लिंग पुराण : सभी पापों का उच्छेदक तथा शिवसायुज्य प्रदान करने वाला व्यपोहनस्तव और उसके पाठका फल | Linga Purana: Vyapohanastva which removes all sins and provides Shivasayujya and the results of its reader

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] बयासीवाँ अध्याय

सभी पापों का उच्छेदक तथा शिव सायुज्य प्रदान करने वाला व्यपोहनस्तव और उस के पाठ का फल

सूत उवाच

व्यपोहनस्तवं वक्ष्ये सर्वसिद्धिप्रदं शुभम्।
नन्दिनश्च मुखाच्छ्रुत्वा कुमारेण महात्मना ॥ १

व्यासाय कथितं तस्माद् बहुमानेन वै मया।
नमः शिवाय शुद्धाय निर्मलाय यशस्विने ॥ २

दुष्टान्तकाय सर्वांय भवाय परमात्मने।
पञ्चवक्त्रो दशभुजो हाक्षपञ्चदशैर्युतः ॥ ३

शुद्धस्फटिकसङ्काशः सर्वाभरणभूषितः ।
सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः सर्वोपरि सुसंस्थितः ॥ ४

सूतजी बोले [हे ऋषियो! अब मैं सभी सिद्धियोंको प्रदान करनेवाले मंगलमय व्यपौहनस्तवको बताऊँगा; इसे नन्दीके मुखसे सुनकर महात्मा सनत्कुमारने व्यासजीको बताया और उनसे परम आदरपूर्वक मैंने सुना। कल्याणकारी, शुद्ध, निर्मल, यशस्वी, दुष्टोंका नाश करनेवाले, सर्व, भव तथा परमात्माको नमस्कार है। पाँच मुखोंवाले, दस भुजाओंवाले, पन्द्रह नेत्रोंसे युक्त, शुद्ध स्फटिकके सदृश कान्तिमान्, सभी आभूषणोंसे विभूषित, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, शान्त, सबसे ऊपर प्रतिष्ठित तथा पद्मासनपर स्थित उमासहित भगवान् शिव पापको शीघ्र दूर करें ॥१-४ ॥

पद्मासनस्थः सोमेशः पापमाशु व्यपोहतु।
ईशानः पुरुषश्चैव अघोरः सद्य एव च॥ ५

वामदेवश्च भगवान् पापमाशु व्यपोहतु।
अनन्तः सर्वविद्येशः सर्वज्ञः सर्वदः प्रभुः ॥ ६

शिवध्यानैकसम्पन्नः स मे पापं व्यपोहतु।
सूक्ष्मः सुरासुरेशानो विश्वेशो गणपूजितः ॥ ७

शिवध्यानैकसम्पन्नः स मे पापं व्यपोहतु।
शिवोत्तमो महापूज्यः शिवध्यानपरायणः ॥ ८

सर्वगः सर्वदः शान्तः स मे पापं व्यपोहतु।
एकाक्षो भगवानीशः शिवार्चनपरायणः ॥ ९

ईशान, तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात तथा भगवान् वामदेव पापको शोघ्र दूर करें। वे अनन्त, सर्वविद्दधेश, सर्वज्ञ, सर्वद, प्रभु तथा शिवध्यानैकसम्पन्न मेरे पापको दूर करें। वे सूक्ष्म, सुरासुरेशान, विश्वेश, गणपूजित तथा शिवध्यानैकसम्पन्न मेरे पापको दूर करें। वे शिवोत्तम, महापूज्य, शिवध्यानपरायण, सर्वग, सर्वद तथा शान्त मेरे पापको दूर करें। वे एकाक्ष, भगवान्, ईश, शिवार्चन-परायण तथा शिवध्यानैकसम्पन्न सदा मेरे पापको दूर करें ॥५-९॥

शिवध्यानैकसम्पन्नः स मे पापं व्यपोहतु।
त्रिमूर्तिर्भगवानीशः शिवभक्तिप्रबोधकः ॥ १०

शिवध्यानैकसम्पन्नः स मे पापं व्यपोहतु।
श्रीकण्ठः श्रीपतिः श्रीमान् शिवध्यानरतः सदा ॥ ११

शिवार्चनरतः साक्षात् स मे पापं व्यपोहतु।
शिखण्डी भगवान् शान्तः शवभस्मानुलेपनः ॥ १२

वे त्रिमूर्ति, भगवान्, ईश, शिवभक्तिप्रबोधक तथा शिवध्यानैकसम्पन्न मेरे पापको दूर करें। वे श्रीकण्ठ, श्रीपति, श्रीमान्, सदा शिवध्यानरत तथा शिवार्चनरत मेरे पापको दूर करें। वे शिखण्डी, भगवान्, शान्त, शवभस्मानुलेपन, शिवार्चनरत तथा श्रीमान् मेरे पापको दूर करें ॥ १०-१२॥

शिवार्चनरतः श्रीमान् स मे पापं व्यपोहतु।
त्रैलोक्यनमिता देवी सोल्काकारा पुरातनी ॥ १३

दाक्षायणी महादेवी गौरी हैमवती शुभा।
एकपर्णाग्रजा सौम्या तथा वै चैकपाटला ॥ १४

अपर्णा वरदा देवी वरदानैकतत्परा।
उमासुरहरा साक्षात्कौशिकी वा कपर्दिनी ॥ १५

खट्वाङ्गधारिणी दिव्या कराग्रतरुपल्लवा।
नैगमेयादिभिर्दिव्यैश्चतुर्भिः पुत्रकैर्वृता ॥ १६

मेनाया नन्दिनी देवी वारिजा वारिजेक्षणा।
अम्बा या वीतशोकस्य नन्दिनश्च महात्मनः ॥ १७

शुभावत्याः सखी शान्ता पञ्चचूडा वरप्रदा।
सृष्ट्यर्थं सर्वभूतानां प्रकृतित्वं गताव्यया ॥ १८

त्रयोविंशतिभिस्तत्त्वैर्महदाद्यैर्विजृम्भिता।
लक्ष्म्यादिशक्तिभिर्नित्यं नमिता नन्दनन्दिनी ॥ १९

मनोन्मनी महादेवी मायावी मण्डनप्रिया।
मायया या जगत्सर्वं ब्रह्माद्यं सचराचरम् ॥ २०

क्षोभिणी मोहिनी नित्यं योगिनां हृदि संस्थिता । 
एकानेकस्थिता लोके इन्दीवरनिभेक्षणा ॥ २१

भक्त्या परमया नित्यं सर्वदेवैरभिष्टुता ।
गणेन्द्राम्भोजगर्भेन्द्रयमवित्तेशपूर्वकैः ॥ २२

संस्तुता जननी तेषां सर्वोपद्रवनाशिनी। 
भक्तानामार्तिहा भव्या भवभावविनाशनी ॥ २३

भुक्तिमुक्तिप्रदा दिव्या भक्तानामप्रयत्नतः । 
सा मे साक्षान्महादेवी पापमाशु व्यपोहतु ॥ २४

जो तीनों लोकोंद्वारा नमस्कृत, उल्काके आकारवाली, सनातनी देवी, दक्षकन्या, महादेवी, गौरी, हिमालयपुत्री, कल्याणमयी, एकपर्णा, अग्रजा, सौम्या, एकपाटला, अपर्णा, वरदायिनी, वरप्रदान करनेमें सदा तत्पर, उमा, असुरोंका संहार करनेवाली साक्षात् कौशिकी, कपर्दिनी खट्वांग धारण करनेवाली, दिव्य, हाथके अग्रभागमें वृक्षका पल्लव धारण करनेवाली, नैगमेय आदि बातें दिव्य पुत्रोंसे घिरी हुई, मेनाकी पुत्री, जलसे उत्पन्न, कमलके समान नेत्रोंवाली, शोकरहित महात्मा नन्दीकी अम्बा (माता), शुभावतीको सखी, शान्त स्वभाववाली, पंचचूड़ा, वर प्रदान करनेवाली, सभी प्राणियोंकी सृष्टिके लिये प्रकृतिके स्वरूपको प्राप्त, अव्यय (शाश्वत), महत् आदि तेईस तत्त्वोंसे सम्पन्न, लक्ष्मी आदि शक्तियोंसे सदा नमस्कृत, नन्दनन्दिनी, महादेवी मनोन्मनी, मायामयी, अलंकरणसे प्रीति करनेवाली, [अपनी] मायासे ब्रह्मा आदि तथा चराचरसहित सम्पूर्ण जगत्‌को क्षुब्ध एवं मोहित करनेवाली, योगियोंक हृदयमें सर्वदा विराजमान, संसारमें एक तथा अनेक रूपोंमें स्थित, नीलकमलके समान नेत्रोंवाली, गणेश्वरों- ब्रह्मा-इन्द्र-यम-कुबेर आदि सभी देवताओंके द्वारा परम भक्तिसे नित्य स्तुत होनेवाली, [उनके द्वारा] स्तुत होकर उनकी माताके रूपमें सभी विपत्तियोंका नाश करनेवाली, भक्तकि कष्टोंका हरण करनेवाली, भव्य, सांसारिक भावोंको नष्ट करनेवाली, दिव्य और बिना प्रयासके भक्तोंको भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं- वे साक्षात् महादेवी मेरे पापको शीघ्र दूर करें ॥ १३-२४॥

चण्डः सर्वगणेशानो मुखाच्छम्भोर्विनिर्गतः । 
शिवार्चनरतः श्रीमान् स मे पापं व्यपोहतु ॥ २५

शालङ्कायनपुत्रस्तु हलमार्गोत्थितः प्रभुः ।
जामाता मरुतां देवः सर्वभूतमहेश्वरः ॥ २६

सर्वगः सर्वदृक् शर्वः सर्वेशसदृशः प्रभुः । 
सनारायणकैर्देवैः सेन्द्रचन्द्रदिवाकरैः ॥ २७

सिद्धैश्च यक्षगन्धर्वैर्भूतैर्भूतविधायकैः ।
उरगैर्ऋषिभिश्चैव ब्रह्मणा च महात्मना ॥ २८

स्तुतस्त्रैलोक्यनाथस्तु मुनिरन्तःपुरं स्थितः ।
सर्वदा पूजितः सर्वैर्नन्दी पापं व्यपोहतु ॥ २९

जो सभी गणोंके ईश, शम्भुके मुखसे निकले हुए, शिवार्चनमें लीन तथा श्रीयुक्त चण्ड हैं; वे मेरे पापको दूर करें। शालंकायन के पुत्र, हलमार्ग से उत्पन्न, ऐश्वर्यशाली, मरुतोंके जामाता, देवता, सभी भूतोंके महेश्वर, सर्वव्यापी, सर्वद्रष्टा, शर्व, सर्वेश्वरके समान प्रभुत्वसम्पन्न, नारायण- इन्द्र-चन्द्र-सूर्य आदि देवताओं-सिद्धों-यक्षों-गन्धवाँ- भूतों, भूतोंका सृजन करनेवालों-उरगों-ऋषियों-महात्मा ब्रह्माके द्वारा स्तुत, तीनों लोकोंके स्वामी, मुनियोंके हृदयमें विराजमान और सबके द्वारा सर्वदा पूजित नन्दी [मेरे] पापको दूर करें ॥ २५-२९ ॥

महाकायो महातेजा महादेव इवापरः। 
शिवार्चनरतः श्रीमान् स मे पापं व्यपोहतु ॥ ३०

मेरुमन्दारकैलासतटकूटप्रभेदनः ।
ऐरावतादिभिर्दिव्यैर्दिग्गजैश्च सुपूजितः ॥ ३१

सप्तपातालपादश्च सप्तद्वीपोरुजङ्गकः ।
सप्ताणंवाङ्कुशश्चैव सर्वतीर्थोदरः शिवः ॥ ३२

आकाशदेहो दिग्बाहुः सोमसूर्याग्निलोचनः । 
हतासुरमहावृक्षो ब्रह्मविद्यामहोत्कटः ॥ ३३

ब्रह्माद्याधोरणैर्दिव्यैर्योगपाशसमन्वितैः ।
बद्धो हृत्पुण्डरीकाख्ये स्तम्भे वृत्तिं निरुध्य च ।। ३४

नागेन्द्रवक्त्रो यः साक्षाद् गणकोटिशतैर्वृतः ।
शिवध्यानैकसम्पन्नः स मे पापं व्यपोहतु ॥ ३५

महातेजस्वी, दूसरे महादेवसदृश, श्रीयुक्त तथा शिवके अर्चनमें लीन महाकाय मेरे पापको दूर करें। जो मेरु, मन्दर, कैलासकी चोटियोंका भेदन करनेवाले हैं; जो ऐरावत आदि दिव्य दिग्गजोंसे सम्यक् पूजित हैं; सातों पाताल जिनके पैर हैं; सातों द्वीप जिनके ऊरु तथा जंघा हैं; सातों समुद्र जिनके अंकुश हैं; सभी तीर्थ जिनके उदर हैं; जो कल्याण कारी हैं; आकाश जिनका शरीर है; दिशाएँ जिनकी भुजाएँ हैं; चन्द्र, सूर्य तथा अग्नि जिनके नेत्र हैं; जिन्होंने असुर रूपी महावृक्षको काट डाला है; जो ब्रह्मविद्यासे परम उत्कट हैं; अपनी चित्तवृत्तिको रोककर दिव्य तथा योगपाशसे समन्वित ब्रह्मा आदि महावतोंक द्वारा जो हृदयकमलरूपी स्तम्भमें आबद्ध किये गये हैं; जो गजराजके समान मुखवाले हैं; जो साक्षात् करोड़ों गणोंसे घिरे हुए हैं तथा जो एकमात्र शिवध्यानमें लीन हैं, वे [गजानन] मेरे पापको दूर करें ॥ ३०-३५ ॥ 

भृङ्गीशः पिङ्गलाक्षोऽसौ भसिताशस्तु देहयुक् ।
शिवार्चनरतः श्रीमान् स मे पापं व्यपोहतु ॥ ३६

चतुर्भिस्तनुभिर्नित्यं सर्वासुरनिबर्हणः ।
स्कन्दः शक्तिधरः शान्तः सेनानीः शिखिवाहनः ।। ३७

देवसेनापतिः श्रीमान् स मे पापं व्यपोहतु।
भवः शर्वस्तथेशानो रुद्रः पशुपतिस्तथा ॥ ३८

उग्रो भीमो महादेवः शिवार्चनरतः सदा।
एताः पापं व्यपोहन्तु मूर्तयः परमेष्ठिनः ॥ ३९

महादेवः शिवो रुद्रः शङ्करो नीललोहितः ।
ईशानो विजयो भीमो देवदेवो भवोद्भवः ॥ ४०

कपालीशश्च विज्ञेयो रुद्रा रुद्रांशसम्भवाः ।
शिवप्रणामसम्पन्ना व्यपोहन्तु मलं मम ॥ ४१

विकर्तनो विवस्वांश्च मार्तण्डो भास्करो रविः ।
लोकप्रकाशकश्चैव लोकसाक्षी त्रिविक्रमः ॥ ४२

आदित्यश्च तथा सूर्यश्चांशुमांश्च दिवाकरः ।
एते वै द्वादशादित्या व्यपोहन्तु मलं मम ॥ ४३

जो पिंगल वर्णक नेत्रवाले, भस्मको ग्रहण करनेवाले, विशिष्ट देहयुक्त, शिवार्चनमें लीन तथा ऐश्वर्यसम्पन्न हैं, वे भृंगीश मेरे पापको दूर करें। जो [अपने] चार शरीरोंसे सर्वदा सभी असुरोंका संहार करनेवाले, शक्तिधर, शान्तस्वभाव, सेनानी, मयूर वाहनवाले, देवसेनाके सेनापति तथा श्रीसम्पन्न हैं, वे स्कन्द मेरे पापको दूर करें। शिवार्चनमें सदा संलग्न, भव, शर्व, ईशान, रुद्र, पशुपति, उग्र, भीम तथा महादेव, परमेष्ठी [सदाशिव]- की ये मूर्तियाँ [मेरे] पापको दूर करें महादेव, शिव, रुद्र, शंकर, नीललोहित, ईशान, विजय, भीम, देवदेव भवोद्भव, कपाली तथा ईश-ये रुद्रके अंशसे उत्पन्न हैं, अतः इन्हें रुद्र ही जानना चाहिये; शिवको प्रणाम करनेमें तत्पर ये [रुद्र] मेरे पापको दूर करें विकर्तन, विवस्वान्, मार्तण्ड, भास्कर, रवि लोकप्रकाशक, लोकसाक्षी, त्रिविक्रम, आदित्य, सूर्य, अंशुमान् तथा दिवाकर ये बारह आदित्य मेरे पापको दूर करें ॥ ३६-४३ ॥

गगर्न स्पर्शनं तेजो रसश्च पृथिवी तथा।
चन्द्रः सूर्यस्तथात्मा च तनवः शिवभाषिताः ॥ ४४

पापं व्यपोहन्तु मम भयं निर्नाशयन्तु मे।
वासवः पावकश्चैव यमो निर्ऋतिरेव च ॥ ४५

वरुणो वायुसोमौ च ईशानो भगवान् हरिः । 
पितामहश्च भगवान् शिवध्यानपरायणः ।। ४६

एते पापं व्यपोहन्तु मनसा कर्मणा कृतम्।
नभस्वान् स्पर्शनो वायुरनिलो मारुतस्तथा ।। ४७

प्राणः प्राणेशजीवेशौ मारुतः शिवभाषिताः ।
शिवार्चनरताः सर्वे व्यपोहन्तु मलं मम ॥ ४८

खेचरी वसुचारी च ब्रहोशो ब्रह्म ब्रह्मधीः । 
सुषेणः शाश्वतः पुष्टः सुपुष्टश्च महाबलः ।॥ ४९

एते वै चारणाः शम्भोः पूजयातीव भाविताः ।
व्यपोहन्तु मलं सर्वं पापं चैव मया कृतम् ॥५०

आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य तथा आत्मा-ये शिवजीकी मूर्तियाँ कही गयी हैं; ये मेरे पापको दूर करें और मेरे भयका नाश करें। इन्द्र, पावक, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, सोम, ईशान, भगवान् हरि तथा शिवध्यानमें लीन प्रभु ब्रह्मा-ये मेरेद्वारा मन तथा कर्मसे किये गये पापको दूर करें नभस्वान्, स्पर्शन, वायु, अनिल, मारुत, प्राण, प्राणेश और जीवेश ये सब शिवभाषित तथा शिवार्चनपरायण मारुत मेरे पापको दूर करें। खेचरी, वसुचारी, ब्रहोश, ब्रा, ब्रह्मधी, सुषेण, शाश्वत, पुष्ट, सुपुष्ट, महाबल- ये चारण जो शम्भुकी पूजासे अत्यन्त पवित्र हैं, मेरेद्वारा किये गये समस्त पाप तथा दोषको दूर करें ॥ ४३-५०॥

मन्त्रज्ञो मन्त्रवित्प्राज्ञो मन्त्रराट् सिद्धपूजितः ।
सिद्धवत्परमः सिद्धः सर्वसिद्धिप्रदायिनः ॥ ५१ 
व्यपोहन्तु मलं सर्वे सिद्धाः शिवपदार्चकाः ।
यक्षो यक्षेश धनदो जुम्भको मणिभद्रकः ॥ ५२ 
पूर्णभद्रेश्वरो माली शितिकुण्डलिरेव च।
नरेन्द्रश्चैव यक्षेशा व्यपोहन्तु मलं मम ॥ ५३ 
अनन्तः कुलिकश्चैव वासुकिस्तक्षकस्तथा।
कर्कोटको महापद्मः शङ्खपालो महाबलः ॥५४ 
शिवप्रणामसम्पन्नाः शिवदेहप्रभूषणाः ।
मम पापं व्यपोहन्तु विषं स्थावरजङ्गमम् ।। ५५ 
वीणाज्ञः किन्नरश्चैव सुरसेनः प्रमर्दनः ।
अतीशयः सप्रयोगी गीतज्ञश्चैव किन्नराः ॥ ५६ 
शिवप्रणामसम्पन्नाः व्यपोहन्तु मलं मम।
विद्याधरश्च विबुधो विद्याराशिर्विदां वरः ॥ ५७ 
विबुद्धो विबुधः श्रीमान् कृतज्ञश्च महायशाः ।
एते विद्याधराः सर्वे शिवध्यानपरायणाः ॥ ५८ 

मन्त्रज्ञ, मन्त्रविद्, प्राज्ञ, मन्त्रराट्, सिद्धपूजित, सिद्धवत् और परमसिद्ध ये सभी [सप्त] सिद्धगण जो सभी सिद्धियोंके प्रदाता तथा शिवके चरणोंके उपासक हैं, मेरे पापको दूर करें। यक्ष, यक्षेश, धनद, जृम्भक, मणिभद्रक, पूर्णभद्रेश्वर, माली, शितिकुण्डलि और नरेन्द्र- ये यक्षोंके स्वामी मेरे पापको दूर करें  शिवके प्रणाममें रत तथा शिवके शरीरके आभूषणस्वरूप अनन्त, कुलिक, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, महापदा, शंखपाल और महाबल मेरे पापको तथा स्थावर जंगम विषको दूर करें शिवको प्रणाम करनेमें तल्लीन वीणाज्ञ, किन्नर, सुरसेन, प्रमर्दन, अतीशय, सप्रयोगों और गीतज्ञ ये किन्नरगण मेरे पापको दूर करें। विद्याधर विबुध, विद्याराशि, विदांवर, विबुद्ध, विबुध, श्रीमान्, कृतज्ञ और महायश ये सभी शिवध्यानपरायण विद्याधर महादेवकी कृपासे मेरे घोर पापको दूर करें ॥ ५१ -५८॥

व्यपोहन्तु मलं घोरं महादेवप्रसादतः ।
वामदेवी महाजम्भः कालनेमिर्महाबलः ॥ ५९

सुग्रीवो मर्दकश्चैव पिङ्गलो देवमर्दनः ।
प्रह्लादश्चाप्यनुह्लादः संह्रादः किल बाष्कली ॥ ६०

जम्भः कुम्भश्च मायावी कार्तवीर्यः कृतञ्जयः ।
एतेऽसुरा महात्मानो महादेवपरायणाः ॥ ६१

व्यपोहन्तु भयं घोरमासुरं भावमेव च।
गरुत्मान् खगतिश्चैव पक्षिराट् नागमर्दनः ॥ ६२

नागशत्रुर्हिरण्याङ्गो वैनतेयः प्रभञ्जनः ।
नागाशीर्विषनाशश्च विष्णुवाहन एव च।॥ ६३

एते हिरण्यवर्णाभा गरुडा विष्णुवाहनाः।
नानाभरणसम्पन्ना व्यपोहन्तु मलं मम ॥ ६४

अगस्त्यश्च वसिष्ठश्च अङ्गिरा भृगुरेव च।
काश्यपो नारदश्चैव दधीचश्च्यवनस्तथा ॥ ६५

उपमन्युस्तथान्ये च ऋषयः शिवभाविताः।
शिवार्चनरताः सर्वे व्यपोहन्तु मलं मम ।। ६६

पितरः पितामहाश्च तथैव प्रपितामहाः।
अग्निष्वात्ता बर्हिषदस्तथा मातामहादयः ॥ ६७

व्यपोहन्तु भयं पापं शिवध्यानपरायणाः ।
लक्ष्मीश्च धरणी चैव गायत्री च सरस्वती ॥ ६८

दुर्गा उषा शची ज्येष्ठा मातरः सुरपूजिताः।
देवानां मातरश्चैव गणानां मातरस्तथा ॥ ६९

भूतानां मातरः सर्वा यत्र या गणमातरः।
प्रसादाद्देवदेवस्य व्यपोहन्तु मलं मम ॥ ७०

वामदेवी, महाजम्भ, कालनेमि, महाबल, सुग्रीव, मर्दक, पिंगल, देवमर्दन, प्रह्लाद, अनुह्रह्लाद, संह्लाद, बाष्कलद्वय, जम्भ, कुम्भ, मायावी, कार्तवीर्य, कृतंजय ये महादेवपरायण महात्मा असुर मेरे घोर भय तथा  आसुरी भावको दूर करें। गरुत्मान्, खगति, पक्षिराट् नागमर्दन, नागशत्रु, हिरण्यांग, वैनतेय, प्रभंजन, नागाशी, विषनाश, विष्णुवाहन- ये सुवर्णके रंगवाले तथा अनेकविध आभूषणोंसे युक्त विष्णुवाहन गरुड़ मेरे पापको दूर करें अगस्त्य, वसिष्ठ, अंगिरा, भृगु, काश्यप, नारद, दधीच, व्यवन, उपमन्यु- ये तथा अन्य शिवभक्त और शिवार्चनपरायण समस्त ऋषि मेरे पापको दूर करें  शिवके ध्यानमें तल्लीन रहनेवाले पिता, पितामह, प्रपितामह, अग्निष्वात्त, बर्हिषद् तथा मातामह आदि [मेरे] भय तथा पापको दूर करें। लक्ष्मी, धरणी, गायत्री, सरस्वती, दुर्गा, उषा, शची तथा ज्येष्ठा-ये देवपूजित माताएँ, देवताओंकी माताएँ, गणोंकी माताएँ, भूतोंकी माताएँ तथा अन्य जो भी गणमाताएँ जहाँ-कहीं भी हों वे सब देवदेव [शिव] के अनुग्रहसे मेरे पापको दूर करें ॥ ५९ -७० ॥

उर्वशी मेनका चैव रम्भारतितिलोत्तमाः ।
सुमुखी दुर्मुखी चैव कामुकी कामवर्धनी ॥ ७१

तथान्याः सर्वलोकेषु दिव्याश्चाप्सरसस्तथा।
शिवाय ताण्डवं नित्यं कुर्वन्त्योऽतीव भाविताः ।। ७२

देव्यः शिवार्चनरता व्यपोहन्तु मलं मम। 
अर्कः सोमोऽङ्गारकश्च बुधश्चैव बृहस्पतिः ।। ७३

शुक्रः शनैश्चरश्चैव राहुः केतुस्तथैव च।
व्यपोहन्तु भयं घोरं ग्रहपीडां शिवार्चकाः ॥ ७४

मेषो वृषोऽथ मिथुनस्तथा कर्कटकः शुभः।
सिंहश्च कन्या विपुला तुला वै वृश्चिकस्तथा ।। ७५

धनुश्च मकरश्चैव कुम्भो मीनस्तथैव च।
राशयो द्वादश होते शिवपूजापरायणाः ।। ७६

व्यपोहन्तु भयं पापं प्रसादात्परमेष्ठिनः ।
अश्विनी भरणी चैव कृत्तिका रोहिणी तथा ॥ ७७

श्रीमन्मृगशिरश्चार्द्रा पुनर्वसुपुष्यसार्पकाः ।
मघा वै पूर्वफाल्गुन्य उत्तराफाल्गुनी तथा ॥ ७८

हस्तश्चित्रा तथा स्वाती विशाखा चानुराधिका। 
ज्येष्ठा मूलं महाभागा पूर्वाषाढा तथैव च ॥ ७९

उत्तराषाढिका चैव श्रवणं च श्रविष्ठिका।
शतभिषक्पूर्वभद्रा च तथा प्रोष्ठपदा तथा ॥ ८०

अत्यन्त भक्तियुक्त होकर शिवके लिये नित्य ताण्डव [नृत्य] करनेवाली तथा शिवार्चनमें रत रहनेवाली उर्वशी, मेनका, रम्भा, रति, तिलोत्तमा, सुमुखी, दुर्मुखी, कामुकी, कामवर्धनी- ये तथा सभी लोकोंकी अन्य दिव्य अप्सराएँ और देवियाँ मेरे पापको दूर करें शिव का अर्चन करनेवाले सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर, राहु और केतु [मेरे] घोर भय तथा ग्रहकष्टका निवारण करें। मेष, वृष, मिथुन, शुभ कर्क, सिंह, कन्या, विशद तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ तथा मीन- ये बारह शिवपूजापरायण राशियाँ महेश्वरकी कृपासे [मेरे] भय तथा पापको दूर करें। अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, श्रीयुक्त मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, महाभाग पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा शतभिषा, पूर्वभाद्रपद, उत्तरभाद्रपद तथा रेवती- ये देवियाँ निरन्तर मेरे पापको दूर करें ॥ ७१-८०॥ 

पौष्णं च देव्यः सततं व्यपोहन्तु मलं मम।
ज्वरः कुम्भोदरश्चैव शङ्कुकर्णो महाबलः ॥ ८१

महाकर्णः प्रभातश्च महाभूतप्रमर्दनः । 
श्येनजिच्छिवदूतश्च प्रमथाः प्रीतिवर्धनाः ॥ ८२

कोटिकोटिशतैश्चैव भूतानां मातरः सदा। 
व्यपोहन्तु भयं पापं महादेवप्रसादतः ॥ ८३

शिवध्यानैकसम्पन्नो हिमराडम्बुसन्निभः । 
कुन्देन्दुसदृशाकारः कुम्भकुन्देन्दुभूषणः ।। ८४

वडवानलशत्रुर्यो वडवामुखभेदनः । 
चतुष्यादसमायुक्तः क्षीरोद इव पाण्डुरः ॥ ८५

रुद्रलोके स्थितो नित्यं रुद्रैः सार्धं गणेश्वरैः । 
वृषेन्द्रो विश्वधृग्देवो विश्वस्य जगतः पिता ॥ ८६

वृतो नन्दादिभिर्नित्यं मातृभिर्मखमर्दनः । 
शिवार्चनरतो नित्यं स मे पापं व्यपोहतु ॥ ८७

ज्वर, कुम्भोदर, शंकुकर्ण, महाबल, महाकर्ण, प्रभात, महाभूतप्रमर्दन, श्येनजित, शिवदूत- ये प्रीति- वर्धक प्रमचगण और करोड़ों-करोड़ों भूतोंसहित माताएँ महादेवकी कृपासे [मेरे] भय तथा पापको सर्वदा दूर करें जो एकमात्र शिवके ध्यानमें तल्लीन, हिमालयसे प्रादुर्भूत गंगाके जलके समान पापनाशक, कुन्द [पुष्प] तथा चन्द्रमाके समान आकार वाले, कुम्भ-कुन्दपुष्यों तथा इन्दुको भूषणके रूपमें धारण करनेवाले, बड़‌वानलके शत्रु, बड़वाके मुखका भेदन करने वाले हैं, चार पैरोंवाले, क्षीरसागरके समान पाण्डुर वर्णवाले, रुद्रों तथा गणेश्वरोंके साथ सदा रुद्रलोकमें रहने वाले, विश्वको धारण करनेवाले, सम्पूर्ण जगत्के पित्ता, नन्दा आदि माताओंसे सदा घिरे हुए, यज्ञका नाश करने वाले तथा शिवार्चनपरायण हैं- वे वृषेन्द्र मेरे पापको सदा दूर करें ॥ ८१-८७ ॥

गङ्गा माता जगन्माता रुद्रलोके व्यवस्थिता। 
शिवभक्ता तु या नन्दा सा मे पापं व्यपोहतु ॥ ८८

भद्रा भद्रपदा देवी शिवलोके व्यवस्थिता । 
माता गवां महाभागा सा मे पापं व्यपोहतु ॥ ८९

सुरभिः सर्वतोभद्रा सर्वपापप्रणाशनी। 
रुद्रपूजारता नित्यं सा मे पापं व्यपोहतु ॥ ९०

सुशीला शीलसम्पन्ना श्रीप्रदा शिवभाविता। 
शिवलोके स्थिता नित्यं सा मे पापं व्यपोहतु ॥ ९१

वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः सर्वकार्याभिचिन्तकः ।
समस्तगुणसम्पन्नः सर्वदेवेश्वरात्मजः ॥ ९२

ज्येष्ठः सर्वेश्वरः सौम्यो महाविष्णुतनुः स्वयम् । 
आर्यः सेनापतिः साक्षाद् गहनो मखमर्दनः ॥ ९३

ऐरावतगजारूढः कृष्णकुञ्चितमूर्धजः । 
कृष्णाङ्गो रक्तनयनः शशिपन्नगभूषणः ॥ ९४

भूतैः प्रेतैः पिशाचैश्च कूष्माण्डैश्च समावृतः । 
शिवार्चनरतः साक्षात् स मे पापं व्यपोहतु ॥ ९५

रुद्र लोक में स्थित जगज्जननी गंगामाता मेरे पापको दूर करें। जो शिव भक्त नन्दा नामक गौ हैं, वे मेरे पापको दूर करें। भद्रपदवाली, शिवलोकमें स्थित, गायोंकी माता महाभाग्यशालिनी जो देवी भद्रा नामक गौ हैं, वे मेरे पापको दूर करें। सब प्रकारसे कल्याण करनेवाली, सभी पापोंका नाश करनेवाली तथा सदा रुद्रपूजामें लीन रहनेवाली वे सुरभि नामक गौ मेरे पापको दूर करें। शीलसे सम्पन्न, ऐश्वर्यं प्रदान करनेवाली, शिवभक्त तथा नित्य शिवलोकमें रहनेवाली वे सुशीला नामक गौ मेरे पापको दूर करेंवेदों तथा शास्त्रों के अर्थ तथा तत्त्वके ज्ञाता, समस्त कार्योंका चिन्तन करनेवाले, सभी गुणोंसे सम्पन्न, सर्वदेवेश्वर [शिव] के पुत्र, श्रेष्ठ, सर्वेश्वर, सौम्य, साक्षात् महाविष्णुके विग्रहस्वरूप, देवताओंके सेनापति, गम्भीरतासे युक्त, यज्ञको विनष्ट करनेवाले, ऐरावत हाथीपर सवार, काले तथा घुँघराले केशवाले, कृष्णवर्णके अंगवाले, लाल नेत्रोंवाले, चन्द्रमा तथा सर्पके आभूषणवाले, भूतों-प्रेतों-पिशाचों तथा कूष्माण्डों से घिरे हुए और शिवार्चन में तल्लीन वे आर्य काल भैरव मेरे पाप को दूर करें ॥ ८८-९५ ॥

ब्रह्माणी चैव माहेशी कौमारी वैष्णवी तथा। 
वाराही चैव माहेन्द्री चामुण्डाग्नेयिका तथा ॥ ९६

एता वै मातरः सर्वाः सर्वलोकप्रपूजिताः । 
योगिनीभिर्महापापं व्यपोहन्तु समाहिताः ॥ ९७

वीरभद्रो महातेजा हिमकुन्देन्दुसन्निभः । 
रुद्रस्य तनयो रौद्रः शूलासक्तमहाकरः ॥ ९८

सहस्त्रबाहुः सर्वज्ञः सर्वायुधधरः स्वयम्। 
त्रेताग्निनयनो देवस्त्रैलोक्याभयदः प्रभुः ॥ ९९

मातृणां रक्षको नित्यं महावृषभवाहनः । 
त्रैलोक्यनमितः श्रीमान् शिवपादार्चने रतः ॥ १००

यज्ञस्य च शिरश्च्छेत्ता पूष्णो दन्तविनाशनः । 
वहेर्हस्तहरः साक्षाद् भगनेत्रनिपातनः ॥ १०१

पादाङ्गुष्ठेन सोमाङ्गपेषकः प्रभुसंज्ञकः । 
उपेन्द्रेन्द्रयमादीनां देवानामङ्गरक्षकः ॥ १०२

सरस्वत्या महादेव्या नासिकोष्ठावकर्तनः । 
गणेश्वरो यः सेनानीः स मे पापं व्यपोहतु ॥ १०३

ब्रह्माणी, माहेशी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, माहेन्द्री, चामुण्डा, आग्नेयिका समस्त लोकोंसे पूजित तथा योगिनियोंसे घिरी हुई ये सभी माताएँ [मेरे] महापापको दूर करें महातेजस्वी, हिम (बर्फ) कुन्दपुष्प तथा चन्द्रमाके सदृश, रुद्रके पुत्र, भयानक, शूलयुक्त विशाल भुजावाले, हजार भुजाओंवाले, सब कुछ जाननेवाले, सभी प्रकारके शस्त्र धारण करनेवाले, तीन अग्निरूप नेत्रवाले, देवस्वरूप, तीनों लोकोंको अभय प्रदान करनेवाले, ऐश्वर्यशाली, माताओंकी सर्वदा रक्षा करनेवाले, महान् वृषभपर आरूढ़, तीनों लोकोंसे नमस्कृत, श्रीयुक्त, शिवके पादार्चनमें तल्लीन, यज्ञके सिरका छेदन करनेवाले, पूषाके दाँतको तोड़नेवाले, अग्निके हाथको नष्ट करनेवाले, साक्षात् भगके नेत्रको नीचे गिरानेवाले, [अपने] पैरके अँगूठेसे सोमके अंगको पीसनेवाले, प्रभु नामवाले, उपेन्द्र-इन्द्र-यम आदि देवताओंके अंगरक्षक, महादेवी सरस्वतीके ओठ तथा नाकको काटनेवाले, गणोंके ईश्वर (स्वामी) तथा सेनानायक जो वीरभद्र हैं- वे मेरे पापको दूर करें ॥ ९६--१०३ ॥

ज्येष्ठा वरिष्ठा वरदा वराभरणभूषिता। 
महालक्ष्मीर्जगन्माता सा मे पापं व्यपोहतु ॥ १०४

महामोहा महाभागा महाभूतगणैर्वृता। 
शिवार्चनरता नित्यं सा मे पापं व्यपोहतु ॥ १०५

लक्ष्मीः सर्वगुणोपेता सर्वलक्षणसंयुता। 
सर्वदा सर्वगा देवी सा मे पापं व्यपोहतु ॥ १०६

सिंहारूढा महादेवी पार्वत्यास्तनयाव्यया। 
विष्णोर्निद्रा महामाया वैष्णवी सुरपूजिता ॥ १०७

त्रिनेत्रा वरदा देवी महिषासुरमर्दिनी। 
शिवार्चनरता दुर्गा सा मे पापं व्यपोहतु ॥ १०८

ब्रह्माण्डधारका रुद्राः सर्वलोकप्रपूजिताः । 
सत्याश्च मानसाः सर्वे व्यपोहन्तु भयं मम ॥ १०९

भूताः प्रेताः पिशाचाश्च कूष्माण्डगणनायकाः । 
कूष्माण्डकाश्च ते पापं व्यपोहन्तु समाहिताः ॥ ११०

ज्येष्ठ, वरिष्ठ, वरदायिनी, श्रेष्ठ आभूषणोंसे विभूषित तथा जगज्जननी जो महालक्ष्मी हैं वे मेरे पापको दूर करें। महाभाग्यवती, महान् भूतगणों से घिरी हुई तथा शिवपूजनमें सदा रत जो महामोहा (महामाया) हैं-वे मेरे पापको दूर करें। सभी गुणोंसे सम्पन्न, सभी लक्षणोंसे युक्त, सब कुछ देनेवाली और सर्वत्र गमन करनेवाली जो देवी लक्ष्मी हैं वे मेरे पापको दूर करें। सिंहपर आरूढ़, पार्वतीकी पुत्री, शाश्वत, विष्णुकी निद्रारूपा, महामाया, वैष्णवी (विष्णुकी शक्ति), देवताओंसे पूजित, तीन नेत्रोंवाली, वर प्रदान करनेवाली, महिषासुरका संहार करनेवाली तथा शिवके अर्चनमें तल्लीन जो महादेवी भगवती दुर्गा हैं वे मेरे पापको दूर करें ब्रह्माण्डको धारण करनेवाले तथा सभी लोकोंद्वारा पूजित सभी सत्य और मानस रुद्र मेरे भयको दूर करें। जो भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्डगणनायक तथा कूष्माण्ड हैं-वे समाहितचित्त होकर [मेरे] पापको दूर करें ॥ १०४-११०॥ 


अनेन देवं स्तुत्वा तु चान्ते सर्व समापयेत् । 
प्रणम्य शिरसा भूमौ प्रतिमासे द्विजोत्तमाः ॥ १११

व्यपोहनस्तवं दिव्यं यः पठेच्छृणुयादपि। 
विधूय सर्वपापानि रुद्रलोके महीयते ॥ ११२

कन्यार्थी लभते कन्ऱ्यां जयकामो जयं लभेत्। 
अर्थकामो लभेदर्थं पुत्रकामो बहून् सुतान् ॥ ११३

विद्यार्थी लभते विद्यां भोगार्थी भोगमाप्नुयात्। 
यान् यान् प्रार्थयते कामान् मानवः श्रवणादिह ।। ११४

तान् सर्वान् शीघ्रमाप्नोति देवानां च प्रियो भवेत् । 
पठ्यमानमिदं पुण्यं यमुद्दिश्य तु पठ्यते ॥ ११५

तस्य रोगा न बाधन्ते वातपित्तादिसम्भवाः ।
नाकाले मरणं तस्य न सर्वैरपि दंश्यते ॥ ११६

है श्रेष्ठ ब्राह्मणो । प्रत्येक महीने में इस [व्यपोहनस्तब]- से शिवकी स्तुति करके भूमिपर मस्तक टेककर प्रणाम करके अन्तमें सम्पूर्ण अनुष्ठानका समापन करना चाहिये जो [इस] दिव्य व्यपोहनस्तवको पढ़‌ता अथवा सुनता है, वह समस्त पापों को ध्वस्त करके रुद्रलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है कन्याकी अभिलाषा रखनेवाला कन्या प्राप्त करता है, विजयकी कामना करनेवाला विजय प्राप्त करता है, धनकी इच्छा रखनेवाला धन प्राप्त करता है, पुत्रकी कामना करनेवाला अनेक पुत्र प्राप्त करता है, विद्या चाहनेवाला विद्या प्राप्त करता है और सुख चाहनेवाला सुख प्राप्त करता है; मनुष्य जिन-जिन कामनाओंकी प्रार्थना करता है, इसके श्रवणसे इस लोकमें उन सबको शीघ्र प्राप्त कर लेता है और देवताओंका प्रिय हो जाता है। जिस किसीके निमित्त इस पवित्र स्तवको पढ़ा जाता है, उसे वात, पित्त आदिसे होनेवाले रोग पीड़ित नहीं करते हैं, असमयमें उसकी मृत्यु नहीं होती है और उसे सर्प नहीं हँसते है ॥  १११ -११६ ॥ 

यत्पुण्यं चैव तीर्थानां यज्ञानां चैव यत्फलम्। 
दानानां चैव यत्पुण्यं व्रतानां च विशेषतः ॥ ११७

तत्पुण्यं कोटिगुणितं जप्त्वा चाप्नोति मानवः । 
गोघ्नश्चैव कृतघ्नश्च वीरहा ब्रह्महा भवेत् ॥ ११८

शरणागतघाती च मित्रविश्वासघातकः । 
दुष्टः पापसमाचारो मातृहा पितृहा तथा ॥ ११९

व्यपोह्य सर्वपापानि शिवलोके महीयते ॥ १२०

जो पुण्य तीर्थोंकी यात्रा करनेसे, जो फल यज्ञोंके करनेसे, जो पुण्य दान करनेसे और जो पुण्य विशेषरूपसे व्रतोंके करनेसे होता है; उससे करोड़ों गुना फल इसे जप करके मनुष्य प्राप्त करता है। जो गायको हत्या करनेवाला, कृतघ्न, वीरघाती, ब्रह्महत्यारा, शरणागतका वध करनेवाला, मित्रके साथ विश्वासघात करनेवाला, दुष्ट, पापमय आचरणवाला और माता-पिताका वध करनेवाला होता है, वह भी [इसके पाठसे] सभी पापोंसे मुक्त होकर शिवलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है॥ ११७-१२० ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे व्यपोहनस्तवनिरूपणं नाम दूधशीतितमोऽध्यायः ॥ ८२ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराण के अन्तर्गत पूर्वभागमें 'व्यपोहनस्तवनिरूपण' नामक बयासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८२ ॥

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