लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] एक सौ चारवाँ अध्याय
गजानन का प्राकट्य कराने के लिये देवताओं द्वारा भगवान् शिव की स्तुति
ऋषय ऊचुः
कथं विनायको जातो गजवक्त्रो गणेश्वरः ।
कथं प्रभावस्तस्यैवं सूत वक्तुमिहार्हसि ॥ १
ऋषिगण बोले- [हे सूतजी!] गणोंके स्वामी गजानन विनायक कैसे उत्पन्न हुए; उनका प्रभाव कैसा है? इसे आप बताने की कृपा कीजिये ॥ १॥
सूत उवाच
एतस्मिन्नन्तरे देवाः सेन्द्रोपेन्द्राः समेत्य ते।
धर्मविघ्नं तदा कर्तुं दैत्यानामभवन् द्विजाः ॥ २
असुरा यातुधानाश्च राक्षसाः क्रूरकर्मिणः।
तामसाश्च तथा चान्ये राजसाश्च तथा भुवि ॥ ३
अविघ्नं यज्ञदानाद्यैः समभ्यर्च्य महेश्वरम्।
ब्रह्माणं च हरिं विप्रा लब्धेप्सितवरा यतः ॥ ४
ततोऽस्माकं सुरश्रेष्ठाः सदाविजयसम्भवः ।
तेषां ततस्तु विघ्नार्थमविघ्नाय दिवौकसाम्॥ ५
पुत्रार्थं चैव नारीणां नराणां कर्मसिद्धये।
विघ्नेशं शङ्करं स्त्रष्टुं गणपं स्तोतुमर्हथ ॥ ६
सूतजी बोले- हे द्विजो। इसी बीच इन्द्र तथ उपेन्द्रसहित देवतागण एकत्र होकर दैत्योंके धर्ममें विघ्न करनेके लिये प्रवृत्त हुए। हे विप्रो। [वे विचार करने लगे कि] असुर, यातुधान, क्रूर कर्मवाले राक्षस तथा पृथ्वीपर जो अन्य तमोगुणी तथा रजोगुणी लोग हैं, उन्होंने अविघ्नतापूर्वक कार्य करनेहेतु यज्ञ-दान आदिके द्वारा महेश्वर, ब्रह्मा तथा विष्णुकी सम्यक् पूजा करके अभीष्ट वर प्राप्त कर लिया है; अतः हे सुरश्रेष्ठो। सर्वदा हम लोगोंका पराभव हो रहा है। इसलिये उनके विश्नके लिये, देवताकि ओवनके लिये, स्त्रियोंको पुत्रप्राप्तिके लिये तथा पुरुषोंके कर्मकी सिद्धिके लिये आप सभीलोग विघ्नेश गणपतिके सृजनहेतु शंकरकी स्तुति कीजिये ॥ २-६ ॥
इत्युक्त्वान्योऽन्यमनघं तुष्टुवुः शिवमीश्वरम्।
नमः सर्वात्मने तुभ्यं सर्वज्ञाय पिनाकिने ॥ ७
अनधाय विरिञ्चाय देव्याः कार्यार्थदायिने।
अकायायार्थकायाय हरेः कायापहारिणे ॥ ८
कायान्तस्थामृताधारमण्डलावस्थिताय ते।
कृतादिभेदकालाय कालवेगाय ते नमः॥ ९
कालाग्निरुद्ररूपाय धर्माद्यष्टपदाय च।
कालीविशुद्धदेहाय कालिकाकारणाय ते ॥ १०
कालकण्ठाय मुख्याय वाहनाय वराय ते।
अम्बिकापतये तुभ्यं हिरण्यपतये नमः ॥ ११
आपस में ऐसा कहकर वे [देवता] निष्याप ईश्वर शिवकी स्तुति करने लगे-आप सर्वात्मा, सर्वज्ञ तथा पिनाकधारीको नमस्कार है। निष्पाप, विशेष रूपसे ब्रह्माण्डकी रचना करनेवाले, देवी [पार्वती] को तपस्याका फल प्रदान करने वाले, कायारहित, प्रयोजनके लिये शरीर धारण करनेवाले, विष्णुकी कायाका अपहरण करनेवाले, देहके भीतर अमृताधार-मण्डलमें विराजमान रहनेवाले आप [शिव] को नमस्कार है। कृत (सत्ययुग) आदि कालभेदोंको उत्पन्न करनेवाले तथा कालवेग आप [शिव] को नमस्कार हैकालाग्निके समान भयंकर रूपवाले, धर्म आदि आठ पदों (स्थानों) वाले, महाकालीको विशुद्ध (गौर) देह करनेवाले तथा कालिका (चण्डिका) की उत्पत्ति करनेवाले आप [शिव] को नमस्कार है कालकण्ठ, प्रधानस्वरूप, वाहन (कर्मफलकी प्राप्ति करानेवाले) तथा सर्वश्रेष्ठ आप [शिव]-को नमस्कार है। अम्बिकापति तथा हिरण्यपति आप [शिव]- को नमस्कार है॥ ७-११॥
हिरण्यरेतसे चैव नमः शर्वाय शूलिने।
कपालदण्डपाशासिचर्माङ्कशधराय च ॥ १२
पतये हैमवत्याश्च हेमशुक्लाय ते नमः ।
पीतशुक्लाय रक्षार्थ सुराणां कृष्णवर्मने ॥ १३
पञ्चमाय महापञ्चयज्ञिनां फलदाय च।
पञ्चास्यफणिहाराय पञ्चाक्षरमयाय ते ॥ १४
पञ्चधा पञ्चकैवल्यदेवैरर्चितमूर्तये ।
पञ्चाक्षरदृशे तुभ्यं परात्परतराय ते ॥ १५
हिरण्यरेता, शर्व, शूली और कपाल-दण्ड-पाश- असि-चर्म-अंकुश धारण करनेवाले [शिव] को नमस्कार है। पार्वती पति, सुवर्णके समान शुक्ल (शुद्ध), [अर्धनारीश्वररूप होनेके कारण] पीत शुक्ल वर्णवाले तथा देवताओंकी रक्षाके लिये अग्निरूपवाले आप [शिव]-को नमस्कार है। तुरीयातीत, [देवयज्ञ आदि) पंच महायज्ञोंके कर्ताओंको फल देनेवाले, पंचमुख सर्पको हारके रूपमें धारण करनेवाले तथा पंचाक्षर [मन्त्र] मय आप [शिव]- को नमस्कार है। पाँच प्रकारसे [रुद्र आदि पंच कैवल्य देवोंद्वारा पूजित मूर्तिवाले, पंचाक्षर मन्त्ररूप दृष्टिवाले तथा परात्परतर आप [शिव] को नमस्कार है ॥ १२-१५ ॥
षोडशस्वरवज्राङ्गवक्त्रायाक्षयरूपिणे ।
कादिपञ्चकहस्ताय चादिहस्ताय ते नमः ॥ १६
टादिपादाय रुद्राय तादिपादाय ते नमः।
पादिमेण्ड्राय यद्यङ्गधातुसप्तकधारिणे ॥ १७
सान्तात्मरूपिणे साक्षात्क्षदन्तक्रोधिने नमः ।
लवरेफहळाङ्गाय निरङ्गाय च ते नमः ॥ १८
सर्वेषामेव भूतानां हृदि निःस्वनकारिणे।
भुवोरन्ते सदासद्भिर्दृष्टायात्यन्तभानवे ॥ १९
भानुसोमाग्निनेत्राय परमात्मस्वरूपिणे ।
गुणत्रयोपरिस्थाय तीर्थपादाय ते नमः ॥ २०
तीर्थतत्त्वाय साराय तस्मादपि पराय ते।
ऋग्यजुः सामवेदाय ओङ्काराय नमो नमः ॥ २१
[ अकार आदि] सोलह स्वरमय वज्रके समान [ अभेद्य] अंगों तथा मुखवाले, अक्षय रूपवाले, 'क' से प्रारम्भ होनेवाले पाँच अक्षररूप हाथवाले, “च' आदि [पाँच वर्णरूप] हाथवाले, 'ट' आदि [पाँच वर्णरूप] पादवाले, 'त' आदि [पाँच वर्णरूप] पादवाले, 'प' आदि पाँच वर्णरूप] मेद्र (लिंग) वाले, 'य' कारमय अंगसम्बन्धी सात धातुओंको धारण करनेवाले आप रुद्रको नमस्कार है। श-ष-स वर्णमय आत्मरूपवाले तथा 'क्ष' कारमध प्रलयरूप क्रोधवाले [शिवको] नमस्कार है। ल, व, रेफ,ह, ळ-पाँच वर्णरूप हृदयोंवाले तथा निरंग आप (शिव]-को नमस्कार है सभी प्राणियों के हृदयमें अनाहत ध्वनि करनेवाले, भक्तोंके द्वारा ध्रुवोंके मध्य सदा दिखायी देनेवाले, अत्यन्त भानु (सर्वप्रकाशक), सूर्य-चन्द्र-अग्निरूप नेत्रवाले, परमात्म-स्वरूपी, तीनों गुणोंसे ऊपर स्थित तथा तीर्थरूप पादवाले आप [शिव] को नमस्कार है तीर्थ रूप तत्त्ववाले, सारस्वरूप (तीर्थफलरूप) और उस तीर्थफलके भी अधिष्ठाता आप [शिव]-को नमस्कार है। ऋऋकृ-यजुः-सामवेदस्वरूप तथा ओंकारस्वरूपः [शिव] को बार-बार नमस्कार है ॥ १६-२१॥
ओङ्कारे त्रिविधं रूपमास्थायोपरिवासिने ।
पीताय कृष्णवर्णाय रक्तायात्यन्ततेजसे ॥ २२
स्थानपञ्चकसंस्थाय पञ्चधाण्डबहिः क्रमात्।
ब्रह्मणे विष्णवे तुभ्यं कुमाराय नमो नमः ॥ २३
अम्बायाः परमेशाय सर्वोपरिचराय ते।
मूलसूक्ष्मस्वरूपाय स्थूलसूक्ष्माय ते नमः ॥ २४
सर्वसङ्कल्पशून्याय सर्वस्माद्रक्षिताय ते।
आदिमध्यान्तशून्याय चित्संस्थाय नमो नमः ॥ २५
यमाग्निवायुरुद्राम्बुसोमशक्रनिशाचरैः।
दिङ्मुखे दिङ्मुखे नित्यं सगणैः पूजिताय ते ॥ २६
अथ शृणु भगवन् स्तवच्छलेन कथितमजेन्द्रमुखैः सुरासुरेशैः ।
मखमदनयमाग्निदक्षयज्ञ-क्षपणविचित्रविचेष्टितं क्षमस्व ॥ २८
सूत उवाच
यः पठेत्तु स्तवं भक्त्या शक्राग्निप्रमुखैः सुरैः ।
कीर्तितं श्रावयेद्विद्वान् स याति परमां गतिम् ।। २९
[ब्रह्मा, विष्णु, हर] तीन प्रकारके रूपको धारण करके प्रणवानन्तनादमें तुरीयरूपसे स्थित रहनेवाले, पीत-कृष्ण-रक्त वर्णवाले, अपरिमित तेजवाले, ब्रह्माण्डके बाहर क्रमसे पाँच प्रकारसे [जल आदि] पाँच स्थानोंमें स्थित रहनेवाले और ब्रह्मा-विष्णु-कुमारस्वरूप आप [शिव] को बार-बार नमस्कार है अम्बिकाके परमेश्वर तथा सबके ऊपर विचरण करनेवाले आप [शिव को नमस्कार है। मूल सूक्ष्म स्वरूपवाले तथा स्थूल-सूक्ष्मस्वरूप आप [शिव]-को नमस्कार है समस्त संकल्पोंसे रहित, सबसे रक्षित (गुप्त), आदि-मध्य-अन्तसे रहित तथा ज्ञानमें स्थित आप [शिव] को बार-बार नमस्कार है गणोंसहित यम, अग्नि, वायु, रुद्र, वरुण, सोम, इन्द्र तथा निशाचरोंके द्वारा दिशाओं-विदिशाओंमें नित्य पूजित आप [शिव] को नमस्कार है। सभी लोकोंमें तथा सभी मागोंमें सर्वदा पूजित आपको नमस्कार है। रुद्र, रुद्रनील, कद्रुद्र, प्रचेता, महेश्वर, धीर साक्षात् आप शिवको नमस्कार है हे भगवन्! सुनिये; देवताओं तथा दैत्योंके स्वामी ब्रह्मा-इन्द्र आदिने मख, कामदेव, यम, अग्नि तथा दक्षयज्ञके विध्वंसरूपी आपके विचित्र क्रिया-कलापका वर्णन स्तुतिके बहाने किया है; आप क्षमा करें सूतजी बोले--जो दिद्वान् [व्यक्ति] इन्द्र, अग्नि आदि प्रधान देवताओंके द्वारा किये गये इस स्तवको भक्तिपूर्वक पढ़ता है अथवा [दूसरोंको] सुनाता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है॥ २२-२९॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे देवस्तुतिर्नाम चतुरधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०४॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'देवस्तुति' नामक एक सौ चारवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १०४ ॥
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