लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] चौरानबेवाँ अध्याय
भगवान् के वाराहावतार की कथा, हिरण्याक्ष का वध तथा देवताओं द्वारा भगवान् वाराह की स्तुति
ऋषय ऊचुः
कथमस्य पिता दैत्यो हिरण्याक्षः सुदारुणः।
विष्णुना सूदितो विष्णुर्वाराहत्वं कथं गतः ॥१
तस्य शृङ्गं महेशस्य भूषणत्वं कथं गतम्।
एतत्सर्वं विशेषेण सूत वक्तुमिहार्हसि ॥ २
ऋषिगण बोले- हे सूतजी ! [भगवान्] विष्णुके द्वारा इस [अन्धक] का पिता महाभयंकर दैत्य हिरण्याक्ष कैसे मारा गया, विष्णुने वाराहका रूप क्यों धारण किया और उनकी सींगने महेश्वरका भूषणत्व कैसे प्राप्त किया? यह सब आप विशेषरूपसे बताइये ॥ १-२
सूत उवाच
हिरण्यकशिपोर्भाता हिरण्याक्ष इति स्मृतः ।
पुरान्धकासुरेशस्य पिता कालान्तकोपमः ॥ ३
देवाञ्जित्वाथ दैत्येन्द्रो बद्ध्वा च धरणीमिमाम्।
नीत्वा रसातलं चक्रे बन्दीमिन्दीवरप्रभाम् ॥ ४
सूतजी बोले- [हे ऋषियो।] हिरण्याक्ष हिरण्य- कशिपुका भाई कहा गया है। पूर्वकालमें असुरेन्द्र अन्धकके पिता दैत्येन्द्र हिरण्याक्षने, जो कालान्तकके समान था, देवताओंको जीतकर कमलके समान प्रभावाली इस पृथ्वीको बाँधकर रसातलमें ले जाकर उसे बन्दी बना लिया ॥ ३-४ ॥
ततः सब्रह्मका देवाः परिम्लानमुखश्रियः ।
बाधितास्ताडिता बद्धा हिरण्याक्षेण तेन वै। ५
बलिना दैत्यमुख्येन क्रूरेण सुदुरात्मना।
प्रणम्य शिरसा विष्णुं दैत्यकोटिविमर्दनम् ॥ ६
तदनन्तर बलशाली, क्रूर तथा अति दुरात्मा उस महादैत्य हिरण्याक्षके द्वारा सताये गये, पीटे गये तथा बाँधे गये ब्रह्मासहित मुरझाये मुखश्रीवाले सभी देवताओंने करोड़ों दैत्योंका संहार करनेवाले विष्णुको प्रणाम करके पृथ्वीके बन्धनका वृत्तान्त उन हरिको बताया ॥ ५-६॥
सर्वे विज्ञापयामासुर्धरणीबन्धनं हरेः।
श्रुत्वैतद्भगवान् विष्णुर्धरणीबन्धनं हरिः ॥ ७
भूत्वा यज्ञवराहोऽसौ यथा लिङ्गोद्भवे तथा।
दैत्यैश्च सार्धं दैत्येन्द्रं हिरण्याक्षं महाबलम् ॥ ८
दंष्ट्राग्रकोट्या हत्वैनं रेजे दैत्यान्तकृत्प्रभुः ।
कल्पादिषु यथापूर्वं प्रविश्य च रसातलम् ॥ ९
आनीय वसुधां देवीमङ्कस्थामकरोद् बहिः ।
ततस्तुष्टाव देवेशं देवदेवः पितामहः ॥ १०
शक्राद्यैः सहितो भूत्वा हर्षगद्गदया गिरा।
शाश्वताय वराहाय दंष्ट्रिणे दण्डिने नमः ॥ ११
नारायणाय सर्वाय ब्रह्मणे परमात्मने।
कर्ने धर्ने धरायास्तु हर्ने देवारिणां स्वयम्।
कर्वे नेत्रे सुरेन्द्राणां शास्त्रे च सकलस्य च ॥ १२
इस पृथ्वीबन्धनको सुनकर उन भगवान् श्रीहरि विष्णुने लिङ्ग-प्रादुर्भावके समय जैसा रूप धारण किया था, वैसा ही यज्ञवाराहका रूप धारणकर वे अपने दाँतोंके आगेके नुकीले भागसे [सभी] दैत्योंसहित महाबली दैत्यराज हिरण्याक्ष का वध करके सुशोभित हुए। दैत्योंका अन्त करनेवाले उन प्रभुने जैसे पूर्व कल्पोंमें रसातलमें प्रवेश किया था, वैसे ही रसातलमें प्रवेश करके पृथ्वीदेवीको अपनी गोदमें रखकर वहाँसे लाकर पुनः बाहर स्थापित कर दिया तत्पश्चात् देवदेव ब्रह्मा हर्षयुक्त गद्गद वाणीमें इन्द्र आदि [देवताओं] के साथ मिलकर [उन] देवेशकी स्तुति करने लगे- शाश्वत, दंष्ट्र (दाढ़) वाले, दण्डधारी, नारायण, सर्वमय, ब्रह्मस्वरूप, परमात्मा, पृथ्वीकी रचना तथा रक्षा करनेवाले, देवताओंके शत्रुओंका नाश करनेवाले, सुरेन्द्रोंके जनक एवं नायक और सबके नियन्ता [भगवान् ] वाराहको नमस्कार है॥ ७-९२॥
त्वमष्टमूर्तिस्त्वमनन्तमूर्ति- स्त्वमादिदेवस्त्वमनन्तवेदितः ।
त्वया कृतं सर्वमिदं प्रसीद सुरेश लोकेश वराह विष्णो ॥ १३
तथैकदंष्ट्राग्रमुखाग्रकोटि- भागैकभागार्धतमेन विष्णो।
हता: क्षणात्कामददैत्यमुख्याः स्वदंष्ट्रकोट्या सह पुत्रभृत्यैः ॥ १४
त्वयोद्धृता देव धरा धरेश धराधराकार धृताग्रदंष्ट्रे ।
धराधरैः सर्वजनैः समुत्रैः सुरासुरैः सेवितचन्द्रवका ॥ १५
त्वयैव देवेश विभो कृतश्च जयः सुराणामसुरेश्वराणाम्।
अहो प्रदत्तस्तु वरः प्रसीद वाग्देवतावारिजसम्भवाय ॥ १६
तव रोम्णि सकलामरेश्वरा नयनद्वये शशिरवी पदद्वये।
निहिता रसातलगता वसुन्धरा तव पृष्ठतः सकलतारकादयः ॥ १७
जगतां हिताय भवता वसुन्धरा भगवन् रसातलपुटं गता तदा।
अबलोद्धृता च भगवंस्तवैव सकलं त्वयैव हि धृतं जगद्गुरो ॥ १८
इति वाक्पतिर्बहुविधैस्तवार्चनैः प्रणिपत्य विष्णुममरैः प्रजापतिः ।
विविधान् वरान् हरिमुखात्तु लब्धवान् हरिनाभिवारिजदेहभृत्स्वयम् ॥ १९
हे सुरेश ! है लोकेश ! हे वाराह! हे विष्णो! आप अष्टमूर्ति हैं, आप अनन्तमूर्ति हैं, आप आदिदेव हैं, आप सर्वज्ञ हैं; आपने ही इस सम्पूर्ण जगत्की रचना की है; आप प्रसन्न होइये हे विष्णो! आपने एक दाढ़के अग्र भागकी कोटिके एक भागके आधे भागके बराबर अपनी दाढ़की कोटिंसे ही पुत्रों तथा सेवकोंसमेत कामद आदि प्रधान दैत्योंको क्षणभरमें मार डाला हे देव ! हे धरेश ! हे पर्वताकार ! हे सेवितचन्द्रक्या आपने दिग्गजों, सभी प्राणियों, समुद्री, देवताओं तथ असुरोंसहित पृथ्वीको उठा लिया और उसे अपनी दाढ़के अग्र भागपर रख लिया हे देवेश! हे विभो! आपने ही असुरोंपर देवताओंकी विजय दिलायी है। अहो, आपने ही सरस्वतीयुक्त ब्रह्माको वर दिया था; आप प्रसन्न हो जाइये सभी देवता आपके रोममें स्थित हैं, चन्द्रमा तथा सूर्य आपके दोनों नेत्रोंमें विराजमान हैं, रसातलमें गयौ हुई पृथ्वी आपके दोनों चरणोंमें निहित है, सम्पूर्ण करे आदि आपकी पीठपर स्थित हैं हे भगवन्। आपने रसातलमें गयी हुई अबला पृथ्वीका उद्धार जगत्के हितके लिये किया है। है भगवन् । हे जगद्गुरो ! आपने ही सबको धारण किया है इस प्रकार श्रीहरिके नाभिकमलसे उत्पन्न होनेवाले प्रजापति ब्रह्माने देवताओंके साथ अनेक प्रकारके स्तुतिवचनोंसे [वाराहरूपधारी] विष्णुको प्रणाम करके उन [भगवान्] विष्णुके मुखसे अनेक वर प्राप्त किये ॥ १३-१९ ॥
अथ तामुद्धृतां तेन धरां देवा मुनीश्वराः ।
मूर्त्यारोप्य नमश्चकुश्चक्रिणः सन्निधौ तदा ॥ २०
अनेनैव वराहेण चोद्धृतासि बएप्रदे।
कृष्णेनाक्लिष्टकार्येण शतहस्तेन विष्णुना॥ २३
धरणि त्वं महाभोगे भूमिस्त्वं धेनुरव्यये।
लोकानां धारणी त्वं हि मृत्तिके हर पातकम्॥ २२
मनसा कर्मणा वाचा वरदे वारिजेक्षणे।
त्ववा हतेन पापेन जीवामस्त्वत्प्रसादत:॥ २३
इसके बाद सभी देवताओं तथा मुनीश्वरोंने उन विष्णुके द्वारा लायी गयी पृथ्वीको [अपने] सिरसे लगाकर चक्रधारी विष्णुके सामने ही उसे नमस्कार किया। [वे बोले--] हे वरप्रदे! सहज क्रिया-कलापोंवाले तथा सैकड़ों हाथोंवाले वाराहरूपधारी इन विष्णुने ही आपका उद्धार किया है। हे धरणि! हे महाभोगे! आप भूमि हैं। हे अव्यये! आप धेनु हैं। हे मृत्तिके! आप लोकोंको धारण करनेवाली हैं; [हमारे] पापको दूर कीजिये। हे वरदे ! हे कमलनयने ! हमलोगोंद्वारा मन-वचन-कर्मसे किये गये पाप आपके द्वारा नष्ट किये जानेपर ही हमलोग आपकी कृपासे जीते हैं॥ २०--२३ ॥
इत्युक्ता सा तदा देवी धरा देवैरथाब्रवीत्।
वराहदंष्ट्राभिन्न्नायां धरायां मृत्तिकां द्विजा:॥ २४
मन्त्रेणानेन योबिभ्रत् मूर्ध्नि पापात्प्रमुच्यते।
आयुष्मान् बलवानू धन्य: पुत्रपौत्रसमन्वित:॥ २५
क्रमाद्धुवि दिवं प्राप्प कर्मान्ते मोदते सुरैः।
अथ देवे गते त्यक्त्वा वराहे क्षीरसागरम्॥ २६
वाराहरूपमनघं चचाल च धरा पुनः।
तस्य॒दुष्ट्राभराक्रान्ता देवदेवस्थ धीमतः॥ २७
यदृच्छया भव: पश्यन् जगाम जगदीश्वरः।
दंष्ट्रां जग्राह दृष्ट्वा तां भूषणार्थमथात्मन: ॥ २८
देवताओंके द्वारा ऐसा कहे जानेपर उन पृथ्वीदेवीने कहा--' हे द्विजो! जो [व्यक्ति] वाराहके दंष्ट्रासे खोदी गयी पृथ्वीकी मिट्टीको [पूर्वोक्त] इस मन्त्रसे अपने सिरपर धारण करता है, वह पापसे मुक्त हो जाता है; वह क्रमसे पृथ्वीलोकमें दीर्घजीवी, बलवान, धन्य और पुत्र-पौत्रसे युक्त होता है, पुनः प्रारब्ध कर्मके क्षीण होनेपर स्वर्ग प्राप्त करके देवताओंके साथ आनन्द मनाता है' इसके बाद निष्पाप वाराहरूपको त्यागकर भगवान् वाराहके क्षीरसागर चले जानेपर उन बुद्धिमान् देवदेवके दाढ़ोंके भारसे आक्रान्त पृथ्वी एक बार पुन: हिल गयी। संयोगवश यह सब देखते हुए जगत्के स्वामी शिव वहाँ पहुँच गये और उन्होंने उस दंष्ट्राको देखकर उसे अपने भूषणके लिये ग्रहण कर लिया। महादेवने उसे अपने श्मश्रु (दाढ़ी)-के केशके समीप विशाल वक्ष:स्थलपर धारण कर लिया॥ २४--२८॥
दधार चर महादेव: कूर्चान्ते वे महोरसि।
देवाश्च तुष्टुवुः सेन्द्रा देवदेवस्य वैभवम्॥ २९
धरा प्रतिष्ठिता होव॑ देवदेवेन लीलया।
भूतानां सम्प्लवे चापि विष्णोश्चैव कलेवरम्॥ ३०
ब्रह्मणएच तथान्येषां देवानामपि लीलया।
विभुरक़्विभागेन भूषितो न यदि प्रभुः॥ ३१
कथं विमुक्तिर्विप्राणां तस्मादुंष्ट्री महेश्वरः॥ ३२
तब इन्द्रसहित सभी देवगण देवदेव [शिव]-के ऐश्वर्यकी स्तुति करने लगे। इस प्रकार देवदेवने लीलापूर्वक पृथ्वीको प्रतिष्ठित किया। महाप्रलयकालमें भी विष्णु, ब्रह्मा तथा अन्य देवताओंके कलेवरको देखकर यदि सर्वव्यापक प्रभु [शिव] भक्तवात्सल्यके कारण [विष्णुके] अंगके अंश [उस द्रंष्ट ]-से विभूषित न होते, तो विप्रोंकी मुक्ति कैसे होती; अत: महेश्वर दंष्ट्री हैं ॥ २९--३२॥
॥इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे वाराहप्रादुर्भावो नाम चतुर्नवतितमोउध्याय: ॥ ९४ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणे अन्तर्गत पूर्वभायमें 'वाराहप्रादुर्भाव नायक चौरानबेवों अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९४ ॥
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