लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] एक सौ पाँचवाँ अध्याय
विघ्ननाशक श्री गणेश जी के प्राकट्य की कथा
सूत उवाच
यदा स्थिताः सुरेश्वराः प्रणम्य चैवमीश्वरम् ।
तदाम्बिकापतिर्भवः पिनाकधृङ् महेश्वरः ॥ १
ददौ निरीक्षणं क्षणाद्भवः स तान् सुरोत्तमान्।
प्रणेमुरादराद्धरं सुरा मुदार्द्रलोचनाः ॥ २
सूतजी बोले- [हे ऋषियो !] शिवजीको प्रणाम करके जब सुरेश्वर लोग [यथास्थान] स्थित हो गये, तब अम्बिकापति, पिनाकधारी, भव महेश्वरने उन श्रेष्ठ देवताओंको क्षणभरमें दिव्य दृष्टि प्रदान की। तब अनुसे भीगे नेत्रवाले देवताओंने प्रसन्नतासे युक्त होकर आदरपूर्वक शिवको प्रणाम किया ॥ १-२ ॥
भवः सुधामृतोपमैर्निरीक्षणैर्निरीक्षणात् ।
तदाह भद्रमस्तु वः सुरेश्वरान् महेश्वरः ॥ ३
वरार्थमीश वीक्ष्य ते सुरा गृहं गतास्त्विमे।
प्रणम्य चाह वाक्पतिः पतिं निरीक्ष्य निर्भयः ॥ ४
सुरेतरादिभिः सदा ह्यविघ्नमर्थितो भवान्।
समस्तकर्मसिद्धये सुरापकारकारिभिः ।। ५
ततः प्रसीदताद्भवान् सुविघ्नकर्मकारणम्।
सुरापकारकारिणामिहैष एव नो वरः ॥ ६
इसके बाद महेश्वर भवने सुधामृततुल्य दृष्टिसे देखकर सुरेश्वरोंसे कहा- 'आपलोगोंका कल्याण हो' तदनन्तर स्वामी शिवको देखकर निर्भय होकर बृहस्पतिने उन्हें प्रणाम करके कहा- 'हे ईश। ये देवता आपका दर्शन करके वरप्राप्ति के लिये आपके घर आये हुए हैं। देवताओंका अपकार करनेवाले दैत्यों आदिके द्वारा निर्विघ्नतापूर्वक समस्त कर्मोंकी सिद्धिके लिये आप सदा प्रार्थित हैं। अतः आप देवताओंके अपकारी दैत्योंके विघ्नयुक्त कर्मका कारण बनिये और प्रसन्न होइये; यही हमलोगोंका वर है' ॥३-६ ॥
ततस्तदा निशम्य वै पिनाकधृक् सुरेश्वरः ।
गणेश्वरं सुरेश्वरं वपुर्दधार सः शिवः ॥ ७
गणेश्वराश्च तुष्टुवुः सुरेश्वरा महेश्वरम्।
समस्तलोकसम्भवं भवार्तिहारिणं शुभम् ॥ ८
इभाननाश्रितं वरं त्रिशूलपाशधारिणम् ।
समस्तलोकसम्भवं गजाननं तदाम्बिका ॥ ९
ददुः पुष्पवर्ष हि सिद्धा मुनीन्द्रा- स्तथा खेचरा देवसङ्घास्तदानीम्।
तदा तुष्टुवुश्चैकदन्तं सुरेशाः प्रणेमुर्गणेशं महेशं वितन्द्राः ॥ १०
तब यह सुनकर उन पिनाकधारी सुरेश्वर शिवने देवताओंके स्वामी गणेश्वरका शरीर धारण किया। तदनन्तर गणेश्वरों तथा [ब्रह्मा आदि] सुरेश्वरोंने समस्त लोकोंको उत्पन्न करनेवाले तथा संसारका कष्ट दूर करनेवाले शुभ [गजानन रूपी] महेश्वरकी स्तुति की इसके बाद अम्बिका [पार्वती] ने हाथीके समान मुख धारण किये हुए और [हाथोंमें] त्रिशूल तथा पाश लिये हुए समस्त लोकोंके उत्पादक कल्याणकारी गजाननको जन्म दिया उस समय सिद्धों, मुनियों, आकाशचारियों तथा देवताओंने पुष्पवृष्टि की; तब सुरेश्वरोंने आलस्यरहित होकर एकदन्त महेश्वर गणेशको प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति की ॥ ७-१० ॥
तदा तयोर्विनिर्गतः सुभैरवः समूर्तिमान् ।
स्थितो ननर्त बालकः समस्तमङ्गलालयः ॥ ११
विचित्रवस्वभूषणैरलङ्कृतो गजाननः ।
महेश्वरस्य पुत्रकोऽभिवन्द्य तातमम्बिकाम् ॥ १२
जातमात्रं सुतं दृष्ट्वा चकार भगवान् भवः ।
गजाननाय कृत्यांस्तु सर्वान् सर्वेश्वरः स्वयम् ।। १३
उस समय उन शिवा शिवसे उत्पन्न, विचित्र वस्त्र-आभूषणोंसे अलंकृत तथा सभी मंगलोंका आलय महेश्वर-पुत्र वह बालक गजानन मूर्तिमान् सुन्दर भैरवको भाँति स्थित होकर पिता [शिव] तथा माताकी वन्दना करके नृत्य करने लगा उत्पन्न हुए पुत्रको देखकर भगवान् सर्वेश्वर भवने गजाननके लिये सभी [जातकर्म आदि] संस्कारोंको स्वयं किया ॥ ११-१३ ॥
आदाय च कराभ्यां च सुसुखाभ्यां भवः स्वयम् ।
आलिङ्गयाघ्नाय मूर्धानं महादेवो जगद्गुरुः ॥ १४
तवावतारो दैत्यानां विनाशाय ममात्मज।
देवानामुपकारार्थं द्विजानां ब्रह्मवादिनाम् ॥ १५
यज्ञश्च दक्षिणाहीनः कृतो येन महीतले।
तस्य धर्मस्य विघ्नं च कुरु स्वर्गपथे स्थितः ॥ १६
अध्यापनं चाध्ययनं व्याख्यानं कर्म एव च।
योऽन्यायतः करोत्यस्मिंस्तस्य प्राणान् सदा हर ॥ १७
वर्णाच्च्युतानां नारीणां नराणां नरपुङ्गव।
स्वधर्मरहितानां च प्राणानपहर प्रभो ॥ १८
याः स्त्रियस्त्वां सदा कालं पुरुषाश्च विनायक।
यजन्ति तासां तेषां च त्वत्साम्यं दातुमर्हसि ।। १९
त्वं भक्तान् सर्वयत्नेन रक्ष बालगणेश्वर।
यौवनस्थांश्च वृद्धांश्च इहामुत्र च पूजितः ॥ २०
जगत्त्रयेऽत्र सर्वत्र त्वं हि विघ्नगणेश्वरः ।
सम्पूज्यो वन्दनीयश्च भविष्यसि न संशयः ॥ २१
मां च नारायणं वापि ब्रह्माणमपि पुत्रक।
यजन्ति यज्ञैर्वा विप्रैरग्रे पूज्यो भविष्यसि ॥ २२
त्वामनभ्यर्च्य कल्याणं श्रीतं स्मार्त च लौकिकम् ।
कुरुते तस्य कल्याणमकल्याणं भविष्यति ॥ २३
ब्राह्मणैः क्षत्रियैवैश्यैः शूद्रैश्चैव गजानन।
सम्पूज्य सर्वसिद्धयर्थं भक्ष्यभोज्यादिभिः शुभैः ।। २४
त्वां गन्धपुष्पधूपाद्यौरनभ्यर्च्य जगत्त्रये।
देवैरपि तथान्यैश्च लब्धव्यं नास्ति कुत्रचित् ॥ २५
अभ्यर्चयन्ति ये लोका मानवास्तु विनायकम् ।
ते चार्चनीयाः शक्राद्यैर्भविष्यन्ति न संशयः ।। २६
अजं हरिं च मां वापि शक्रमन्यान् सुरानपि।
विघ्नैर्बाधयसि त्वां चेन्नार्चयन्ति फलार्थिनः ।। २७
इसके बाद जगद्गुरु महादेव भवने स्वयं [अपने परम सुखदायक हाथोंसे उसे उठाकर, आलिंगन करके तथा उसके सिरको सूंघकर कहा-'हे मेरे पुत्र। तुम्हारा अवतार दैत्योंके विनाशके लिये और देवताओं तथा ब्रह्मवादी द्विजोंके उपकारके लिये हुआ है। जिसने पृथ्वीतलपर दक्षिणाविहीन यज्ञ किया है, तुम स्वर्गपथमें स्थित रहते हुए उसके धर्ममें विश्न डालो। इस पृथ्वीतलपर जो अन्यायपूर्वक अध्ययन, अध्यापन, व्याख्यान तथा [अन्य] कर्म करता हो; उसके प्राणोंको तुम सदा हरते रहो। है नरश्रेष्ठ। हे प्रभी। वर्णसे च्युत तथा अपने धर्मसे रहित पुरुषों एवं स्त्रियोंके प्राणोंको हर लो। हे विनायक! जो स्त्रियाँ तथा पुरुष सदा कालरूप तुम्हारी पूजा करें, तुम उन्हें अपना साम्य प्रदान करो। हे बालगणेश्वर! तुम इस लोक तथा परलोकमें पूजित होकर युवा और वृद्ध भक्तोंकी रक्षा सम्पूर्ण प्रयत्नसे करो। तुम तीनों लोकोंमें सर्वत्र विघ्नगणेश्वरके रूपमें पूजनीय तथा वन्दनीय होओगे; इसमें संशय नहीं है। हे पुत्र ! जो [विप्र] मेरी, विष्णुकी तथा ब्रह्माकी पूजा करते हैं अथवा [अग्निष्टोम आदि] यज्ञोंके द्वारा यजन करते हैं, उन ब्राह्मणोंके द्वारा भी सबसे पहले तुम पूज्य होओगे। तुम्हारी पूजा न करके जो कल्याणके लिये श्रौत- स्मार्त-लौकिक कर्म करेगा, उसका मंगल अमंगलके रूपमें परिवर्तित हो जायेगा। है गजानन! तुम समस्त कार्योंकी सिद्धिके लिये ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रोंके द्वारा शुभ भक्ष्य-भोज्य आदिसे भली-भाँति पूजाके योग्य होओगे। गन्ध, पुष्प, धूप आदिसे तुम्हारी पूजा किये बिना तीनों लोकोंमें कहीं भी देवताओं तथा अन्य लोगोंसे भी कुछ नहीं प्राप्त हो सकता है। जो मानव विनायकको पूजा करेंगे, वे इन्द्र आदिके द्वारा भी पूजनीय होंगे, इसमें सन्देह नहीं है। यदि फलकी इच्छा रखनेवाले तुम्हारी पूजा नहीं करते हों, तो वे चाहे ब्रह्मा, विष्णु, स्वयं मैं, इन्द्र अथवा अन्य देवता ही क्यों न हों, उन्हें तुम विघ्नोंसे बाधित करी ॥ १४-२७ ॥
ससर्ज च तदा विघ्नगणं गणपतिः प्रभुः ।
गणैः सार्धं नमस्कृत्वाप्यतिष्ठत्तस्य चाग्रतः ।। २८
तदाप्रभृति लोकेऽस्मिन् पूजयन्ति गणेश्वरम् ।
दैत्यानां धर्मविघ्नं च चकारासौ गणेश्वरः ॥ २९
एतद्वः कथितं सर्वं स्कन्दाग्रजसमुद्भवम् ।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि श्रावयेद्वा सुखी भवेत् ॥ ३०
तब प्रभु गणपतिने विघ्नगणोंको उत्पन्न किया और वे गणोंके साथ शिवजीको नमस्कार करके उनके आगे खड़े हो गये उसी समयसे लोग इस लोकमें गणपतिकी पूजा करने लगे और वे गणेश्वर दैत्योंके धर्ममें विघ्न डालने लगे। [हे ऋषियो।] मैंने आप लोगोंको स्कन्द (कार्तिकेय) के अग्रजकी उत्त्पत्तिका सम्पूर्ण आख्यान बता दिया। जो इसे पढ़ता है, सुनता है अथवा सुनाता है, वह सुखी हो जाता है ॥ २८ -३०॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे विनायकोत्पत्तिनमि पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०५ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहा पुराण के अन्तर्गत पूर्व भाग में 'विनायकोत्पत्ति' नामक एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १०५ ॥
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