लिंग पुराण : पंचाक्षरीविद्या (पंचाक्षरमन्त्र), जपविधान तथा उसकी महिमा | Linga Purana: Panchaksharividya (Panchaksharamantra), method of chanting and its glory

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] पचासीवाँ अध्याय

पंचाक्षरीविद्या (पंचाक्षरमन्त्र), जपविधान तथा उसकी महिमा

सूत उवाच

सर्वव्रतेषु सम्पूज्य देवदेवमुमापतिम् । 
जपेत्पञ्चाक्षरीं विद्यां विधिनैव द्विजोत्तमाः ॥ १

जपादेव न सन्देहो व्रतानां वै विशेषतः । 
समाप्तिर्नान्यथा तस्माज्जपेत्पञ्चाक्षरीं शुभाम् ॥ २

सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ द्विजो । समस्त व्रतों में देवदेव उमापतिकी पूजा करके विधिपूर्वक पंचाक्षरीविद्या (मन्त्र)- का जप करना चाहिये। जपसे ही विशेषकर व्रतोंकी पूर्णता होती है, अन्यथा नहीं; इसमें सन्देह नहीं है। अतः उत्तम पंचाक्षरीविद्याका जप [अवश्य] करना चाहिये ॥ १-२ ॥ 

ऋषय ऊचुः

कथं पञ्चाक्षरी विद्या प्रभावो वा कथं वद। 
क्रमोपायं महाभाग श्रोतुं कौतूहलं हि नः ॥ ३

सूत उवाच

पुरा देवेन रुद्रेण देवदेवेन शम्भुना। 
पार्वत्याः कथितं पुण्यं प्रवदामि समासतः ॥ ४

श्रीदेव्युवाच

भगवन् देवदेवेश सर्वलोकमहेश्वर। 
पञ्चाक्षरस्य माहात्यं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ ५

श्रीभगवानुवाच

पञ्चाक्षरस्य माहात्म्यं वर्षकोटिशतैरपि। 
न शक्यं कथितुं देवि तस्मात्सङ्क्षेपतः शृणु ॥ ६

प्रलये समनुप्राप्ते नष्टे स्थावरजङ्गमे। 
नष्टे देवासुरे चैव नष्टे चोरगराक्षसे ॥ ७

सर्व प्रकृतिमापन्नं त्वया प्रलयमेष्यति। 
एकोऽहं संस्थितो देवि न द्वितीयोऽस्ति कुत्रचित् ॥ ८

तस्मिन् वेदाश्च शास्त्राणि मन्त्रे पञ्चाक्षरे स्थिताः । 
ते नाशं नैव सम्प्राप्ता मच्छक्त्या ह्यनुपालिताः ।। ९

ऋषिगण बोले- [हे सूतजी!] पंचाक्षरीविद्या क्या है और इसका प्रभाव कैसा होता है? हे महाभाग ! क्रमसे इसकी विधि बताइये; इसे सुननेकी हमलोगोंकी [बड़ी] उत्सुकता हैसूतजी बोले- [हे ऋषियो !] पूर्वकालमें देवदेव रुद्र भगवान् शम्भुके द्वारा पार्वतीसे कहे गये इस पुण्यप्रद मन्त्रको मैं संक्षेपमें बता रहा हूँ श्रीदेवी बोलीं- हे भगवन्! हे देवदेवेश! हे सर्वलोक-महेश्वर। मैं यथार्थरूपसे पंचाक्षरमन्त्रका माहात्म्य सुनना चाहती हूँ श्रीभगवान् बोले- हे देवि ! सौ करोड़ वर्षोंमें भी पंचाक्षरमन्त्रका माहात्म्य नहीं कहा जा सकता है; अतः इसे संक्षेपमें सुनिये हे देवि! प्रलयके उपस्थित होनेपर जब समस्त चराचर जगत्, देवता तथा असुर, नाग एवं राक्षस नष्ट जाते हैं और आपसहित सभी पदार्थ प्रकृतिमें लौन होकर प्रलयको प्राप्त हो जाते हैं, उस समय एकमात्र मैं रह जाता हूँ; दूसरा कुछ भी नहीं रह जाता है। उस समय सभी वेद तथा शास्त्र उसी पंचाक्षरमन्त्रमें स्थित रहते हैं; मेरी शक्तिसे अनुपालित होनेके कारण वे नष्ट नहीं होते हैं॥३-९॥

अहमेको द्विधाप्यासं प्रकृत्यात्मप्रभेदतः । 
स तु नारायणः शेते देवो मायामयीं तनुम् ॥ १०

आस्थाय योगपर्यङ्कशयने तोयमध्यगः । 
तन्नाभिपङ्कजाज्जातः पञ्चवक्त्रः पितामहः ॥ ११

सिसृक्षमाणो लोकान् वै त्रीनशक्तोऽसहायवान्। 
दश ब्रह्मा ससर्जादाँ मानसानमितौजसः ॥ १२

तेषां सृष्टिप्रसिद्धयर्थ मां प्रोवाच पितामहः । 
मत्युत्राणां महादेव शक्तिं देहि महेश्वर ॥ १३

इति तेन समादिष्टः पञ्चवक्त्रधरो ह्यहम् । 
पञ्चाक्षरान् पञ्चमुखैः प्रोक्तवान् पायोनये ।। १४

तान् पञ्चवदनैर्गुह्णन् ब्रह्मा लोकपितामहः । 
वाच्यवाचकभावेन ज्ञातवान् परमेश्वरम् ॥ १५

वाच्यः पञ्चाक्षरैर्देवि शिवस्त्रैलोक्यपूजितः । 
वाचकः परमो मन्त्रस्तस्य पञ्चाक्षरः स्थितः ।। १६

मैं एक होता हुआ भी उस समय प्रकृति तथा आत्माके भेदसे दो रूपोंमें रहता हूँ। वे भगवान् नारायण मायामय शरीर धारणकर जलके मध्यमें योगरूपी पर्यकपर शयन करते हैं। उनके नाभिकमलसे पाँच मुखवाले ब्रह्मा उत्पन्न हुए; तीनों लोकोंका सृजन करनेकी इच्छावाले उन ब्रह्माने [इस कार्यमें] असमर्थ तथा सहायकविहीन होनेके कारण प्रारम्भमें अमित तेजवाले दस मानस पुत्रोंको उत्पन्न किया  उनकी सृष्टिकी वृद्धिके लिये ब्रह्माने मुझसे कहा-'हे महादेव! हे महेश्वर! मेरे पुत्रोंको शक्ति प्रदान कीजिये।' उनके ऐसा कहनेपर पाँच मुख धारण करनेवाले मैंने कमलयोनि (ब्रह्मा) के लिये [अपने] पाँचमुखोंसे पाँच अक्षरोंका उच्चारण किया। अपने पाँच मुखोंसे उन [अक्षरों] को ग्रहण करते हुए लोकपितामह ब्रह्माने वाच्यवाचक भावसे परमेश्वरको जान लिया। हे देवि! तीनों लोकोंमें पूजित शिव पंचाक्षरोंसे वाच्य हैं और [यह] परम पंचाक्षरमन्त्र उनके वाचकके रूपमें स्थित है ॥ १०-१६ ॥

ज्ञात्वा प्रयोगं विधिना च सिद्धिं लब्ध्वा तथा पञ्चमुखो महात्मा । 
प्रोवाच पुत्रेषु जगद्धिताय मन्त्रं महार्थं किल पञ्चवर्णम् ॥ १७

ते लब्वा मन्त्ररत्नं तु साक्षाल्लोकपितामहात्। 
तमाराधयितुं देवं परात्परतरं शिवम् ॥ १८

ततस्तुतोष भगवान् त्रिमूर्तीनां परः शिवः । 
दत्तवानखिलं ज्ञानमणिमादिगुणाष्टकम् ॥ १९

तेऽपि लब्ध्वा वरान् विप्रास्तदाराधनका‌ङ्क्षिणः । 
मेरोस्तु शिखरे रम्ये मुञ्जवान्नाम पर्वतः ॥ २०

मत्प्रियः सततं श्रीमान् मद्भूतैः परिरक्षितः । 
तस्याभ्याशे तपस्तीत्वं लोकसृष्टिसमुत्युकाः ।। २१

दिव्यवर्षसहस्त्रं तु वायुभक्षाः समाचरन् । 
तिष्ठन्तोऽनुग्रहार्थाय देवि ते ऋषयः पुरा ॥ २२

पाँच मुखवाले महात्मा ब्रह्माने विधिपूर्वक इसके प्रयोगको जानकर तथा सिद्धि प्राप्त करके जगत्‌के कल्याणके लिये अपने पुत्रोंको महान् अर्थवाले इस पंचाक्षरमन्त्रका उपदेश किया तदनन्तर साक्षात् लोकपितामहसे इस मन्त्ररलको प्राप्तकर वे उन परात्पर देव शिवकी आराधना करनेमें तत्पर हो गये  तब त्रिदेवोंमें श्रेष्ठ भगवान् शिव प्रसन्न हो गये और उन्होंने उन्हें सम्पूर्ण ज्ञान तथा अणिमा आदि आठ सिद्धियाँ प्रदान कीं तत्पश्चात् [उन] वरोंको प्राप्तकर वे विप्र [मेरी] आराधनाकी आकांक्षा करने लगे। मेरुके रम्य शिखरपर मुंजवान् नामक पर्वत है। शोभासम्पन्न यह पर्वत मुझे प्रिय है और मेरे भूतोंके द्वारा भलीभाँति रक्षित है। हे देवि। पूर्वकालमें उस [पर्वत] के समीप स्थित रहते हुए लोकसृष्टिके इच्छुक उन ऋषियोंने मेरे अनुग्रहहेतु वायुके आहारपर रहकर हजार दिव्य वर्षोंतक कठोर तप किया ॥ १७-२२॥ 

तेषां भक्तिमहं दृष्ट्‌वा सद्यः प्रत्यक्षतामियाम्। 
पञ्चाक्षरमृषिच्छन्दो दैवतं शक्तिबीजवत् ॥ २३

न्यासं षडङ्गं दिग्बन्धं विनियोगमशेषतः । 
प्रोक्तवानहमार्याणां लोकानां हितकाम्यया ॥ २४

तच्छ्रुत्वा मन्त्रमाहात्म्यमृषयस्ते तपोधनाः। 
मन्त्रस्य विनियोगं च कृत्वा सर्वमनुष्ठिताः ।। २५

तन्माहात्म्यात्तदा लोकान् सदेवासुरमानुषान् । 
वर्णान् वर्णविभागांश्च सर्वधर्माश्च शोभनान् ॥ २६

पूर्वकल्पसमुद्धृताञ्छुतवन्तो यथा पुरा। 
पञ्चाक्षरप्रभावाच्च लोका वेदा महर्षयः ॥ २७

तिष्ठन्ति शाश्वता धर्मा देवाः सर्वमिदं जगत् । 
तदिदानीं प्रवक्ष्यामि शृणु चावहिताखिलम् ॥। २८

अल्पाक्षरं महार्थं च वेदसारं विमुक्तिदम्। 
आज्ञासिद्धमसन्दिग्धं वाक्यमेतच्छिवात्मकम् ॥ २९

नानासिद्धियुतं दिव्यं लोकचित्तानुरञ्जकम्। 
सुनिश्चितार्थ गम्भीरं वाक्यं मे पारमेश्वरम् ॥ ३०

[हे देवि!] उनकी भक्ति देखकर मैं शीघ्र ही उनके समक्ष प्रकट हो गया और मैंने लोकोंके कल्याणकी इच्छासे उन महात्माओंको पंचाक्षरमन्त्र, उसके ऋषि, छन्द, देवता, शक्ति, बीजसहित षडंग न्यास, दिग्बन्ध तथा विनियोग पूर्ण रूपसे बता दिया उस मन्त्रका माहात्त्र्य सुनकर उन तपोधन ऋषियोंने मन्त्रका विनियोग करके सभी अनुष्ठान पूर्ण किये। उसके बाद उन्होंने उस मन्त्रकी महिमासे लोकों, देवताओं, असुरों, मनुष्यों, वणर्षों, वर्णविभागों तथा समस्त उत्तम धर्मोको जो पूर्व कल्पमें उत्पन्न हुए थे- उन सबका श्रवण किया। पंचाक्षरमन्त्रके प्रभावसे ही लोक, वेद, महर्षिगण, शाश्वत धर्म, देवता तथा यह सम्पूर्ण जगत् स्थित है। अब मैं उसके विषयमें सब कुछ बताऊँगा; सावधान होकर सुनिये यह मन्त्र अल्प अक्षरोंवाला, महान् अर्थोंवाला, वेदोंका सार, मुक्तिप्रद, आज्ञासिद्ध, असन्दिग्ध तथा शिवस्वरूप है यह मेरा मन्त्र अनेक सिद्धियोंसे युक्त, अलौकिक, लोगोंके चित्तको आनन्दित करनेवाला, सुनिश्चित अर्थोंवाला, गम्भीर तथा परमेश्वरस्वरूप है॥ २३-३० ॥ 

मन्त्रं मुखसुखोच्यार्यमशेषार्थप्रसाधकम् ।
तद्बीजं सर्वविद्यानां मन्त्रमाहां सुशोभनम् ॥ ३१

अतिसूक्ष्मं महार्थं च ज्ञेयं तद्वटबीजवत् । 
वेदः स त्रिगुणातीतः सर्वज्ञः सर्वकृत्प्रभुः ॥ ३२

ओमित्येकाक्षरं मन्त्रं स्थितः सर्वगतः शिवः । 
मन्त्रे षडक्षरे सूक्ष्मे पञ्चाक्षरतनुः शिवः ॥ ३३

वाच्यवाचकभावेन स्थितः साक्षात्स्वभावतः । 
वाच्यः शिवः प्रमेयत्वान्मन्त्रस्तद्वाचकः स्मृतः ॥ ३४

वाच्यवाचक भावोऽयमनादिः संस्थितस्तयोः । 
वेदे शिवागमे वापि यत्र यत्र षडक्षरः ।। ३५

मन्त्रः स्थितः सदा मुख्यो लोके पञ्चाक्षरो मतः । 
किं तस्य बहुभिर्मन्त्रैः शास्त्रैर्वा बहुविस्तृतैः ।। ३६

यस्यैवं हृदि संस्थोऽयं मन्त्रः स्यात्पारमेश्वरः । 
तेनाधीतं श्रुतं तेन तेन सर्वमनुष्ठितम् ॥ ३७

यो विद्वान् वै जपेत्सम्यगधीत्यैव विधानतः । 
एतावद्धि शिवज्ञानमेतावत्परमं पदम् ॥ ३८

एतावद् ब्रह्मविद्या च तस्मान्नित्यं जपेद् बुधः । 
पञ्चाक्षरैः सप्रणवो मन्त्रोऽयं हृदयं मम ॥ ३९

यह मन्त्र मुखसे सुखपूर्वक उच्चारणयोग्य, सम्पूर्ण प्रयोजनोंको सिद्ध करनेवाला, सभी विद्याओंका बीजस्वरूप, आद्य (सबसे पहला) मन्त्र, परम सुन्दर, अति सूक्ष्म एवं महान् अर्थोंवाला है। इसे वटवृक्षके बौजकी भाँति समझना चाहिये। यह वेदस्वरूप, तीनों गुणोंसे परे, सर्वज्ञ, सब कुछ करनेवाला तथा सर्वसमर्थ है ॐ- यह एक अक्षरवाला मन्त्र है; सर्वव्यापी शिव इसमें स्थित रहते हैं। पाँच अक्षररूपी शरीरकाले शिव स्वभावसे ही सूक्ष्म षडक्षर (छः अक्षरोंवाले) मन्त्रमें वाच्य-वाचक भावसे विराजमान हैं। प्रमेयत्वके कारण शिव वाच्य हैं तथा मन्त्र उनका वाचक कहा गया है। यह वाच्य वाचक भाव (सम्बन्ध) उन दोनोंमें अनादि है। वेद अथवा शिवागममें षडक्षरमन्त्र स्थित है. किंतु लोकमें पंचाक्षरमन्त्रको मुख्य माना गया है। जिसके हृदयमें परमेश्वररूप यह मन्त्र स्थित है उसे बहुत मन्त्रों अथवा अति विस्तृत शास्त्रोंसे क्या प्रयोजन। जो विद्वान् विधानपूर्वक इसका ज्ञान प्राप्तकर इसे ठीक-ठीक जपता है, उसने मानो वेदोंका अध्ययन कर लिया और सबकुछ अनुष्ठित कर लिया। मात्र यही शिवज्ञान है, यही परम पद है और यही ब्रह्मविद्या है; अतः विद्वान्‌को नित्य इसका जप करना चाहिये। प्रणव (ॐ)-सहित पाँच अक्षरोंसे युक्त यह मन्त्र [ॐ नमः शिवाय मेरा हृदय है। यह गूढ़से भी गूढ़ है और साक्षात् सर्वोत्तम मोक्षज्ञान है ॥ ३१-३९॥ 

गुह्याद् गुह्यतरं साक्षान्मोक्षज्ञानमनुत्तमम् ।
अस्य मन्त्रस्य वक्ष्यामि ऋषिच्छन्दोऽधिदैवतम् ।। ४०

बीजं शक्तिं स्वरं वर्ण स्थानं चैवाक्षरं प्रति।
वामदेवो नाम ऋषिः पङ्किश्छन्द उदाहृतः ॥ ४१

देवता शिव एवाहं मन्त्रस्यास्य वरानने।
नकारादीनि बीजानि पञ्चभूतात्मकानि च ॥ ४२

आत्मानं प्रणवं विद्धि सर्वव्यापिनमव्ययम्।
शक्तिस्त्वमेव देवेशि सर्वदेवनमस्कृते ॥ ४३

त्वदीयं प्रणवं किञ्चिन्मदीयं प्रणवं तथा।
त्वदीयं देवि मन्त्राणां शक्तिभूतं न संशयः ॥ ४४

अकारोकारमकारा मदीये प्रणवे स्थिताः।
उकारं च मकारं च अकारं च क्रमेण वै ॥ ४५

त्वदीयं प्रणवं विद्धि त्रिमात्रं प्लुतमुत्तमम्।
ओङ्कारस्य स्वरोदात्त ऋषिर्ब्रह्मा सितं वपुः ॥ ४६

छन्दो देवी च गायत्री परमात्माधिदेवता।
उदात्तः प्रथमस्तद्वच्चतुर्थश्च द्वितीयकः ।॥ ४७

[हे देवि!] अब मैं इस मन्त्रके और प्रत्येक अक्षरके ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति, स्वर, वर्ण तथा स्थानका वर्णन करूँगा। इस मन्त्रके ऋषि वामदेव तथा छन्द पंक्ति कहा गया है। है वरानने। इस मन्त्रका देवता [स्वयं] मैं शिव ही हूँ। पंचभूतस्वरूप 'न'कार आदि इसके बीज हैं। प्रणवको सर्वव्यापी तथा शाश्वत आत्मा समझो। है सभी देवताओंसे नमस्कृत देवेशि। [स्वयं] तुम ही इसकी शक्ति हो। कुछ प्रणव तुम्हारा है और कुछ प्रणव हमारा है। हे देवि। तुम्हारा प्रणव सभी मन्त्रोंका शक्तिस्वरूप है; इसमें संशय नहीं है हे देवि । 'अ', 'ठ', 'म' मेरे प्रणवमें स्थित हैं। क्रमसे 'उ', 'म', 'अ' तुम्हारे प्रणवके हैं; तुम इस उत्तम प्रणवको प्लुत तीन मात्राओंवाला जानो। ओंकारका स्वर उदात्त है। इसके ऋषि ब्रह्मा हैं, इसका शरीर श्वेत है, छन्द देवी गायत्री हैं और इसके अधिदेवता परमात्मा हैं। इसका पहला, दूसरा तथा चौथा वर्ण उदात्त; पाँचवाँ वर्ण स्वरित और मध्यम वर्ण निषघ [निषादस्वर] कहा गया है ॥ ४०-४७॥

पञ्चमः स्वरितश्चैव मध्यमो निषधः स्मृतः । 
नकारः पीतवर्णश्च स्थानं पूर्वमुखं स्मृतम् ॥ ४८

इन्द्रोऽधिदैवतं छन्दो गायत्री गौतमो ऋषिः। 
मकारः कृष्णवर्णोऽस्य स्थानं वै दक्षिणामुखम् ॥ ४९

छन्दोऽनुष्टुप् ऋषिश्चात्री रुद्रो दैवतमुच्यते। 
शिकारो धूम्रवर्णोऽस्य स्थानं वै पश्चिमं मुखम् ॥ ५०

विश्वामित्र ऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दो विष्णुस्तु दैवतम्। 
वाकारो हेमवर्णोऽस्य स्थानं चैवोत्तरं मुखम् ॥ ५१

ब्रह्माधिदैवतं छन्दो बृहती चाङ्गिरा ऋषिः। 
यकारो रक्तवर्णश्च स्थानमूर्ध्वं मुखं विराट् ॥ ५२

न' पीले रंगका है और स्थान पूर्वमुख (पूरबकी ओर मुखवाला) कहा गया है। इसके अधिदेवता इन्द्र हैं, इसका छन्द गायत्री है और इसके ऋषि गौतम हैं। 'म' कृष्ण वर्णवाला है, इसका स्थान दक्षिणमुख है, इसका छन्द अनुष्टुप् हैं, इसके ऋषि अत्रि हैं और इसके अधिदेवता रुद्र कहे जाते हैं। 'शि' धूम्र वर्णवाला है, इसका स्थान पश्चिममुख है, इसके ऋषि विश्वामित्र हैं, इसका छन्द त्रिष्टुप् है और इसके देवता विष्णु है। 'वा' हेम वर्णवाला है, इसका स्थान उत्तरमुख है, इसके अधिदेवता ब्रह्मा हैं, इसका छन्द बृहती है और इसके ऋषि अंगिरा हैं। 'य' लाल रंगवाला है, इसका स्थान ऊर्ध्वमुख है, इसका छन्द विराट् है, इसके ऋषि भरद्वाज हैं और इसके देवता स्कन्द कहे जाते हैं ॥ ४८-५२॥

छन्दो ऋषिर्भरद्वाजः स्कन्दो दैवतमुच्यते। 
न्यासमस्य प्रवक्ष्यामि सर्वसिद्धिकरं शुभम् ॥ ५३

सर्वपापहरं चैव त्रिविधो न्यास उच्यते। 
उत्पत्तिस्थितिसंहारभेदतस्त्रिविधः स्मृतः ॥ ५४

ब्रह्मचारिगृहस्थानां यतीनां क्रमशो भवेत्। 
उत्पत्तिर्ब्रह्मचारीणां गृहस्थानां स्थितिः सदा ॥ ५५

यतीनां संहतिन्यासः सिद्धिर्भवति नान्यथा। 
अङ्गन्यासः करन्यासो देहन्यास इति त्रिधा ।। ५६

उत्पत्त्यादित्रिभेदेन वक्ष्यते ते वरानने। 
न्यसेत्पूर्व करन्यासं देहन्यासमनन्तरम् ॥ ५७

अङ्गन्यासं ततः पश्चादक्षराणां विधिक्रमात्। 
मूर्धादिपादपर्यन्तमुत्पत्तिन्यास उच्यते ।। ५८

पादादिमूर्धपर्यन्तं संहारो भवति प्रिये। 
हृदयास्यगलन्यासः स्थितिन्यास उदाहृतः ॥५९

ब्रह्मचारिगृहस्थानां यतीनां चैव शोभने।

[हे देवि!] अब मैं सभी सिद्धियाँ प्रदान करनेवाले, मंगलमय तथा समस्त पापोंका नाश करनेवाले इसके न्यासको बताऊँगा। न्यास तीन प्रकारका कहा जाता है। उत्पत्ति, स्थिति (पालन) तथा संहारके भेदसे यह तीन प्रकारका कहा गया है; यह क्रमशः ब्रह्मचारियों, गृहस्थों तथा यतियोंके लिये होता है। उत्पत्ति [न्यास] ब्रहाचारियोंका, स्थिति [न्यास] गृहस्थोंका और संहति (संहार) न्यास यत्तियोंका होता है; अन्यथा सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती अंगन्यास, करन्यास, देहन्यास यह तीन प्रकारका न्यास होता है; हे वरानने! अब मैं उत्पत्ति आदि तीन भेदोंसे इन्हें भी आपको बताऊँगा। सबसे पहले करन्यास उसके बाद देहन्यास पुनः अंगन्यास मन्त्रके अक्षरोंके क्रमसे करना चाहिये। सिरसे प्रारम्भ होकर पैरोंतकका न्यास उत्पत्तिन्यास कहा जाता है। हे प्रिये! पैरोंसे प्रारम्भ होकर सिरतकका न्यास संहारन्यास होता है। हृदय, मुख और कण्ठका न्यास स्थितिन्यास कहा गया है। हे शोभने। यह न्यास [क्रमशः] ब्रह्मचारियों, गृहस्थों तथा यतियोंके लिये है॥ ५३-५९॥

सशिरस्कं ततो देहं सर्वमन्त्रेण संस्पृशेत् ॥ ६०

स देहन्यास इत्युक्तः सर्वेषां सम एव सः। 
दक्षिणाङ्गुष्ठमारभ्य वामाङ्गुष्ठान्त एव हि ।। ६१

न्यस्यते यत्तदुत्पत्तिर्विपरीतं तु संहतिः ।
अङ्गुष्ठादिकनिष्ठान्तं न्यस्यते हस्तयोर्द्वयोः ॥ ६२

अतीव भोगदो देवि स्थितिन्यासः कुटुम्बिनाम् । 
करन्यासं पुरा कृत्वा देहन्यासमनन्तरम् ॥ ६३

अङ्गन्यासं न्यसेत्पश्चादेष साधारणो विधिः । 
ओङ्कारं सम्पुटीकृत्य सर्वाङ्गेषु च विन्यसेत् ॥ ६४

करयोरुभयोश्चैव दशाग्राङ्गु‌लिषु क्रमात्। 
प्रक्षाल्य पादावाचम्य शुचिर्भूत्वा समाहितः ।। ६५

तत्पश्चात् सम्पूर्ण मन्त्रसे सिरसहित देहका स्पर्श करना चाहिये। वह देहन्यास कहा गया है; वह सबके लिये समान है। दाहिने हाथके अंगूठेसे प्रारम्भ करके बायें हाथ के तक जो का किया जाता है. वह उत्पत्तिन्यास है और इसके विपरीत करना संहति (संहार) न्यास है। दोनों हाथोंमें अँगूठेसे प्रारम्भ करके कनिष्ठातक जो न्यास किया जाता है, वह स्थितिन्यास होता है; हे देवि! वह [न्यास] गृहस्थोंको परम सुख प्रदान करनेवाला है। सर्वप्रथम करन्यास करके देहन्यास करना चाहिये और उसके बाद अंगन्यास करना चाहिये, यह सामान्य विधि है प्रत्येक मन्त्रको ऑकारसे सम्पुटित करके सभी अंगोंमें, दोनों हाथोंमें तथा दसों अँगुलियोंके अग्रभागमें क्रमसे न्यास करना चाहिये। दोनों पैर धोकर आचमन करके शुद्ध होकर समाहित चित्त होकर पूर्वकी ओर अथवा उत्तरकी और मुख करके न्यासकर्म करना चाहिये ॥ ६०-६५॥

प्राङ्मुखोदङ्मुखो वापि न्यासकर्म समाचरेत्। 
स्मरेत्पूर्वमृषिं छन्दो दैवतं बीजमेव च ॥ ६६

शक्तिं च परमात्मानं गुरुं चैव वरानने। 
मन्त्रेण पाणी सम्मृज्य तलयोः प्रणवं न्यसेत् ॥ ६७

अङ्गुलीनां च सर्वेषां तथा चाद्यन्तपर्वसु। 
सबिन्दुकानि बीजानि पञ्चमध्यमपर्वसु ॥ ६८

उत्पत्त्यादित्रिभेदेन न्यसेदाश्रमतः क्रमात्। 
उभाभ्यामेव पाणिभ्यामापादतलमस्तकम् ॥ ६९

मन्त्रेण संस्पृशेद्देहं प्रणवेनैव सम्पुटम्। 
मूर्छिन वक्त्रे च कण्ठे च हृदये गुह्यके तथा ।। ७०

पादयोरुभयोश्चैव गुहझे च हृदये तथा। 
कण्ठे च मुखमध्ये च मूर्छिन च प्रणवादिकम् ॥ ७१

हृदये गुह्यके चैव पादयोर्मूर्छिन वाचि वा। 
कण्ठे चैव न्यसेदेव प्रणवादित्रिभेदतः ॥ ७२

कृत्वाङ्गन्यासमेवं हि मुखानि परिकल्पयेत्। 
पूर्वादि चोर्ध्वपर्यन्तं नकारादि यथाक्रमम् ॥ ७३

षडङ्गानि न्यसेत्पश्चाद्यथास्थानं च शोभनम् । 
नमः स्वाहा वषड्डुं च वौषट्‌फ‌कारकैः सह ॥ ७४

हे वरानने। प्रारम्भमें ऋषि, छन्द, देवता, बोज, शक्ति, परमात्मा तथा गुरुका स्मरण करना चाहिये। मन्त्रके उच्चारणके साथ दोनों हाथोंको धोकर दोनों करतलोंमें प्रणवका न्यास करना चाहिये। सभी अँगुलियकि आदि-अन्त पर्वोपर और पाँचों मध्यम पर्वोपर बिन्दुयुत पाँच बीजोंका उत्पत्ति आदि तीन भेदोंसे तथा ब्रहाचर्य आदिके क्रमसे न्यास करना चाहिये। दोनों हाथोंसे मस्तकसे लेकर पैरतक प्रणवके द्वारा सम्पुटित मन्त्रसे देहका स्पर्श करना चाहिये। प्रणवयुक्त मन्त्रसे सिर मुख, कण्ठ, हृदय, गुह्यस्थान एवं दोनों पैरोंमें; गुहास्थान, हृदय, कण्ठ, मुख तथा सिरमें; पुनः हृदय, गुह्यस्थान, दोनों पैरों, सिर, मुख तथा कण्ठमें तीन प्रकारका न्यास करना चाहिये। इस प्रकार अंगन्यास करके प्रणवसहित नकारसे प्रारम्भ होकर यकारपर पूर्ण होनेवाले इन नकार आदि वर्णोंकी क्रमशः अपने शरीरमें भावना करे। इसके बाद मन्त्रमें नमः, स्वाहा, वषटु, हुम्, वौषट् तथा फर्के साथ यथास्थान छहों अंगोंमें उत्तम रीतिसे न्यास करना चाहिये ॥ ६६-७४ ॥

प्रणवं हृदयं विद्यान्नकारः शिर उच्यते । 
शिखा मकार आख्यातः शिकारः कवचं तथा ।। ७५

वाकारो नेत्रमस्त्रं तु यकारः परिकीर्तितः । 
इत्थमङ्गानि विन्यस्य ततो वै बन्धयेद्दिशः ॥ ७६

विघ्नेशो मातरो दुर्गा क्षेत्रज्ञो देवता दिशः। 
आग्नेयादिषु कोणेषु चतुर्ध्वपि यथाक्रमम् ॥ ७७

अङ्गुष्ठतर्जन्यग्राभ्यां संस्थाप्य सुमुखं शुभम् । 
रक्षध्वमिति चोक्त्वा तु नमस्कुर्यात्पृथक् पृथक् ।। ७८

गले मध्ये तथाङ्गुष्ठे तर्जन्याद्यङ्गलीषु च। 
अङ्गुष्ठेन करन्यासं कुर्यादेव विचक्षणः ॥ ७९

एवं न्यासमिमं प्रोक्तं सर्वपापहरं शुभम् ॥ 
सर्वसिद्धिकरं पुण्यं सर्वरक्षाकरं शिवम् ॥ ८०

न्यस्ते मन्त्रेऽथ सुभगे शङ्करप्रतिमो भवेत्। 
जन्मान्तरकृतं पापमपि नश्यति तत्क्षणात् ॥ ८१

एवं विन्यस्य मेधावी शुद्धकायो दृढव्रतः । 
जपेत्पञ्चाक्षरं मन्त्रं लब्ध्वाचार्यप्रसादतः ॥ ८२

 प्रणवको हृदय जानना चाहिये, 'न' को सिर कहा जाता है, 'म' को शिखा कहा गया है, 'शि' को कवच कहा गया है, 'वा' को नेत्र और 'य' को अस्व कहा गया है। इस प्रकार अंगोंका न्यास करनेके अनन्तर दिशाओंको बाँधना चाहिये। आग्नेय आदि चारों कोणोंमें क्रमशः विघ्नेश, माताएँ, दुर्गा तथा क्षेत्रज्ञ दिशाओंके देवता हैं। अंगुष्ठ तथा तर्जनीके अग्रभागोंसे कल्याणप्रद तथा सुन्दर मुखवाले गणेश आदिको दिशाओंमें स्थापित करके 'रक्षा कीजिये' ऐसा कहकर इन्हें पृथक् पृथक् नमस्कार करना चाहिये बुद्धिमान्‌को चाहिये कि कण्ठमें, मध्यमें, अँगूठेमें, तर्जनी आदि अँगुलियोंमें अँगूठेसे ही करन्यास करे। इस प्रकार यह न्यास सभी पापोंको हरनेवाला, शुभ, सभी सिद्धियाँ देनेवाला, पुण्यप्रद, सबकी रक्षा करनेवाला तथा कल्याणकारी कहा गया है। हे सुभगे। मन्त्रका न्यास कर लेनेपर साधक शिवतुल्य हो जाता है और उसके द्वारा पूर्व जन्ममें किया गया पाप भी उसी क्षण नष्ट हो जाता है। इस प्रकार न्यास करके मेधावीको शुद्ध शरीरवाला तथा दुव्रती होकर आचार्यकी कृपासे ग्रहण करके पंचाक्षर मन्त्रका जप करना चाहिये ॥ ७५-८२ ॥ 

अतः परं प्रवक्ष्यामि मन्त्रसङ्ग्रहणं शुभे।
यं विना निष्फलं नित्यं येन वा सफलं भवेत् ॥ ८३

आज्ञाहीनं क्रियाहीनं श्रद्धाहीनममानसम् ।
आज्ञप्तं दक्षिणाहीनं सदा जप्तं च निष्फलम् ॥ ८४

आज्ञासिद्धं क्रियासिद्धं श्रद्धासिद्धं सुमानसम् ।
एवं च दक्षिणासिद्धं मन्त्रं सिद्धं यतस्ततः ॥ ८५

उपगम्य गुरुं विप्रं मन्त्रतत्त्वार्थवेदिनम्।
ज्ञानिनं सद्‌गुणोपेतं ध्यानयोगपरायणम् ॥ ८६

तोषयेत्तं प्रयत्नेन भावशुद्धिसमन्वितः ।
वाचा च मनसा चैव कायेन द्रविणेन च ॥ ८७

आचार्य पूजयेच्छिष्यः सर्वदातिप्रयत्नतः । 
हस्त्यश्वरथरत्नानि क्षेत्राणि च गृहाणि च ॥ ८८

भूषणानि च वासांसि धान्यानि विविधानि च। 
एतानि गुरवे दद्याद्भक्त्या च विभवे सति ॥ ८९

वित्तशाठ्यं न कुर्वीत यदीच्छेत्सिद्धिमात्मनः ।
पश्चान्निवेदयेद्देवि आत्मानं सपरिच्छदम् ॥ ९०

एवं सम्पूज्य विधिवद्यथाशक्ति त्ववञ्चयन् । 
आददीत गुरोर्मन्त्रं ज्ञानं चैव क्रमेण तु ॥ ९१

हे शुभे | अब में इस मन्त्रको ग्रहण करनेकी विधि बताऊँगा, जिसके बिना यह निष्फल हो जाता है और जिसके द्वारा यह सफल होता है। आज्ञाहीन, क्रियाहीन, श्रद्धाहीन, ध्यानहीन, आज्ञप्त तथा दक्षिणाहीन मन्त्र जपे जानेपर सदा निष्फल होता है। आज्ञासिद्ध, क्रियासिद्ध, श्रद्धासिद्ध, सुमानस (पूर्ण ध्यानयुक्त) तथा दक्षिणासिद्ध मन्त्र सदा सफल होता है शिष्यको चाहिये कि मन्त्रके वास्तविक अर्थके ज्ञाता, ज्ञानसम्पन्न, सदगुणोंसे युक्त तथा ध्यानयोगपरायण ब्राह्मण गुरुक पास जाकर भावशुद्धिसे युक्त हो मनवचन-शरीर तथा धनसे उन्हें प्रयत्नपूर्वक सन्तुष्ट करे और बड़े प्रयततके साथ उन आचार्यकी सर्वदा पूजा करे। वैभव रहनेपर हाथी, घोड़े, रथ, रल, क्षेत्र, गृह, आभूषण, वस्त्र तथा विविध धान्य--ये सब गुरुको भक्तिपूर्वक देना चाहिये। यदि वह अपनी सिद्धि चाहता हो तो धनकी कृपणता नहीं करनी चाहिये। हे देवि इसके बाद सेवक आदि सहित अपने आपको क्षो समर्पित कर देना चाहिये। इस प्रकार विधिष्क यथाशक्ति [गुरुकी] पूजा करके निष्कपट भाव रखते हुए [शिष्यको ] गुरुसे क्रमपूर्वक मन्त्र तथा ज्ञान ग्रहण करना चाहिये॥ ८३--९१॥

एवं तुष्टो गुरुः शिष्यं पूजितं वत्सरोषितम् । 
शुश्रूषुमनहङ्कारमुपवासकृशं शुचिम् ॥ ९२

स्नापयित्वा तु शिष्याय ब्राह्मणानपि पूज्य च। 
समुद्रतीरे नद्यां च गोष्ठे देवालयेऽपि वा ॥ ९३

शुचौ देशे गृहे वापि काले सिद्धिकरे तिथी। 
नक्षत्रे शुभयोगे च सर्वदा दोषवर्जिते ॥ ९४

अनुगृह्य ततो दद्याच्छिवज्ञानमनुत्तमम् । 
स्वरेणोच्चारयेत्सम्यगेकान्तेऽपि प्रसन्नधीः ॥ ९५

उच्चार्योच्चारयित्वा तु आचार्यः सिद्धिदः स्वयम् । 
शिवं चास्तु शुभं चास्तु शोभनोऽस्तु प्रियोऽस्त्विति ॥ ९६

एवं लब्ध्वा परं मन्त्रं ज्ञानं चैव गुरोस्ततः । 
जपेन्नित्यं ससङ्कल्पं पुरश्चरणमेव च ॥ ९७

यावज्जीवं जपेन्नित्यमष्टोत्तरसहस्त्रकम् । 
अनश्नंस्तत्परो भूत्वा स याति परमां गतिम् ॥ ९८

जपेदक्षरलक्षं वै चतुर्गुणितमादरात् । 
नक्ताशी संयमी यश्च पौरश्चरणिकः स्मृतः ॥ ९९

पुरश्चरणजापी वा अपि वा नित्यजापकः । 
अचिरात्सिद्धिकाङ्क्षी तु तयोरन्यतरो भवेत् ॥ १००

इस प्रकार सन्तुष्ट गुरु वर्षपर्यन्त पास रहकर सेवामें परायण, अहंकाररहित, उपवाससे दुर्बल शरीरवाले तथा शुद्धियुक्त पूजित शिष्यको स्नान कराकर ब्राह्मणोंको पूजा करके [किसी] समुद्रतटपर, नदीतटपर, गोशालामें, देवालयमै, पवित्र स्थानमें अथवा घरमें ही सिद्धिकारक समयमें, उत्तम तिथिमें तथा दोषरहित नक्षत्र एवं शुभयोगमें शिष्यपर अनुग्रह करके उसे अत्युत्तम शिवज्ञान प्रदान करे; साथ ही प्रसन्नचित्त होकर एकान्तमें स्वरसे सम्यक उच्चारण करे। स्वयं उच्चारणकर तथा उच्चारण कराकर मन्त्रदाता आचार्य बोले- [तुम्हारा] कल्याण हो, सुभ हो, कुशल हो, प्रिय हो इस प्रकार गुरुसे श्रेष्ठ मन्त्र तथा ज्ञान प्राप्त करके नित्य इसका ससंकल्प जप करना चाहिये और पुरश्चरण भी करना चाहिये। जो बिना भोजन किये तत्पर होकर आजीवन नित्य इसका एक हजार आठ बार जप करता है, वह परम गति प्राप्त करता है नक्तव्रत करते हुए तथा नियमोंका पालन करते हुए जो श्रद्धापूर्वक मन्त्रको अक्षरसंख्याका चार लाख गुना जप करता है, उसे पुरश्चरणकर्ता कहा गया है। पुरश्चरणजप करनेवाला अथवा नित्य जप करनेवाला शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है। दोनोंमें किसी एकको अवश्य करना चाहिये ॥ ९२-१०० ॥ 

यः पुरश्चरणं कृत्वा नित्यजापी भवेन्नरः।
तस्य नास्ति समो लोके स सिद्धः सिद्धिदो वशी ॥ १०१

आसनं रुचिरं बद्ध्वा मौनी चैकाग्रमानसः । 
प्राङ्मुखोदङ्मुखो वापि जपेन्मन्त्रमनुत्तमम् ॥ १०२

आद्यन्तयोर्जपस्यापि कुर्याद्वै प्राणसंयमान्। 
तथा चान्ते जपेद्बीजं शतमष्टोत्तरं शुभम् ॥ १०३

चत्वारिंशत्समावृत्ति प्राणानायम्य संस्मरेत् । 
पञ्चाक्षरस्य मन्त्रस्य प्राणायाम उदाहृतः ॥ १०४

प्राणायामाद्भवेत्क्षिप्रं सर्वपापपरिक्षयः। 
इन्द्रियाणां वशित्वं च तस्मात्प्राणांश्च संयमेत् ॥ १०५

जो मनुष्य पुरश्चरण करके इसका नित्य जप करनेवाला है, उसके समान लोकमें कोई नहीं है; वह सिद्ध, सिद्धिदाता तथा इन्द्रियजित् होता है सुखदायक आसन लगाकर मौन तथा एकाग्रचित्त होकर पूर्वकी ओर अथवा उत्तरकी ओर मुख करके [इस] सर्वोत्तम मन्त्रका जप करना चाहिये जपके प्रारम्भ और अन्तमें [तीन-तीन] प्राणायाम करना चाहिये और अन्तमें एक सौ आठ बार बीजमन्त्रका जप करना चाहिये। श्वास रोककर चालीस बार जप करना चाहिये। यह पंचाक्षरमन्त्रका प्राणायाम कहा गया है। प्राणायामसे शीघ्र ही सभी पापोंका नाश और इन्द्रियोंका निग्रह हो जाता है, अतः प्राणायाम [अवश्य] करना चाहिये ॥ १०१-१०५ ॥ 

गृहे जपः समं विद्याद् गोष्ठे शतगुणं भवेत्। 
नद्यां शतसहस्त्रं तु अनन्तः शिवसन्निधौ ॥ १०६

समुद्रतीरे देवहृदे गिरौ देवालयेषु च। 
पुण्याश्रमेषु सर्वेषु जपः कोटिगुणो भवेत् ॥ १०७

शिवस्य सन्निधाने च सूर्यस्याग्रे गुरोरपि। 
दीपस्य गोर्जलस्यापि जपकर्म प्रशस्यते ॥ १०८

अङ्गुलीजपसंख्यानमेकमेकं शुभानने। 
रेखैरष्टगुणं प्रोक्तं पुत्रजीवफलैर्दश ॥ १०९

शतं वै शङ्खमणिभिः प्रवालैश्च सहस्त्रकम्। 
स्फाटिकैर्दशसाहस्त्रं मौक्तिकैर्लक्षमुच्यते ॥ ११०

पद्माक्षैर्दशलक्षं तु सौवर्णैः कोटिरुच्यते। 
कुशग्रन्थ्या च रुद्राक्षैरनन्तगुणमुच्यते ॥ १११

घरमें किये गये जपको सामान्य फलवाला जानना चाहिये। गोशालामें किया गया जप उससे सौ गुना फलदायक होता है। नदीके तटपर किया गया जप लाख गुना और शिवके सान्निध्यमें किया गया जप अनन्त गुना फलदायक होता है। समुद्रके तटपर, देवसरोवरमें, पर्वतपर, देवालयमें अथवा सभी पवित्र आश्रमोंमें किया गया जप करोड़ गुना फलदायक होता है। शिवकी सन्निधिमें, सूर्य, गुरु, दीपक, गौ अथवा जलके समक्ष जपकर्म श्रेष्ठ माना जाता है  हे शुभानने। एक-एक करके अँगुलीले जपको गणना करनेपर वह सामान्य फल प्रदान करता है; रेखाओंसे करनेपर वह आठ गुना फलदायक कहा गया है। पुत्रजीव फलोंसे जप करनेपर दस गुना, शंखमणियोंसे करनेपर सौ गुना, प्रवालों (मूँगा) से करनेपर हजार गुना, स्फटिकोंसे करनेपर दस हजार गुना और मोतियोंसे करनेपर लाख गुना फलदायक कहा जाता है। कमलके बीजसे करनेपर दस लाख गुना और सोनेके सुवर्णखण्डोंसे करनेपर जप करोड़ गुना फलदायक कहा जाता है। कुशाकी ग्रन्थिसे तथा रुद्राक्षोंसे गणना करनेपर जप अनन्त गुना फलदायक होता है॥ १०६-१११ ॥ 

पञ्चविंशति मोक्षार्थ सप्तविंशति पौष्टिकम्। 
त्रिंशच्च धनसम्पत्त्यै पञ्चाशच्चाभिचारिकम् ॥ ११२

तत्पूर्वाभिमुखं वश्यं दक्षिणं चाभिचारिकम् । 
पश्चिमं धनदं विद्यादुत्तरं शान्तिकं भवेत् ॥ ११३

अङ्गुष्ठं मोक्षदं विद्यात्तर्जनी शत्रुनाशनी। 
मध्यमा धनदा शान्तिं करोत्येषा ह्यनामिका ॥ ११४

जपेन पापं शमयेदशेषं यत्तत्कृतं जन्मपरम्परासु ।
जपेन भोगान् जयते च मृत्युं जपेन सिद्धिं लभते च मुक्तिम् ॥ १२५

पचीस मणियोंकी माला मोक्षके लिये, सत्ताईसकी [माला] पुष्टिके लिये, तीसकी धन-सम्पदाके लिये और पचासको अभिचार कर्मके लिये होती है। पूर्वकी और मुख करके किया गया जप वशीकरणकी शक्ति देनेवाला और दक्षिणकी ओर मुख करके किया गया जप अभिचारकर्मको शक्ति देनेवाला होता है। पश्चिमकी ओर मुख करके किये गये जपको धन प्रदान करनेवाला जानना चाहिये। उत्तरकी ओर मुख करके किया गया जप शान्ति प्रदान करनेवाला होता है अँगूठेको मोक्ष देनेवाला जानना चाहिये। तर्जनी [अँगुली] शत्रुका नाश करनेवाली तथा मध्यमा श्रन प्रदान करनेवाली है। अनामिका शान्ति प्रदान करती है हे शोभने। जपकर्ममें कनिष्ठा रक्षणीय होती है अँगूठेसे अन्य अँगुलियोंके साथ मन्त्रका जप करना चाहिये; क्योंकि बिना अँगूठेके जो जपकर्म किया जाता है, वह निष्फल होता है॥११२-११५॥

अद्भुष्ठेन विना कर्म कृतं तदफलं यतः। 
श्रुणुष्व सर्वयज्ञेभ्यो जपयज्ञों विशिष्यते॥ ११६

हिंसया ते प्रवर्तन्ते जपयज्ञो न हिंसया। 
यावन्तः कर्म यज्ञा: स्युः प्रदानानि तपांसि च॥ ११७

सर्वे ते जपयज्ञस्थ कलां नाईन्ति षोडशीम्‌। 
माहात्म्यं वाचिकस्यैव जपयज्ञस्य कीर्तितम्‌॥ ११८

तस्माच्छतगुणोपांशु: सहस्त्रो मानस: स्मृतः । 
यदुच्चनीचस्वरिते: शब्दे: स्पष्टपदाक्षरे:॥ ११९

मन्त्रमुच्चारयेद्वाच्चा जपयज्ञ: स वाचिक:। 
शनैरुच्चारयेन्मन्त्रमीषदोष्ठाौ तु चालयेत्‌॥ १२०

किज्चित्कर्णान्तरं विद्यादुपांशु: स जप: स्मृतः ।
धिया यदक्षरश्रेण्या वर्णाद्वर्ण पदात्पदम्‌॥ १२१

शब्दार्थ चिन्तयेद्धूय: स तूक्तो मानसो जप: ।
त्रयाणां जपयज्ञानां श्रेयान्‌ स्यादुत्तरोत्तर:॥ १२२

[हे देवि!] सुनो, जपयज्ञ सभी यज्ञोंसे श्रेष्ठ है। वे सभी यज्ञ हिंसाके साथ हुआ करते हैं, किंतु जपयज्ञ बिना हिंसाके होता है। जितने भी अनुष्ठान, यज्ञ, दान तथा तप हैं, वे सब [इस] जपयज्ञकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हैं। वाचिक जपयज्ञका जो माहात्म्य बताया गया है। उपांशु [जपयज्ञ] उससे सौ गुना और मानस [जपयज्ञ] हजार गुना [फलप्रद] कहा गया है। यदि साधक स्पष्ट पद-अक्षरोंवाले शब्दोंके साथ उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरोंमें वाणीके द्वारा मन्त्रका उच्चारण करता है, तो वह जपयज्ञ वाचिक होता है। यदि साधक धीमे स्वरमें मन्त्रका उच्चारण करता है और कुछ-कुछ ओठोंको चलाता है तथा उसे कुछ-कुछ कानमें सुनायी पड़ता है, तो वह जप उपांशु कहा गया है। यदि साधक मनमें अक्षरसमूहके वर्णसे वर्ण तथा पदसे पद शब्दार्थका बार- बार चिन्तन करता है, तो उस जपको मानस जप कहा गया है। तीनों जपयज्ञोंमें उत्तरोत्तर (बादवाला पहलेकी अपेक्षा) श्रेष्ठ है। यज्ञविशेषसे उसके फलका वैशिष्ट्य होता है॥ ११६-१२२॥

भवेद्यज्ञविशेषेण वैशिष्ट्यं तत्फलस्य च। 
जपेन देवता नित्यं स्तूयमाना प्रसीदति॥ १२३

प्रसन्‍ना विपुलान्‌ भोगान्‌ द्यान्मुक्ति च शाश्वतीम्‌। 
यक्षरक्ष:पिशाचाश्च ग्रहा: सर्वे च भीषणा: । 
जापिनं नोपसर्पन्ति भयभीता: समनन्‍ततः॥ १९२

पापं शमयेदशेषं यक्तत्कृतं जन्मपरम्परासु। 
भोगान्‌ जयते च मृत्यु जपेन सिद्धि लभते च मुक्तिम्‌॥ १२५

जपके द्वारा नित्य स्तुति किये जाते हुए देवता प्रसन्न हो जाते हैं और प्रसन्न होकर अत्यधिक भोग तथा चिरस्थायी मुक्ति प्रदान करते हैं। यक्ष, राक्षस, पिशाच तथा सभी भयंकर ग्रह जप करनेवालेके पास नहीं जाते और उससे पूर्णरूपसे भयभीत रहते हैं मनुष्य जन्म-जन्मान्तरमें जो भी पाप किये रहता है, उसे जपके द्वारा नष्ट कर देता है; जपके द्वारा भोगोंको प्राप्त करता है; मृत्युको जीत लेता है; अपके द्वारा सिद्धि तथा मुक्तिको भी प्राप्त कर लेता है ॥ १२३-१२५ ॥

एवं लकवा शिवं ज्ञानं ज्ञात्वा जपविधिक्रमम् ॥ १२६

सदाचारी जपन्नित्यं ध्यायन् भद्रं समश्नुते। 
सदाचारं प्रवक्ष्यामि सम्यक् धर्मस्य साधनम् ॥ १२७

यस्मादाचारहीनस्य साधनं निष्फलं भवेत्। 
आचारः परमो धर्म आचारः परमं तपः ॥ १२८

आचारः परमा विद्या आचारः परमा गतिः। 
सदाचारवतां पुंसां सर्वत्राप्यभयं भवेत् ॥ १२९

तद्वदाचारहीनानां सर्वत्रैव भयं भवेत्। 
सदाचारेण देवत्वमुषित्वं च वरानने ॥ १३०

उपयान्ति कुयोनित्वं तद्वदाचारलङ्घमात् । 
आचारहीनः पुरुषो लोके भवति निन्दितः ॥ १३१

तस्मात्संसिद्धिमन्विच्छन् सम्यगाचारवान् भवेत् । 
दुर्वृत्तो शुद्धिभूयिष्ठो पापीयाञ्ज्ञानदूषकः ॥ १३२

इस प्रकार शिवज्ञान प्राप्त करके और जपके विधिक्रमको जानकर सदाचारी [मनुष्य] नित्य जप करता हुआ तथा शिवका ध्यान करता हुआ कल्याण प्राप्त करता है [हे देवि!] अब में धर्मके साधनस्वरूप सदाचारका सम्यक् वर्णन करूँगा, क्योंकि आधारहीन [व्यक्ति] का साधन निष्फल हो जाता है। आचार सर्वश्रेष्ठ धर्म है, आचार परम तप है, आचार परम विद्या है और आचार परम गति है। जिस तरह सदाचारी मनुष्योंको सभी जगह अभय रहता है; उसी तरह आचारहीनोंको सर्वत्र भय ही रहता है हे वरानने! जो सदाचारका पालन करते हैं, वे देवत्व तथा ऋषित्व प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार जो आचारका उल्लंघन करते हैं, वे कुत्सित योनि प्राप्त करते हैं। आचारसे विहीन पुरुष संसारमें निन्दित होता है, अतः सिद्धिकी इच्छा रखनेवालेको पूर्णरूपसे आचारवान् होना चाहिये। महान् शुद्धिसे युक्त होता हुआ भी दुराचारी व्यक्ति पापी तथा ज्ञानको दूषित करनेवाला होता है॥ १२६-१३२॥

वर्णाश्रमविधानोक्तं धर्म कुर्वीत यत्नतः ॥ १३३

यस्य यद्विहितं कर्म तत्कुर्वन् मत्प्रियः सदा। 
सन्ध्योपासनशीलः स्यात्सायं प्रातः प्रसन्नधीः ॥ १३४

उदयास्तमयात्पूर्वमारभ्य विधिना शुचिः। 
कामान्मोहा,द्भयाल्लोभात्सन्ध्यां नातिक्रमेद् द्विजः ॥ १३५

सन्ध्यातिक्रमणाद्विप्रो ब्राह्मण्यात्पतते यतः । 
असत्यं न वदेत्किञ्चिन्न सत्यं च परित्यजेत् ॥ १३६

यत्सत्यं ब्रह्म इत्याहुरसत्यं ब्रह्मदूषणम्। 
अनृतं परुषं शाठ्ठां पैशुन्यं पापहेतुकम् ॥ १३७

परदारान् परद्रव्यं परहिंसां च सर्वदा। 
क्वचिच्चापि न कुर्वीत वाचा च मनसा तथा ।। १३८

वर्णाश्रम-विधानके अनुसार बताये गये धर्मका यत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। जिसका जो कर्म विहित है, उसे करनेवाला सर्वदा मुझे प्रिय है। प्रसन्नचित्त होकर प्रातः तथा सायंकाल सन्ध्योपासन करना चाहिये। द्विजको चाहिये कि सूर्योदय तथा सूर्यास्तके पूर्व आरम्भ करके पवित्र होकर विधिपूर्वक सन्ध्या करे और काम, मोह, भय तथा लोभके कारण सन्ध्याका उल्लंघन न करे; क्योंकि सन्ध्याका उल्लंघन करनेसे विप्र ब्राह्मणत्वसे पतित हो जाता है कुछ भी असत्य नहीं बोलना चाहिये और सत्यका त्याग नहीं करना चाहिये। सत्यको ब्रह्म कहा गया है; असत्य ब्रह्मको दूषित करनेवाला है। असत्य, कठोर वचन, शठता तथा परनिन्दा- ये पापके कारण हैं। वाणी तथा मनसे भी परायी स्त्री तथा पराये धनका हरण और परहिंसा कभी भी नहीं करनी चाहिये ॥ १३३-१३८ ॥

शूद्रान्नं यातयामान्नं नैवेद्यं श्राद्धमेव च। 
गणान्नं समुदायान्नं राजान्नं च विवर्जयेत् ॥ १३९

अन्नशुद्धी सत्त्वशुद्धिर्न मृदा न जलेन वै। 
सत्त्वशुद्धौ भवेत्सिद्धिस्ततोऽन्नं परिशोधयेत् ॥ १४०

राजप्रतिग्रहैर्दग्धान् ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिनः । 
स्विन्नानामपि बीजानां पुनर्जन्म न विद्यते ॥ १४१

राजप्रतिग्रहो घोरो बुद्ध्वा चादौ विषोपमः । 
बुधेन परिहर्तव्यः श्वमांसं चापि वर्जयेत् ॥ १४२

अस्नात्वा न च भुञ्जीयादजपोऽग्निमपूज्य च। 
पर्णपृष्ठे न भुञ्जीयाद्रात्रौ दीपं विना तथा ।। १४३

भिन्नभाण्डे च रथ्यायां पतितानां च सन्निधौ।
शूद्रशेषं न भुञ्जीयात्सहान्नं शिशुकैरपि ॥ १४४

शूद्रके अन्न, बासी अन्न, [शिवका] नैवेद्य, श्राद्धके अन्न, अनेक लोगोंके अधिकारवाले अन्न, समुदायविशेषके  लिये निर्मित अन्नका तथा राजाके अन्नका त्याग करना चाहिये। अन्नकी शुद्धिसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है, न कि मिट्टी अथवा जलसे। अन्तःकरणकी पवित्रतासे सिद्धि प्राप्त होती है, अतः अन्नका शोधन करना चाहिये अर्थात् पवित्र अन्न ग्रहण करना चाहिये जैसे भुने हुए बीजोंका अंकुरण नहीं होता है, वैसे ही ब्रह्मवादी ब्राह्मणोंको भी राजाओंके प्रतिग्रहसे दग्ध जानना चाहिये। अर्थात् वे ब्राह्मणत्वसे च्युत हो जाते हैं। राजाओंसे प्रतिग्रह लेना पाप है तथा विषके समान है प्रारम्भमें ही ऐसा जानकर बुद्धिमान्‌को इसे ग्रहण नहीं करना चाहिये और कुत्तेके मांसके समान इसका त्याग कर देना चाहिये बिना स्नान किये, बिना जप किये तथा बिना अग्निपूजन किये भोजन नहीं करना चाहिये। पत्तेके पृष्ठपर भोजन नहीं करना चाहिये तथा रातमें बिना दीपक जलाये भोजन नहीं करना चाहिये। टूटे हुए पात्रमें, मार्गमें एवं पतितजनोंके समीप भोजन नहीं करना चाहिये। शूद्रोंका छोड़ा हुआ अन्न नहीं खाना चाहिये और शिशुओंके साथ भी भोजन नहीं करना चाहिये ॥ १३९-१४४॥

शुद्धान्नं स्निग्धमश्नीयात्संस्कृतं चाभिमन्त्रितम्। 
भोक्ता शिव इति स्मृत्वा मौनी चैकाग्रमानसः ॥ १४५

आस्येन न पिबेत्तोयं तिष्ठन्नाञ्जलिनापि वा। 
वामहस्तेन शय्यायां तथैवान्यकरेण वा ॥ १४६

विभीतकार्ककारव्जस्नुहिच्छायां न चाश्रयेत्। 
स्तम्भदीपमनुष्याणामन्येषां प्राणिनां तथा ॥ १४७

एको न गच्छेदध्वानं बाहुभ्यां नोत्तरेन्नदीम् । 
नावरोहेत कूपादिं नारोहेदुच्चपादपान् ॥ १४८

सूर्याग्निजलदेवानां गुरूणां विमुखः शुभे। 
न कुर्यादिह कार्याणि जपकर्म शुभानि वा ॥ १४९

शुद्ध, स्निग्ध (चिकना), पका हुआ तथा अभिमन्त्रित अन्न ग्रहण करना चाहिये; भोजन करनेवाला शिव है- ऐसा समझकर मौन तथा एकाग्रचित्त होकर भोजन करना चाहिये। खड़े-खड़े, अंजुलिसे, मुख लगाकर, बायें हाथसे, शय्यापर तथा दायें हाथसे भी पानी नहीं पीना चाहिये बहेड़ा, अर्क (मदार), करंज तथा सेंहुड़के वृक्षकी छायामें शरण नहीं लेना चाहिये। किसी खम्भे, दीप, मनुष्यों तथा अन्य प्राणियोंकी छायामें खड़े नहीं होना चाहिये दूर यात्रापर अकेले नहीं जाना चाहिये, भुजाओंके सहारे तैरकर नदीको पार नहीं करना चाहिये, कूप आदिमें नहीं उतरना चाहिये और लम्बे वृक्षोंपर नहीं चढ़ना चाहिये हे शुभे। सूर्य, अग्नि, जल, देवता तथा गुरुजनों के विमुख होकर जपकर्म तथा [अन्य] शुभ कर्म नहीं करने चाहिये ॥१४५-१४९ ॥

अग्नौ न तापयेत्पादौ हस्तं पद्भ्यां न संस्पृशेत्। 
अग्नेर्नोच्छ्यमासीत नाग्नौ किञ्चिन्मलं त्यजेत् ।। १५०

न जलं ताडयेत्पद्भ्यां नाम्भस्यङ्गमलं त्यजेत् । 
मलं प्रक्षालयेत्तीरे प्रक्षाल्य स्नानमाचरेत् ॥ १५१

नखाग्र केशनिर्भूतस्नानवस्त्रघटोदकम् । 
अश्रीकरे मनुष्याणामशुद्धं संस्पृशेद्यदि ॥ १५२

अजाश्वानखरोष्ट्राणां मार्जनात्तुषरेणुकान् । 
संस्पृशेद्यदि मूढात्मा श्रियं हन्ति हरेरपि ॥ १५३

मार्जारश्च गृहे यस्य सोऽप्यन्त्यजसमो नरः । 
भोजयेद्यस्तु विप्रेन्द्रान् मार्जारान् सन्निधौ यदि ॥ १५४

अग्निमें पैरोंको तपाना नहीं चाहिये, पैरों से हाथ का स्पर्श नहीं करना चाहिये, अग्निके ऊपर आसन नहीं बनाना चाहिये और अग्निमें कोई मल (दूषित पदार्थ) नहीं डालना चाहिये  पैरों से जल नहीं उछालना चाहिये, शरीरकी मैलको जलमें नहीं छोड़ना चाहिये; तटपर ही मलको साफ करना चाहिये और उसे साफ करके स्नान करना चाहिये नाखून तथा केशसे टपकता हुआ जल और स्नानवस्त्रका तथा घटका जल मनुष्योंके लिये श्रेयस्कर नहीं होता है; यदि कोई इसे स्पर्श करता है, तो अशुद्ध हो जाता है यदि कोई मूढ़ बुद्धिवाला [मनुष्य] बकरी, कुत्ता, गधा, ऊँट आदिसे उठी हुई धूल और झाडू लगानेसे उठी हुई धूलका स्पर्श करता है, तो उसकी लक्ष्मी नष्ट हो जाती है, चाहे वह विष्णु ही क्यों न हों  जिसके घरमें बिल्ली रहती है, वह चाण्डालके समान होता है। यदि कोई मनुष्य बिल्लीकी सन्निधिमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, तो उसे चाण्डालके समान जानना चाहिये। इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ १५०-१५४ ॥

तच्चाण्डालसमं ज्ञेयं नात्र कार्या विचारणा। 
स्फिग्वात्तं शूर्पवातं च वातं प्राणमुखानिलम् ॥ १५५

सुकृतानि हरन्त्येते संस्पृष्टाः पुरुषस्य तु। 
उष्णीषी कञ्चुकी नग्नो मुक्तकेशो मलावृतः ।। १५६

अपवित्रकरोऽशुद्धः प्रलपन्न जपेत्क्वचित्।
क्रोधो मदः क्षुधा तन्द्रा निष्ठीवनविजृम्भणे ॥ १५७

श्वनीचदर्शनं निद्रा प्रलापास्ते जपद्विषः । 
एतेषां सम्भवे वापि कुर्यात्सूर्यादिदर्शनम् ॥ १५८

आचम्य वा जपेच्छेषं कृत्वा वा प्राणसंयमम्। 
सूर्योऽग्निश्चन्द्रमाश्चैव ग्रहनक्षत्रतारकाः ।। १५९

दूषित वायु, सूपकी वायु और प्राणियोंके मुखसे निकली हुई वायु-इनका सम्पर्क हो जानेपर ये मनुष्यके पुण्योंको नष्ट कर देते हैं। पगड़ी धारण करके, कंचुक पहनकर, नग्न होकर, केशोंको खोलकर, मैलसे युक्त होकर, अपवित्र हाथसे, अशुद्ध होकर तथा बात-चीत करते हुए कभी भी जप नहीं करना चाहिये क्रोध, अहंकार, भूख, आलस्य, धूकना, जम्हाई, कुत्ते तथा नीच व्यक्तिका दर्शन, निद्रा तथा वार्तालाप- ये जपके शत्रु हैं; इनके उत्पन्न होनेपर सूर्य आदिका दर्शन करना चाहिये। पुनः आचमन करके अथवा प्राणायाम करके शेष जप करना चाहिये। सूर्य, अग्नि चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, तारे-ये विद्वान् ब्राह्मणोंके द्वारा ज्योतिर्गण कहे गये हैं॥ १५५-१५९॥

एते ज्योतींषि प्रोक्तानि विद्वद्भिर्बाह्मणैस्तथा । 
प्रसार्य पादौ न जपेत्कुक्कुटासन एव च ॥ १६०

अनासनः शयानो वा रध्यायां शूद्रसन्निधौ। 
रक्तभूम्यां च खट्‌वायां न जपेज्जापकस्तथा ॥ १६१

आसनस्थो जपेत्सम्यक् मन्त्रार्थगतमानसः । 
कौशेयं व्याघ्रचर्म वा चैलं तौलमथापि वा।। १६२

दारवं तालपर्ण वा आसनं परिकल्पयेत्। 
त्रिसन्ध्यं तु गुरोः पूजा कर्तव्या हितमिच्छता ।। १६३

यो गुरुः स शिवः प्रोक्तो यः शिवः स गुरुः स्मृतः । 
यथा शिवस्तथा विद्या यथा विद्या तथा गुरुः ॥ १६४

शिवविद्या गुरोस्तस्माद्भक्त्या च सदृशं फलम्। 
सर्वदेवमयो देवि सर्वशक्तिमयो हि सः ॥ १६५

सगुणो निर्गुणो वापि तस्याज्ञां शिरसा वहेत् । 
श्रेयोऽर्थी यस्तु गुर्वाज्ञां मनसापि न लङ्घयेत् ॥ १६६

गुर्वाज्ञापालकः सम्यक् ज्ञानसम्पत्तिमश्नुते । 
गच्छंस्तिष्ठन् स्वपन् भुञ्जन् यद्यत्कर्म समाचरेत् ।। १६७

पैरोंको फैलाकर अथवा कुक्कुट आसनमें बैठकर जप नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार जापकको बिना आसनके, लेटे हुए, मार्गपर, शूद्रके पास, रक्तभूमिपर अथवा चारपाईपर जप नहीं करना चाहिये। आसनपर बैठकर मनमें मन्त्रके अर्थका चिन्तन करते हुए भली- भाँति जप करना चाहिये। रेशमी वस्त्र, व्याघ्रचर्म, वस्त्र, रूई, लकड़ी अथवा ताड़के पत्तेका आसन बनाना चाहिये अपना हित चाहनेवालेको तीनों सन्ध्याओंमें गुरुकी पूजा करनी चाहिये। जो गुरु हैं, वे शिव कहे गये हैं और जो शिव हैं, वे गुरु कहे गये हैं। जैसे शिव है, वैसे ही विद्या; जैसी विद्या वैसे ही गुरु होते हैं। शिवविद्या उन गुरुसे ही ग्रहण की जा सकती है और भक्तिके द्वारा अनुकूल फल प्राप्त होता है। हे देवि! वे [गुरु] सर्वदेवस्वरूप तथा सर्वशक्तिस्वरूप हैं। गुरु सगुण हों अथवा निर्गुण-उनकी आज्ञाको शिरोधार्य करना चाहिये। जो कल्याणका इच्छुक है, उसे मनसे भी गुरुकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करना चाहिये। पूर्णरूपसे गुरुकी आज्ञाका पालन करनेवाला [शिष्य] ज्ञानसम्पदा प्राप्त करता है। चलते हुए, बैठते हुए, सोते हुए अथवा खाते हुए [शिष्य] जो भी कर्म यदि गुरुके समक्ष करे, वह समस्त कार्य उनकी आज्ञासे ही करना चाहिये ॥ १६०-१६७ ॥

समक्षं यदि तत्सर्वं कर्तव्यं गुर्वनुज्ञया। 
गुरोर्देवसमक्षं वा न यथेष्टासनो भवेत् ॥ १६८

गुरुर्देवो यतः साक्षात्तद्‌गृहं देवमन्दिरम्। 
पापिनां च यथासङ्गात्तत्पापैः पतनं भवेत् ॥ १६९

तद्वदाचार्यसङ्गेन तद्धर्मफलभाग्भवेत् । 
यथैव वह्निसम्पर्कान्मलं त्यजति काञ्चनम् ॥ १७०

तथैव गुरुसम्पर्कात्पापं त्यजति मानवः। 
यथा वह्निसमीपस्थो घृतकुम्भो विलीयते ॥ १७१

तथा पापं विलीयेत आचार्यस्य समीपतः । 
यथा प्रज्वलितो वह्निर्विष्ठां काष्ठं च निर्दहेत् ॥ १७२

गुरुदेवके समक्ष इच्छानुसार आसनपर नहीं बैठना चाहिये; क्योंकि गुरु साक्षात् देवता हैं और उनका घर देवमन्दिर है। जिस प्रकार पापियोंकी संगतिके कारण उनके पापोंसे [व्यक्तिका] पतन हो जाता है, उसी प्रकार गुरुकी संगतिसे [व्यक्ति] उनके धर्मफलका भागी होता है। जैसे सुवर्ण अग्निके सम्पर्कसे अपने मैलका त्याग करता है, वैसे ही मनुष्य गुरुके सम्पर्कसे पापका त्याग करता है। जैसे अग्निके समीप स्थित कुम्भका घृत पिघल जाता है, वैसे ही आचार्य (गुरु) के सम्पर्कसे [मनुष्यका] पाप विलीन हो जाता है। जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि मल तथा काष्ठको जला डालती है, उसी प्रकार प्रसन्न हुए गुरु अपने मन्त्रके तेजसे [शिष्यके] पापको भस्म कर देते हैं॥ १६८-१७२ ॥

गुरुस्तुष्टो दहत्येवं पापं तन्मन्त्रतेजसा। 
ब्रह्मा हरिस्तथा रुद्रो देवाश्च मुनयस्तथा ॥ १७३

कुर्वन्त्यनुग्रहं तुष्टा गुरौ तुष्टे न संशयः। 
कर्मणा मनसा वाचा गुरोः क्रोधं न कारयेत् ॥ १७४

तस्य क्रोधेन दह्यन्ते आयुः श्रीर्ज्ञानसत्क्रियाः । 
तत्क्रोधं ये करिष्यन्ति तेषां यज्ञाश्च निष्फलाः ।। १७५

जपान्यनियमाश्चैव नात्र कार्या विचारणा। 
गुरोर्विरुद्धं यद्वाक्यं न वदेत्सर्वयत्नतः ॥ १७६

वदेद्यदि महामोहाद्रौरवं नरकं व्रजेत्। 
चित्तेनैव च वित्तेन तथा वाचा च सुव्रताः ॥ १७७

मिध्या न कारयेद्देवि क्रियया च गुरोः सदा। 
दुर्गुणे ख्यापिते तस्य नैर्गुण्यशतभाग्भवेत् ॥ १७८

गुणे तु ख्यापिते तस्य सार्वगुण्यफलं भवेत्। 
गुरोर्हितं प्रियं कुर्यादादिष्टो वा न वा सदा ॥ १७९

असमक्षं समक्ष वा गुरोः कार्यं समाचरेत्। 
गुरोर्हितं प्रियं कुर्यान्मनोवाक्कायकर्मभिः ॥ १८०

कुर्वन् पतत्यधो गत्वा तत्रैव परिवर्तते।
तस्मात्स सर्वदोपास्यो वन्दनीयश्च सर्वदा ॥ १८१

समीपस्थोऽप्यनुज्ञाप्य वदेत्तद्विमुखो गुरुम् । 
एवमाचारवान् भक्तो नित्यं जपपरायणः ॥ १८२

गुरुके प्रसन्न रहनेपर ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, सभी देवता तथा मुनि भी [उस व्यक्तिपर] प्रसन्न होकर कृपा करते हैं; इसमें सन्देह नहीं है। मन, वचन तथा कर्मसे गुरुको क्रोधित नहीं करना चाहिये; उनके क्रोधसे आयु, लक्ष्मी (वैभव), ज्ञान और सत्कर्म दग्ध हो जाते हैं। जो लोग उन्हें कुपित करते हैं, उनके यज्ञ, जप तथा अन्य अनुष्ठान व्यर्थ हो जाते हैं; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये पूर्ण प्रयत्नपूर्वक गुरुके विरुद्ध कुछ भी वचन नहीं बोलना चाहिए। यदि कोई अज्ञानवश ऐसा बोलता है, तो वह रौरव नरकमें पड़ता है। है देवि। मन, धन, वचन तथा कर्मसे गुरुको कभी झूठा सिद्ध नहीं करना चाहिये। उनका दुर्गुण कहनेपर व्यक्ति सौ दुर्गुणोंसे युक्त हो जाता है और उनका गुण कहनेपर सभी गुणोंका फल मिलता है। गुरुने आदेश दिया हो अथवा नहीं, सर्वदा उनका हित तथा प्रिय करना चाहिये; गुरु सामने हों अथवा परोक्षमें हों, उनका कार्य करना चाहिये। मन, वचन, शरीर तथा कर्मसे गुरुका हित तथा प्रिय करना चाहिये। ऐसा न करनेवाला नरकमें गिरता है और वहाँ जाकर वहींपर विचरण करता रहता है। अतः सर्वदा उनकी उपासना तथा वन्दना करनी चाहिये। पास रहते हुए भी गुरुसे आज्ञा लेकर तथा उनकी और मुख न करके बोलना चाहिये। ऐसा आचारवान्, भक्ति-सम्पन्न, नित्य जप करनेवाला तथा गुरुका प्रिय करनेवाला [शिष्य] इस मन्त्रका विनियोग करनेके योग्य होता है॥ १७३-१८२॥ 

गुरुप्रियकरो मन्त्रं विनियोक्तुं ततोऽर्हति। 
विनियोगं प्रवक्ष्यामि सिद्धमन्त्रप्रयोजनम् ॥ १८३

दौर्बल्यं याति तन्मन्त्रं विनियोगमजानतः । 
यस्य येन वियुञ्जीत कार्येण तु विशेषतः ॥ १८४

विनियोगः स विज्ञेय ऐहिकामुष्मिकं फलम्। 
विनियोगजमायुष्यमारोग्यं तनुनित्यता ॥ १८५

राज्यैश्वर्यं च विज्ञानं स्वर्गों निर्वाण एव च। 
प्रोक्षणं चाभिषेकं च अघमर्षणमेव च ।। १८६

स्नाने च सन्ध्ययोश्चैव कुयाँदेकादशेन वै। 
शुचिः पर्वतमारुह्य जपेल्लक्षमतन्द्रितः ॥ १८७

[हे देवि!] अब मैं सिद्धमन्त्रके प्रयोजनस्वरूप विनियोगको बताऊँगा; विनियोग न जाननेवालेका वह मन्त्र प्रभावहीन हो जाता है। जिसका जिस कार्यके साथ विशेष रूपसे संयोजन किया जाय, उसे विनियोग कहा गया है। यह इस लोकमें तथा परलोकमें फल प्रदान करता है। विनियोगसे आयु, आरोग्य, शरीरकी नित्यता, राज्य, ऐश्वर्य, उत्तम ज्ञान, स्वर्ग तथा मोक्ष-ये सब प्राप्त होते हैं स्नानमें तथा [प्रातः सायं] दोनों सन्ध्याओंगे ग्यारह बार पंचाक्षरमन्त्रसे प्रोक्षण, अभिषेक तथा अघमर्पण करना चाहिए। जो शुद्ध होकर पर्वतपर चढ़कर आलस्यरहित हो एक लाख बार मन्त्रका जप करता है अथवा किसी महानदीके तटपर दो लाख बार जप करता हैं, वह दीर्घ आयु प्राप्त करता है ॥ १८३-१८७॥

महानद्यां द्विलक्षं तु दीर्घमायुरवाप्नुयात्। 
दृर्वाङ्करास्तिला वाणी गुडूची घुटिका तथा ॥। १८८

तेषां तु दशसाहस्त्रं होममायुष्यवर्धनम् । 
अश्वत्थवृक्षमाश्रित्य जपेल्लक्षद्वयं सुधीः ॥ १८९

शनैश्चरदिने स्पृष्ट्वा दीर्घायुष्यं लभेन्नरः । 
शनैश्चरदिनेऽश्वत्थं पाणिभ्यां संस्पृशेत्सुधीः ॥ १९०

दूर्वांकुर, तिल, वाणी, गुरुच और घुटिका-इनका दस हजार होम आयुको वृद्धि करनेवाला होता है। बुद्धिमान्‌को चाहिये कि पीपलके वृक्षका आश्रय लेकर दो लाख जप करे। शनिवारको पीपल वृक्षका स्पर्श करके मनुष्य दीर्घ आयु प्राप्त करता है। बुद्धिमान्‌को शनैश्चरके दिन [अपने] दोनों हाथोंसे पीपलके वृक्षका स्पर्श करना चाहिये और एक सौ आठ बार [मन्त्रका) जप करना चाहिये; यह भी अकाल मृत्युको दूर करनेवाला होता है॥ १८८-१९०॥ 

जपेदष्टोत्तरशतं सोऽपमृत्युहरो भवेत् । 
आदित्याभिमुखो भूत्वा जपेल्लक्षमनन्यधीः ॥ १९१

अकैरष्टशतं नित्यं जुह्वन् व्याधेर्विमुच्यते । 
समस्तव्याधिशान्त्यर्थं पलाशसमिधैर्नरः ॥ १९२

हुत्वा दशसहस्त्रं तु निरोगी मनुजो भवेत्। 
नित्यमष्टशतं जप्त्वा पिबेदम्भोऽर्कसन्निधौ ॥ १९३

औदर्यैव्र्व्याधिभिः सर्वैर्मासेनैकेन मुच्यते। 
एकादशेन भुञ्जीयादन्नं चैवाभिमन्त्रितम्। १९४

भक्ष्यं चान्यत्तथा पेयं विषमप्यमृतं भवेत्। 
जपेल्लक्षं तु पूर्वाह्न हुत्वा चाष्टशतेन वै ॥ १९५

सूर्य नित्यमुपस्थाय सम्यगारोग्यमाप्नुयात्। 
नदीतोयेन सम्पूर्ण घटं संस्पृश्य शोभनम् ।। १९६

सूर्वकी ओर मुख करके एकाग्रचित्त होकर एक लाख जप करना चाहिये; अर्ककी समिधाओंसे प्रतिदिन एक सौ आठ होम करनेवाला [व्यक्ति] रोगसे मुक्त हो जाता है। मनुष्यको समस्त रोगोंके शमनके लिये पलाश-समिधाओंसे होम करना चाहिये; इससे दस हजार होम करके मनुष्य रोगरहित हो जाता है। प्रतिदिन एक सौ आठ बार जप करके सूर्यके समक्ष जल पीन चाहिये; ऐसा करनेवाला एक महीनेमें ही सभी उदर- सम्बन्धी रोगोंसे मुक्त हो जाता है ग्यारह बार मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके अन्न तथा अन्य भक्ष्य-पेय पदार्थ ग्रहण करना चाहिये; इससे विष भी अमृत हो जाता है। प्रतिदिन पूर्वाह्नमें एक सौ आठ आहुति देकर तथा सूर्योपस्थान करके एक लाख जप करना चाहिये, ऐसा करनेवाला पूर्ण आरोग्य प्राप्त करता है। नदीके जलसे भरे हुए सुन्दर घड़ेको स्पर्श करते हुए दस हजार जप करनेसे तथा उसी जलसे स्नान करनेसे सभी रोगोंकी चिकित्सा हो जाती है ॥ १९१-१९६ ॥

जप्त्वायुतं च तत्स्नानाद्रोगाणां भेषजं भवेत् । 
अष्टाविंशज्ञ्जपित्वान्नमश्नीयादन्वहं शुचिः ॥ १९७

हुत्वा च तावत्पालाशैरेवं वारोग्यमश्नुते। 
चन्द्रसूर्यग्रहे पूर्वमुपोष्य विधिना शुचिः ॥ १९८

यावग्रहणमोक्षं तु तावन्नद्यां समाहितः । 
जपेत्समुद्रगामिन्यां विमोक्षे ग्रहणस्य तु ॥ १९९


अष्टोत्तरसहखेण पिबेद् ब्राह्मीरसं द्विजाः। 
ऐहिकां लभते मेधां सर्वशास्त्रधरां शुभाम् ॥ २००

पवित्र होकर प्रतिदिन अट्ठाईस बार [मन्त्रका) जप करके अन्न ग्रहण करना चाहिये और बादमें उतनी ही पलाश-समिधाओंसे हवन करनेसे [व्यक्ति] आरोग्य प्राप्त करता है। चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहणके अवसरपर पवित्र होकर विधिपूर्वक उपवास करके जबतक ग्रहणका मोक्ष हो, तबतक किसी समुद्रगामिनी नदीमें एकाग्रचित्त होकर जप करना चाहिये और हे द्विजो! ग्रहणके समाप्त होनेपर एक हजार आठ मन्त्रका जप करके ब्राह्मीरसका पान करना चाहिये। ऐसा करनेवाला सभी शास्त्रोंको धारण करनेवाली कल्याणमयी लौकिक प्रतिभा प्राप्त करता है और उसकी वाणी अतिमानुषी होकर देवी सरस्वतीकी वाणीके तुल्य हो जाती है ॥ १९७-२०० ॥

सारस्वती भवेद्देवी तस्य वागतिमानुषी। 
ग्रहनक्षत्रपीडासु जपेद्भक्त्यायुतं नरः ॥ २०१

हुत्वा चाष्टसहस्त्रं तु ग्रहपीडां व्यपोहति। 
दुःस्वप्नदर्शने स्नात्वा जपेद्वै चायुतं नरः ॥ २०२

घृतेनाष्टशतं हुत्वा सद्यः शान्तिर्भविष्यति । 
चन्द्रसूर्यग्रहे लिङ्गं समभ्यर्च्य यथाविधि ॥ २०३

यत्किञ्चित्प्रार्थयेद्देवि जपेदयुतमादात् । 
सन्निधावस्य देवस्य शुचिः संयतमानसः ।। २०४

सर्वान् कामानवाप्नोति पुरुषो नात्र संशयः । 
गजानां तुरगाणां तु गोजातीनां विशेषतः ॥ २०५

व्याध्यागमे शुचिर्भूत्वा जुहुयात्समिधाहुतिम् । 
मासमभ्यर्च्य विधिनायुतं भक्तिसमन्वितः ॥ २०६

ग्रह तथा नक्षत्रके कारण कष्ट होनेपर मनुष्य भक्तिपूर्वक दस हजार जप करके तथा आठ हजार आहुति देकर ग्रहपीड़ासे मुक्त हो जाता है। दुःस्वप्न देखनेपर स्नान करके मनुष्यको दस हजार जप करना चाहिये; इसके बाद घृतकी एक सौ आठ आहुति देनेसे उसे शीघ्र ही शान्ति प्राप्त होगी चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहणके समय विधिपूर्वक लिङ्गका पूजन करके शुद्ध तथा एकाग्रचित्त होकर इन महादेवके समीप आदरपूर्वक दस हजार जप करना चाहिये; हे देवि ! वह मनुष्य जो कुछ भी माँगता है, उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण होती है; इसमें सन्देह नहीं है। हाथियों, घोड़ों तथा विशेषकर गोजातिके पशुओंमें रोग उत्पन्न होनेपर शुद्ध होकर तथा भक्तियुक्त होकर विधिपूर्वक महीनेभर पूजन करके समिधाकी दस हजार आहुति देनेसे उन पशुओंके रोगकी शान्ति तथा उनकी वृद्धि होती है; इसमें सन्देह नहीं है॥ २०१-२०६॥

तेषामृद्धिश्च शान्तिश्च भविष्यति न संशयः । 
उत्पाते शत्रुबाधायां जुहुयादयुतं शुचिः ॥ २०७

पालाशसमिधैर्देवि तस्य शान्तिर्भविष्यति। 
आभिचारिकबाधायामेतद्देवि समाचरेत् ॥ २०८

प्रत्यग् भवति तच्छक्तिः शत्रोः पीडा भविष्यति। 
विद्वेषणार्थं जुहुयाद् वैभीतसमिधाष्टकम् ।। २०९

अक्षरप्रातिलोम्येन आर्द्रण रुधिरेण वा। 
विषेण रुधिराभ्यक्तो विद्वेषणकरं नृणाम् ॥ २१०

प्रायश्चित्तं प्रवक्ष्यामि सर्वपापविशुद्धये। 
पापशुद्धिर्यथा सम्यक्‌ कर्तुमभ्युद्यतो नरः॥ २११

पापशुद्धिर्यतः सम्यग्‌ ज्ञानसम्पत्तिहेतुको । 
पापशुद्धिर्न चेत्पुंसः क्रिया: सर्वाश्च निष्फला: ॥ २१२

हे देवि । उपद्रव तथा शत्रुबाधा उत्पन्न होनेपर जो [व्यक्ति] पवित्र होकर पलाशकी समिधाओंसे दस हजार होम करता है; उसकी शान्ति होती है। हे देवि! आभिचारिक बाधामें भी ऐसा ही करना चाहिये; ऐसा करनेसे उसकी शक्ति प्रकट होती है और शत्रुको पीड़ा उत्पन्न होती है। विद्वेषणके लिये बहेड़ेकी समिधाओंसे आठ आहुति डालनी चाहिये; अथवा रुधिरसे स्नान करके विपरीत अक्षरसे मन्त्रका जप करते हुए गीले रक्तसे या विषसे होम करना चाहियेः यह मनुष्योंकि लिये विद्वेषणकारी है। [हे देवि!] अब मैं समस्त पापोंसे शुद्धिके लिये प्रायश्चित्तका वर्णन करूँगा। मनुष्यको पापशुद्धि करनेहेतु पूर्णरूपसे प्रयत्नशील होना चाहिये; क्योंकि सम्यक् पापमुद्धि ज्ञान-सम्पदाका मूल कारण होती है। यदि पापशुद्धि नहीं होती है, तो मनुष्यकी सभी क्रियाएँ व्यर्थ हो जाती हैं और उसका ज्ञान क्षीण होता रहता है, इसलिये पापका शोधन [अवश्य] करना चाहिये ॥ २०७-२१२॥

ज्ञानं च हीयते तस्मात्कर्तव्यं पापशोधनम्‌। 
विद्यालक्ष्मीविशुद्धयर्थ मां ध्यात्वाउजलिना शुभे॥ २१३

शिवेनैकादशेनाद्धिरभिषिज्चेत्समन्तत: । 
अष्टोत्तशतेनैव. स्नायात्पापविशुद्धये ॥ २१४

सर्वतीर्थफलं तच्च सर्वपापहरं शुभम्‌। 
सन्ध्योपासनविच्छेदे जपेदष्टशतं नरः:॥ २१५

विड्वराहैश्च चाण्डालैद्दुर्जन: कुक्कुटैरपि। 
स्पृष्टमन्न॑ न भुज्जीत भुक्त्वा चाष्टशतं जपेत्‌॥ २१६

हे शुभे। विद्या तथा लक्ष्मीकी विशुद्धिके लिये अंजलिमें जल लेकर मेरा ध्यान करके ग्यारह बार शिव-मन्त्रका जप करके उस जलसे अभिषेक करना चाहिये। पाप-शोधनके लिये एक सौ आठ बार मन्त्रका जप करके स्नान करना चाहिये; यह सभी तीर्थोंका फल देनेवाला, सभी पापोंको दूर करनेवाला तथा कल्याणकारक है। सन्ध्योपासनके छूट जानेपर मनुष्यको एक सौ आठ बार मन्त्रका जप करना चाहिये। सुअर, चाण्डाल, दुर्जन तथा कुक्कुटका स्पर्श किया हुआ अन्न नहीं खाना चाहिये और खा लेनेपर एक सौ आठ बार मन्त्रका जप करना चाहिये ॥ २१३-२१६ ॥

ब्रह्महत्याविशुद्धवर्थ जपेल्लक्षायुतं नरः। 
पातकानां तदर्ध स्यान्नात्र कार्या विचारणा॥ २१७

उपपातकदुष्टानां तदर्ध परिकीर्तितम। 
शेषाणामपि पापानां जपेत्पञ्चसहस्त्रकम्‌॥ २१८

आत्मबोधपरं गुह्यूं शिवबोधप्रकाशकम्‌। 
शिव: स्यात्स जपेन्मन्त्रं पज्चलक्षमनाकुल: ॥ २१९

पञ्चवायुजयं भद्रे प्राणोति मनुजः सुखम्‌। 
जपेच्च पञ्चलक्षं तु विगृहीतेन्द्रियः शुचि: ॥ २२०

पञ्चेन्द्रियाणां विजयो भविष्यति वरानने। 
ध्यानयुक्तो जपेद्यस्तु पञ्चलक्षमनाकुलः ॥ २२१

विषयाणां च पञ्चानां जयं प्राप्नोति मानवः । 
चतुर्थं पञ्चलक्षं तु यो जपेद्भक्तिसंयुतः ॥ २२२

ब्रह्महत्याके शोधनके लिये मनुष्यको सौ हजार करोड़ बार मन्त्रका जप करना चाहिये, अन्य बड़े पापोंके शोधनके लिये उसका आधा जप होना चाहिये; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये। उपपातक शोधनके लिये उसका आधा जप करना बताया गया है। शेष [छोटे] पापोंकी शुद्धिके लिये भी पाँच हजार बार मन्त्रको जपना चाहिये जो शान्त होकर आत्मबोध करानेवाले, गोपनीय तथा शिवज्ञानको प्रकाशित करनेवाले इस मन्त्रका पाँच लाख जप करता है, वह [साक्षात्] शिव हो जाता है और हे भद्रे। वह मनुष्य सुखपूर्वक पाँचों वायुपर विजय वशमें करके पाँच लाख मन्त्र जप करता है, वह पाँचों प्राप्त कर लेता है। हे सुमुखि ! जो शुद्ध होकर इन्द्रियोंको वशमें करके पाँच लाख मन्त्र जप करता है, वह पाँचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर लेता है। जो शान्त होकर ध्यानमग्न हो पाँच लाख बार मन्त्रका जप करता है, वह पाँचों विषयोंपर विजय प्राप्त करता है। जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर चौथी बार इस मन्त्रको पाँच लाख बार जपता है, वह इस लोकमें [पृथ्वी आदि] पंचभूतोंपर विजय प्राप्त कर लेता है॥ २१७-२२२ ॥

भूतानामिह पञ्चानां विजयं मनुजो लभेत्। 
चतुर्लक्षं जपेद्यस्तु मनः संयम्य यत्नतः ॥ २२३

सम्यग्विजयमाप्नोति करणानां वरानने। 
पञ्चविंशतिलक्षाणां जपेन कमलानने ॥ २२४

पञ्चविंशतितत्त्वानां विजयं मनुजो लभेत्। 
मध्यरात्रेति निर्वाते जपेदयुतमादरात् ॥ २२५

ब्रह्मसिद्धिमवाप्नोति व्रतेनानेन सुन्दरि । 
जपेल्लक्षमनालस्यो निर्वाते ध्वनिवर्जिते ॥ २२६

मध्यरात्रे च शिवयोः पश्यत्येव न संशयः । 
अन्धकारविनाशश्च दीपस्येव प्रकाशनम् ॥ २२७

हृदयान्तर्बहिर्वापि भविष्यति न संशयः। 
सर्वसम्पत्समृद्धयर्थं जपेदयुतमात्मवान् ॥ २२८

सबीजसम्पुर्ट मन्त्रं शतलक्षं जपेच्छुचिः ।
मत्सायुज्यमवाप्नोति भक्तिमान् किमतः परम् ॥ २२९

हे वरानने। जो [अपने] मनको नियन्त्रित करके प्रयत्नपूर्वक चार लाख बार मन्त्रका जप करता है, वह [मन, बुद्धि आदि] अन्तःकरणोंपर पूर्णरूपसे विजय प्राप्त कर लेता है। हे कमलमुखि पचीस लाख बार मन्त्रके जपसे मनुष्य पचीस तत्त्वोंपर विजय प्राप्त कर लेता है। हे सुन्दरि । जो मध्यरात्रिमें वातरहित स्थानमें आदरपूर्वक दस हजार जप करता है, वह इस व्रतके द्वारा ब्रह्मसिद्धि प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य] आलस्यरहित होकर मध्यरात्रिमें वातशून्य तथा ध्वनि- रहित स्थानमें एक लाख बार जप करता है, वह शिव तथा पार्वतीका दर्शन कर लेता है; इसमें सन्देह नहीं है। उस समय अन्धकारका विनाश हो जाता है और हृदयके बाहर तथा भीतर दीपककी भाँति प्रकाश हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है। आत्मज्ञको सभी प्रकारकी सम्पदा तथा समृद्धिके लिये मन्त्रका दस हजार जप करना चाहिये। [हे देवि!] जो पवित्र तथा भक्तियुक्त होकर बीजके सम्पुटसहित मन्त्रका सौ लाख (एक करोड़) जप करता है, वह मेरा सायुज्य प्राप्त कर लेता है; इससे बढ़कर [फल] क्या हो सकता है।॥ २२३-२२९ ॥ 

इति ते सर्वमाख्यातं पञ्चाक्षरविधिक्रमम् । 
यः पठेच्छृणुयाद्वापि स याति परमां गतिम् ॥ २३०

श्रवयेच्च द्विजाञ्छुद्धान् पञ्चाक्षरविधिक्रमम् । 
दैवे कर्मणि पित्र्ये वा शिवलोके महीयते ॥ २३१

[हे देवि!] मैंने तुम्हें पंचाक्षरमन्त्रके जपकी सम्पूर्ण विधि बता दी। जो इसे पढ़ता अथवा सुनता है, वह परम गति प्राप्त करता है। जो देवकर्म अथवा पितृकर्ममें शुद्ध ब्राह्मणोंको पंचाक्षर विधिके क्रमका श्रवण कराता है, वह शिवलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है॥ २३०-२३१ ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे पञ्चाक्षरमाहात्म्यं नाम पञ्चाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'पंचाक्षरमाहात्म्य' नामक पचासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८५ ॥

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