लिंग पुराण : देवताओंका कैलासपुरी आकर वहाँ विराजमान उमासहित भगवान् शिवके दर्शन करना | Linga Purana: The gods come to Kailashpuri and have darshan of Lord Shiva along with Uma seated there

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] अस्सीवाँ अध्याय

देवताओंका कैलासपुरी आकर वहाँ विराजमान उमासहित भगवान् शिव के दर्शन करना तथा भगवान् शिवद्वारा देवताओंको पाशुपतव्रतका उपदेश प्रदान करना

ऋषय ऊचुः

कथं पशुपतिं दृष्ट्वा पशुपाशविमोक्षणम्। 
पशुत्वं तत्यजुर्देवास्तन्नो वक्तुमिहार्हसि ॥ १

ऋषिगण बोले- [हे सूतजी!] पशुपतिका दर्शन करके पशुपाशसे मुक्ति किस प्रकार होती है; देवताओंने पशुत्वका कैसे त्याग किया? इसे आप कृपा करके हम लोगोंको बतायें ॥ १॥

सूत उवाच

पुरा कैलासशिखरे भोग्याख्ये स्वपुरे स्थितम् । 
समेत्य देवाः सर्वज्ञमाजग्मुस्तत्प्रसादतः ॥ २

हिताय सर्वदेवानां ब्रह्मणा च जनार्दनः। 
गरुडस्य तथा स्कन्धमारुह्य पुरुषोत्तमः ॥ ३

सूतजी बोले- पूर्वकालमें कैलास-शिखरपर भोग्य नामक अपने पुरमें स्थित सर्वज्ञ शिवके पास सभी देवता उनकी कृपासे एक साथ मिलकर आये। सभी देवताओंऑक हितके लिये जनार्दन पुरुषोत्तम विष्णु भी गरुड़‌के स्कन्धपर बैठकर ब्रह्मा तथा सभी देवताओंके साथ देवदेव शिवके पास पहुँचे ॥ २-३॥

जगाम देवताभिर्वै देवदेवान्तिकं हरिः । 
सर्वे सम्प्राप्य देवस्य सार्धं गिरिवरं शुभम् ॥ ४

सेन्द्राः ससाध्याः सयमाः प्रणेमुर्गिरिमुत्तमम् । 
भगवान् वासुदेवोऽसौ गरुडाद् गरुडध्वजः । 
अवतीर्य गिरिं मेरुमारुरोह सुरोत्तमैः ॥ ५

सकलदुरितहीनं सर्वदं भोगमुख्यं मुदितकुररवृन्दं नादितं नागवृन्दैः ।
मधुररणितगीतं सानुकूलान्धकारं पदरचितवनान्तं कान्तवातान्ततोयम् ॥ ६

भवनशतसहस्त्रैर्जुष्टमादित्यकल्पै- ललितगतिविदग्धैर्हसवृन्दैश्च भिन्नम् ।
धवखदिरपलाशैश्चन्दनाद्यैश्च वृक्षै द्विजवरगणवृन्दैः कोकिलाद्यैद्विरेफैः ॥ ७

क्वचिदशेषसुरद्रुमसङ्कलं कुरबकैः प्रियकैस्तिलकैस्तथा।
बहुकदम्बतमाललतावृतं गिरिवरं शिखरैर्विविधैस्तथा ॥ ८

इन्द्र, साध्यगण तथा यमसहित सभी लोगोंने एक साथ शिवके गिरिश्रेष्ठ, शुभ तथा उत्तम पर्वतश्रेष्ठ मेरुपर आकर उस गिरिको प्रणाम किया। वे गरुड़ध्वज भगवान् वासुदेव गरुड़से उतरकर उत्तम देवताओंके साथ मेरु पर्वतपर चढ़ गये; वह समस्त पापोंसे रहित, सबकुछ देनेवाला, उत्तम भोगोंसे युक्त, आनन्दित कुस पक्षियोंसे समन्वित, हाथियोंकी ध्वनियोंसे निनादित, मधुर गीतोंसे गुंजित, अन्य पर्वतोंके पृष्ठभागको अपने छायारूपी अन्धकारसे युक्त करनेवाला, पदचिह्नोंसे युक्त बन-प्रदेशवाला, सुन्दर हवाओं तथा जलसे परिपूर्ण, सूर्यके समान प्रदीप्त सैकड़ों-हजारों भवनोंसे युक्त, मनोहर गतिवाले हंससमूहोंसे मण्डित, धव-खदिर- पलाश-चन्दन आदि वृक्षोंसे परिपूर्ण, उत्तम पक्षियोंके समूहोंसे युक्त, कोकिल आदि तथा भौंरॉसे शोभायमान, कहीं-कहीं बहुत से दिव्य वृक्षोंसे भरा हुआ, कुरबक- प्रियक-तिलक पुष्पवृक्षोंसे सम्पन्न, बहुत-से कदम्ब- तमाल-लताओंसे घिरा हुआ तथा अनेक प्रकारके शिखरौसे युक्त श्रेष्ठ पर्वत है॥ ४-८ ॥

गिरेः पृष्ठे पुरं शार्वं कल्पितं विश्वकर्मणा। 
क्रीडार्थ देवदेवस्य भवस्य परमेष्ठिनः ॥ ९

अपश्यंस्तत्पुरं देवाः सेन्द्रोपेन्द्राः समाहिताः । 
प्रणेमुर्दूरतश्चैव प्रभावादेव शूलिनः ॥ १०

सहस्त्रसूर्यप्रतिमं महान्तं सहस्त्रशः सर्वगुणैश्च भिन्नम्।
जगाम कैलासगिरिं महात्मा मेरुप्रभागे पुरमादिदेवः ॥ ११

ततोऽथ नारीगजवाजिसङ्कलं रथैरनेकैरमरारिसूदनः।
गणैर्गणेशैश्च गिरीन्द्रसन्निभं महापुरद्वारमजो हरिश्च ॥ १२

[इस] पर्वतके पृष्ठपर देवदेव परमेश्वर शिवके विहारके लिये विश्वकर्माने एक शिवपुरका निर्माण किया है। इन्द्र तथा उपेन्द्रसहित सभी देवताओंने उस पुरको ध्यानपूर्वक देखा और शिवजीके प्रभावसे दूरसे ही उसे प्रणाम किया महात्मा आदिदेव [विष्णु] मेरुके एक भागमें [स्थित] हजारों सूर्योके समान देदीप्यमान, हजारों तरहसे महान्, सभी गुणोंसे युक्त कैलासगिरिपर गये। तदनन्तर ब्रह्मा तथा देवशत्रुओंका विनाश करनेवाले विष्णु उस महान् पुरके द्वारपर पहुँचे; जो स्त्रियों, हाथियों, घोड़ों, अनेक रथों, गणों तथा गणेश्वरोंसे भरा हुआ था और महापर्वतके समान प्रतीत हो रहा था॥ ९-१२॥

अथ जाम्बूनदमयैर्भवनैर्मणिभूषितैः ।
विमानैर्विविधाकारैः प्राकारैश्च समावृतम् ॥ १३

दृष्ट्वा शम्भोः पुरं बाहां देवैः सब्रह्मकैर्हरिः।
प्रहृष्टवदनो भूत्वा प्रविवेश ततः पुरम् ॥ १४

हर्म्यप्रासादसम्बाधं महाट्टालसमन्वितम्।
द्वितीयं देवदेवस्य चतुर्दारं सुशोभनम् ॥ १५

वज्रवैडूर्यमाणिक्यमणिजालैः समावृतम् ।
दोलाविक्षेपसंयुक्तं घण्टाचामरभूषितम् ।। १६

मृदङ्गमुरजैर्जुष्टं वीणावेणुनिनादितम् ।
नृत्यद्भिरप्सरः सङ्गैर्भूतसङ्गैश्च संवृतम् ।
देवेन्द्रभवनाकॉरैर्भवनैर्दृष्टिमोहनैः ॥ १७

तदनन्तर सुवर्णमय भवनों, मणिभूषित विमानों तथा अनेक आकारवाले प्राकारों (चहारदीवारियों)-से घिरे हुए शिवके बाहरी पुरको देखकर प्रसन्नमुख होकर विष्णुने ब्रह्मासहित सभी देवताओंके साथ देवदेवके उस दूसरे पुरमें प्रवेश किया; जो विशाल भवनों तथा महलोंसे अवरुद्ध, ऊँची अट्टालिकाओंसे समन्वित, चार द्वारोंवाला, परम सुन्दर, हीरा-वैडूर्य- माणिक्य-मणियोंके जालोंसे आवृत, आन्दोलित हो रहे हिण्डोलोंसे समन्वित, घण्टा तथा चामरसे विभूषित, मृदंग-मुरज आदि वाद्ययन्त्रोंसे परिपूर्ण, वीणा-वेणुसे निनादित, नृत्य करती हुई अप्सराओं तथा भूतगणोंसे घिरा हुआ और दृष्टिको मोह लेनेवाले देवेन्द्रभवनके आकारवाले भवनोंसे मण्डित था ॥ १३-१७॥

प्रासादशृङ्गेष्वथ पौरनार्यः सहस्त्रशः पुष्पफलाक्षताद्यैः ।
स्थिताः करैस्तस्य हरेः समन्तात् प्रचिक्षिपुर्मूर्छिन यथा भवस्य ॥ १८

दृष्ट्वा नार्यस्तदा विष्णुं मदाघूर्णितलोचनाः ॥ १९

विशालजघनाः सद्यो ननृतुर्मुमुदुर्जगुः ।
काश्चिद् दृष्ट्वा हरिं नार्यः किञ्चित्प्रहसिताननाः ।। २०

[तीसरे पुरमें प्रवेश करनेपर] महलोंके शिखरोंपर विराजमान हजारों पुरस्त्रियाँ [अपने] हाथोंसे सभी ओरसे शिवकी भाँति विष्णुके मस्तकपर भी पुष्प, फल, अक्षत आदिको वर्षों करने लगीं। उस समय विष्णुको देखकर मदसे घूर्णित नेत्रोंवाली तथा विशाल जाँघोंवाली स्त्रियाँ शीघ्र ही आनन्दमग्न हो गयीं और वे नाचने तथा गाने लर्गी। विष्णुको देखकर कुछ स्त्रियोंका मुखमण्डल मन्द मुसकानसे भर गया, कुछके वस्त्र शिथिल हो गये और कुछकी करधनी ढीली पड़ गयी; वे सब गीत गाने लगीं ॥ १८-२० ॥

किञ्चिद्विस्त्रस्तवस्त्राश्च स्त्रस्तकाञ्चीगुणा जगुः ।
चतुर्थं पञ्चमं चैव षष्ठं च सप्तमं तथा ॥ २१

अष्टमं नवमं चैव दशमं च पुरोत्तमम् ।
अतीत्यासाद्य देवस्य पुरं शम्भोः सुशोभनम् ॥ २२

सुवृत्तं सुतरां शुभ्रं कैलासशिखरे शुभे।
सूर्यमण्डलसङ्काशैर्विमानैश्च विभूषितम् ॥ २३

स्फाटिकैर्मण्डपैः शुभैर्जाम्बूनदमयैस्तथा।
नानारत्नमयैश्चैव दिग्विदिक्षु विभूषितम् ॥ २४

गोपुरैर्गोपतेः शम्भोर्नानाभूषणभूषितैः ।
अनेकैः सर्वतोभद्रैः सर्वरत्नमयैस्तथा ॥ २५

प्राकारैर्विविधाकारैरष्टाविंशतिभिर्वृतम् ।
उपद्वारैर्महाद्वारैर्विदिक्षु विविधैर्दृ‌हैः ।। २६

गुह्यालयैर्गुह्यगृहै गृहस्य भवनैः शुभैः ।
ग्राम्यैरन्यैर्महाभागा मौक्तिकैर्दृष्टिमोहनैः ॥ २७

हे महाभागो! तदनन्तर चौथे, पाँचवें, छठें, सातवें, आठवें, नौवें तथा दसवें उत्तम पुरोंको क्रमसे पार करके शुभ कैलास-शिखरपर [स्थित] देवदेव गोपति परमेश्वर भगवान् शिवके परम सुन्दर; पूर्ण गोलाकार; सूर्यमण्डलके समान भवनोंसे विभूषित; स्फटिकके शुभ्र मण्डपोंसे शोभायमान; सभी दिशाओंमें सुवर्णमय तथा विविध रत्नमय फाटकोंसे विभूषित; विविध आभूषणोंसे अलंकृत, अनेक सर्वतोभद्रोंसे युक्त; अनेक आकारवाले रत्नजटित अट्ठाईस प्राकारों (चहारदीवारियों)- से घिरे हुए; उपदिशाओंमें अनेक प्रकारके दृढ़ उपद्वारों तथा महाद्वारोंसे युक्त; गुह (कार्तिकेय) के गुप्त भवनों तदनन्तर सुवर्णमय भवनों, मणिभूषित विमानों तथा अनेक आकारवाले प्राकारों (चहारदीवारियों)-से घिरे हुए शिवके बाहरी पुरको देखकर प्रसन्नमुख होकर विष्णुने ब्रह्मासहित सभी देवताओंके साथ देवदेवके उस दूसरे पुरमें प्रवेश किया; जो विशाल भवनों तथा महलोंसे अवरुद्ध, ऊँची अट्टालिकाओंसे समन्वित, चार द्वारोंवाला, परम सुन्दर, हीरा-वैडूर्य- माणिक्य-मणियोंके जालोंसे आवृत, आन्दोलित हो रहे हिण्डोलोंसे समन्वित, घण्टा तथा चामरसे विभूषित, मृदंग-मुरज आदि वाद्ययन्त्रोंसे परिपूर्ण, वीणा-वेणुसे निनादित, नृत्य करती हुई अप्सराओं तथा भूतगणोंसे घिरा हुआ और दृष्टिको मोह लेनेवाले देवेन्द्रभवनके आकारवाले भवनोंसे मण्डित था ॥ १३-१७॥

गणेशायतनैर्दिव्यैः पद्मरागमवैस्तथा। 
चन्दनैर्विविधाकारैः पुष्योद्यानैश्च शोभनैः ॥ २८

तडागैर्दीर्घिकाभिश्च हेमसोपानपङ्किभिः । 
स्त्रीणां गतिजितैहँसैः सेविताभिः समन्ततः ॥ २९

मयूरैश्चैव कारण्डैः कोकिलैश्चक्रवाककैः । 
शोभिताभिश्च वापीभिर्दिव्यामृतजलैस्तथा ॥ ३०

संलापालापकुशलैः सर्वाभरणभूषितैः ।
स्तनभारावनमैश्च मदाघूर्णितलोचनैः ।। ३१

गेयनादरतैर्दिव्यै रुद्रकन्यासहस्त्रकैः ।
नृत्यद्भिरप्सरः सङ्गैरमरैरपि दुर्लभैः ॥ ३२

प्रफुल्लाम्बुजवृन्दाद्यैस्तथा द्विजवरैरपि। 
रुद्रस्त्रीगणसङ्कीर्णैर्जलक्रीडारतैस्तथा ॥ ३३

स्त्रीसङ्गैर्देवदेवस्य भवस्य परमात्मनः ।
दृष्ट्वा विस्मयमापन्नास्तस्थुर्देवाः समन्ततः ।। ३५

हे महाभागो! तदनन्तर चौथे, पाँचवें, छठें, सातवें, आठवें, नौवें तथा दसवें उत्तम पुरोंको क्रमसे पार करके शुभ कैलास-शिखरपर [स्थित] देवदेव गोपति परमेश्वर भगवान् शिवके परम सुन्दर; पूर्ण गोलाकार; सूर्यमण्डलके समान भवनोंसे विभूषित; स्फटिकके शुभ्र मण्डपोंसे शोभायमान; सभी दिशाओंमें सुवर्णमय तथा विविध रत्नमय फाटकोंसे विभूषित; विविध आभूषणोंसे अलंकृत, अनेक सर्वतोभद्रोंसे युक्त; अनेक आकारवाले रत्नजटित अट्ठाईस प्राकारों (चहारदीवारियों)- से घिरे हुए; उपदिशाओंमें अनेक प्रकारके दृढ़ उपद्वारों तथा महाद्वारोंसे युक्त; गुह (कार्तिकेय) के गुप्त भवनों तथा गुप्त कक्षोंसे सुशोभित; दृष्टिको मोह लेनेवाले मोतीके बने हुए अन्य सुन्दर ग्राम्य भवनोंसे युक्तः पद्मरागसे बने हुए दिव्य गणेश्वर-मन्दिरोंसे विभूषितः चन्दनके वृक्षोंसहित अनेक आकारवाले सुन्दर पुष्प- उद्यानोंसे सुशोभित; सोनेकी सौड़ियोंकी पंक्तियोंसे युक्त और स्त्रियोंकी चालको तिरस्कृत करनेवाले हंसोंसे सभी ओरसे सेवित सरोवरों तथा बावलियोंसे विभूषित; मयूर, कारण्ड, कोकिल तथा चक्रवाक से सुशोभित और दिव्य अमृतमय जलसे युक्त वापियोंसे विभूषित; वार्तालापमें कुशल, सभी आभूषणोंसे अलंकृत, वक्षःस्थलके भारसे झुकी हुई, मदसे घूर्णित नेत्रोंवाली, गाने-बजानेमें तल्लीन तथा नृत्य करती हुई देवदुर्लभ दिव्य हजारों रुद्र-कन्याओं एवं अप्सराओंसे सुशोभित विकसित कमल आदिसे युक्तः उत्तम पक्षियोंसे परिपूर्ण; रुद्रस्त्रीगणोंसे भरे हुए; जलक्रीड़ामें रत, रतोत्सवमें तल्लीन, प्रत्येक पदपर ललित, संगीतमें अनुरक्त तथा पद्मरागके समान कान्तिवाली स्त्रियोंसे सुशोभित पुरको देखकर सभी देवता पूर्णरूपसे आश्चर्यचकित होकर वहीं खड़े हो गये ॥ २८-३५॥

तत्रैव ददृशुर्देवा वृन्दं रुद्रगणस्य च। 
गणेश्वराणां वीराणामपि वृन्दं सहस्त्रशः ॥ ३६

सुवर्णकृतसोपानान् वज्रवैडूर्यभूषितान्। 
स्फाटिकान् देवदेवस्य ददृशुस्ते विमानकान् ।। ३७

तेषां शृङ्गेषु हृष्टाश्च नार्यः कमललोचनाः । 
विशालजघना यक्षा गन्धर्वाप्सरसस्तथा ॥ ३८

किन्नर्यः किन्नराश्चैव भुजङ्गाः सिद्धकन्यकाः । 
नानावेषधराश्चान्या नानाभूषणभूषिताः ।। ३९

नानाप्रभावसंयुक्ता नानाभोगरतिप्रियाः । 
नीलोत्पलदलप्रख्याः पद्मपत्रायतेक्षणाः ॥ ४०

पद्मकिञ्जल्कसङ्काशैरंशुकैरतिशोभनाः ।
वलयैर्नूपुरैहरैश्च्छत्रैश्चित्रैस्तथांशुकैः ।
भूषिता भूषितैश्चान्यैर्मण्डिता मण्डनप्रियाः ।। ४१

वहींपर देवताओंने रुद्रगणों, हजारों वीर गणेश्वरों, हीरे तथा वैडूर्यमणिसे जटित सुवर्णमय सीढ़ियों और देवदेवके स्फटिकनिर्मित भवनोंको देखा उन [भवनों] के शिखरोंपर हृष्ट, कमलके समान नेत्रोंवाली तथा विशाल जाँघोंवाली स्त्रियाँ, यक्ष, गन्धर्व, अप्सराएँ, किन्नरियाँ, किन्नर, नाग, सिद्धगणोंकी कन्याएँ, तथा अन्य स्त्रियाँ विराजमान थीं; वे अनेक वैष धारण की हुई थीं, अनेक आभूषणोंसे अलंकृत थीं, अनेक हाव-भावोंसे युक्त र्थी, अनेक भोग तथा रतिसे प्रेम करनेवाली थीं, नील कमलके पत्रके समान शोभावाली थीं, कमल-पत्रके समान विशाल नेत्रोंवाली थीं, कमलकी पंखुड़ीके समान [कोमल] वस्त्रोंसे सुशोभित थी, कंकण-नूपुर-हार-रंग-बिरंगे छत्र तथा वस्त्रोंसे भूषित थीं, अन्य प्रकारके आभूषणोंसे मण्डित थीं और सजावटसे प्रीति करनेवाली थीं ॥ ३६-४१ ॥

दृष्ट्वाथ वृन्दं सुरसुन्दरीणां गणेश्वराणां सुरसुन्दरीणाम् ।
जग्मुर्गणेशस्य पुरं सुरेशाः पुरद्विषः शक्रपुरोगमाश्च ॥ ४२

दृष्ट्वा च तस्थुः सुरसिद्धसङ्घाः पुरस्य मध्ये पुरुहूतपूर्वाः ।
भवस्य बालार्कसहस्त्रवर्ण विमानमाद्यं परमेश्वरस्य ॥ ४३

अथ तस्य विमानस्य द्वारि संस्थं गणेश्वरम्। 
नन्दिनं ददृशुः सर्वे देवाः शक्रपुरोगमाः ॥ ४४

तं दृष्ट्वा नन्दिनं सर्वे प्रणम्याहुर्गणेश्वरम्। 
जयेति देवास्तं दृष्ट्‌वा सोऽप्याह च गणेश्वरः ।। ४५

भो भो देवा महाभागाः सर्वे निर्धूतकल्मषाः । 
सम्प्राप्ताः सर्वलोकेशा वक्तुमर्हथ सुव्रताः ।॥ ४६

तमाहुर्वरदं देवं वारणेन्द्रसमप्रभम्। 
पशुपाशविमोक्षार्थ दर्शयास्मान् महेश्वरम् ॥ ४७

देवताओंकी सुन्दर स्त्रियों तथा गणेश्वरोंकी सुन्दर स्त्रियोंको देखकर इन्द्र आदि प्रमुख देवता त्रिपुरके शत्रु गणाधीश के पुरमें गये [उस] पुरके मध्यमें स्थित परमेश्वर शिवके हजारों उगते हुए सूर्यके समान आभावाले भवनको देखकर इन्द्रसहित देवता तथा सिद्धगण वहाँ रुक गये इसके बाद इन्द्र आदि सभी देवताओंने उस भवनके द्वारपर स्थित गणेश्वर नन्दीको देखा उन गणेश्वर नन्दीको देखकर सभी देवताओंने उन्हें प्रणाम किया और कहा-'जय हो'। तब गणेश्वरने भी उन्हें देखकर कहा- 'हे महाभाग्यशाली देवताओ। हे सुव्रतो । निष्याप तथा सभी लोकोंके स्वामी आपलोग किसलिये आये हैं; कृपा करके बतायें  तत्पश्चात् देवताओंने उनसे कहा- 'पशुपाश (जीवभाव) से मुक्तिके लिये आप हमलोगोंको गजराज (ऐरावत) के समान शुभ्र कान्तिवाले एवं वर प्रदान करनेवाले देव महेश्वरका दर्शन कराइये ॥ ४२-४७ ॥

पुरा पुरत्रयं दग्धुं पशुत्वं परिभाषितम्। 
शङ्किताश्च वयं तत्र पशुत्वं प्रति सुव्रत ।। ४८

व्रतं पाशुपतं प्रोक्तं भवेन परमेष्ठिना। 
व्रतेनानेन भूतेश पशुत्वं नैव विद्यते ॥ ४९

अथ द्वादशवर्ष वा मासद्वादशकं तु वा। 
दिनद्वादशकं वापि कृत्वा तद् व्रतमुत्तमम् ॥५०

मुच्यन्ते पशवः सर्वे पशुपाशैर्भवस्य तु। 
दर्शयामास तान् देवान्नारायणपुरोगमान् ॥ ५१

नन्दी शिलादतनयः सर्वभूतगणाग्रणीः । 
तं दृष्ट्वा देवमीशानं साम्बं सगणमव्ययम् ॥ ५२

प्रणेमुस्तुष्टुवुश्चैव प्रीतिकण्टकितत्वचः । 
विज्ञाप्य शितिकण्ठाय पशुपाशविमोक्षणम् ॥ ५३

हे सुव्रत! पूर्वकालमें तीनों पुरोंको दग्ध करनेके लिये पशुत्व स्वीकार किया गया था; उस पशुत्वके विषयमें हमलोग शंकाग्रस्त हैं परमेश्वर शिवके द्वारा पाशुपतव्रत कहा गया है हे भूतेश! इस व्रतके करनेसे पशुत्व नहीं रहता है। बारह वर्षीतक, बारह महीनोंतक अथवा बारह दिनोंतक भी उस उत्तम व्रतको करके समस्त पशु [भगवान्] शिवके पशुपाशोंसे मुक्त हो जाते हैं तदनन्तर सभी भूतगणोंमें अग्रणी शिलादपुत्र नन्दीने नारायण आदि उन देवताओंको [शिवका] दर्शन कराया। तब उमा तथा गणोंसहित उन सनातन प्रभु ईशानका दर्शन करके प्रीतिके कारण रोमांचित देवताओंने उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की तथा [उन] शितिकण्ठ (शिव)- से पशुपाशसे मुक्तिका निवेदन करके बार-बार प्रणामकर उन शम्भुके सामने वे खड़े हो गये ॥ ४८-५३ ॥

तस्थुस्तदाग्रतः शम्भोः प्रणिपत्य पुनः पुनः । 
ततः सम्प्रेक्ष्य तान् सर्वान् देवदेवो वृषध्वजः ॥ ५४

विशोध्य तेषां देवानां पशुत्वं परमेश्वरः । 
व्रतं पाशुपतं चैव स्वयं देवो महेश्वरः ॥ ५५

उपदिश्य मुनीनां च सहास्ते चाम्बया भवः । 
तदाप्रभृति ते देवाः सर्वे पाशुपताः स्मृताः ॥ ५६

पशूनां च पतिर्यस्मात्तेषां साक्षाद्धि देवताः । 
तस्मात्पाशुपताः प्रोक्तास्तपस्तेपुश्च ते पुनः ॥ ५७

ततो द्वादशवर्षान्ते मुक्तपाशाः सुरोत्तमाः । 
ययुर्यथागतं सर्वे ब्रह्मणा सह विष्णुना ॥ ५८

एतद्वः कथितं सर्वं पितामहमुखाच्छ्रुतम् । 
पुरा सनत्कुमारेण तस्माद् व्यासेन धीमता ॥ ५९

यः श्रावयेच्छुचिर्विप्राञ्छृणुयाद्वा शुचिर्नरः । 
स देहभेदमासाद्य पशुपाशैः प्रमुच्यते ॥ ६०

तत्पश्चात् उन सबकी ओर देखकर देवदेव, वृषभध्वज, परमेश्वर भगवान् महेश्वर उन देवताओं तथा मुनियोंके पशुत्वभावका शोधनकर उन्हें पाशुपतव्रतका स्वयं उपदेश करके उमाके साथ बैठ गये। तभीसे वे सब देवता पाशुपत कहे जाने लगे। वे शिव उन पशुओंके साक्षात् पति हैं, अतः देवता पाशुपत कहे गये हैं। इसके बाद उन सबने पुनः तपस्या की। तदनन्तर बारह वर्षक अन्तमें सभी श्रेष्ठ देवता पशुपाशसे मुक्त हो गये और जैसे आये थे, वैसे ही ब्रह्मा तथा विष्णुके साथ वापस लौट गये [हे मुनियो ।] मैंने आप लोगोंसे यह सब कह दिया; पूर्वकालमें इसे सनत्कुमारने ब्रह्माजीके मुखसे तथा बुद्धिमान् व्यासजीने उन [सनत्कुमार] से सुना था। जो मनुष्य शुद्ध होकर इसे ब्राह्मणोंको सुनाता है अथवा शुद्ध होकर [स्वयं] सुनता है, वह दूसरा शरीर प्राप्त करके पशुपाशोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ५४-६०॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे पाशुपतव्रतमाहात्म्यं नामाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८०॥ 

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'पाशुपतव्रतमाहात्य्य' नामक अस्सीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८० ॥

टिप्पणियाँ