लिंग पुराण : सदाचार तथा शौचाचारका निरूपण, द्रव्यशुद्धि, अशौचप्रवृत्ति एवं स्त्रीधर्मविवेचन | Linga Purana: Presentation of good conduct and cleanliness, purification of liquid, uncleanliness and discussion of women's religion

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] नवासीवाँ अध्याय

सदाचार तथा शौचाचारका निरूपण, द्रव्यशुद्धि, अशौचप्रवृत्ति एवं स्त्री धर्म विवेचन

सूत उवाच

अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि शौचाचारस्य लक्षणम्। 
यदनुष्ठाय शुद्धात्मा परेत्य गतिमाप्नुयात् ॥ १

ब्रह्मणा कथितं पूर्व सर्वभूतहिताय वै। 
सङ्क्षेपात्सर्ववेदार्थं सञ्चयं ब्रह्मवादिनाम् ॥ २

उदयार्थं तु शौचानां मुनीनामुत्तमं पदम् । 
यस्तत्राथाप्रमत्तः स्यात्स मुनिर्नावसीदति ॥ ३

सूतजी बोले- [हे ऋषियो !] अब मैं इसके बाद शौचाचारका लक्षण बताऊँगा, जिसे करके शुद्ध अन्तःकरणवाला [व्यक्ति] परलोकमें जाकर [उत्तम] गति प्राप्त करता है। पूर्वकालमें ब्रह्माने सभी प्राणियोंक कल्याणके लिये इसे कहा था। यह संक्षिप्त रूपमें सभी वेदोंका सार है, ब्रह्मवादियोंको निधि है, आचरणके उत्थानके लिये उपयोगी है और मुनियोंका उत्तम पद है। जो इसे करनेमें सदा सावधान रहता है, वह मुनि है और वह दुःखित नहीं होता है॥ १-३॥

मानावमानी द्वावेतौ तावेवाहुर्विषामृते। 
अवमानोऽमृतं तत्र सन्मानो विषमुच्यते ।। ४

गुरोरपि हिते युक्तः स तु संवत्सरं वसेत्। 
नियमेष्वप्रमत्तस्तु यमेषु च सदा भवेत् ॥ ५

प्राप्यानुज्ञां ततश्चैव ज्ञानयोगमनुत्तमम् । 
अविरोधेन धर्मस्य चरेत पृथिवीमिमाम् ॥ ६

मान तथा अपमान- ये विष तथा अमृत कहे गये हैं। उनमें अपमान अमृत तथा सम्मान विष कहा जाता है। शिष्यको चाहिये कि गुरुके हितमें संलग्न रहकर एक वर्षतक उनके पास निवास करे, नियमों तथा यमोंमें सदा सावधान रहे और उनसे उत्तम ज्ञानयोग ग्रहण करके पुनः आज्ञा लेकर धर्मका विरोध न करते हुए इस पृथ्वीपर विचरण करे ॥ ४-६॥

चक्षुःपूतं चरेन्मार्गं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्।
सत्यपूतं वदेद्वाक्यं मनःपूतं समाचरेत् ॥ ७

मत्स्यगृह्यस्य यत्पापं षण्मासाभ्यन्तरे भवेत्।
एकाहं तत्समं ज्ञेयमपूतं यज्जलं भवेत् ॥ ८

अपूतोदकपाने तु जपेच्च शतपञ्चकम् ।
अघोरलक्षणं मन्त्रं ततः शुद्धिमवाप्नुयात् ॥ ९

अथवा पूजयेच्छम्भु घृतस्नानादिविस्तरैः ।
त्रिधा प्रदक्षिणीकृत्य शुद्धयते नात्र संशयः ॥ १०

भलीभाँति नेत्रसे देखकर मार्गपर चलना चाहिये, वस्त्रसे पवित्र किये गये अर्थात् छाने हुए जलको पीना चाहिये, सत्यसे पवित्र वचन बोलना चाहिये और मनसे पवित्र प्रतीत होनेवाले आचरणको करना चाहिये। मत्स्य ग्रहण करनेवालेको छः महीनोंमें जो पाप लगता है, उसे एक दिन अपवित्र जलके पानसे होनेवाले पापके बराबर जानना चाहिये। अपवित्र जलका पान कर लेनेपर पाँच सौ बार अघोर मन्त्रका जप करना चाहिये; उससे व्यक्ति शुद्धि प्राप्त कर लेता है; अथवा घृतस्नान आदि विस्तृत उपचारोंसे शिवको पूजा करनी चाहिये, इसके बाद उनकी तीन बार प्रदक्षिणा करके वह शुद्ध हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है॥ ७-१०॥

आतिथ्यश्राद्धयज्ञेषु न गच्छेद्योगवित्क्वचित् । 
एवं ह्यहिंसको योगी भवेदिति विचारितम् ॥ ११

वह्नौ विधूमेऽत्यङ्गारे सर्वस्मिन् भुक्तवज्जने । 
चरेत्तु मतिमान् भैक्ष्यं न तु तेष्वेव नित्यशः ॥ १२

अध्धैनमवमन्यन्ते परे परिभवन्ति च। 
तथा युक्तं चरेद्वैक्ष्यं सतां धर्ममदूषयन् ॥ १३

भैक्ष्यं चरेद्वनस्थेषु यायावरगृहेषु च। 
श्रेष्ठा तु प्रथमा हीयं वृत्तिरस्योपजायते ॥ १४

अत ऊर्ध्व गृहस्थेषु शीलीनेषु चरेद् द्विजाः । 
श्रद्दधानेषु दान्तेषु श्रोत्रियेषु महात्मसु ॥ १५

अत ऊर्ध्वं पुनश्चापि अदुष्टापतितेषु च। 
भैक्ष्यचयां हि वर्णेषु जघन्या वृत्तिरुच्यते ॥ १६

योगवेत्ताको आतिथ्य, श्राद्ध तथा [सोम आदि] यज्ञमें कहीं नहीं जाना चाहिये; इस प्रकार योगी अहिंसक हो सकता है-यह भलीभाँति निर्णीत बात है। बुद्धिमान्‌को चाहिये कि अग्निके धूमरहित तथा अंगाररहित हो जानेपर अर्थात् अग्निके शीतल हो जानेपर और सभीलोगोंके भोजन कर चुकनेपर (उस घरमें] भिक्षा प्राप्त करे एवं उन घरोंमें प्रतिदिन भिक्षा ग्रहण न करे, अन्यथा दूसरे लोग अपमान करेंगे तथा निन्दा करेंगे। अतः सज्जनोंके धर्मको दूषित न करते हुए उचित भिक्षा प्राप्त करनी चाहिये वनमें रहनेवालोंके यहाँ तथा यायावरोंके घरोंमें भिक्षा माँगनी चाहिये। यह योगीकी सर्वश्रेष्ठ वृत्ति होती है। हे ब्राह्मणो। इसके बाद श्रेष्ठ आचारवाले, दानशील, श्रद्धालु, श्रोत्रिय तथा महात्मा गृहस्थोंके यहाँ भिक्षा प्राप्त करनी चाहिये। इसके बाद दुष्टतारहित तथा अपतित लोगोंके यहाँ भी भिक्षा ग्रहण करे, किंतु सभी वर्षोंके यहाँ भिक्षा माँगना जघन्य वृत्ति कही जाती है ॥ ११-१६ ॥

भैक्ष्यं यवागूस्तक्रं वा पयो यावकमेव च। 
फलमूलादि पक्वं वा कणपिण्याकसक्तवः ॥ १७

इत्येते वै मया प्रोक्ता योगिनां सिद्धिवर्धनाः । 
आहारास्तेषु सिद्धेषु श्रेष्ठं भैक्ष्यमिति स्मृतम् ॥ १८

अब्बिन्दु यः कुशाग्रेण मासि मासि समश्नुते। 
न्यायतो यश्चरे ट्रैक्ष्यं पूर्वोक्तात्स विशिष्यते ॥ १९

जरामरणगर्भेभ्यो भीतस्य नरकादिषु। 
एवं दाययते तस्मात्तद्वैश्यमिति संस्मृतम् ॥ २०

दधिभक्षाः पयोभक्षा ये चान्ये जीवक्षीणकाः । 
सर्वे ते भैक्ष्यभक्षस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ २१

भस्मशायी भवेन्नित्यं भिक्षाचारी जितेन्द्रियः ।
य इच्छेत्परमं स्थानं व्रतं पाशुपतं चरेत् ॥ २२

यवागू, मट्ठा, दूध, यावक (जौसे बना भोजन), पके हुए फल-मूल, टूटे हुए अनाज, तिल और सत्तू भिक्षामें ग्रहण करना चाहिये। [हे ऋषियो।] मैंने योगियोंकी सिद्धिकी वृद्धि करनेवाले उन आहारोंको बता दिया; उनके प्राप्त हो जानेपर इसे श्रेष्ठ भिक्षा कहा गया है जो [व्यक्ति] प्रत्येक महीनेमें कुशाके अग्र भागसे जलबिन्दु ग्रहण करता है और न्याय पूर्वक भिक्षाटन करता है; वह पूर्वमें कहे गये [भिक्षार्थी] से श्रेष्ठ होता है। वृद्धावस्था, मृत्यु, गर्भवास तथा नरक आदिसे भयभीत संन्यासीकी भिक्षा दायभागके समान है, इसीलिये इसे भैक्ष्य कहा जाता है जो दही तथा दूधका सेवन करनेवाले हैं और जो अन्य लोग [कृच्छ्र आदि व्रतोंके द्वारा] शरीरको क्षीण करनेवाले हैं; वे सब भिक्षावृत्तिवाले की सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हैं। जो परम पद चाहता है, उसे नित्य भस्ममें शयन करना चाहिये, भिक्षाटन करना चाहिये, इन्द्रियोंको वशमें रखना चाहिये और पाशुपतव्रत करना चाहिये ॥ १७-२२ ॥

योगिनां चैव सर्वेषां श्रेष्ठं चान्द्रायणं भवेत् । 
एकं द्वे त्रीणि चत्वारि शक्तितो वा समाचरेत् ॥ २३

अस्तेयं ब्रह्मचर्यं च अलोभस्त्याग एव च। 
व्रतानि पञ्च भिक्षूणामहिंसा परमा त्विह ।। २४

अक्रोधो गुरुशुश्रूषा शौचमाहारलाघवम् । 
नित्यं स्वाध्याय इत्येते नियमाः परिकीर्तिताः ॥ २५

बीजयोनिगुणा वस्तुबन्धः कर्मभिरेव च। 
यथा द्विप इवारण्ये मनुष्याणां विधीयते ॥ २६

चान्द्रायणव्रत सभी योगियोंके लिये उत्तम होता है। [अपनी] शक्तिके अनुसार इसे एक, दो, तीन अथवा चार बार करना चाहिये। भिक्षुकोंके लिये ये पाँच व्रत हैं-अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, अलोभ, त्याग और परम अहिंसा। क्रोध न करना, गुरुको सेवा, शुद्धता, आहारकी अल्पता और प्रतिदिन स्वाध्याय-वे नियम बताये गये हैं माता-पितासे प्राप्त संस्कार, अपने स्वभाव, धन आदि तथा संचितकर्म-इन सबसे देवताओंके द्वारा मनुष्य वनमें दुर्ग्रह हाथीकी भाँति बन्धनग्रस्त हो जाता है ॥ २३-२६ ॥ 

देवैस्तुल्याः सर्वयज्ञक्रियास्तु यज्ञाज्जाप्यं ज्ञानमाहुश्च जाप्यात् ।
ज्ञानाद्धयानं सङ्गरागादपेतं तस्मिन् प्राप्ते शाश्वतस्योपलम्भः ।। २७

दमः शमः सत्यमकल्मषत्वं मौनं च भूतेष्वखिलेषु चार्जवम् ।
अतीन्द्रियं ज्ञानमिदं तथा शिवं प्राहुस्तथा ज्ञानविशुद्धबुद्धयः ।। २८

समाहितो ब्रह्मपरोऽप्रमादी शुचिस्तथैकान्तरतिर्जितेन्द्रियः ।
समाप्नुयाद्योगमिमं महात्मा महर्षयश्चैवमनिन्दितामलाः॥ २९

प्राप्यतेऽभिमतान् देशानङ्कुशेन निवारितः । 
एतन्मार्गेण शुद्धेन दग्धबीजो ह्यकल्मषः ॥ ३०

सदाचाररताः शान्ताः स्वधर्मपरिपालकाः । 
सर्वान् लोकान् विनिर्जित्य ब्रह्मलोकं व्रजन्ति ते ।। ३१

पितामहेनोपदिष्टो धर्मः साक्षात्सनातनः । 
सर्वलोकोपकारार्थ शृणुध्वं प्रवदामि वः ॥ ३२

सभी यज्ञ-क्रियाएँ देवतुल्य (स्वर्ग प्राप्त करानेवाली) हैं। यज्ञसे श्रेष्ठ जपको तथा जपसे श्रेष्ठ ज्ञानको बताया गया है; किंतु आसक्ति तथा रागसे रहित ध्यान ज्ञानसे भी श्रेष्ठ है; उसके प्राप्त हो जानेसे शाश्वत पदकी प्राप्ति हो जाती है ज्ञानसे विशुद्ध बुद्धिवाले लोगोंने इन्द्रियोंके दमन, मनपर नियन्त्रण, सत्य, पापहीनता, मौन, समस्त प्राणियोंक प्रति सरलता और अतीन्द्रिय ज्ञानको शिवस्वरूप बताया है एकाग्रचित्तवाला, ब्रह्मपरायण, प्रमादरहित, शुद्ध, एकान्तका सेवन करनेवाला तथा जितेन्द्रिय महात्मा ही इस [पाशुपत] योगको प्राप्त कर सकता है ऐसा निष्कलंक तथा निष्पाप महर्षिगण कहते हैं इस शुद्ध योगमार्गरूपी अंकुशसे नियन्त्रित व्यक्ति दग्धबीजवाला तथा पापरहित होकर अभीष्ट फलोंको प्राप्त करता है जो सदाचारपरायण, शान्त (अन्तःकरणकी वृत्तियोंको निगृहीत कर लेनेवाले) तथा अपने धर्मका पालन करनेवाले हैं, वे सभी लोकोंको जीतकर ब्रह्मलोक चले जाते हैं साक्षात् पितामहने सभी लोकोंके उपकारके लिये सनातनधर्मका उपदेश किया था; मैं आपलोगोंको बता रहा हूँ, उसे सुनिये ॥ २७-३२ ॥

गुरूपदेशयुक्तानां वृद्धानां क्रमवर्तिनाम्। 
अभ्युत्थानादिकं सर्वं प्रणामं चैव कारयेत् ॥ ३३

अष्टाङ्गप्रणिपातेन त्रिधा न्यस्तेन सुव्रताः । 
त्रिःप्रदक्षिणयोगेन वन्द्यो वै ब्राह्मणो गुरुः ॥ ३४

ज्येष्ठान्येऽपि च ते सर्वे वन्दनीया विजानता। 
आज्ञाभङ्गं न कुर्वीत यदीच्छेत्सिद्धिमुत्तमाम् ॥ ३५

धातुशून्यबिलक्षेत्रक्षुद्रमन्त्रोपजीवनम् ।
विषग्रहविडम्बादीन् वर्जयेत्सर्वयत्नतः ॥ ३६

कैतवं वित्तशाठ्यं च पैशुन्यं वर्जयेत्सदा। 
अतिहासमवष्टम्भं लीलास्वेच्छाप्रवर्तनम् ॥ ३७

वर्जयेत्सर्वयत्नेन गुरूणामपि सन्निधौ। 
तद्वाक्यप्रतिकूलं च अयुक्तं वै गुरोर्वचः ॥ ३८

गुरुके उपदेशसे युक्त तथा नियमोंका पालन करनेवाले वृद्धजनोंका स्वागत आदि तथा प्रणाम-यह सब करना चाहिये। हे सुव्रतो! तीन बार प्रदक्षिणा करके आठों अंगोंको पृथ्वीसे स्पर्श करके तीन बार ब्राह्मण गुरुको प्रणाम करना चाहिये। बुद्धिमान्‌को चाहिये कि जो अन्य ज्येष्ठ लोग हैं, उन सबको प्रणाम करे। यदि कोई उत्तम सिद्धिको कामना करता है, तो उनकी आज्ञाका उल्लंघन न करे धातुवाद, नास्तिकवाद, ऊसर स्थानमें निवास, क्षुद्र-मन्त्रोंका उपयोग, सर्पोको पकड़ना आदि निन्दनीय कार्योंका पूर्ण प्रयत्नसे परित्याग करना चाहिये। धूर्तता, धनकी कृपणता तथा पिशुनता (परनिन्दा) का सदा त्याग करना चाहिये। गुरुजनोंके सान्निध्यमें अत्यधिक हँसना, अशिष्टता तथा मनमाना कार्य करना-इन सबका पूर्ण प्रयत्नसे परित्याग करना चाहिये। गुरुकी आज्ञाके प्रतिकूल आचरण नहीं करना चाहिये और पूर्ण प्रयत्नपूर्वक कभी भी उनका अनिष्ट (बुरा) नहीं सोचना चाहिये ॥ ३३-३८ ॥

न वदेत्सर्वयत्नेन अनिष्टं न स्मरेत्सदा। 
यतीनामासनं वस्त्रं दण्डाद्यं पादुके तथा ॥ ३९

माल्यं च शयनस्थानं पात्रं छायां च यत्नतः । 
यज्ञोपकरणाङ्गं च न स्पृशेद्वै पदेन च ॥४०

देवद्रोहं गुरुद्रोहं न कुर्यात्सर्वयत्नतः । 
कृत्वा प्रमादतो विप्राः प्रणवस्यायुतं जपेत् ॥ ४१

देवद्रोहगुरुद्रोहात्कोटिमात्रेण शुध्यति । 
महापातकशुद्धयर्थ तथैव च यथाविधि ।। ४२

पातकी च तदर्धेन शुध्यते वृत्तवान् यदि। 
उपपातकिनः सर्वे तदर्धेनैव सुव्रताः ॥ ४३

सन्ध्यालोपे कृते विप्रः त्रिरावृत्त्यैव शुद्धयति । 
आह्निकच्छेदने जाते शतमेकमुदाहृतम् ।। ४४

लङ्घने समयानां तु अभक्ष्यस्य च भक्षणे। 
अवाच्यवाचने चैव सहस्त्राच्छुद्धिरुच्यते ।। ४५

काकोलूककपोतानां पक्षिणामपि घातने। 
शतमष्टोत्तरं जप्त्वा मुच्यते नात्र संशयः ।। ४६

यतियों (संन्यासियों) के आसन, वस्त्र, दण्ड, खड़ाऊँ, माला, शयनस्थान, पात्र, छाया तथा यज्ञके उपकरणोंको पैरसे कभी नहीं छूना चाहिये। हे विप्रो ! देवताओं तथा गुरुजनोंसे द्रोह न हो, इसका पूर्ण प्रयास करना चाहिये; प्रमादवश द्रोह कर लेनेपर प्रणवका दस हजार जप करना चाहिये। [जानबूझकर] गुरुद्रोह तथा देवद्रोह करनेपर एक करोड़ जपके द्वारा [व्यक्ति] शुद्ध होता है। महापातकोंसे शुद्धिके लिये भी वहीं विधि है, जो इसके लिये है। पातकी यदि चरित्रवान् है, तो वह उसके आधे जपसे शुद्ध हो जाता है। हे सुव्रतो! सभी उपपातकी उसके भी आधे जपसे शुद्ध हो जाते हैं सन्ध्यावन्दनका लोप करनेपर विप्र इसकी तीन आवृत्ति करके शुद्ध हो जाता है और दैनिक कृत्यका उल्लंघन होनेपर एक सौ बार जप करना बताया गया है [नियत] समयका उल्लंघन करनेपर, अभक्ष्य [पदार्थ) का भक्षण करने पर और न बोलनेयोग्य वचन बोलनेपर एक हजार जपसे शुद्धि कही जाती है ॥३९- ४५ ॥

यः पुनस्तत्त्ववेत्ता च ब्रह्मविद् ब्राह्मणोत्तमः । 
स्मरणाच्छुद्धिमाप्नोति नात्र कार्या विचारणा ।। ४७

नैवमात्मविदामस्ति प्रायश्चित्तानि चोदना। 
विश्वस्यैव हि ते शुद्धा ब्रह्मविद्याविदो जनाः ॥ ४८

योगध्यानैकनिष्ठाश्च निर्लेपाः काञ्चनं यथा। 
शुद्धानां शोधनं नास्ति विशुद्धा ब्रह्मविद्यया ॥ ४९

उद्धृतानुष्णफेनाभिः पूताभिर्वस्त्रचक्षुषा। 
अद्धिः समाचरेत्सर्वं वर्जयेत्कलुषोदकम् ॥ ५०

गन्धवर्णरसैर्दुष्टमशुचिस्थानसंस्थितम् ।
पङ्काश्मदूषितं चैव सामुद्रं पल्वलोदकम् ॥ ५१

कौआ, उल्लू तथा कबूतर पक्षियोंका वध करनेपर एक सौ आठ बार जप करनेसे [पापसे] मुक्ति हो जाती है; इसमें सन्देह नहीं है। जो तत्त्वज्ञानी, ब्रह्मवेत्ता तथा उत्तम ब्राह्मण है, वह तो केवल [प्रणवके] स्मरणसे शुद्धि प्राप्त कर लेता है; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये आत्मज्ञानियोंके लिये प्रायश्चित्त होते ही नहीं है, ब्रह्मविद्याको जाननेवाले लोग विश्वके कल्याणके प्रेरक होते हैं, अतः वे [स्वतः] शुद्ध हैं। योगध्यानमें एकनिष्ठ वे लोग निर्लेप (शुद्ध) होते हैं, जैसे सुवर्ण शुद्ध होता है। शुद्ध लोगोंका शोधन नहीं होता है; वे तो ब्रह्मविद्याके द्वारा [पहले ही शुद्ध होते हैं  नदी आदिसे ग्रहण किये गये, वस्त्र तथा नेत्रसे [भलीभाँति] पवित्र, शीतल तथा फेनरहित जलसे सभी अनुष्ठान करना चाहिये; अशुद्ध जलका प्रयोग नहीं करना चाहिये। गन्ध-रंग-रससे दूषित जल, अपवित्र स्थानमें रखे हुए जल, कीचड़ तथा कंकड़से दूषित जल, समुद्री जल, तालाबके जल, शैवालयुक्त जल और अन्य दोषोंसे विकृत जलका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ॥ ४६-५१ ॥

सशैवालं तथान्यैर्वा दोषैर्दुष्टं विवर्जयेत् ।
वस्त्रशौचान्वितः कुर्यात्सर्वकार्याणि वै द्विजाः ॥ ५२

नमस्कारादिकं सर्वं गुरुशुश्रूषणादिकम् ।
वस्त्रशौचविहीनात्मा ह्यशुचिर्नात्र संशयः ॥ ५३

देवकार्योपयुक्तानां प्रत्यहं शौचमिष्यते।
इतरेषां हि वस्त्राणां शौचं कार्य मलागमे ॥ ५४

वर्जयेत्सर्वयत्नेन वासोऽन्यैर्विधृतं द्विजाः ।
कौशेयाविकयो रूक्षैः क्षौमाणां गौरसर्षपैः ।। ५५

श्रीफलैरंशुपट्टानां कृतपानामरिष्टकैः।
चर्मणां विदलानां च वेत्राणां वस्त्रवन्मतम् ॥ ५६

वल्कलानां तु सर्वेषां छत्रचामरयोरपि।
चैलवच्छौचमाख्यातं ब्रह्मविद्भिर्मुनीश्वरैः ॥ ५७

भस्मना शुद्धयते कांस्यं क्षारेणायसमुच्यते।
ताम्रमम्लेन वै विप्रास्त्रपुसीसकयोरपि ॥ ५८

हैममस्द् शुभं पात्र रौप्यपात्रं द्विजोत्तमा:।
मण्यश्मशड्डमुक्तानां शौच॑ तैजसवत्स्मृतम्‌॥ ५९

अग्नेपां च संयोगादत्यन्तोपहतस्थ च।
रसानामिह सर्वेषां शुद्धिरुत्प्लवनं स्मृतम्‌॥६०

हे द्विजो! वस्त्रकी शुद्धिसे युक्त होकर नमस्कार आदि तथा गुरुसेवा आदि समस्त कार्य करने चाहिये; वस्त्रशुद्धिसे रहित व्यक्ति निश्चित रूपसे अपवित्र रहता है; इसमें सन्देह नहीं है। देवकार्यमें उपयोग किये जानेवाले वस्त्रोंकी शुद्धि प्रतदिन आवश्यक है; मैले हो जानेपर अन्य बस्त्रोंकी शुद्धि करनी चाहिये। हे द्विजो! दूसरोंके द्वारा धारण किये गये वस्त्रका पूर्ण प्रयलसे त्याग करना चाहिये रेशमी तथा ऊनी वस्त्रोंकी शुद्धि [रीठे आदि] रुक्ष पदार्थोसे, क्षौम (दुकूल) वस्त्रोंकी शुद्धि श्वेत सरसोंसे, स्वर्णकिरणयुक्त वस्त्रोंकी शुद्धि बिल्व फलोंसे, कुशास्तरणों या छाग-कम्बलोंकी शुद्धि मट्टेके सेचनसे और चमड़े-शणवस्त्रों-बेंतसे बनी वस्तुओंकी शुद्धि सामान्य वस्त्रोंकी भाँति कही गयी है। ब्रह्मवेत्ता मुनीश्वरोंने समस्त वल्कल वस्त्रोंकी तथा छत्र-चामरकी शुद्धि वस्त्रशुद्धिकी भाँति बतायी है। हे विप्रो। कांस्यपात्रकी शुद्धि भस्मसे होती है, लौहपात्रकी शुद्धि क्षारसे, ताँबा- राँगा-सीसेके पात्रकी शुद्धि अम्लसे कही जाती है। है श्रेष्ठ ब्राह्मणो। सोने तथा चाँदीके पवित्र पात्र जलसे शुद्ध होते हैं; मणि, पत्थर, शंख तथा मोतीकी शुद्धि भी सुवर्णपात्रकी भाँति कही गयी है। अत्यधिक दूषित पदार्थकी शुद्धि अग्नि तथा जलके संयोगसे होती है। सभी रसोंकी शुद्धि उत्प्लवन-क्रियाद्वारा बतायी गयी है ॥ ५२-६० ॥

तृणकाष्ठादिवस्तूनां शुभेनाभ्युक्षणं स्मृतम्‌। 
उष्णेन वारिणा शुद्धिस्तथा स्रुक्स्रुवयोरपि॥ ६१

तथैव यज्ञपात्राणां मुशलोलूखलस्य च। 
श्रुद्धास्थिदारुदन्तानां तक्षणेनेव शोधनम्‌॥ ६२

संहतानां महाभागा द्रव्याणां प्रोक्षणं स्मृतम्‌। 
असंहतानां द्रव्याणां प्रत्येके शौचमुच्यते॥ ६३

तृण, काष्ठ आदि वस्तुओंकी शुद्धिहेतु पवित्र जलसे अभ्युक्षण (छिड़काव) बताया गया है और सुक्-सुवाकी शुद्धि उष्ण जलसे होती है। उसी प्रकार यज्ञपात्रों, मूसल, उलूखल (ओखली), सींग अस्थि- काष्ठ तथा हाथीदाँतकी बनी वस्तुओंकी शुद्धि तक्षण (छीलने) से होती है। हे महाभागो संहत (मिली- जुली) वस्तुओंकी शुद्धिहेतु प्रोक्षण बताया गया है और असंहत (पृथक्) वस्तुओंको अलग-अलग शुद्ध करना बताया गया है॥ ६१-६३॥

अभुक्तराशिधान्यानामेकदेशस्य दूषणे। 
तावन्मात्र॑ समुदधृत्य प्रोक्षयेद्वे कुशाम्भसा॥ ६४

शाकमूलफलादीनां धान्यवच्छुद्धिरिष्यते। 
मार्जनोन्मार्जनर्वेश्म पुनःपाकेन मृन्मयम्‌॥ ६५

उल्लेखनेनाउ्जनेन तथा सम्मार्जनेन च। 
गोनिवासेन वै शुद्धा सेचनेन धरा स्मृता॥ ६६

भूमिस्थमुदक॑ शुद्ध वैतृष्ण्यं यत्र गोौब्रजेत्‌। 
अव्याप्त॑ यदमेध्येन गन्धवर्णरसान्वितम्‌॥ ६७

वत्स: शुचिः प्रस्नवणे शकुनि: फलपातने। 
स्वदारास्यं गृहस्थानां रतौ भार्याभिकाड्क्षिया॥ ६८

हस्ताभ्यां क्षालितं वस्त्र कारुणा च यथाविधि। 
कुशाम्बुना सुसम्प्रोक्ष्य गृह्लीयाद्धर्मवित्तम:॥ ६९

पण्यं प्रसारितं चैव वर्णाश्रमविभागशः । 
शुचिराकरजं तेषां श्वा मृगग्रहणे शुचिः ।। ७०

भोजनहेतु अनाजकी राशिके एक भागके दूषित हो जानेपर उतने भागको निकालकर शेष भागका कुशके जलसे प्रोक्षण करना चाहिये। शाक, मूल, फल आदिकी शुद्धि धान्य (अनाज) की शुद्धिकी भाँति कही जाती है। घरकी शुद्धि मार्जन (जलसेचन) तथा गोबरसे लीपनेसे होती है। मिट्टीका पात्र अग्निमें गर्म करनेसे शुद्ध होता है। भूमिकी शुद्धि खनन (खोदने) - से, गायके गोबरसे लीपनेसे, मलापकरणसे, गायके निवाससे तथा जलके द्वारा सेचनसे बतायी गयी है। भूमिपर ठहरा हुआ जल जो अपवित्र पदार्थसे युक्त न हो तथा गन्ध, वर्ण, रससे युक्त हो, वह गायके द्वारा प्यास बुझनेतक पो लिये जानेपर शुद्ध हो जाता है। बछड़ा गोदोहनके समय शुद्ध होता है और पक्षी [चोंचद्वारा] फल गिरानेके समय शुद्ध होता है। भार्याकी आकांक्षासे रतिके समय गृहस्थोंके लिये पत्नी शुद्ध होती है। धर्मवेत्ताको चाहिये कि धोबीके द्वारा हाथसे धोये गये वस्त्रको विधिपूर्वक कुशके जलसे प्रोक्षित करके धारण करे खानसे निकालकर विक्रय हेतु फैलायी गयी वस्तुओं में वर्णाश्रम विभाग के अनुसार शुद्धता होती है और [मृगयामें] हरिण आदि पशुओंको पकड़ते समय श्वान शुद्ध होता है ॥ ६४-७० ॥

छाया च विप्लुषो विप्रा मक्षिकाद्या द्विजोत्तमाः । 
रजोभूर्वायुरग्निश्च मेध्यानि स्पर्शने सदा ॥ ७१

सुप्त्वा भुक्त्वा च वै विप्राः भुत्त्वा पीत्वा च वै तथा। 
ष्ठीवित्वाध्ययनादौ च शुचिरप्याचमेत्पुनः ।। ७२

पादौ स्पृशन्ति ये चापि पराचमनबिन्दवः । 
ते पार्थिवैः समा ज्ञेया न तैरप्रयतो भवेत् ।। ७३

कृत्वा च मैथुनं स्पृष्ट्वा पतितं कुक्कुटादिकम्।
सूकरं चैव काकादि श्वानमुष्टुं खरं तथा ॥ ७४

यूपं चाण्डालकाद्यांश्च स्पृष्ट्वा स्नानेन शुध्यति । 
रजस्वलां सूतिकां च न स्पृशेदन्त्यजामपि ॥ ७५

सूतिकाशौचसंयुक्तः शावाशौचसमन्वितः । 
संस्पृशेन्न रजस्तासां स्पृष्ट्‌वा स्नात्वैव शुध्यति ॥ ७६

हे द्विजश्रेष्ठो! अनिषिद्ध छाया, वेदपाठके समय मुखसे निकली बूँदें, विप्र, मक्खियाँ, धूल, भूमि, वायु, अग्नि- ये सब स्पर्शके लिये सदा शुद्ध होते हैं। हे विप्रो ! सोकर उठनेपर, भोजनके अनन्तर, छींक आनेपर, जल आदि पीनेपर, थूकनेपर और अध्ययनके आदिमें पवित्र होते हुए भी फिरसे आचमन करना चाहिये। अन्य लोगोंके द्वारा किये गये आचमनको जो बूँदें पैरोंपर पड़ जायें, उन्हें धूलके समान समझना चाहिये; उनसे कोई अशुद्ध नहीं होता हैमैथुनके अनन्तर, पतितका स्पर्श करके, मुर्गा- सूअर-कौवा कुत्ता-ऊँट-गधा-यूप, चाण्डाल आदिका स्पर्श करके व्यक्ति स्नानके द्वारा शुद्ध होता है। रजस्वला, प्रसूता तथा शूद्रा स्त्रीका स्पर्श नहीं करना चाहिये। जननाशौच तथा मरणाशौचसे युक्त व्यक्तिको चाहिये कि अपने सम्बन्धियोंकी स्त्रियोंमें रजस्वला स्त्रीको न छुए और छू लेनेपर वह स्नान करके ही शुद्ध होता है ॥ ७१-७६ ॥ 

नैवाशौचं यतीनां च वनस्थब्रह्मचारिणाम्। 
नैष्ठिकानां नृपाणां च मण्डलीनां च सुव्रताः ॥ ७७

ततः कार्यविरोधाद्धि नृपाणां नान्यथा भवेत्। 
वैखानसानां विप्राणां पतितानामसम्भवात् ।। ७८

असञ्चयद्विजानां च स्नानमात्रेण नान्यथा। 
तथासन्निहितानां च यज्ञार्थ दीक्षितस्य च ॥ ७९

एकाहाद्यज्ञयाजीनां शुद्धिरुक्ता स्वयम्भुवा। 
ततस्त्वधीतशाखानां चतुर्भिः सर्वदेहिनाम् ॥ ८०

सूतकं प्रेतकं नास्ति त्र्यहादूर्ध्वममुत्र वै। 
अर्वागेकादशाहान्तं बान्धवानां द्विजोत्तमाः ॥ ८१

स्नानमात्रेण वै शुद्धिर्भरणे समुपस्थिते। 
तत ऋतुत्रयादर्वागेकाहः परिगीयते ॥ ८२

सप्तवर्षात्ततश्चार्वाक् त्रिरात्रं हि ततः परम्। 
दशाहं ब्राह्मणानां वै प्रथमेऽहनि वा पितुः ।। ८३

दशाहं सूतिकाशीचं मातुरप्येवमव्ययाः । 
अर्वाक् त्रिवर्षात्स्नानेन बान्धवानां पितुः सदा।। ८४

अष्टाब्दादेकरात्रेण शुद्धिः स्याद् बान्धवस्य तु। 
द्वादशाब्दात्ततश्चार्वाक् त्रिरात्रं स्त्रीषु सुव्रताः ।। ८५

सपिण्डता च पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते। 
अतिक्रान्ते दशाहे तु त्रिरात्रमशुचिर्भवेत् ॥ ८६

ततः सन्निहितो विप्रश्चार्वाक् पूर्वं तदेव वै। 
संवत्सरे व्यतीते तु स्नानमात्रेण शुद्धयति ॥ ८७

स्पृष्ट्वा प्रेतं त्रिरात्रेण धर्मार्थ स्नानमुच्यते। 

हे सुव्रतो! संन्यासियों, वानप्रस्थियों, नैष्ठिक ब्रह्मचारियों, राजाओं तथा [उनके] मन्त्रियोंको अशौच नहीं लगता है। कार्यमें अवरोध न हो, इसलिये राजाओंको, भ्रमणशील संन्यासियों और ब्राह्मणोंको तथा पतितजनोंके लिये सम्भव न होनेके कारण अशौच नहीं होता है। कुछ भी संचय न करनेवाले ब्राह्मणों, यज्ञके लिये दीक्षित यजमान तथा जिन्हें अशौचकालमें उसकी जानकारी न हुई हो-ऐसे लोगोंकी स्नानमात्रसे शुद्धि हो जाती है। यज्ञमें दीक्षित ऋत्विजों तथा उनकी वैदिक शाखाका अध्ययन करनेवालोंका अशौच ब्रह्माजीने एक दिनका बताया है। अपने गोत्रसे भिन्न जनोंकी शुद्धि चार दिनोंमें हो जाती है; क्योंकि उनके लिये जननाशौच तथा मरणाशीच तीन दिनोंसे अधिक नहीं होता है। [परिवारमें] मृत्यु हो जानेपर बान्धवोंकी दस दिनोंमें शुद्धि हो जाती  है। जन्मके दस दिनके बाद छः मासके भीतर बालकको मृत्यु होनेपर एक दिनका अशीच होता है। तत्पश्चात् सात वर्षसे छोटे बालकको मृत्यु होनेपर तीन रातका अशौच होता है। सात वर्षसे बड़े उपनीत ब्राह्मण-बालकको मृत्युपर दस दिनका अशौच होता है, किंतु विकल्पसे पिताके लिये एक दिनका भी अशौच बताया गया है, माताके लिये तो दस दिनका अशीच रहता ही है। तीन वर्षसे कमके बालककी मृत्युपर बान्धवोंकी शुद्धि स्नानमात्रसे हो जाती है, किंतु पिताकी शुद्धि सदा ही तीन रात्रिके उपरान्त हो होती है। आठ वर्षसे अधिकके सम्बन्धीकी मृत्यु होनेपर बान्धवोंकी शुद्धि एक दिनमें हो जाती है। हे सुव्रतो! आठ वर्षके बाद बारह वर्षके पहलेतक स्त्रियोंको तीन रातका अशौच होता है। सातवीं पीढ़ीके बाद सपिण्डता समाप्त हो जाती है। दस दिन बीत जानेपर अशौचका ज्ञान होनेपर तीन रातका अशौच होता है। हे विप्रो ! छः मासके पहले मृत्युको जानकारी होनेपर पक्षिणी (दो रात-एक दिन) का अशीच होता है और उसके बाद एक वर्षसे पहले एक दिनका अशीच होता है। वर्ष व्यतीत हो जानेपर स्नानमात्रसे सपिण्डोंको शुद्धि हो जाती है ॥ ७७-८७॥

दाहकानां च नेतृणां स्नानमात्रमबान्धवे ।। ८८

अनुगम्य च वै स्नात्वा घृतं प्राश्य विशुद्धयति । 
आचार्यमरणे चैव त्रिरात्रं श्रोत्रिये मृते ॥ ८९

पक्षिणी मातुलानां च सोदराणां च वा द्विजाः । 
भूपानां मण्डलीनां च सद्यो नीराष्ट्रवासिनाम् ॥ ९०

केवलं द्वादशाहेन क्षत्रियाणां द्विजोत्तमाः । 
नाभिषिक्तस्य चाशौचं सम्प्रमादेषु वै रणे ॥ ९९

वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति। 
इति सङ्क्षेपतः प्रोक्ता द्रव्यशुद्धिरनुत्तमा ॥ ९२

शवका स्पर्श कर लेनेपर तीन रातमें शुद्धि होती है। धर्मके लिये स्नान ही शुद्धिहेतु कहा जाता है। बान्धव न होनेपर शवका दाह करनेवाले तथा उसे ले जानेवालोंके लिये स्नानमात्र ही विहित है। शवके साथ [यात्रामें] जानेपर स्नान करके तथा घृतका प्राशन करनेपर व्यक्ति शुद्ध होता है। हे द्विजो। आचार्य तथा श्रोत्रियके मरणमें तीन रातका अशौच होता है। माताके भाइयोंके मरणमें पक्षिणी अशौच होता है और उपकारी जनोंके मरणमें तीन रातका अशौच होता है। राजाओं, सामन्तों तथा देशान्तरवासियोंके मरणमें स्नानमात्रसे शुद्धि हो जाती है। हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो। क्षत्रियोंका अशौच बारह दिनका होता है। अभिषिक्त राजाके रणमें मरनेपर बान्धवोंको अशौच नहीं होता है। वैश्य पन्द्रह दिनोंमें और शूह एक महीनेमें शुद्ध होता है। [हे विप्रो !] इस प्रकार मैंने संक्षेपमें अत्युत्तम द्रव्यशुद्धिका वर्णन कर दिया ॥ ८८-९२॥

अशीचं चानुपूव्र्येण यतीनां नैव विद्यते। 
त्रेताप्रभृति नारीणां मासि मास्यार्तवं द्विजाः ॥ ९३

कृते सकृद्युगवशाज्जायन्ते वै सहैव तु ।
प्रयान्ति च महाभागा भार्याभिः कुरवो यथा ॥ ९४

वर्णाश्रमव्यवस्था च त्रेताप्रभृति सुव्रताः । 
भारते दक्षिणे वर्षे व्यवस्था नेतरेष्वथ ।। ९५

महावीते सुवीते च जम्बूद्वीपे तथाष्टसु। 
शाकद्वीपादिषु प्रोक्तो धर्मों वै भारते यथा ॥ ९६

पूर्वकी भाँति यतियोंका अशौच होता ही नहीं है। हे द्विजो ! [अब मैं स्त्रियोंके रजोधर्मकी प्रवृत्तिका वर्णन करता हूँ। त्रेता आदि युगमें प्रत्येक मासमें स्त्रियोंको रजोधर्म होता है। युगकी प्रकृतिके अनुसार सत्ययुगमें लोग स्त्रियोंके साथ एक बार सहवास करते थे और सन्तानें उत्पन्न होती थीं, जिस प्रकार भाग्यशाली कुरुवर्षनिवासी करते थे हे सुव्रतो! दक्षिणमें भारतवर्षमें वर्णाश्रम-व्यवस्था त्रेतायुगसे लेकर है; यह व्यवस्था अन्य आठ किंपुरुष आदि वर्षोंमें, महावीतमें तथा सुवीतमें नहीं है। शाकद्वीप आदि द्वीपोंमें भारतके ही समान धर्मकी व्यवस्था बतायी गयी है ॥ ९३-९६ ॥

रसोल्लासा कृते वृत्तिस्त्रेतायां गृहवृक्षजा। 
सैवार्तवकृताद्दोषाद्रागद्वेषादिभिर्नृणाम् ॥ ९७

मैथुनात्कामतो विप्रास्तथैव परुषादिभिः । 
यवाद्याः सम्प्रजायन्ते ग्राम्यारण्याश्चतुर्दश ॥ ९८

ओषध्यश्च रजोदोषाः स्त्रीणां रागादिभिर्नृणाम्।
अकालकृष्टा विध्वस्ताः पुनरुत्पादितास्तथा ॥ ९९

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन न सम्भाष्या रजस्वला। 
प्रथमेऽहनि चाण्डाली यथा वर्ज्या तथाङ्गना ।। १००

द्वितीयेऽहनि विप्रा हि यथा वै ब्रह्मघातिनी। 
तृतीयेऽह्नि तदर्थेन चतुर्थेऽहनि सुव्रताः ॥ १०१

स्नात्वार्धमासात्संशुद्धा ततः शुद्धिर्भविष्यति । 
आषोडशात्ततः स्त्रीणां मूत्रवच्छौचमिष्यते ॥ १०२

पञ्चरात्रं तथास्पृश्या रजसा वर्तते यदि। 
सा विंशद्दिवसादूर्ध्वं रजसा पूर्ववत्तथा ॥ १०३

सत्ययुग में लोगों की वृत्ति सहज आनन्दकी थी, त्रेतामें गृह, वृक्ष आदिपर आधारित वृत्ति थी। वही वृत्ति बाद में रजो दोष के कारण लोगों के राग-द्वेषपर आधारित हो गयी। हे विप्रो! कामवश स्त्रीसंग, क्रोध इत्यादि दोषों के कारण जौ आदि हविष्यान्न एवं औषधियाँ चौदह प्रकारके ग्राम्य तथा वन्य पदार्थोंके रूपमें उत्पन्न होने लगीं; जो अकालमें नष्ट होकर पुनः उत्पन्न होती थीं, इसलिये प्रयत्नपूर्वक रजस्वला स्त्रीसे सम्भाषण आदि नहीं करना चाहिये पहले दिन रजस्वला स्त्री चाण्डालीकी भाँति वर्ण्य होती है। हे विप्रो! दूसरे दिन वह ब्रह्मघातिनीके समान होती है और तीसरे दिन उसके आधे पापसे युक्त रहती है। है सुव्रतो! चौथे दिन स्नान करके वह आधे महीनेतक देवपूजन आदिके लिये शुद्ध रहती है। पाँचवें दिनसे सोलहवें दिनतक रजोदोष रहनेके कारण स्त्रीस्पर्श आदिको शुद्धि मूत्रोत्सर्गकी शुद्धिकी तरह कही गयी है। इसके बाद ही उसकी पूर्ण शुद्धि होगी यदि स्त्री रजोदोषसे युक्त है, तो पाँच रात्रितक वह अस्पृश्य (अगम्य) होती है। बीस दिनके बाद भी वह यदि रजोदोषसे युक्त है, तो वह पूर्वकी भाँति अस्पृश्य होती है॥ ९७-१०३॥

स्नानं शौचं तथा गानं रोदनं हसनं तथा। 
यानमभ्यञ्जनं नारी द्यूतं चैवानुलेपनम् ।। १०४

दिवास्वप्नं विशेषेण तथा वै दन्तधावनम् । 
मैथुनं मानसं वापि वाचिकं देवतार्चनम् ॥ १०५

वर्जयेत्सर्वयत्नेन नमस्कारं रजस्वला। 
रजस्वलाङ्गनास्पर्शसम्भाषे च रजस्वला ॥ १०६

सन्त्यार्ग चैव वस्त्राणां वर्जयेत्सर्वयत्नतः । 
स्नात्वान्यपुरुषं नारी न स्पृशेत्तु रजस्वला ॥ १०७

ईक्षयेद्भास्करं देवं ब्रह्मकूर्च ततः पिबेत्।
केवलं पञ्चगव्यं वा क्षीरं वा चात्मशुद्धये ॥ १०८

रजस्वला स्त्रीको स्नान, शौच, गायन, रोदन, हास- परिहास, यात्रा करना, अभ्यंग, घृत, अनुलेपन, विशेष रूपसे दिनमें शयन, दन्तधावन, मैथुन, मन तथा वाणीसे भी देवपूजन, नमस्कार आदिको पूर्णप्रयत्नसे त्याग देना चाहिये। रजस्वलाको चाहिये कि अन्य रजस्वला स्त्रीके अंगस्पर्श तथा उसके साथ बातचीतका त्याग कर दें; उसे पूर्णप्रयत्नके साथ वस्त्र बदलनेका त्याग कर देना चाहिये। रजस्वला स्त्रीको चाहिये कि स्नान करके शुद्ध होनेपर [पतिके अतिरिक्त] अन्य पुरुषका स्पर्श न करे और सूर्यदेवका दर्शन करे। तदनन्तर आत्मशुद्धिके लिये ब्रह्मकूर्च अथवा केवल पंचगव्य अथवा दुग्धका पान करे ॥ १०४-१०८ ॥ 

चतुर्थ्यां स्त्री न गम्या तु गतोऽल्पायुः प्रसूयते।
विद्याहीनं व्रतभ्रष्टं पतितं पारदारिकम् ॥ १०९

दारिद्रयार्णवमग्नं च तनयं सा प्रसूयते। 
कन्यार्थिनैव गन्तव्या पञ्चम्यां विधिवत्पुनः ॥ ११०

रक्ताधिक्या द्भवेन्नारी शुक्राधिक्ये भवेत्पुमान्। 
समे नपुंसकं चैव पञ्चम्यां कन्यका भवेत् ॥ १११

षष्ठ्यां गम्या महाभागा सत्पुत्रजननी भवेत् । 
पुत्रत्वं व्यञ्जयेत्तस्य जातपुत्रो महाद्युतिः ॥ ११२

पुमिति नरकस्याख्या दुःखं च नरकं विदुः । 
पुंसस्त्राणान्वितं पुत्रं तथाभूतं प्रसूयते ॥ ११३

सप्तम्यां चैव कन्यार्थी गच्छेत्सैव प्रसूयते।

रजो धर्म के चौथे दिन स्त्री गमन के योग्य नहीं होती है; वह स्त्री नष्ट तथा अल्प आयु वाले [पुत्र]- को जन्म देती है। वह विद्यारहित, व्रतसे च्युत, पतित, दूसरोंकी स्त्रियोंके साथ दुराचार करनेवाले तथा दरिद्रताके समुद्रमें डूबे रहनेवाले पुत्रको उत्पन्न करती है। पुत्रीकी कामना करनेवालेको पाँचवें दिन स्त्रीके साथ गमन करना चाहिये। रक्तका आधिक्य होनेपर कन्या होती है, शुक्रका आधिक्य होनेपर पुत्र होता है और दोनोंके समान होनेपर नपुंसक संतान उत्पन्न होती है। पाँचवें दिन सहवास करनेपर कन्या उत्पन्न होती है। छठें दिन यदि स्त्रीके साथ गमन किया जाय, तो वह महाभाग्यवती स्त्री उत्तम पुत्रको उत्पन्न करती है, उसके पुत्रत्वको प्रकट करती है और वह पैदा हुआ पुत्र महा तेजस्वी होता है। 'पुम्' यह एक नरकका नाम है और नरकको दुःखपूर्ण कहा गया है। वह स्त्री पुम् [नरक]- से त्राण (रक्षा) करनेवाले उस प्रकारके पुत्रको जन्म देती है ॥ १०९-११३ ॥

अष्टम्यां सर्वसम्पन्नं तनयं सम्प्रसूयते ॥ १९४

नवम्यां दारिकायार्थी दशम्यां पण्डितो भवेत् । 
एकादश्यां तथा नारीं जनयेत्सैव पूर्ववत् ॥ ११५

द्वादश्यां धर्मतत्त्वज्ञं श्रौतस्मार्तप्रवर्तकम् । 
त्रयोदश्यां जडां नारीं सर्वसङ्करकारिणीम् ॥ ११६

जनयत्यङ्गना यस्मान्न गच्छेत्सर्वंयत्नतः । 
चतुर्दश्यां यदा गच्छेत्सा पुत्रजननी भवेत् ॥ ११७

पञ्चदश्यां च धर्मिष्ठां षोडश्यां ज्ञानपारगम् । 
स्त्रीणां वै मैथुने काले वामपाश्वं प्रभञ्जनः ॥ ११८

चरेद्यदि भवेन्नारी पुमांसं दक्षिणे लभेत्। 
स्त्रीणां मैथुनकाले तु पापग्रहविवर्जिते ॥ ११९

उक्तकाले शुचिर्भूत्वा शुद्धां गच्छेच्छुचिस्मिताम्। 
इत्येवं सम्प्रसङ्गेन यतीनां धर्मसङ्ग्रहे॥ १२०

सर्वेषामेव भूतानां सदाचारः प्रकीर्तितः । 
यः पठेच्छृणुयाद्वापि सदाचारं शुचिर्नरः ॥ १२१

श्रावयेद्वा यथान्यायं ब्राह्मणान् दग्धकिल्बिषान्। 
ब्रह्मलोकमनुप्राप्य ब्रह्मणा सह मोदते ॥ १२२

कन्याकी इच्छावालेको सातर्वी रात्रिमें गमन करना चाहिये; किंतु वह कन्या वन्ध्या होती है। आठवीं रात्रिमें स्त्री सर्वगुणसम्पन्न पुत्रको जन्म देती है। कन्याकी इच्छावाले व्यक्तिको नौवीं रातमें सहवास करना चाहिये। दसवीं रातमें संभोग करनेपर विद्वान् पुत्र उत्पन्न होता है। ग्यारहवीं रातमें सहवास करनेपर वह स्त्री पूर्वकी भाँति कन्या उत्पन्न करती है। बारहवें दिन स्त्री धर्मतत्व के ज्ञाता तथा श्रुति-स्मृतिके धर्मोको चलानेवाले पुत्रको उत्पन्न करती है और तेरहवीं रातमें गमन करनेपर मूर्ख तथा वर्णसंकर [दोष] फैलानेवाली कन्या उत्पन्न करती है; अतः पूरे प्रयत्नसे उस दिन स्त्री- सहवास नहीं करना चाहिये। यदि चौदहवीं रातमें गमन किया जाय, तो वह स्त्री पुत्र उत्पन्न करनेवाली होती है। पन्द्रहवीं रातमें गमन करनेपर वह धर्मनिष्ठ कन्याको तथा सोलहवीं रातमें गमन करनेपर ज्ञानमें पारंगत पुत्रको उत्पन्न करती है मैथुनके समय यदि स्त्रियोंके बायें पार्श्वमें वायु प्रवाहित होता हो, तो कन्या होती है और दक्षिण पाश्र्श्वमें प्रवाहित हो, तो पुत्र प्राप्त होता है। पापग्रहसे रहित मैथुन- कालमें स्त्रियोंसे सहवास करना चाहिये। ऐसे बताये गये [शुभ] समयमें पवित्र होकर उत्तम मुसकानवाली भायर्याके साथ गमन करना चाहिये [हे विप्रो!] इस प्रकार मैंने यतियोंके धर्मसंग्रहमें प्रसंगपूर्वक सभी प्राणियोंके सदाचारका वर्णन कर दिया। जो मनुष्य पवित्र होकर इस सदाचारको विधिपूर्वक पढ़ता है अथवा सुनता है अथवा दग्ध पापवाले ब्राह्मणोंको सुनाता है, वह ब्रह्मलोक प्राप्त करके ब्रह्माके साथ आनन्द करता है॥ १९४-१२२ ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे सदाचारकथनं नामैकोननवतितमोऽध्यायः ॥ ८९॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'सदाचारकथन' नामक नवासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८९ ॥

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