लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] पचपनवाँ अध्याय
शिव स्वरूप भगवान् सूर्य के रथ तथा चेत्रादि बारह मासों में रथके साथ भ्रमण करने वाले देवता, मुनि, नाग, गन्धर्व आदि का वर्णन
सूत उवाच
हसपलार जप सड्क्षेपतरो वक्ष्ये रथं शशिन एवं च।
प्रहाणामितरेषां च यथा गच्छति चाम्बुप:॥ १
सूतजी बोले-- [हे ऋषियो !] में संक्षेपमें सूर्य के रथ और चन्द्रमा तथा अन्य ग्रहोंके विषय में बता और जिस प्रकार जलका शोषण करने वाले सूर्य गति करते हैं, उसका भी वर्णन करूँगा॥ १॥
सौरस्तु ब्रह्मणा सृष्टो रथस्त्वर्थवशेन सः।
संवत्सरस्यथावयवै: कल्पितश्च द्विजर्षभा:॥ २
त्रिणाभिना तु चक्रेण पञ्चारेण समन्वितः।
सौवर्ण: सर्वदेवानामावासो भास्करस्य तु॥ ३
नवयोजनसाहस्त्रो विस्तारायामतः स्मृतः ।
द्विगुणोडईपि रथोपस्थादीषादण्ड: प्रमाणतः ॥ ४
असड्रैस्तु हयैर्युक्तो यतश्चक्रं ततः स्थितेः।
वाजिनस्तस्य वे सप्त छन्दोभिर्निर्मितास्तु ते॥५
चक्रपक्षे निबद्धास्तु ध्रुवे चाक्ष: समर्पितः।
सहाश्वचक्रो भ्रमते सहाक्षो भ्रमते श्रुवः॥ ६
हे श्रेष्ठ द्विजो! ब्रह्माके द्वारा विशेष प्रयोजनके लिये निर्मित वह सूर्यरथ संवत्सरके अवयवोंसे कल्पित किया गया है। तीन नाभि तथा पाँच अरोंवाले चक्रसे युक्त यह सूर्यरथ सुवर्णमय है और सभी देवताओंका निवासस्थान है। यह लम्बाई तथा चौड़ाईमें नौ हजार योजनवाला कहा गया है। इसका ईषादण्ड प्रमाण (माप)-में रथोपस्थसे दुगुना है। जहाँ चक्र है, वहाँ स्थित अन्तरिक्षगामी घोड़ोंसे वह युक्त (जुता हुआ) है। उसके सातों घोड़े बेदके सात छन्दों [गायत्री, बृहती, उष्णिकू, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप् और पंक्ति]-से निर्मित हैं। वे चक्रके बगलमें बँधे हुए हैं। श्रुवमें [( रथका] अक्ष लगा हुआ है। वह रथ घोड़ों तथा चक्रसहित घूमता है और ध्रुव अक्षके साथ घूमता है॥ २--६॥
अक्षः सहैकचक्रेण भ्रमतेऽसौ ध्रुवेरितः।
प्रेरको ज्योतिषां धीमान् ध्रुवो वै वातरश्मिभिः ।। ७
युगाक्षकोटिसम्बद्धौ द्वौ रश्मी स्यन्दनस्य तु।
ध्रुवेण भ्रमते रश्मिनिबद्धः स युगाक्षयोः ॥ ८
वह अक्ष ध्रुवसे प्रेरित होकर एक ही चक्रके साथ घूमता है। बुद्धिमान् ध्रुव वायुकिरणोंके द्वारा ज्योतिर्गणों (ग्रह, नक्षत्र आदि) को प्रेरित करता है। दो रश्मियाँ (किरणें) रथके जुए तथा अक्षके अग्रभागमें बँधी हुई हैं और [उन] जुए तथा अक्षमें रश्मियोंसे निबद्ध वह सूर्यरथ ध्रुवके द्वारा भ्रमण करता है॥ ७-८ ॥
भ्रमतो मण्डलानि स्युः खेचरस्य रथस्य तु।
युगाक्षकोटी ते तस्य दक्षिणे स्यन्दनस्य हि ॥ ९
ध्रुवेण प्रगृहीते वै विचक्राश्वे व रज्जुभिः।
भ्रमन्तमनुगच्छन्ति ध्रुवं रश्मी च तावुभौ ॥ १०
इस प्रकार भ्रमण करते हुए आकाशमें विचरण करनेवाले रथके अनेक मण्डल होते हैं। वे [रश्मिनिबद्ध] जुए तथा अक्षको कोटियाँ उस रथके दाहिनी ओर होती हैं। रज्जुओंके द्वारा ध्रुवसे प्रगृहीत अरुणा, चक्र तथा घोड़े और वे दोनों रश्मियाँ घूमते हुए ध्रुवका अनुगमन करते ॥९-१०॥
युगाक्षकोटिस्त्वेतस्य वातोर्मिस्यन्दनस्य तु।
कीले सक्ता यथा रज्जुर्भमते सर्वतोदिशम् ॥ ११
भ्राम्यतस्तस्य रश्मी तु मण्डलेषूत्तरायणे।
वर्धेते दक्षिणे चैव भ्रमतो मण्डलानि तु ॥ १२
आकृष्येते यदा ते वै ध्रुवेणाधिष्ठिते तदा।
आभ्यन्तरस्थः सूर्योऽथ भ्रमते मण्डलानि तु ॥ १३
इस रथकी वायुलहरीरूपा युगाक्षकोटि (जुए तथा अक्षकी कोटि) कोलमें बँधी हुई रस्सीकी भाँति सभी दिशाओंमें घूमती है। उत्तरायणमें मण्डलोंमें घूमते हुए उस सूर्यको दोनों रश्मियाँ बढ़ जाती हैं और दक्षिणायनमें मण्डलोंमें घूमते हुए सूर्यके द्वारा वे रश्मियों खिंच जाती हैं। जब वे [रश्मियाँ] ध्रुवके द्वारा प्रेरित की जाती हैं, तब [रथके] भीतर स्थित सूर्य मण्डलोंमें घूमता है। उस समय सूर्य दोनों दिशाओंके एक सौ अस्सी मण्डलोंका चक्कर लगाता है। ११-१३
अशीतिमण्डलशतं काष्ठयोरन्तरं द्वयोः।
ध्रुवेण मुच्यमानाभ्यां रश्मिभ्यां पुनरेव तु ॥ ९४
तथैव बाह्यतः सूर्यो भ्रमते मण्डलानि तु।
उद्वेष्टयन् स वेगेन मण्डलानि तु गच्छति ॥ १५
देवाश्चैव तथा नित्यं मुनयश्च दिवानिशम्।
यजन्ति सततं देवं भास्करं भवमीश्वरम् ॥ १६
स रथोऽधिष्ठितो देवैरादित्यैर्मुनिभिस्तथा।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च ग्रामणीसर्पराक्षसैः ॥ १७
एते वसन्ति वै सूर्ये द्वौ द्वौ मासौ क्रमेण तु।
आप्याययन्ति चादित्यं तेजोभिर्भास्करं शिवम् ॥ १८
पुनः ध्रुवके द्वारा किरणोंके छोड़े जानेपर उसी भाँति सूर्य मण्डलोंके बाहर भ्रमण करता है; वह मण्डलोंको घेरते हुए वेगपूर्वक चलता है देवता तथा मुनिगण नित्य दिन-रात भवस्वरूप ईश्वर सूर्यदेवका निरन्तर पूजन करते हैं। वह रथ देवताओं, आदित्यों, मुनियों, गन्धर्वी, अप्सराओं, ग्रामणियों, सर्पों तथा राक्षसोंके द्वारा अधिष्ठित है। ये लोग सूर्यमें दो-दो महीने क्रमसे निवास करते हैं और कल्याणकारी आदित्य भास्करको अपने तेजोंसे तृप्त करते हैं॥ १४-१८ ॥
ग्रथितैः स्वैर्वचोभिस्तु स्तुवन्ति मुनयो रविम्।
गन्धर्वाप्सरसश्चैव नृत्यगेयैरुपासते ।। १९
ग्रामणीयक्षभूतानि कुर्वतेऽभीषुसङ्ग्रहम् ।
सर्फ वहन्ति वै सूर्य यातुधानानुयान्ति च ।। २०
बालखिल्या नयन्त्यस्तं परिवार्योदयाद्रविम्।
इत्येते वै वसन्तीह द्वौ द्वौ मासी दिवाकरे । २१
मुनिगण अपने वचनोंसे ग्रथित स्तुतियोंके द्वारा सूर्यका स्तवन करते हैं; गन्धर्व तथा अप्सराएँ गान एवं नृत्यके द्वारा उनकी उपासना करते हैं; ग्रामणी, यक्ष तथा भूतगण किरणोंका संग्रह करते हैं; सर्पगण सूर्यका वहन करते हैं; यातुधान (राक्षसगण) उनका अनुगमन करते हैं और बालखिल्य [नामक ऋषिगण] उदयकालसे प्रारम्भ करके चारों औरसे घेरकर सूर्यको अस्ताचलकी ओर ले जाते हैं। ये सब दो-दो महीने सूर्यमें निवास करते हैं॥ १९-२१ ॥
मधुश्च माधवश्चैव शुक्रश्च शुचिरेव च।
नभोनभस्यौ विप्रेन्द्रा इषश्चोर्जस्तथैव च ॥ २२
सहः सहस्यौ च तथा तपस्यश्च तपः पुनः ।
एते द्वादश मासास्तु वर्ष वै मानुषं द्विजाः ॥ २३
वासन्तिकस्तथा ग्रैष्मः शुभो वै वार्षिकस्तथा।
शारदश्च हिमश्चैव शैशिरो ऋतवः स्मृताः ॥ २४
हे विप्रेन्द्रो ! मधु (चैत्र), माधव (वैशाख), शुक्र (ज्येष्ठ), शुचि (आषाढ़), नभ (श्रवण), नभस्य (भाद्रपद), इष (आश्विन), ऊर्ज (कार्तिक), सह (मार्गशीर्ष), सहस्य (पौष), तपस्य (माघ) तथा तप (फाल्गुन)- ये बारह महीने मानव वर्षमें होते हैं। हे द्विजो। वसन्त, ग्रीष्म, शुभ वर्षा, शरद, हिम (हेमन्त) तथा शिशिर ये ऋतुएँ कही गयी हैं ॥ २२-२४॥
धातार्यमाथ मित्रश्च वरुणश्चेन्द्र एव च।
विवस्वांश्चैव पूषा च पर्जन्योंऽशुर्भगस्तथा ॥ २५
त्वष्टा विष्णुः पुलस्त्यश्च पुलहश्चात्रिरेव च।
वसिष्ठश्चाङ्गिराश्चैव भृगुर्बुद्धिमतां वरः ॥ २६
भारद्वाजो गौतमश्च कश्यपश्च क्रतुस्तथा।
जमदग्निः कौशिकश्च वासुकिः कङ्कणीकरः ॥ २७
तक्षकश्च तथा नाग एलापत्रस्तथा द्विजाः।
शङ्खपालस्तथा चान्यस्त्वैरावत इति स्मृतः ॥ २८
धनञ्जयो महापद्मस्तथा कर्कोटकः स्मृतः।
कम्बलोऽश्वतरश्चैव तुम्बुरुर्नारदस्तथा ॥ २९
हाहा हूहूर्मुनिश्रेष्ठा विश्वावसुरनुत्तमः ।
उग्रसेनोऽथ सुरुचिरन्यश्चैव परावसुः ॥ ३०
चित्रसेनो महातेजाश्चोर्णायुश्चैव सुव्रताः ।
धृतराष्ट्रः सूर्यवर्चा देवी साक्षात्कृतस्थला ॥ ३१
शुभानना शुभश्रोणिर्दिव्या वै पुञ्जिकस्थला।
मेनका सहजन्या च प्रम्लोचाथ शुचिस्मिता ।। ३२
अनुम्लोचा घृताची च विश्वाची चोर्वशी तथा।
पूर्वचित्तिरिति ख्याता देवी साक्षात्तिलोत्तमा ।॥ ३३
रम्भा चाम्भोजवदना रथकृद् ग्रामणीः शुभः ।
रथौजा रथचित्रश्च सुबाहुर्वै रथस्वनः ॥ ३४
वरुणश्च तथैवान्यः सुषेणः सेनजिच्छुभः ।
तार्थ्यश्चारिष्टनेमिश्च क्षतजित्सत्यजित्तथा ॥ ३५
रक्षो हेतिः प्रहेतिश्च पौरुषेयो वधस्तथा।
सर्पो व्याघ्रः पुनश्चापो वातो विद्युद्दिवाकरः ॥ ३६
ब्रह्मोपेतश्च रक्षेन्द्रो यज्ञोपेतस्तथैव च।
एते देवादयः सर्वे वसन्त्यकै क्रमेण तु ॥ ३७
धाता, अर्यमा, मित्र, वरुण, इन्द्र, विवस्वान्, पूषा, पर्जन्य, अंशु, भग, त्वष्टा, विष्णु- ये बारह आदित्य हैं; पुलस्त्य, पुलह, अत्रि, वसिष्ठ, अंगिरा, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ भृगु, भारद्वाज, गौतम, कश्यप, ऋतु, जमदग्नि तथा कौशिक ये बारह ऋषि हैं; हे द्विजो। वासुकि, कंकणीकर, तक्षक, नाग, एलापत्र, शंखपाल, ऐरावत, धनंजय, महापद्म, कर्कोटक, कम्बल तथा अश्वतर-ये बारह सर्प कहे गये हैं; हे मुनिश्रेष्ठो। तुम्बुरु, नारद, हाहा, हुहु, श्रेष्ठ विश्वावसु, उग्रसेन, सुरुचि, परावसु, चित्रसेन, महातेजस्वी ऊर्णायु, धृतराष्ट्र तथा सूर्यवर्चा- ये बारह गन्धर्व हैं; है सुव्रतो। साक्षात् देवी कृतस्थला, सुन्दर मुखवाली-उत्तम श्रोणिवाली दिव्य पुंजिकस्थला, मेनका, सहजन्या, पवित्र मुसकानवाली प्रम्लोचा, अनुम्लोचा, घृताची, विश्वाची, उर्वशी, पूर्वचित्ति, साक्षात् देवी तिलोत्तमा तथा कमलके समान मुखवाली रम्भा-ये बारह अप्सराएँ कही गयी हैं; रथकृत्, शुभ रथौजा, रथचित्र, सुबाहु, रथस्वन, वरुण, सुषेण, शुभ सेनजित, तार्थ्य, अरिष्टनेमि, क्षतजित् तथा सत्यजित्- ये बारह ग्रामणी हैं; हेति, प्रहेति, पौरुषेय, वध, सर्प, व्याघ्र, आप, वात, विद्युत्, दिवाकर, ब्रह्मोपेत और राक्षसराज यज्ञोपेत ये बारह यातुधान (राक्षस) हैं- ये सभी देवता आदि क्रमसे सूर्यमें निवास करते हैं। बारहकी संख्यावाले ये सात गण अपने स्थानका अभिमान करनेवाले हैं॥२५--३७ ॥
स्थानाभिमानिनो होते गणा द्वादश सप्तकाः ।
धात्रादिविष्णुपर्यन्ता देवा द्वादश कीर्तिताः ॥ ३८
आदित्य परम भानुं भाभिराप्याययन्ति ते।
पुलस्त्याद्याः कोशिकान्ता मुनयो मुनिसत्तमा: ॥
द्वादशैव स्तवैर्भानुं स्तुवन्ति च यथाक्रमम्।
नागाश्चाश्वतरान्तास्तु वासुकिप्रमुखा: शुभा: ॥ ४०
द्वादशैव महादेव॑ वहन्त्येवे॑ यथाक्रमम्।
क्रमेण सूर्यवर्चान्तास्तुम्बुरुप्रमुखाम्बुपम्॥ ४९
गीतैरेनमुपासन्ते गन्धर्वा द्वादशोत्तमा:।
कृतस्थलाद्या रम्भान्ता दिव्याश्चाप्सरसो रविम्॥ ४२
ताण्डवैः सरसे: सवरश्चोपासन्ते यथाक्रमम्।
दिव्या: सत्यजिदन्ताश्च ग्रामण्यो रथकृन्मुखा: ॥ ४३
द्वादशास्य क्रमेणैव कुर्वते भीषुसड्म्ग्रहम्।
प्रयान्ति यज्ञोपेतान्ता रक्षोहेतिमुखा: सह॥ ४४
धातासे लेकर विष्णुपर्यन्त जो बारह देवता (आदित्य) कहे गये हैं, वे अपने तेजसे परम भानुको सन्तृप्त करते हैं। हे श्रेष्ठ मुनियो। पुलस्त्यसे लेकर कौशिकतक [कहे गये] बारह मुनिगण यथाक्रम स्तुतियोंके द्वारा सूर्यका स्तवन करते हैं। इसी प्रकार वासुकिसे लेकर अश्वतरतक [कहे गये] बारह शुभ नाग यथाक्रम महादेव (सूर्य)का वहन करते हैं। तुम्बुरुसे लेकर सूर्यवर्चातक [कहे गये] बारह उत्तम गन्धर्व क्रमसे गीतोंके द्वारा इन सूर्यकी उपासना करते हैं। कृतस्थलासे लेकर रम्भा-पर्यन्त [कही गयी] सभी दिव्य अप्सराएँ यथाक्रम सरस नृत्योंके द्वारा सूर्यकी उपासना करती हैं। रथकृत्से लेकर सत्यजितूपर्यन्त [कहे गये] बारह दिव्य ग्रामणी क्रमसे इस सूर्यकी रथरश्मियोंका संग्रह करते हैं। रक्षोहेतिसे लेकर यज्ञोपेततक [कहे गये ]--ये प्रमुख बारह राक्षस शस्त्र धारण करके क्रमसे [सूर्यके] पीछे-पीछे चलते हैं ॥ ३८--४४ ॥
सायुधा द्वादशैवैते राक्षसाश्च यथाक्रमम्।
धातार्यमा पुलस्त्यश्च पुलहए्च प्रजापति:॥ ४५
उरगो वासुकिश्चेव कड्कलूणीकश्च ताबुभौ।
तुम्बुरुनारदश्चेवगन्धर्वोँ गायतां वरौ॥ ४६
कृतस्थलाप्सराश्चेव तथा वै पुज्जिकस्थला।
ग्रामणी रथकृच्चैव रथौजाश्चेव तावुभौ॥ ४७
रक्षो हेति: प्रहेतिश्च यातुधानावुदाहतौ।
मधुमाधवयोरेष गणो वसति भास्करे॥ ४८
धाता तथा अर्यमा [दो आदित्य], प्रजापति पुलस्त्य तथा पुलह [दो ऋषि], वे दोनों नाग वासुकि एवं कंकणीक, गान करनेवालोंमें श्रेष्ठ गन्धर्व तुम्बुरु तथा नारद, कृतस्थला एवं पुंजिकस्थला अप्सराए, वे दोनों ग्रामणी रथकृत् तथा रथौजा और यातुधान कहे गये राक्षस हेति तथा प्रहेति--यह समुदाय चैत्र एवं वैशाख महीनोंमें सूर्यमें निवास करता है॥४५--४८ ॥
वसन्ति ग्रीष्मकौ मासौ मित्रश्च वरुणश्च ह।
ऋषिरत्रिव॑सिष्ठश्च तक्षको नाग एवं च॥ ४९
मेनका सहजन्या च गन्धर्वों च हहाहुहूः।
सुबाहुनामा ग्रामण्यौ रथचित्रश्च तावुभौ॥ ५०
पौरुषेयो वधश्चैव यातुधानावुदाहतौ।
एते वसन्ति वै सूर्य मासयो: शुचिशुक्रयो: ॥ ५१
इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतुके दो महीनोमें भी ये लोग निवास करते हैं। [दो आदित्य] मित्र तथा वरुण, ऋषि अत्रि एवं वसिष्ठ, [सर्प] तक्षक तथा नाग, [दो अप्सराए] मेनका और सहजन्या, दो गन्धर्व हाहा तथा हूहू, रथचित्र एवं सुबाहु नामक वे दोनों ग्रामणी और यातुधान कहे गये पौरुषेय तथा वध--ये सब शुक्र ( ज्येष्ठ ) तथा शुत्चि ( आषाढ़ ) महीनोंमें सूर्यमें निवास करते हैं ॥४९--५१॥
ततः सूर्य पुनश्चान्या निवसन्तीह देवता:।
इन्द्रए"चेव विवस्वांश्च अड्विरा भूगुरेव च॥५२
एलापत्रस्तथा सर्प: शट्डुपालश्च तावुभौ।
विश्वावसूग्रसेनौ च वरुणएच रथस्वनः॥ ५३
प्रम्लोचा चैव विख्याता अनुम्लोचा च ते उभे
यातुधानास्तथा सर्पो व्याप्रश्चैव तु तावुभौ॥ ५४
इसके बाद अन्य देवता सूर्यमें निवास करते हैं। [आदित्य] इन्द्र तथा विवस्वानू, [ऋषि] अंगिरा तथा भुगु, वे दोनों सर्प एलापत्र एवं शंखपाल, [गन्धर्व] विश्वावसु तथा उग्रसेन, [ग्रामणी] वरुण एवं रथ विख्यात प्रम्लोचा तथा अनुम्लोचा--बे दोनों अप्सरा और वे दोनों यातुधान सर्प तथा व्याप्र-यह समुदाय नभ ( श्रावण ) तथा नभस्य ( भाद्रपद ) महीनोंमे सूर्यमें निवास करता है॥ ५२-५४॥
नभोनभस्ययोरेष गणो वसति भास्करे।
पर्जन्यश्चैव पूषा च भरद्वाजो5थ गौतम: ॥ ५५
धनज्जय इरावांश्च सुरुचि: सपरावसु:।
घृताची चाप्सर: श्रेष्ठा विश्वाची चातिशोभना॥ ५६
सेनजिच्च सुषेणएच सेनानीग्रामणीएच तौ।
आपो वातश्च तावेतौ यातुधानावुभौ स्मृतो ॥ ५७
[ आदित्य] पर्जन्य तथा पूषा, [ऋषि ] भरद्वाज एवं गौतम, [सर्प] धनंजय तथा इरावान् (ऐरावत), [गन्धर्व] सुरुचि तथा परावसु, अप्सराओंमें श्रेष्ठ घृताची तथा परम सुन्दर विश्वाची, वे दोनों ग्रामणी-सेनानी सेनजित् तथा सुषेण और यातुधान कहे गये वे दोनों आप तथा वात-ये सब इष ( आश्विन ) तथा ऊर्ज ( कार्तिक ) महीनोंमें सूर्यमें निवास करते हैं॥ ५५-५७ ॥
वसन्त्येते तु वै सूर्य मास ऊर्ज इषे च ह।
हैमन्तिकौ तु द्वो मासौ वसन्ति च दिवाकरे॥ ५८
अंशुर्भगश्च द्वावेती कश्यपश्च क्रतु: सह।
भुजड्श्च महापद्दा: सर्प: कर्कोटकस्तथा॥ ५९
चित्रसेनश्च गन्धर्व ऊर्णायुश्चैव तावुभौ।
उर्वशी पूर्वचित्तिश्च तथेवाप्सरसावुभे ॥ ६०
तार्श्यश्चारिष्टनेमिएच सेनानी ग्रामणीएच तौ ।
विद्युद्दिदिकरश्चोभौ यातुधानावुदाहतौ ॥ ६९
इसी प्रकार हेमनत ऋतुके दो महीनोंमें भी ये लोग सूर्यमें निवास करते हैं। ये दोनों [आदित्य] अंशु तथा भग, [ऋषि] कश्यप तथा क्रतु, भुजंग महापद्म तथा सर्प कर्कोटक, वे दोनों गन्धर्व चित्रसेन तथा ऊर्णायु, दोनों अप्सराएँ उर्वशी तथा पूर्वचित्ति, ग्रामणी-सेनानी तार्क्ष्य तथा अरिष्टनेमि और यातुधान कहे गये दोनों विद्युत् तथा दिवाकर-ये सब सह ( मार्गशीर्ष ) तथा सहस्य ( पौष ) महीनोंमें सूर्यमें निवास करते हैं॥५८--६१ ॥
सहे चेव सहस्ये च वसन्त्येते दिवाकरे।
तत: शैशिरयोश्चापि मासयोर्निवसन्ति बै॥ ६२
त्वष्टा विष्णुर्जमदग्निर्विश्वामित्रस्थथेव च।
काद्रवेयीौ तथा नागौ कम्बलाश्वतरावुभौ॥ ६३
धृतराष्ट्र: सगन्धर्व: सूर्यवर्चास्तथेव च।
तिलोत्तमाप्सराश्चेव देवी रम्भा मनोहरा॥ ६४
रथजित्सत्यजिच्चैव ग्रामण्यो लोकविश्रुतौ।
ब्रह्मोपेतस्तथा रक्षो यज्ञोपेतश्च यः स्मृत:॥ ६५
इसके बाद [ आदित्य] त्वष्टा तथा विष्णु, [ऋषि ] जमदग्नि तथा विश्वामित्र, कद्गूके पुत्र दोनों नाग कम्बल तथा अश्वतर, गन्धर्व धृतराष्ट्र तथा सूर्यवर्चा, मनोहर अप्सरा देवी रम्भा तथा तिलोत्तमा, लोकमें प्रसिद्ध ग्रामणी रथजित् तथा सत्यजित् और ब्रह्मोपेत तथा यज्ञोपेत--जो यातुधान कहे गये हैं--ये सब शिशिर ऋतुके दो महीनों ( माघ और फाल्गुन )-में [सूर्यमें] निवास करते हैं॥ ६२--६५ ॥
एते देवा वसन्त्यर्के द्वौ द्वौ मासौ क्रमेण तु।
स्थानाभिमानिनो होते गणा द्वादश सप्तका: ॥ ६६
सूर्यमाप्याययन्त्येते तेजसा तेज उत्तमम्।
ग्रथिते: स्वैर्वचोभिस्तु स्तुवन्ति मुनयो रविम्॥ ६७
गन्धर्वाप्सरसश्चैव नृत्यगेयैरुपासते ।
ग्रामणीयक्षभूतानि कुर्वतेभीषुसड्म्ग्रहम्॥ ६८
सर्पा वहन्ति वे सूर्य यातुधानानुयान्ति वे।
बालखिल्या नयन्त्यस्तं परिवार्योदयाद्रविम्॥ ६९
ये देवतागण क्रमसे दो-दो महीने सूर्यमें निवास करते हैं। बारहकी संख्यामें ये सात समूह अपने स्थानका अभिमान करनेवाले हैं | ये सब तेजके द्वारा उत्तम तेजवाले सूर्यको सन्तृप्त करते हैं। मुनिगण अपने द्वारा विरचित स्तुतियोंसे सूर्यका स्तवन करते हैं, गन्धर्व तथा अप्सराए नृत्य-गानोंसे उनकी उपासना करते हैं, ग्रामणी-यक्ष- भूत रथरश्मियोंको पकड़े रहते हैं, सर्पगण सूर्यका वहन करते हैं, यातुधान पीछे-पीछे चलते हैं और बालखिल्य [ऋषिगण ] चारों ओरसे घेरकर सूर्यको उदयसे अस्तकी प्राप्ति कराते हैं॥ ६६--६९ ॥
एतेषामेव देवानां यथा तेजो यथा तप:।
यथायोगं यथामन्त्र यथाधर्म यथाबलम्॥ ७०
तथा तपत्यसौ सूर्यस्तेषामिद्धस्तु तेजसा।
इत्येते वे वसनन्तीह द्वौ द्वौ मासौ दिवाकरे॥ ७९
ऋषयो देवगन्धर्वपन्नगाप्सससां गणा:।
ग्रामण्यश्च तथा यक्षा यातुधानाश्च मुख्यतः ॥ ७२
एते तपन्ति वर्षन्ति भान्ति वान्ति सृजन्ति च।
भूतानामशुभं कर्म व्यपोहन्तीह कीर्तिता:॥ ७३
मानवानां शुभं होते हरन्ति च दुरात्मनाम्।
दुरितं सुप्रचाराणां व्यपोहन्ति क्वचित्क्वचित्॥ ७४
इन्हीं देवताओं का जैसा तेज, जैसा तप, जैसा योग, जैसा मन्त्र, जैसा धर्म तथा जैसा बल होता है, उनसे समृद्ध होकर वे सूर्य तेजयुक्त होकर तपते हैं। ये सभी सूर्यमें दो-दो महीने निवास करते हैं। ऋषिगण, देवता, गन्धर्व, सर्प,अप्सराओं के समूह, ग्रामणी, यक्ष तथा यातुधान (राक्षस) ये ही मुख्यरूपसे तपते हैं, बरसते हैं प्रकाश करते हैं, सृजन करते हैं और आराधित होकर प्राणियोंके अशुभ कर्मका नाश करते हैं। ये लोग दुरात्मा मनुष्योंके शुभभा नाश करते हैं और कहीं-कहीं सज्जनोंके पापका हरण करते हैं ॥७०--७४॥
विमाने च स्थिता दिव्ये कामगे वातरंहसि।
एते सहैव सूर्यण भ्रमन्ति दिवसानुगा:॥ ७५
वर्षन्तत्च तपन्तश्च ह्वादयन्तश्च बे द्विजा:।
गोपायन्तीह भूतानि सर्वाणि ह्मामनुक्षयात्॥ ७६
ये इच्छानुसार चलनेवाले तथा वायुवेगसे गमन करनेवाले दिव्य विमानमें स्थित होकर सूर्यके साथ पूरे दिन भ्रमण करते हैं। हे द्विजो! ये वर्षा करते हुए, तपते हुए और [सबको] आह्वादित करते हुए सभी प्राणियोंको एक मन्वन्तरपर्यन्त विनाशसे बचाते हैं॥७५-७६॥
स्थानाभिमानिनामेतत्स्थानं मन्वन्तरेषु वै।
अतीतानागतानां वै वर्तन्ते साम्प्रतं च ये॥ ७७
एते वसन्ति बै सूर्य सप्तकास्ते चतुर्दश।
चतुर्दशसु सर्वेषु गणा मन्वन्तरेष्विह॥ ७८
सदड्स्षेपाद्विस्तराच्चैव यथावृत्तं यथाश्रुतम्।
कथितं मुनिशार्दूला देवदेवस्थ धीमतः॥ ७९
एते देवा वसतन्त्यर्के द्वौ द्वौ मासौ क्रमेण तु।
स्थानाभिमानिनो होते गणा द्वादश सप्तकाः ॥ ८०
इत्येष एकचक्रेण सूर्यस्तूर्ण रथेन तु।
हरितिरक्षररएवै: सर्पतेडसाौ दिवाकरः॥ ८१
अहोरात्रं रथेनासावेकचक्रेण तु भ्रमन्।
सप्तद्वीपसमुद्रां गां सप्तभिः सर्पते दिवि॥८२
अतीत तथा अनागत (भविष्यमें होनेवाले) स्थानाभिमानियोंका तथा इस समय जो विद्यमान हैं, उन सभीका यह स्थान सभी मन्वन्तरोंमें हुआ करता है। ये चौदह गण सात-सातके समूहमें सभी चौदह मन्वन्तरोंमें सूर्यमें निवास करते हैं हे श्रेष्ठ मुनियो! मेंने बुद्धिमान् देवदेवके क्रियाकलापका संक्षेपमें तथा विस्तारसे वर्णन कर दिया, जैसा घटित हुआ था और जेसा मैंने सुना था। ये देवता दो-दो महीने क्रमसे सूर्यमें निवास करते हैं। बारह-बारह देवताओंके ये सात समूह अपने स्थान (पद)-का अभिमान करनेवाले हैं इस प्रकार ये दिवाकर सूर्य हरितवर्णके [सात] अविनाशी अश्वोंद्वार खींचे जाते हुए एक चक्रवाले रथसे वेगपूर्वक चलते हैं। ये सूर्य एक चक्रवाले रथसे [उक्त] सात समूहोंके साथ आकाशमें दिन-रात भ्रमण करते हुए सात द्वीपों तथा समुद्रोंवाली पृथ्वीके ऊपर भ्रमण करते हैं॥७७-८२॥
॥श्रीलिंगमहापुयणे पूर्वभागे सूर्वरधनिर्णयो नाम पञ्चपज्चाशत्तमोउध्याय: ॥ ५५ ॥
॥ इस ग्रकार श्रीलिंगमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'सूर्यरथनिर्णय ' नामक पचपनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ ५५ ॥
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