं तृतीयं यत्तमोमयम्‌॥ १२

सूर्यका व्यास नौ हजार योजन कहा गया और इस प्रमाणके अनुसार उनके मण्डलका विस्तार तीन गुना है। चन्द्रमाका विस्तार सूर्यके विस्तारसे दुगुना बताया गया है। उन दोनोंके बराबर होकर राहु नीचेसे चलता है। मण्डलाकार बनी हुई पृथ्वीछायाको लेकर राहुका तीसरा बड़ा स्थान है, जो अन्धकारमय है॥ १०--१२॥

चन्द्रस्य षोडशो भागो भार्गवस्य विधीयते। 
विष्कम्भान्मण्डलाच्चैव योजनाच्च प्रमाणत: ॥ १३

भार्गवात्पादहीनस्तु विज्ञेयो वै बृहस्पति: ।
पादहीनौ वक्रसौरी तथायामप्रमाणत: ॥ १४

विस्तारान्मण्डलाच्चैव पादहीनस्तयोर्बुध: । 
तारानक्षत्ररूपाणि वपुष्मन्तीह यानि बै॥ १९

बुधन तानि तुल्यानि विस्तारान्मण्डलादपि। 
प्रायशश्चन्द्रयोगीनि विद्यादृक्षाणि तत्त्ववित्‌॥ १६

योजनके प्रमाणसे शुक्रका व्यास तथा मण्डल चन्द्रमाके व्यास एवं मण्डलका सोलहवाँ भाग कहा गया है। [आकारमें] बृहस्पतिको शुक्रसे एक चौथाई कम कहा गया है। विस्तारके प्रमाणसे मंगल तथा शनि बृहस्पतिसे एक चौथाई कम हैं। [अर्थात्‌ मंगल एवं शनि विस्तारमें बृहस्पतिके तीन चौथाई हैं बुध विस्तार तथा मण्डलमें उन दोनोंका तीन चौथाई है। तारानक्षत्ररूप जो पिण्ड हैं, वे विस्तार तथा मण्डलमें बुधके तुल्य हैं, तत्त्ववेत्ताको चन्द्रमासे युक्त उन नक्षत्रोंको “ऋक्ष' नामसे जानना चाहिये॥ १३--१६॥ 

तारानक्षत्ररूपाणि हीनानि तु परस्परम्‌। 
शतानि पञ्च चत्वारि त्रीणि द्वे चैव योजने॥ १७

सर्वोपरि निकृष्टानि तारकामण्डलानि तु। 
योजनद्वयमात्राणि तेभ्यो हस्वं न विद्यते॥ १८

उपरिष्टात्नयस्तेषां ग्रहा ये दूरसर्पिण:। 
सौरोडड्रिराश्च वक्र्श्च ज्ञेया मन्दविचारिण: ॥ १९

तेभ्यो5थस्तात्तु चत्वार: पुनरन्ये महाग्रहा:। 
सूर्य: सोमो बुधश्चैव भार्गवश्चैव शीघ्रगा: ॥ २०

तावन्त्यस्तारका: कोट्यो यावन्त्यक्षाणि सर्वशः । 
ध्रुवात्तु नियमाच्चैषामक्षमार्गे व्यवस्थिति:॥ २१

सप्ताश्वस्यैव सूर्यस्य नीचोच्चत्वमनुक्रमात्‌। 
उत्तरायणमार्गस्थो यदा पर्वसु चन्द्रमा:॥ २२

उच्चत्वाद दृश्यते शीघ्र नातिव्यक्तेगभस्तिभि:। 
तदा दक्षिणमार्गस्थो नीचां वीथीमुपाशअत:

भूमिरिखावृतः सूर्य: पौर्णिमावास्ययोस्तदा। 
ददूशे च यथाकालं॑ शीघ्रमस्तमुपैति च॥२४

तस्मादुत्तरमार्गस्थो ह्यमावास्यां निशाकरः। 
ददृशे दक्षिणे मार्गे नियमाद्‌ दृश्यते न च॥ २५

छोटे-छोटे असंख्य तारे तथा नक्षत्र परस्पर पाँच, चार, तीन एवं दो योजनकी दूरीपर हैं। सबसे ऊपर अत्यन्त छोटे तारामण्डल हैं, जो केवल दो योजन विस्तारवाले हैं, उनसे छोटे तारे नहीं हैं। उनके ऊपर तीन ग्रह शनि, बृहस्पति तथा मंगल; जो दूरकी यात्रा करनेवाले हैं, उन्हें मन्दगतिवाला जानना चाहिये। उनके नीचे चार अन्य बड़े ग्रह सूर्य, चन्द्रमा, बुध तथा शुक्र हैं, जो तेजीसे चलनेवाले हैं तारागण उतने ही करोड़ हैं, जितने सभी ऋक्ष (नक्षत्र) हैं। ऋक्षमार्गमें उनकी भी स्थिति ध्रुवके नियन्त्रणसे ही है। सात घोड़ोंवाले सूर्यका अनुक्रमसे नीचोचत्व (नीचा तथा ऊँचा होना) होता रहता है। जब सूर्य उत्तरायणमार्ममें स्थित होते हैं और चन्द्रमा पूर्ण मण्डलमें होते हैं, तब सूर्य कुछ अस्पष्ट किरणोंके साथ उच्चत्वके कारण शीघ्र दिखायी पड़ते हैं। जब सूर्य दक्षिणायनमार्गमें स्थित होते हैं, तब वे नीचेवाली वीधिमें रहते हैं। पृथ्वीकी रेखाद्वारा ढँका हुआ सूर्य उससे नीचे होता है। पूर्णिमा तथा अमावास्याके दिनोंमें यथासमय दिखायी देता है; क्योंकि यह शीघ्र अस्त हो जाता है। अतः: नये चन्द्रमाकी तिथि [अमावास्या]पर चन्द्रमा उत्तरायणमें होता है। यह दक्षिण मार्गमें दिखायी नहीं पड़ता; क्योंकि नक्षत्रोंके गतियोगके कारण यह [चन्द्रमा] सूर्यके अन्धकारसे ढँका हुआ होता हैं॥ १७--२५ ॥

ज्योतिषां गतियोगेन सूर्यस्थ तमसा बृतः। 
समानकालास्तमयौ. विषुवत्सु समोदयौ॥ २६

उत्तासु च वीथीषु व्यन्तरास्तमनोदयौ। 
पौर्णिमावास्ययोज्ञैयो ज्योतिश्चक्रानुवर्तिनौ॥ २७

दक्षिणायनमार्गस्थी यदा चरति रश्मिवान्‌। 
ग्रहाणां चेव सर्वेषां सूर्यो5धस्तात्प्रसर्पति॥ २८

विस्तीर्ण मण्डल कृत्वा तस्योर्ध्व चरते शशी । 
नक्षत्रमण्डलं कृत्स्नं॑ सोमादूर्ध्व प्रसर्पति॥ २९

नक्षत्रेभ्यो बुधश्चोर्ध्व॑ बुधादूर्ध्व तु भार्गव: । 
वक्रस्तु भार्गवादूर्ध्व वक्रादूर्ध बृहस्पति: ॥ ३०

तस्माच्छनेशचरएचोर्ध्व तस्मात्सप्तषिमण्डलम्‌। 
ऋषीणां चेव सप्तानां ध्रुवस्योर्ध्व व्यवस्थिति: ॥ ३९

सूर्य तथा चन्द्रमा विषुव॒त्‌ स्थानोंपर समान कालमें अस्त एवं उदय होते हैं। उत्तरायणमें पूर्णिमा तथा अमावास्या तिथियोंपर ज्योतिश्चक्रका अनुसरण करनेवाले इन दोनोंको बिना किसी अन्तरके उदय तथा अस्त होनेवाला जानना चाहिये। जब सूर्य दक्षिणायनमार्ममें स्थित होकर चलता है, तब वह सभी ग्रहोंके नीचेसे गुजरता है, उस समय चन्द्रमा अपने मण्डलको विस्तृत करके उस [सूर्य|-के ऊपर चलते हैं और सम्पूर्ण नक्षत्रमण्डल चन्द्रमासे ऊपर भ्रमण करता है। नक्षत्रोंसे ऊपर बुध, बुधसे ऊपर शुक्र, शुक्रसे ऊपर मंगल, मंगलसे ऊपर बृहस्पति, उस बृहस्पतिसे ऊपर शनि और उससे ऊपर सप्तर्षिमण्डल विद्यमान है। सात ऋषियोंके ऊपर श्रुवकी स्थिति है। उस परम विष्णुलोकको जानकर मनुष्य पापसे मुक्त हो जाता है॥ २६--३१ ॥

तं विष्णुलोकं परम॑ ज्ञात्वा मुच्येत किल्बिषातू। 
द्विगुणेषबु सहस्त्रेष्‌ योजनानां शतेषु च॥३२

ग्रहनक्षत्रतारासु उपरिष्टाद्यथाक्रमम्‌ | 
ग्रहाश्च चन्द्रसूयोँ च युतौ दिव्येन तेजसा॥ ३३

नित्यमृक्षेषु युज्यन्ते गच्छन्तोहर्निशं क्रमात्‌। 
ग्रहनक्षत्रसूर्यास्ते नीचोच्चऋजुसंस्थिता: ॥ ३४

समागमे चर भेदे च पश्यन्ति युगपत्प्रजा:। 
ऋतव: षट्‌ स्मृता: सर्वे समागच्छन्ति पञ्चथा॥ ३५

परस्परास्थिता होते युज्यन्ते च परस्परम्‌। 
असड्रेण विज्ञेयस्तेषां योगस्तु वै बुधेः॥ ३६

दो सौ हजार योजन दूरीपर ग्रह-नक्षत्र-तारोंसे ऊपर यथाक्रम सभी ग्रह और दिव्य तेजसे युक्त चन्द्रमासूर्य दिन-रात भ्रमण करते हुए सदा नक्षत्रोंसे जुड़े रहते हैं। वे ग्रह, नक्षत्र तथा सूर्य कभी नीचे, कभी ऊँचे एवं कभी सीधी रेखामें स्थित रहते हैं। समागम तथा भेद दोनों स्थितियोंमें वे प्रजाओंको एक साथ देखते हैं। ऋतुएँ छ: कही गयी हैं, वे सब पाँच प्रकारसे आती हैं। एक-दूसरेपर आश्रित होनेके कारण ये परस्पर जुड़ी होती हैं, किंतु उनका यह योग एक-दूसरेके साथ बिना संकर (मिश्रण)-के ही होता है-ऐसा विद्वानोंको जानना चाहिये॥ ३२--३६ ॥

एवं सड्क्षिप्प कथित ग्रहाणां गमन द्विजा:।
भास्करप्रमुखानां च यथादृष्टं यथाश्रुतम्‌॥ ३७

ग्रहाधिपत्ये भगवान्‌ ब्रह्मणा पद्मययोनिना। 
अभिषिक्तः सहस्तांशू रुद्रेण तु यथा गुहः॥ ३८

तस्माद ग्रहार्चना कार्या अग्नौ चोद्यं यथाविधि।
आदित्यग्रहपीडायां सद्धिः कार्यार्थसिद्धये॥ ३९ 

हे द्विजो! इस प्रकार मैंने जैसा देखा तथा सुना है, उसके अनुसार संक्षेपमें सूर्य आदि ग्रहोंकी गतिका वर्णन किया। पद्मयोनि ब्रह्मने ग्रहोंके अधिपतिके रूपमें हजार किरणोंवाले भगवान्‌ सूर्यको अभिषिक्त किया है। जैसे रुद्रने कार्तिकियको अभिषिक्त किया है। अत: सजनोंको [अपने] कार्यकी सिद्धिके लिये सूर्य ग्रहकी पीड़ाके समय कहे गये विधानके अनुसार यथाविधि अमिनि में ग्रहार्चन करना चाहिये॥ ३७--३९ ॥

॥ श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे ज्योतिश्चक्रे ग्रहचारकथनं नाम सप्तपञ्चाशत्तमोउध्याय: ॥ ५७॥ 

॥ इस प्रकार श्रीलिंगमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वधायमें 'ज्योतिश्चक्रमें ग्रहचारकथन नायक सत्तावनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ ५७ ॥

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