लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] छानबेवाँ अध्याय
भगवान् महेश्वर द्वारा वीरभद्र का आवाहन और नृसिंहके तेजको शमन करने के लिये भेजना, वीरभद्र तथा नृसिंहका संवाद, भगवान् शिवका शरभावतार धारणकर नृसिंह तेज को शान्त करना एवं नृसिंह द्वारा शिव स्तुति
अक्षय ऊचुः
कथं देवो महादेवो विश्वसंहारकारकः ।
शरभाख्यं महाघोरं विकृतं रूपमास्थितः ॥ १
ऋषिगण बोले- [हे सूतजी!] विश्वका संहार करनेवाले भगवान् महादेवने अत्यन्त भयंकर तथा विकृत शरभनामक रूप कैसे धारण किया और उन्होंने कौन-सा साहसपूर्ण कृत्य किया; यह सब पूर्णरूपसे बताइये ॥ १ ॥
किं किं धैर्यं कृतं तेन ब्रूहि सर्वमशेषतः ।
सूत उवाच
एवमभ्यर्थितो देवैर्मतिं चक्रे कृपालयः ॥ २
यत्तेजस्तु नृसिंहाख्यं संहर्तुं परमेश्वरः ।
तदर्थ स्मृतवान् रुद्रो वीरभद्रं महाबलम् ॥ ३
सूतजी बोले- इस प्रकार देवताओंके प्रार्थना करनेपर कृपानिधान शिवने नृसिंहसंज्ञक तेजको नष्ट करनेका निश्चय किया और इसके लिये रुद्रने महाप्रलय करनेवाले अपने भैरवरूप महाबली वीरभद्रका स्मरण किया ॥ २-३॥
आत्मनो भैरवं रूपं महाप्रलयकारकम्।
आजगाम पुरा सद्यो गणानामग्रतो हसन् ॥ ४
साट्टहासैर्गणवरैरुत्पतद्भिरितस्ततः।
नृसिंहरूपैरत्युग्रैः कोटिभिः परिवारितः ॥ ५
तावद्भिरभितो वीरैर्नृत्यद्भिश्च मुदान्वितैः ।
क्रीडद्भिश्च महाधीरैर्ब्रह्माद्यैः कन्दुकैरिव ॥ ६
अदृष्टपूर्वैरन्यैश्च वेष्टितो वीरवन्दितः ।
कल्पान्तज्वलनग्वालो विलसल्लोचनत्रयः ॥ ७
आत्तशस्त्रो जटाजूटे ज्वलद्बालेन्दुमण्डितः ।
बालेन्दुद्वितयाकारतीक्ष्णदंष्ट्राङ्कुरद्वयः ॥ ८
आखण्डलधनुः खण्डसन्निभभूलतायुतः ।
महाप्रचण्डहुङ्कारबधिरीकृतदिङ्मुखः ॥ ९
नीलमेघाञ्जनाकारभीषणश्मश्रुरद्भुतः ।
वादखण्डमखण्डाभ्यां भ्रामयंस्त्रिशिखं मुहुः ।। १०
वीरभद्रोऽपि भगवान् वीरशक्तिविजृम्भितः ।
स्वयं विज्ञापयामास किमत्र स्मृतिकारणम् ॥ ११
आज्ञापय जगत्स्वामिन् प्रसादः क्रियतां मयि ।
तब वे [वीरभद्र] गणोंके आगे होकर हँसते हुए शीघ्र ही वहाँ आये। वे करोड़ों श्रेष्ठ गणोंसे घिरे हुए थे, जो अट्टहास कर रहे थे, इधर-उधर उछल रहे थे, नृसिंहके रूपवाले थे तथा अत्यन्त उग्र थे। वे नृत्य करते हुए तथा महाधीर ब्रह्मा आदिके साथ गेंदकी भाँति खेलते हुए प्रसन्न वीरोंसे घिरे हुए थे। वे वीरवन्य [वीरभद्र] कभी न देखे गये अन्य वीरोंसे भी आवृत थे। वे [वीरभद्र] प्रलयाग्निकी ज्वालाके समान थे, वे तीन नेत्रोंसे विभूषित थे, वे शस्त्र धारण किये हुए थे, उनके जटाजूटमें देदीप्यमान बालचन्द्रमा शोभा दे रहा था, वे बालचन्द्रके समान आकारवाले अति शुभ्र तथा तीक्ष्ण दो दाँतोंसे सुशोभित थे, वे इन्द्रधनुषके समान भौंहोंसे युक्त थे, वे अपने महाप्रचण्ड हुंकारसे दिशाओंको वधिर बना दे रहे थे, वे नील मेघ तथा अंजनके समान आकारवाले भयंकर श्मश्रु (दाढ़ी) से युक्त थे, वे अद्भुत रूपवाले थे और अपनी अपराजित भुजाओंसे विवादका शमन करने वाले त्रिशूलको बार-बार घुमा रहे थे। इस प्रकारको वीरताकी शक्तिसे परिपूर्ण भगवान् वीरभद्रने स्वयं निवेदन किया- 'हे जगत्स्वामिन् ! यहाँपर मुझको स्मरण करनेका क्या कारण है? आज्ञा प्रदान कीजिये और मुझपर कृपा कीजिये ॥ ४-११॥
श्रीभगवानुवाच
अकाले भयमुत्पन्नं देवानामपि भैरव ॥ १२
ज्वलितः स नृसिंहाग्निः शमयैनं दुरासदम् ।
सान्त्वयन् बोधयादी तं तेन किं नोपशाम्यति ॥ १३
ततो मत्परमं भावं भैरवं सम्प्रदर्शय।
सूक्ष्मं सूक्ष्मेण संहत्य स्थूलं स्थूलेन तेजसा ।। १४
वक्कामानय कृत्तिं च वीरभद्र ममाज्ञया।
इत्यादिष्टो गणाध्यक्षः प्रशान्तवपुरास्थितः ॥ १५
जगाम रंहसा तत्र यत्रास्ते नरकेसरी।
ततस्तं बोधयामास वीरभद्रो हरो हरिम् ॥ १६
श्रीभगवान् बोले- हे भैरव ! असमयमें देवताओंके समक्ष भय उत्पन्न हो गया है; वह नृसिंहरूपी अग्नि प्रज्वलित हो रही है; इस अति भयंकर अग्निको शान्त करो। उसे सान्त्वना देते हुए पहले समझाओ, यदि उससे वह शान्त नहीं होती है, तब मेरे महाभयंकर भैरवरूपको दिखाओ। हे वीरभद्र। मेरी आज्ञासे सूक्ष्मरूपको सूक्ष्म तेजसे तथा स्थूलरूपको स्थूल तेजसे विनष्ट करके उसके मुख तथा उसकी त्वचाको [मेरे पास] ले आओ इस प्रकार आज्ञा प्राप्त किये हुए गणेश्वर वीरभद्र शान्तस्वरूप धारण करके वेगपूर्वक वहाँ पहुँच गये, जहाँ नृसिंह विराजमान थे। तदनन्तर भगवान् वीरभद्रने नृसिंहरूपधारी उन विष्णुको समझाया और जैसे पिता औरस पुत्रसे कहता है, उसी प्रकार ईशान [वीरभद्र] उनसे यह वचन कहने लगे ॥ १२-१६ ॥
उवाच वाक्यमीशानः पितापुत्रमिवौरसम्।
श्रीवीरभद्र उवाच
जगत्सुखाय भगवन्नवतीर्णोऽसि माधव ॥ १७
स्थित्यर्थेन च युक्तोऽसि परेण परमेष्ठिना।
जन्तुचक्रं भगवता रक्षितं मत्स्यरूपिणा ॥ १८
पुच्छेनैव समाबध्य भ्रमन्नेकार्णवे पुरा।
बिभर्षि कूर्मरूपेण वाराहेणोद्धृता मही ॥ १९
अनेन हरिरूपेण हिरण्यकशिपुर्हतः ।
वामनेन बलिर्बद्धस्त्वया विक्रमता पुनः ॥ २०
श्रीवीरभद्र बोले- हे भगवन्! हे माधव। आप तो जगत्के सुखके लिये अवतीर्ण हुए हैं; श्रेष्ठ ब्रह्माने [संसारकी] स्थितिके कार्यमें आपको लगाया है। पूर्वकालमें अपनी पूँछमें [नावको] बाँधकर विशाल सागरमें भ्रमण करते हुए मत्स्य रूप धारी आप भगवान् [विष्णु] ने जीव समुदायकी रक्षा की थी। आप कूर्मके रूपसे जगत्को धारण करते हैं और वाराह रूप के द्वारा आपने पृथ्वीका उद्धार किया है। आपने इस सिंहरूपसे हिरण्यकशिपुका वध किया है। आपने वामनरूप धारणकर तीन पगोंद्वारा त्रिलोकीको मापकर बलिको बाँध लिया था॥ १७-२०॥
त्वमेव सर्वभूतानां प्रभवः प्रभुरव्ययः ।
यदा यदा हि लोकस्य दुःखं किञ्चित्प्रजायते ॥ २१
तदा तदावतीर्णस्त्वं करिष्यसि निरामयम्।
नाधिकस्त्वत्समोऽप्यस्ति हरे शिवपरायण ॥ २२
त्वया धर्माश्च वेदाश्च शुभे मार्गे प्रतिष्ठिताः ।
यदर्थमवतारोऽयं निहतः सोऽपि केशव ॥ २३
अत्यन्तघोरं भगवन्नरसिंहवपुस्तव ।
उपसंहर विश्वात्मंस्त्वमेव मम सन्निधौ ॥ २४
सूत उवाच
इत्युक्तो वीरभद्रेण नृसिंहः शान्तया गिरा।
ततोऽधिकं महाघोरं कोपं प्रज्वालयद्धरिः ॥ २५
आप ही सभी प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले, सबके स्वामी और अविनाशी हैं। जब-जब संसारपर कोई विपत्ति पड़ी है, तब-तब आपने अवतार लेकर उसे दुःखरहित किया है। है हरे। हे शिवपरायण ! आपसे बढ़कर अन्य कोई भी नहीं है। आपने [समस्त] धर्मों तथा वेदोंको उत्तम मार्गपर प्रतिष्ठित किया है। है केशव ! जिसके लिये आपने यह अवतार लिया है, वह [हिरण्यकशिपु भी] आपके द्वारा मारा जा चुका है। अतः हे भगवन्! हे विश्वात्मन् । हे नरसिंह। आप मेरी उपस्थितिमें अपने इस अत्यन्त भयानक रूपको समेट लीजिये सूतजी बोले- वीरभद्रके द्वारा शान्त वाणीमें इस प्रकार कहे जाने पर नृसिंहरूपधारी विष्णुने पहलेसे थे अधिक तथा महाभयानक कोपको प्रज्वलित किया॥ २१-२५॥
श्रीनृसिंह उवाच
आगतोऽसि यतस्तत्र गच्छ त्वं मा हितं वद।
इदानीं संहरिष्यामि जगदेतच्चराचरम् ।। २६
संहर्तुर्न हि संहारः स्वतो वा परतोऽपि वा।
शासितं मम सर्वत्र शास्ता कोऽपि न विद्यते ॥ २७
मत्प्रसादेन सकलं समर्यादं प्रवर्तते।
अहं हि सर्वशक्तीनां प्रवर्तकनिवर्तकः ॥ २८
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तद्विद्धि गणाध्यक्ष मम तेजोविजृम्भितम् ॥ २९
देवतापरमार्थज्ञा ममैव परमं विदुः।
मदंशाः शक्तिसम्पन्ना ब्रह्मशक्रादयः सुराः ॥ ३०
मन्नाभिपङ्कजाज्जातः पुरा ब्रह्मा चतुर्मुखः ।
तल्ललाटसमुत्पन्नो भगवान् वृषभध्वजः ॥ ३१
श्रीनृसिंह बोले- [हे वीरभद्र!] तुम जहाँस आये हो, वहाँ चले जाओ: हितकी बात मत बोलो। दै इस समय इस चराचर जगत्का संहार कर डालूँगा। संहारकर्ताका संहार अपनेसे अथवा दूसरेसे भी नहीं हो सकता है। सभी जगह मेरा ही शासन है; अन्य कोई भी शासन करनेवाला नहीं है। मेरी कृपासे सम्पूर्ण जगत् मर्यादायुक्त होकर क्रियाशील है; मैं ही सभी शक्तियोंका प्रवर्तक तथा निवर्तक हूँ हे गणाध्यक्ष! जो-जो विभूतिसम्पन्न, सत्त्वमय, श्रीयुक्त तथा ऊर्जासे परिपूर्ण है, उसे मेरे ही तेजसे परिवर्धित जानो। देवताओंके परम अर्थको जाननेवाले मेरे महान् सामर्थ्यको जानते हैं। शक्ति सम्पन्न ब्रह्मा, इद आदि देवता मेरे ही अंश हैं। पूर्वकालमें चतुर्मुख ब्रह्मा मेरे नाभिकमलसे उत्पन्न हुए थे और उनके ललाटसे भगवान् वृषभध्वज (शिव) उत्पन्न हुए थे ॥ २६-३१॥
रजसाधिष्ठितः स्रष्टा रुद्रस्तामस उच्यते।
अहं नियन्ता सर्वस्य मत्परं नास्ति दैवतम् ॥ ३२
विश्वाधिकः स्वतन्त्रश्च कर्ता हर्ताखिलेश्वरः ।
इदं तु मत्परं तेजः कः पुनः श्रोतुमिच्छति ॥ ३३
अतो मां शरणं प्राप्य गच्छ त्वं विगतज्वरः ।
अवेहि परमं भावमिदं भूतमहेश्वरः ॥ ३४
कालोऽस्म्यहं कालविनाशहेतु- लॉकान् समाहर्तुमहं प्रवृत्तः।
मृत्योर्मृत्युं विद्धि मां वीरभद्र जीवन्त्येते मत्प्रसादेन देवाः ॥ ३५
सूत उवाच
साहङ्कारमिदं श्रुत्वा हरेरमितविक्रमः ।
विहस्योवाच सावज्ञं ततो विस्फुरिताधरः ॥ ३६
ब्रह्मा रजोगुणसे अधिष्ठित हैं। रुद्र तमोगुणसे युक्त कहे जाते हैं। मैं सबका नियन्ता हूँ, मुझसे श्रेष्ठ कोई देवता नहीं है। मैं सबसे बढ़कर हूँ, स्वतन्त्र हूँ। सबका स्रष्टा हूँ, संहार करनेवाला हूँ तथा सबका स्वामी हूँ। मेरे इस [नृसिंह नामक] परम तेजके विषयमें कौन सुनना चाहता है? अतः मेरी शरण प्राप्त करके तुम संतापरहित होकर [यहाँसे] जाओ, भूतोंके महेश्वर तुम मेरे इस परम भावको समझो मैं काल हूँ, मैं कालके भी विनाशका कारण हूँ। मैं लोकोंका संहार करनेमें प्रवृत्त हूँ। है वीरभद्र ! तुम मुझको मृत्युकी भी मृत्यु जानो; ये देवता भी मेरी कृपासे जी रहे हैं सूतजी बोले- विष्णुका यह अहंकारपूर्ण वचन सुनकर असीम पराक्रमवाले वीरभद्र स्फुरित ओठोंवाले होकर तिरस्कारपूर्ण भावसे हँसकर नृसिंहसे कहने लगे ॥ ३२-३६ ॥
बीवीरभद्र उवाच
किं न जानासि विश्वेशं संहर्तारं पिनाकिनम्।
असद्वादो विवादश्च विनाशस्त्वयि केवलः ।। ३७
तवान्योन्यावताराणि कानि शेषाणि साम्प्रतम् ।
कृतानि येन केनापि कथाशेषो भविष्यति ।। ३८
दोषं त्वं पश्य एतत्त्वमवस्थामीदृशीं गतः ।
तेन संहारदक्षेण क्षणात्सङ्क्षयमेष्यसि ।। ३९
श्रीवीरभद्र बोले- क्या आप संहारकर्ता, पिनाकधारी विश्वेश्वर (शिव) को नहीं जानते हैं? मिथ्या वाद- विवाद आपके लिये केवल विनाशस्वरूप ही है। जिस किसी प्रकारसे आपके द्वारा लिये गये विभिन्न अवतारोंमें कौन शेष रह गये हैं; अब तो केवल आप ही बचे हुए हैं। आप इस दोषको देखिये, जो आप इस दशाको प्राप्त हुए है। संहारमें दक्ष उन [शिव) के द्वारा आप क्षणभरमें विनाशको प्राप्त हो जायेंगे ॥ ३७-३९ ॥
प्रकृतिस्त्वं पुमान् रुद्रस्त्वयि वीर्य समाहितम् ।
त्वन्नाभिपङ्कजाज्जातः पञ्चवक्त्रः पितामहः ॥ ४०
सुष्ट्यर्थेन जगत्पूर्व शङ्करं नीललोहितम्।
ललाटे चिन्तयामास तपस्युग्रे व्यवस्थितः ॥ ४१
तल्ललाटादभूच्छम्भोः सृष्ट्यर्थ तन्न दूषणम् ।
अंशोऽहं देवदेवस्य महाभैरवरूपिणः ॥ ४२
त्वत्संहारे नियुक्तोऽस्मि विनयेन बलेन च।
एवं रक्षो विदार्यैव त्वं शक्तिकलया युतः ॥ ४३
अहङ्कारावलेपेन गर्जसि त्वमतन्द्रितः ।
उपकारो ह्यसाधूनामपकाराय केवलम् ॥ ४४
यदि सिंह महेशानं स्वपुनर्भूत मन्यसे।
न त्वं स्त्रष्टा न संहर्ता न स्वतन्त्रो हि कुत्रचित् ।। ४५
आप प्रकृति हैं, रुद्र पुरुष हैं; आपमें [सम्पूर्ण] तेज समाहित है। पाँच मुखवाले पितामह (ब्रह्मा) आपके नाभिकमलसे प्रादुर्भूत हुए हैं। घोर तपस्यामें लीन उन्होंने पूर्वकालमें जगत्की सृष्टिके लिये अपने ललाटमें नीललोहित शंकरका चिन्तन किया। तब सृष्टिके लिये उनके ललाटसे शम्भु आविर्भूत हुए, अतः यह शिवका दूषण नहीं है। महाभैरवरूप देवदेव रुद्रका अंशस्वरूप मैं विनय तथा बलसे आपके संहारके लिये नियुक्त किया गया हूँ। इस प्रकार शक्तिकी कलासे युक्त आप इस राक्षसको विदीर्ण करके अहंकारके वशीभूत होकर निरालस्य हो गर्जन कर रहे हैं। दुष्टोंके लिये किया गया उपकार केवल अपकारके लिये होता है। हे सिंह! यदि आप महेश्वरको अपनेसे बादमें उत्पन्न समझते हैं, तो यह आपका भ्रम है। आप न तो सृष्टिकर्ता हैं, न संहारकर्ता हैं और न तो किसी प्रकार स्वतन्त्र ही हैं; आप कुम्हारके चक्रकी भाँति शिवके द्वारा प्रेरित हैं।॥ ४०-४५॥
कुलालचक्रवच्छक्त्या प्रेरितोऽसि पिनाकिना।
अद्यापि तव निक्षिप्तं कपालं कुर्मरूपिणः ॥ ४६
हरहारलतामध्ये मुग्ध कस्मान्न बुध्यसे।
विस्मृतं किं तदंशेन दंष्ट्रोत्पातनपीडितः ॥ ४७
वाराहविग्रहस्तेऽद्य साक्रोशं तारकारिणा।
दग्धोऽसि यस्य शूलाग्रे विष्वक्सेनच्छलाद्भवान् ॥ ४८
कुर्मरूपधारी आपका कपाल आज भी शिवके गलेके हारके मध्य स्थित है; हे मुग्ध। इसे आप क्यों नहीं याद कर रहे हैं? उनके अंशसे उत्पन्न तारकासुरशत्रु स्कन्दके द्वारा आक्रोशपूर्वक आपके वाराहविग्रहसे दाँत उखाड़ लिये जानेसे आपको बहुत कष्ट हुआ था; क्या इसे भी आप भूल गये हैं? विष्वक्सेनरूपसे आप उन रुद्रके त्रिशूलके अग्रभागसे छलपूर्वक जला दिये गये थे ॥ ४६-४८ ॥
दक्षयज्ञे शिरश्छिन्नं मया ते यज्ञरूपिणः ।
अद्यापि तव पुत्रस्य ब्रह्मणः पञ्चमं शिरः ॥ ४९
छिन्नं तमेनाभिसन्धं तदंशं तस्य तद्वलम् ।
निर्जितस्त्वं दधीचेन सङ्ग्रामे समरुद्गणः ॥५०
कण्डूयमाने शिरसि कथं तद्विस्मृतं त्वया।
चक्रं विक्रमतो यस्य चक्रपाणे तव प्रियम् ॥ ५१
कुतः प्राप्तं कृतं केन त्वया तदपि विस्मृतम्।
ते मया सकला लोका गृहीतास्त्वं पयोनिधौ ॥ ५२
निद्रापरवशः शेषे स कथं सात्त्विको भवान्।
त्वदादिस्तम्बपर्यन्तं रुद्रशक्तिविजृम्भितम् ॥ ५३
मैंने दक्षके यज्ञमें यज्ञरूपधारी आपके सिरको काट दिया था। आपके पुत्र ब्रह्माका तमोमय कटा हुआ उनका अंशभूत पाँचवाँ सिर आज भी विद्यमान है; का आप उन रुद्रके उस बलको नहीं जानते हैं? अशी दधीचने सिर खुजलाते हुए आपको मरुद्गणोंसहित संग्राममें पराजित कर दिया था; इसे आप कैसे मूल गये? हे चक्रपाणे। आपका प्रिय चक्र उन्हींके पराक्रयढे कारण है; आपने उसे कहाँसे प्राप्त किया, उसे किसने बनाया यह सब भी आप भूल गये! मैंने आपके सभी लोकोंको छीन लिया था और उस समय आप निद्राके वशीभूत होकर क्षीरसागरमें शयन करते रहे: आप सात्त्विक (पालकमूर्ति) कैसे हो सकते हैं, आप [विष्णु] से लेकर तृणपर्यन्त सब कुछ रुद्रशक्तिसे समन्वित है॥ ४९-५३॥
शक्तिमानभितस्त्वं च ह्यानलस्त्वं च मोहितः ।
तत्तेजसोऽपि माहात्म्यं युवां द्रष्टुं न हि क्षमौ ॥ ५४
स्थूला ये हि प्रपश्यन्ति तद्विष्णोः परमं पदम् ।
द्यावापृथिव्या इन्द्राग्नियमस्य वरुणस्य च ॥ ५५
ध्वान्तोदरे शशाङ्कस्य जनित्वा परमेश्वरः।
कालोऽसि त्वं महाकालः कालकालो महेश्वरः ॥ ५६
अतस्त्वमुग्रकलया मृत्योर्मुत्युर्भविष्यसि ।
स्थिरधन्वाक्षयोऽवीरो वीरो विश्वाधिकः प्रभुः ॥ ५७
उपहस्ता ज्वरं भीमो मृगपक्षिहिरण्मयः ।
शास्ताशेषस्य जगतो न त्वं नैव चतुर्मुखः ॥ ५८
इत्थं सर्वं समालोक्य संहरात्मानमात्मना।
नो चेदिदानीं क्रोधस्य महाभैरवरूपिणः ॥५९
मोहको प्राप्त आप तथा अग्नि दोनों ही रद्रको शक्तिसे सामर्थ्ययुक्त हैं; उनके तेजके प्रभावको देखनेमें आप दोनों (विष्णु, अग्नि) समर्थ नहीं हैं। जो स्थूल दृष्टिवाले हैं, वे ही विष्णुके परम पदको देखते हैं। स्वर्ग-पृथ्वीके वामनरूपसे, इन्द्रके जयन्तरूपसे, अग्निके कार्तिकेय-रूपसे, धर्मराजके नारायणरूपसे, वरुणके भृगुरूपसे और चन्द्रमाके कलंकित उदरमें बुधरूपसे उत्पन्न होकर आप परमेश्वरके रूपमें प्रतिष्ठित हैं। आप काल, महाकाल एवं कालके भी काल महेश्वर हैं; अतः आप शिवके अंशसे कालके भी काल होंगे। वे स्थिर धनुषवाले शिव अनश्वर, सबसे अधिक पराक्रमी, बीर, सर्वश्रेष्ठ तथा सबके स्वामी हैं। वे रोगको नष्ट करनेवाले, भयानक तथा सुवर्णमय मृगाकार पक्षी (शरभरूप) हैं। सम्पूर्ण जगत्के शासक न के आप हैं और न चतुर्मुख ब्रह्मा। इस प्रकार सब कुछ सोचकर अपने रूपको पूर्णरूपसे समेट लीजिये, अन्यथा महाभैरवरूपी रुद्रके क्रोधका शरभरूपी बड़ आपकी मृत्यु बनकर उसी तरह गिरेगा, जैसे पर्वतपर वज्र गिरता है॥ ५४-५९॥
वज्राशनिरिव स्थाणोस्त्वेवं मृत्युः पतिष्यति।
सूत उवाच
इत्युक्तो वीरभद्रेण नृसिंहः क्रोधविह्वलः ॥ ६०
ननाद तनुवेगेन तं गृहीतुं प्रचक्रमे।
अत्रान्तरे महाघोरं विपक्षभयकारणम् ॥ ६१
गगनव्यापि दुर्धर्थशैवतेजः समुद्भवम् ।
वीरभद्रस्य तद्रूपं तत्क्षणादेव दृश्यते ॥ ६२
न तद्धिरण्मयं सौम्यं न सौरं नाग्निसम्भवम्।
न तडिच्चन्द्रसदृशमनौपम्यं महेश्वरम् ॥ ६३
तदा तेजांसि सर्वाणि तस्मिन् लीनानि शाङ्करे।
ततोऽव्यक्तो महातेजा व्यक्ते सम्भवतस्ततः ॥ ६४
सूतजी बोले-वीरभद्रके इस प्रकार कहनेपर नृसिंह क्रोधसे व्याकुल होकर गरेजने लगे और तीव्र वेगले उसे पकड़नेका प्रयास करने लगे। इसी बीच विपक्षमें भय उत्पन्न करनेवाला, महाभयंकर, गगनव्यापी तथा दुर्धर्ष शिव-तेज उत्पन्न हुआ। उस क्षण वीरभद्रका जो रूप दिखायी पड़ा; वह न सुवर्णमय था, न चन्द्रमासे उत्पन्न था, न सूर्यसे उत्पन्न था, न अग्निसे उत्पन्न था, न विद्युत्के समान था और न चन्द्रके तुल्य था। वह शिवसे सम्बन्धित अनुपम रूप था। उस समय सभी तेज उस शिव-रूपमें विलीन हो गये; इससे वह महातेज अव्यक्तरूपमें स्थित हो गया और शरभ नृसिंह- ये दो व्यक्तरूप प्रकट हुए ॥ ६०-६४ ॥
रुद्रसाधारणं चैव चिह्नितं विकृताकृत्ति।
ततः संहाररूपेण सुव्यक्तः परमेश्वरः ॥ ६५
पश्यतां सर्वदेवानां जयशब्दादिमङ्गलैः ।
सहस्त्रबाहुर्जटिलश्चन्द्रार्धकृतशेखरः ।। ६६
स मृगार्धशरीरेण पक्षाभ्यां चञ्चुना द्विजाः।
अतितीक्ष्णमहादंष्ट्रो वज्रतुल्यनखायुधः ॥ ६७
कण्ठे कालो महाबाहुश्चतुष्याद्वह्निसम्भवः ।
युगान्तोद्यतजीमूतभीमगम्भीरनिःस्वनः ।। ६८
समं कुपितवृत्ताग्निव्यावृत्तनयनत्रयः ।
स्पष्टदंष्ट्रोऽधरोष्ठश्च हुङ्कारेण युतो हरः ॥ ६९
उस समय भयंकर आकृतिवाला तथा रुद्रके विशिष्ट चिह्नोंसे युक्त रूप प्रकट हुआ। तदनन्तर वे परमेश्वर महाप्रलय कालिक रूपसे व्यक्त (प्रकट) हो गये। हे द्विजो। सभी देवताओंके देखते-देखते जयशब्द आदि मंगलोंसे युक्त होकर वे शिव हजार भुजाओंवाले, जटाधारी, सिरपर अर्धचन्द्र धारण किये हुए, पशुके आधा भाग शरीरसे, दो पंखोंसे तथा चोंचसे युक्त हो गये। उनके दाँत विशाल तथा अति तीक्ष्ण थे। वे वज्रतुल्प नखरूपी अस्त्रसे सुशोभित हो रहे थे। उनका कण्ठ कृष्णवर्णका था। वे चार भुजाओंवाले तथा चार पैरोंवाले और अग्निसे उत्पन्न प्रतीत हो रहे थे। वे युगके अन्तमें उत्पन्न मेघके समान भयंकर तथा गम्भीर ध्वनि कर रहे थे। उनके तीनों नेत्र क्रोधसे फैले हुए विशाल आगके गोले हो गये थे। उनके दाँत, अधर तथा ओष्ठ स्पष्ट दिखायी पड़ रहे थे। वे हर हुंकारसे युक्त थे ॥ ६५-६९ ॥
हरिस्तद्दर्शनादेव विनष्टबलविक्रमः ।
बिभ्रदौर्यं सहस्त्रांशोरधः खद्योतविभ्रमम् ॥ ७०
अथ विभ्रम्य पक्षाभ्यां नाभिपादेऽभ्युदारयन् ।
पादावाबध्य पुच्छेन बाहुभ्यां बाहुमण्डलम् ॥ ७१
भिदन्नुरसि बाहुभ्यां निजग्राह हरो हरिम्।
ततो जगाम गगनं देवैः सह महर्षिभिः ॥ ७२
सहसैव भयाद्विष्णुं विहगश्च यथोरगम्।
उत्क्षिप्योत्क्षिप्य सङ्गृह्य निपात्य च निपात्य च ।। ७३
उड्डीयोड्डीय भगवान् पक्षाघातविमोहितम् ।
हरिं हरं तं वृषभं विश्वेशानं तमीश्वरम् ॥ ७४
अनुयान्ति सुराः सर्वे नमोवाक्येन तुष्टुवुः ।
नीयमानः परवशो दीनवक्त्रः कृताञ्जलिः ॥ ७५
उन्हें देखते ही विष्णुका बल तथा पराक्रम नष्ट हो गया। वे सूर्यके सम्मुख खद्योत (जुगुनू) के समान प्रकाश धारण किये हुए प्रतीत होने लगे। इसके बाद हररूप शरभने अपने पंखोंसे उन्हें जकड़कर नाभि तथा पैरको विदीर्ण करते हुए अपनी पूँछसे पैरोंको बाँधकर भुजाओंसे उनके भुजाओंको कसकर उनके वक्षपर प्रहार करते हुए उन हरिको अपनी भुजाओंमें जकड़ लिया। तदनन्तर वे भगवान् [शरभ] जैसे गरुड़ सर्पपर आक्रमण करता है, वैसे ही उड़ उड़कर उन्हें ऊपरकी ओर उछालकर बार-बार उन्हें गिराकर पंखोंके आधातसे मूर्छित तथा हरे हुए विष्णुको लेकर देवताओं तथा महर्षियोंके साथ आकाश- मण्डलमें चले गये सभी देवता विष्णु तथा उन श्रेष्ठ [शरभरूप] विश्वेश ईश्वरके पीछे-पीछे चलने लगे और 'नमः' वाक्यसे उनकी स्तुति करने लगे। परवश होकर ले जाये जाते हुए विष्णु दीनमुख होकर हाथ जोड़कर ललित अक्षरोंद्वारा उन परमेश्वरकी स्तुति करने लगे ॥ ७०-७५॥
तुष्टाव परमेशानं हरिस्तं ललिताक्षरैः।
श्रीनृसिंह उवाच
नमो रुद्राय शर्वाय महाग्रासाय विष्णवे ॥ ७६
नम उग्राय भीमाय नमः क्रोधाय मन्यवे ।
नमो भवाय शर्वाय शङ्कराय शिवाय ते ॥ ७७
कालकालाय कालाय महाकालाय मृत्यवे।
वीराय वीरभद्राय क्षयद्वीराय शूलिने ॥ ७८
महादेवाय महते पशूनां पतये नमः।
एकाय नीलकण्ठाय श्रीकण्ठाय पिनाकिने ।॥ ७९
नमोऽनन्ताय सूक्ष्माय नमस्ते मृत्युमन्यवे ।
पराय परमेशाय परात्परतराय ते ॥८०
परात्पराय विश्वाय नमस्ते विश्वमूर्तये।
नमो विष्णुकलत्राय विष्णुक्षेत्राय भानवे ॥ ८१
कैवर्ताय किराताय महाव्याधाय शाश्वते।
भैरवाय शरण्याय महाभैरवरूपिणे । ८२
नमो नृसिंहसंहत्रे कामकालपुरारये।
महापाशौघसंहत्रै विष्णुमायान्तकारिणे ॥ ८३
त्र्यम्बकाय त्र्यक्षराय शिपिविष्टाय मीदुषे।
मृत्युञ्जयाय शर्वाय सर्वज्ञाय मखारये ॥ ८४
मखेशाय वरेण्याय नमस्ते वह्निरूपिणे।
महाघ्राणाय जिह्वाय प्राणापानप्रवर्तिने ॥ ८५
त्रिगुणाय त्रिशूलाय गुणातीताय योगिने।
संसाराय प्रवाहाय महायन्त्रप्रवर्तिने ॥ ८६
नमश्चन्द्राग्निसूर्याय मुक्तिवैचित्र्यहेतवे।
वरदायावताराय सर्वकारणहेतवे ॥ ८७
कपालिने करालाय पतये पुण्यकीर्तये।
अमोघायाग्निनेत्राय लकुलीशाय शम्भवे ॥ ८८
भिषक्तमाय मुण्डाय दण्डिने योगरूपिणे।
मेघवाहाय देवाय पार्वतीपतये नमः ॥ ८९
अव्यक्ताय विशोकाय स्थिराय स्थिरधन्विने।
स्थाणवे कृत्तिवासाय नमः पञ्चार्थहेतवे ।। १०
वरदायैकपादाय नमश्चन्द्रार्धमौलिने।
नमस्तेऽध्वरराजाय वयसां पतये नमः ॥ ९१
योगीश्वराय नित्याय सत्याय परमेष्ठिने।
सर्वात्मने नमस्तुभ्यं नमः सर्वेश्वराय ते ॥ ९२
एकद्वित्रिचतुः पञ्चकृत्वस्तेऽस्तु नमो नमः।
दशकृत्वस्तु साहस्त्रकृत्वस्ते च नमो नमः ॥ ९३
नमोऽपरिमितं कृत्वानन्तकृत्वो नमो नमः।
नमो नमो नमो भूयः पुनर्भूयो नमो नमः ॥ ९४
श्रीनृसिंह बोले- शर्व, महाग्रास (जगत् जिनका ग्रास है) तथा विष्णु (सर्वव्यापी) एवं रुद्रको नमस्कार है। उग्र तथा भीमको नमस्कार है। क्रोध तथा मन्युको नमस्कार है। आप भव, शर्व, शंकर तथा शिवको नमस्कार है। कालके भी काल, कालरूप, महाकाल, मृत्युरूप, वीर, वीरभद्र, पापके विनाशक, शूलधारी, महादेव, महान् तथा पशुपतिको नमस्कार है। एक, नीलकण्ठ, श्रीकण्ठ, पिनाकी तथा अनन्तको नमस्कार है। आप सूक्ष्मको नमस्कार है। आप मृत्युमन्यु (मृत्यु ही जिसका क्रोध है), पर, परमेश तथा परात्परतरको नमस्कार है। आप परात्पर, विश्व तथा विश्वमूर्तिको नमस्कार है। विष्णुकलत्र, विष्णुक्षेत्र तथा भानुको नमस्कार है। कैवर्त (संसाररूपी सागरसे तारनेवाले), किरात, महाव्याध, शाश्वत, भैरव, शरण्य (शरणदाता) तथा महाभैरवरूपको नमस्कार है। नृसिंहसंहर्ता, कामकालपुरारि (कामदेव-यम-त्रिपुर) के शत्रु, महापाशौध संहर्ता, विष्णुमायान्तकारी, त्र्यम्बक (तौन नेत्रोंवाले), त्र्यक्षर (भूत, भविष्य, वर्तमानमें नाशरहित), शिपिविष्ट, मीढुष, मृत्युंजय, शर्व, सर्वज्ञ, मखारि, मखेश, वरेण्य, अग्निरूप, महाघ्राण, (महानासिकावाले), जिह्न (बड़ी जिह्नावाले) तथा प्राणापानप्रवर्ती (प्राण- अपान वायुको गति देनेवाले) को नमस्कार है। त्रिगुण- त्रिशूल, गुणातीत, योगी, संसार, प्रवाह, महायन्त्रप्रवर्तीको नमस्कार है। चन्द्र-अग्नि-सूर्य, मुक्ति-विचित्र्यहेतु, वरद, अवतार (अभिमानियोंका पतन करनेवाले), सर्वकारणहेतु, कपाली, कराल, पति, पुण्यकीर्ति, अमोघ, अग्निनेत्र, लकुलीश, शम्भु (कल्याण करनेवाले), भिषक्तम, मुण्ड, दण्डी, योगरूपी, मेघवाह, देव तथा पार्वतीपतिको नमस्कार है। अव्यक्त, विशोक (शोकरहित), स्थिर, स्थिरधन्वी, स्थाणु (जगत्के आधाररूप), कृत्तिवास तथा पंचार्थहेतुको नमस्कार है। वर तथा एकपाद (एकमात्र ज्ञानियोंके द्वारा प्राप्य) को नमस्कार है। चन्द्रार्थमौलिको नमस्कार है। अध्वरराज तथा वयसाम्पति (शरभरूप) को नमस्कार है। आप योगीश्वर, नित्य, सत्य, परमेष्ठी तथा सर्वात्माको नमस्कार है। आप सर्वेश्वरको नमस्कार है। आपको एक, दो, तीन, चार, पाँच बार नमस्कार है। आपको दस बार तथा हजार बार नमस्कार है। आपको अपरिमित बार, अनन्त बार नमस्कार है। आपको बार-बार नमस्कार है; पुनः बार- बार नमस्कार है॥ ७६-९४॥
सूत उवाच
नाम्नामष्टशतेनैवं स्तुत्वामृतमयेन तु।
पुनस्तु प्रार्थयामास नृसिंहः शरभेश्वरम् ॥ ९५
यदा यदा ममाज्ञानमत्यहङ्कारदूषितम् ।
तदा तदापनेतव्यं त्वयैव परमेश्वर ॥ ९६
एवं विज्ञापयन् प्रीतः शङ्करं नरकेसरी।
नन्वशक्तो भवान् विष्णो जीवितान्तं पराजितः ॥ ९७
तद्वक्त्रशेषमात्रान्तं कृत्वा सर्वस्य विग्रहम् ।
शुक्तिशित्यं तदा मङ्गं वीरभद्रः क्षणात्ततः ॥ ९८
देवा ऊचुः
अथ ब्रह्मादयः सर्वे वीरभद्र त्वया दृशा ।
जीविताः स्मो वयं देवाः पर्जन्येनेव पादपाः ॥ ९९
यस्य भीषा दहत्यग्निरुदेति च रविः स्वयम् ।
वातो वाति च सोऽसि त्वं मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥ १००
यदव्यक्तं परं व्योम कलातीतं सदाशिवम् ।
भगवंस्त्वामेव भवं वदन्ति ब्रह्मवादिनः ॥ १०१
सूतजी बोले- [हे ऋषियो!] इस प्रकार नृसिंह [विष्णु] ने एक सौ आठ अमृतमय नामोंसे शरभरूप ईश्वर (शिव) की स्तुति करके पुनः उनसे प्रार्थना की- हे परमेश्वर। जब-जब अति अहंकारसे दूषित अज्ञान मुझमें उत्पन्न हो, तब-तब आप उसे दूर करें। इस प्रकार शंकरसे प्रार्थना करते हुए वे नृसिंह प्रसन्न हो गये; तब वीरभद्रने कहा-'हे विष्णो। आप वास्तवमें अशक्त हैं और जीवनके अन्तमें पराजित हुए हैं।' इसके बाद वीरभद्रने क्षणभरमें ही [नृसिंहरूपधारी] विष्णुके विग्रहको बचे हुए मुखवाला करके शेष विग्रहसे त्वचा खींचकर उसे मात्र हड्डियोंसे युक्त कर दिया और इस प्रकार वह विग्रह अति श्वेत वर्णवाला हो गया देवता बोले- हे वीरभद्र ! ब्रह्मा आदि हम सभी देवता आपकी दृष्टिसे उसी प्रकार जीवित हैं, जैसे वृक्ष मेघसे जीवन प्राप्त करते हैं जिसके भयसे अग्नि जलती है, साक्षात् सूर्य उगता है, वायु बहती है और पाँचवीं मृत्यु दौड़ती है; वह आप ही हैं हे भगवन् ! ब्रह्मवादी लोग आपको ही अनिर्वाच्य, चिदाकाश, कलातीत, सदाशिव तथा भव कहते हैं॥ ९५-१०१ ॥
के वयमेव धातुक्ये वेदने परमेश्वरः ।
न विद्धि परमं धाम रूपलावण्यवर्णने ॥ १०२
उपसर्गेषु सर्वेषु त्रायस्वास्मान् गणाधिप।
एकादशात्मन् भगवान् वर्तते रूपवान् हरः ॥ १०३
ईदृशान् तेऽवताराणि दृष्ट्वा शिव बहूस्तमः ।
कदाचित्सन्दिहेन्नास्मांस्त्वच्चिन्तास्तमया तथा ।। १०४
गुञ्जागिरिवरतटामितरूपाणि सर्वशः ।
अभ्यसंहर गम्यं ते न नीतव्यं परापरा ॥ १०५
द्वे तमू तव रुद्रस्य वेदज्ञा ब्राह्मणा विदुः।
घोराप्यन्या शिवाप्यन्या ते प्रत्येकमनेकधा ।। १०६
इहास्मान् पाहि भगवन्नित्याहतमहाबलः ।
भवता हि जगत्सर्वं व्याप्तं स्वेनैव तेजसा ॥ १०७
आप जगदाधारके विषयमें जाननेमें हम असमर्थ हैं। आप हमारे परमेश्वर हैं। आपके रूपलावण्यवर्णनका अन्त नहीं है-ऐसा जानिये हे गणाधिप। सभी विपत्तियोंमें हमलोगोंको रखा कीजिये। हे एकादशरुद्ररूप। आप भगवान् हर विशिष्ट विग्रहवाले हैं हे शिव! आपके इस प्रकारके अनेक अवतारीको देखकर हमारा अज्ञान हममें कदाचित् सन्देह न उत्पन करे तथा आपका ध्यान नष्ट न हो। जैसे गुंजाके महार पर्वतके प्रान्तभागसे गुंजाओंकी अमित संख्या होती है वैसे ही आपके अनन्त रूप हैं, जिन्हें आप चारों ओरसे उपसंहृत कर लीजिये। यह संसार आपके प्रवेशयोग्य हो, इसका संहार मत कीजिये। वेदवेत्ता ब्राह्मण कहते हैं कि आप रुद्रके पर अपर दो शरीर हैं-एक घोर तथा दूसरा शिव (शान्त); उनमें प्रत्येकके अनेक प्रकार हैं। है भगवन्! कभी भी हत न होनेवाले महान् बलसे युक्त आप यहाँपर हम लोगोंकी रक्षा कीजिये। आपने अपने ही तेजसे सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त कर रख है ॥ १०२-१०७ ॥
ब्रह्मविष्ण्वीन्द्रचन्द्रादि वयं च प्रमुखाः सुराः।
सुरासुराः सम्प्रसूत्तास्त्वत्तः सर्वे महेश्वर ॥ १०८
ब्रह्मा च इन्द्रो विष्णुश्च यमाद्या न सुरासुरान्।
ततो निगृह्य च हरिं सिंह इत्युपचेतसम् ॥ १०९
यतो बिभर्षि सकलं विभज्य तनुमष्टधा।
अतोऽस्मान् पाहि भगवन्सुरान् दानैरभीप्सितैः ॥ ११०
उवाच तान् सुरान् देवो महर्षीश्च पुरातनान् ।
यथा जले जलं क्षिप्तं क्षीरं क्षीरे घृतं घृते ॥ ११९
एक एव तदा विष्णुः शिवलीनो न चान्यथा।
एष एवं नृसिंहात्मा सदर्पश्च महाबलः ॥ ११२
जगत्संहारकारेण प्रवृत्तो नरकेसरी।
याजनीयो नमस्तस्मै मद्भक्तिसिद्धिकाङ्क्षिभिः ॥ ११३
हे महेश्वर! ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र-चन्द्र आदि हम प्रमुख देवतागण तथा अन्य देवता और असुर-सभी लोग आपसे उत्पन्न हुए हैं ब्रह्मा, इन्द्र, विष्णु, यम आदि देवता, असुर तथा भ्रान्त अन्तःकरणवाले नृसिंह हरिका निग्रह करके अपने शरीरको आठ प्रकारसे [सूर्य आदि रूपमें] विभाजित करके आप सभीका धारण-पोषण करते हैं; अतः है भगवन् । अभीष्ट दानोंके द्वारा हम देवताओंकी रक्षा कीजिये तत्पश्चात् देव [वीरभद्र] ने उन देवताओं तथा प्राचीन ऋषियोंसे कहा-जैसे जलमें जल, दूधमें दूध तथा घृतमें घृत डाले जानेपर एक हो जाता है; वैसे ही विष्णु शिवमें लीन हैं; इसमें सन्देह नहीं है। ये गर्वबुक तथा महाबली नृसिंह जगत्का संहार करनेवाले रूपसे प्रकट हुए हैं। मेरी भक्तिकी सिद्धिकी इच्छा रखनेवालोंको नृसिंहकी पूजा करनी चाहिये; उन [नृसिंहरूपधारी विष्णु]-को नमस्कार है॥ १०८-११३ ॥
एतावदुक्त्वा भगवान् वीरभद्रो महाबलः।
अपश्यन् सर्वभूतानां तत्रैवान्तरधीयत ।। ११४
नृसिंहकृत्तिवसनस्तदाप्रभृति शङ्करः ।
वक्त्रं तन्मुण्डमालायां नायकत्वेन कल्पितम् ॥ ११५
ततो देवा निरातङ्काः कीर्तयन्तः कथामिमाम्।
विस्मयोत्फुल्लनयना जग्मुः सर्वे यथागतम् ॥ ११६
इतना कहकर महाबली भगवान् वीरभद्र सभी देवताओंके देखते-देखते वहींपर अन्तर्धान हो गये। उसी समयसे शंकरजी नृसिंहके चर्मको वस्त्रके रूपमें धारण करने लगे और [नृसिंहका] मुण्ड उनकी मुण्डमालामें मणिके रूपमें शोभा पाने लगा तदनन्तर विस्मयसे प्रसन्न नेत्रवाले सभी देवतागण भयरहित होकर इस कथाको कहते हुए जैसे आये थे, वैसे ही वापस चले गये ॥ ११४-११६ ॥
य इदं परमाख्यानं पुण्यं वेदैः समन्वितम्।
पठित्वा शृणुते चैव सर्वदुः खविनाशनम् ॥ ११७
धन्यं यशस्यमायुष्यमारोग्यं पुष्टिवर्धनम्।
सर्वविघ्नप्रशमनं सर्वव्याधिविनाशनम् ॥ ११८
अपमृत्युप्रशमनं महाशान्तिकरं शुभम्।
अरिचक्रप्रशमनं सर्वाधिप्रविनाशनम् ॥ ११९
ततो दुःस्वप्नशमनं सर्वभूतनिवारणम्।
विषग्रहक्षयकरं पुत्रपौत्रादिवर्धनम् ॥ १२०
योगसिद्धिप्रदं सम्यक् शिवज्ञानप्रकाशकम् ।
शेषलोकस्य सोपानं वाञ्छिताथैकसाधनम् ॥ १२१
विष्णुमायानिरसनं देवतापरमार्थदम् ।
वाञ्छासिद्धिप्रदं चैव ऋद्धिप्रज्ञादिसाधनम् ॥ १२२
जो [मनुष्य] इस पुण्यप्रद तथा वेदमय श्रेष्ठ आख्यानको पढ़ता अथवा सुनता है, उसके सभी दुःखोंका नाश हो जाता है। यह [आख्यान] धन्य बनानेवाला, यश देनेवाला, आयु प्रदान करनेवाला, रोगरहित करनेवाला, पुष्टिकी वृद्धि करनेवाला, सभी विघ्नोंको शान्त करनेवाला, सभी व्याधियोंको नष्ट करनेवाला, अकाल मृत्युका शमन करनेवाला, परमशान्ति प्रदान करनेवाला, मंगलकारक, शत्रु-समूहका दमन करनेवाला, सभी मानसिक रोगोंका विनाश करनेवाला, बुरे स्वप्नोंका निवारण करनेवाला, सभी भूत-प्रेतको दूर करनेवाला, दुष्ट ग्रहोंका क्षय करनेवाला, पुत्र-पौत्रको वृद्धि करनेवाला, योग-सिद्धि प्रदान करनेवाला, भली- भाँति शिवज्ञानको प्रकाशित करनेवाला, शेषलोकका सोपानस्वरूप, वांछित फलोंको सिद्ध करनेवाला, विष्णुमायाको दूर करनेवाला, देवताओंके परमार्थको देनेवाला, वांछाकी सिद्धि प्रदान करनेवाला और ऋद्धि, प्रज्ञा आदि देनेवाला है॥ ११७-१२२॥
इदं तु शरभाकारं परं रूपं पिनाकिनः।
प्रकाशितव्यं भक्तेषु चिरेषूद्यमितेषु च ॥ १२३
तैरेव पठितव्यं च श्रोतव्यं च शिवात्मभिः ।
शिवोत्सवेषु सर्वेषु चतुर्दश्यष्टमीषु च ॥ १२४
पठेत्प्रतिष्ठाकालेषु शिवसन्निधिकारणम् ।
चोरव्याघ्नाहिसिंहान्तकृतो राजभयेषु च ॥ १२५
अत्रान्योत्पातभूकम्पदावाग्निपांसुवृष्टिषु ।
उल्कापाते महावाते विना वृष्ट्धातिवृष्टिषु ॥ १२६
अतस्तत्र पठेद्विद्वाञ्छिवभक्तो दृढव्रतः ।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि स्तवं सर्वमनुत्तमम् ॥ १२७
स रुद्रत्वं समासाद्य रुद्रस्यानुचरो भवेत् ॥ १२८
पिनाकधारी [शिव] के इस शरभको आकृतिवाले श्रेष्ठ रूपको स्थिर प्रज्ञावाले उत्सुक भक्तोंमें प्रकाशित करना चाहिये और उन्हीं शिवसमर्पित मनवाले भक्तोंके द्वारा शिवके सभी उत्सवोंमें और अष्टमी तथा चतुर्दशीके दिन इसका पाठ तथा श्रवण किया जाना चाहिये। शिव- प्रतिष्ठाके अवसरोंपर शिवको सन्निधि प्राप्त करनेवाले इस स्तोत्रको पढ़ना चाहिये। अतः चोर-बाघ-सर्प-सिंह आदिसे भय होनेपर, राजासे भय उत्पन्न होने पर, इस लोकमें अन्य उत्पात-भूकम्प-दावाग्नि, धूलवृष्टि (आँधी) होनेपर, उल्कापात होनेपर, तेज हवा चलनेपर, अनवृश् तथा अतिवृष्टि होनेपर दृढ़ व्रतवाले विद्वान् शिवभकको इस [शरभचरित] को पढ़ना चाहिये। जो इस सर्वोत्तम स्तोत्रको पढ़ता अथवा सुनता है, वह रुद्रत्व प्राप्त करके रुद्रका अनुचर हो जाता है॥ १२३-१२८॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे शरभप्रादुर्भावो नाम घण्णवतितमोऽध्यायः ॥ ९६ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्ग महापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'शरभप्रादुर्भाव' नामक छानबेवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९६ ॥
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