मत्स्य पुराण इक्यावनवाँ अध्याय
अग्नि-वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
ऋषय ऊचुः
ये पूज्याः स्युर्द्विजातीनामग्नयः सूत सर्वदा।
तानिदानीं समाचक्ष्व तद्वंशं चानुपूर्वशः ॥ १
ऋषियोंने पूछा- सूतजी। जो अग्नि द्विजातियोंके लिये सदा परम पूज्य माने गये हैं, अब उनका तथा उनके वंशका आनुपूर्वी वर्णन कीजिये ॥ १॥
सूत उवाच
योऽसावग्निरभिमानी स्मृतः स्वायम्भुवेऽन्तरे।
ब्रह्मणो मानसः पुत्रस्तस्मात् स्वाहा व्यजायती ।। २
पावकं पवमानं च शुचिरग्निश्च यः स्मृतः ।
निर्मथ्यः पवमानोऽग्निर्वेद्युतः पावकात्मजः ॥ ३
शुचिरग्निः स्मृतः सौरः स्थावराश्चैव ते स्मृताः ।
पवमानात्मजो ह्राग्निः कव्यवाहन उच्यते ॥ ४
पावकिः सहरक्षस्तु हव्यवाहः शुचेः सुतः।
देवानां हव्यवाहोऽग्निः पितॄणां कव्यवाहनः ॥ ५
सहरक्षोऽसुराणां तु त्रयाणां ते त्रयोऽग्नयः ।
एतेषां पुत्रपौत्राश्च चत्वारिंशन्नवैव च ॥ ६
प्रवक्ष्ये नामतस्तान् वै प्रविभागेन तान् पृथक् ।
पावनो लौकिको ह्यग्निः प्रथमो ब्रह्मणश्च यः ॥ ७
ब्रह्मौदनाग्निस्तत्पुत्रो भरतो नाम विश्रुतः ।
वैश्वानरः सुतस्तस्य वहन् हव्यं समाः शतम् ॥ ८
सम्भृतोऽथर्वणः पुत्रो मथितः पुष्करादधि।
सोऽथर्वा लौकिको ह्यग्निर्दध्यङ्ङाथर्वणः सुतः ॥ ९
भृगोः प्रजायताथर्वा दध्यङ्ङाथर्वणः स्मृतः ।
तस्य ह्यलौकिको ह्यग्निर्दक्षिणाग्निः स वै स्मृतः ॥ १०
सूतजी कहते हैं- ऋषियो । स्वायम्भुव मन्वन्तरमें जो ये अग्निके अभिमानी देवता कहे गये हैं, वे ब्रह्माके मानस पुत्र हैं। स्वाहाने उनके संयोगसे पावक (दक्षिणाग्नि), पवमान (गार्हपत्य) और शुचि (आहवनीय) नामक तीन पुत्रोंको जन्म दिया, जो अग्नि भी कहलाते हैं। उनमेंसे पावकको वैद्युत (जलबिजलीसे उत्पन्न), पवमानको निर्मध्य (निर्मन्थन करनेपर उत्पत्र) और शुचिको सौर (सूर्यके सम्बन्धसे उत्पन्न) अग्नि कहा जाता है। ये सभी अग्नि स्थावर (स्थिर स्वभाववाले) माने गये हैं। पवमानके पुत्र जो अग्नि हुए, उन्हें कव्यवाहन कहा जाता है। पावकके पुत्र सहरक्ष और शुचिके पुत्र हव्यवाहन हुए। देवताओंके अग्नि हव्यवाह है, जो ब्रह्माके प्रथम पुत्र हैं। सहरक्ष असुरोंके अग्नि हैं तथा पितरोंके अग्नि कव्यवाहन हैं। इस प्रकार ये तीनों देव-असुर-पितर-इन तीनोंक पृथक् पृथक् अग्नि हैं। इनके पुत्र-पौत्रोंकी संख्या उनचास हैं। उनको मैं विभागपूर्वक पृथक् पृथक् नामनिर्देशानुसार बतला रहा हूँ। सर्वप्रथम पावन नामक लौकिक अग्निदेव हुए, जो ब्रह्माके पुत्र हैं। उनके पुत्र ब्रह्मौदनाग्नि हुए, जो भरत नामसे भी विख्यात हैं। वैश्वानर नामक अग्नि सौ वर्षोंतक हव्यको वहन करते रहे। पुष्कर (या आकाश) का मन्थन करनेपर अथर्वाके पुत्ररूपमें जो अग्नि उत्पन्न हुए, वे दध्यअथर्वणके नामसे प्रसिद्ध हुए। उन्हींको दक्षिणाग्नि भी कहा जाता है। भृगुसे अथर्वाकी और अथर्वासे अङ्गिराकी उत्पत्ति बतलायी जाती है। उनसे अलौकिक अग्निकी उत्पत्ति हुई, जिसे दक्षिणाग्नि भी कहते हैं॥ २-१०॥
अथ यः पवमानस्तु निर्मध्योऽग्निः स उच्यते।
सच वै गार्हपत्योऽग्निः प्रथमो ब्रह्मणः स्मृतः ॥ ११
ततः सभ्यावसथ्यौ च संशत्यास्तौ सुतावुभौ।
ततः षोडश नद्यस्तु चकमे हव्यवाहनः ।
यः खल्वाहवनीयोऽग्निरभिमानी द्विजैः स्मृतः ॥ १२
कावेरी कृष्णवेणां च नर्मदां यमुनां तथा।
गोदावरीं वितस्तां च चन्द्रभागामिरावतीम् ॥ १३
विपाशां कौशिकीं चैव शतदुं सरयूं तथा।
सीतां मनस्विनीं चैव ह्रादिनीं पावनां तथा ॥ १४
तासु षोडशधाऽऽत्मानं प्रविभज्य पृथक् पृथक् ।
तदा तु विहरंस्तासु धिष्ण्येच्छः स बभूव ह ॥ १५
स्वाभिधानस्थिता धिष्ण्यास्तासूत्पन्नाश्च धिष्णवः ।
धिष्ण्येषु जज्ञिरे यस्मात् ततस्ते धिष्णवः स्मृताः ॥ १६
इत्येते वै नदीपुत्रा धिष्ण्येषु प्रतिपेदिरे।
तेषां विहरणीया ये उपस्थेयाश्च ताञ्शृणु।
विभुः प्रवाहणोऽग्नीधस्तत्रस्था धिष्णवोऽपरे ॥ १७
विहरन्ति यथास्थानं पुण्याहे समुपक्रमे।
अनिर्देश्यानिवार्याणामग्नीनां शृणुत क्रमम् ॥ १८
वासवोऽग्निः कृशानुर्यो द्वितीयोत्तरवेदिकः ।
सम्नाडग्निसुतो ह्यष्टावुपतिष्ठन्ति तान् द्विजाः ॥ १९
पर्जन्यः पवमानस्तु द्वितीयः सोऽनुदृश्यते ।
पावकोष्णः समूह्यस्तु वोत्तरे सोऽग्निरुच्यते ॥ २०
हव्यसूदो ह्यसम्मृज्यः शामित्रः स विभाव्यते।
शतधामा सुधाज्योती रौद्रेश्वर्यः स उच्यते ॥ २१
ब्रह्मज्योतिर्वसुधामा ब्रह्मस्थानीय उच्यते।
अजैकपादुपस्थेयः स वै शालामुखो यतः ॥ २२
अनिर्देश्यो ह्यहिर्बुध्न्यो बहिरन्ते तु दक्षिणे।
पुत्रा होते वासवस्य उपस्थेया द्विजैः स्मृताः ॥ २३
हम पहले कह चुके हैं कि जो पवमान अग्नि हैं, वे ही निर्मध्य नामसे भी कहे जाते हैं। वे ही ब्रह्माके प्रथम पुत्र गार्हपत्य अग्नि हैं। फिर संशतिसे सभ्य और आवसथ्य-इन दो पुत्रोंकी उत्पत्ति हुई। तदनन्तर आहवनीय नामक अग्निने जिन्हें ब्राह्मणोंने अग्निके अभिमानी देवता नामसे अभिहित किया है, अपनेको सोलह भागोंमें विभक्त कर कावेरी, कृष्णवेणा, नर्मदा, यमुना, गोदावरी, वितस्ता (झेलम), चन्द्रभागा, इरावती, विपाशा, कौशिकी (कोसी), शतद्रु (सतलज), सरयू, सीता, मनस्विनी, हादिनी तथा पावना-इन सोलह नदियोंके साथ पृथक् पृथक् विहार किया। उनके साथ विहार करते समय अग्निको स्थान- प्राप्तिकी इच्छा उत्पन्न हो गयी थी, इसलिये उन नदियोंके गर्भसे उत्पन्न हुए पुत्र उस इच्छाके अनुसार धिष्णु (या धिष्ण्य) कहलाये। चूँकि वे यज्ञिय अग्निके स्थापनयोग्य स्थानपर पैदा हुए थे, इसलिये धिष्णु नामसे कहे जाने लगे। इस प्रकार ये सभी नदीपुत्र धिष्ण्य (यज्ञिय अग्निके स्थापनयोग्य स्थान) में उत्पन्न हुए थे। अब इनके विहार एवं उपासनायोग्य स्थानका वर्णन कर रहा हूँ, उन्हें सुनिये।
यज्ञादि पुण्य अवसरके उपस्थित होनेपर विभु, प्रवाहण, अग्नीघ्र आदि अन्यान्य धिष्णु वहाँ उपस्थित होकर यथास्थान विचरते रहते हैं। अब अनिर्देश्य और अनिवार्य अग्नियोंके क्रमको सुनिये। वासव नामक अग्नि, जिसे कृशानु भी कहते हैं, यज्ञकी दूसरी वेदीके उत्तर भागमें स्थित होते हैं। उन्हीं अग्निका एक नाम सम्राट् भी है। इन अग्निके आठ पुत्र हैं, जिनकी विप्रगण उपासना करते हैं। पवमान नामक जो द्वितीय अग्नि हैं, वे पर्जन्यके रूपमें देखे जाते हैं और उत्तर दिशामें स्थित पावक नामक अग्निको समूह्य अग्नि कहा जाता है। असम्मृज्य हव्यसूद अग्निको शामित्र कहा जाता है। शतधामा अग्नि सुधाज्योति हैं, इन्हें रौद्रैश्वर्य नामसे अभिहित किया जाता है। ब्रह्मज्योति अग्निको वसुधाम और ब्रह्मस्थानीय भी कहते हैं। अजैकपाद् उपासनीय अग्नि हैं, इन्हें शालामुख भी कहा जाता है। अहिर्बुध्य अनिर्देश्य अग्नि हैं, ये वेदीकी दक्षिण दिशामें परिधिके अन्तमें स्थित होते हैं। वासव नामक अग्निके ये आठों पुत्र ब्राह्मणोंद्वारा उपासनीय बतलाये गये है॥ ११-२३॥
ततो विहरणीयांस्तु वक्ष्याम्यष्टौ तु तान् सुतान्।
होत्रियस्य सुतो ह्यग्निर्बर्हिषो हव्यवाहनः ।। २४
प्रशंस्योऽग्निः प्रचेतास्तु द्वितीयः संसहायकः ।
सुतो ह्यग्नेर्विश्ववेदा ब्राह्मणाच्छंसिरुच्यते ॥ २५
अपां योनिः स्मृतः स्वाम्भः सेतुर्नाम विभाव्यते ।
धिष्ण्य आहरणा होते सोमेनेज्यन्त वै द्विजैः ॥ २६
ततो यः पावको नाम्ना यः सद्भिर्योग उच्यते ।
अग्निः सोऽवभृथो ज्ञेयो वरुणेन सहेज्यते ॥ २७
हृदयस्य सुतो ह्यग्नेर्जठरेऽसौ नृणां पचन् ।
मन्युमाञ्जठरश्चाग्निर्विद्धाग्निः सततं स्मृतः ॥ २८
परस्परोत्थितो ह्यग्निर्भूतानीह विभुर्दहन् ।
अग्नेर्मन्युमतः पुत्रो घोरः संवर्तकः स्मृतः ॥ २९
पिबन्नपः स वसति समुद्रे वडवामुखे ।
समुद्रवासिनः पुत्रः सहरक्षो विभाव्यते ॥ ३०
सहरक्षस्तु वै कामान् गृहे स वसते नृणाम्।
क्रव्यादग्निः सुतस्तस्य पुरुषान् योऽत्ति वै मृतान् ॥ ३१
इत्येते पावकस्याग्नेर्द्विजैः पुत्राः प्रकीर्तिताः ।
ततः सुतास्तु सौवीर्याद् गन्धर्वैरसुरैर्हताः ॥ ३२
मथितो यस्त्वरण्यां तु सोऽग्निराप समिन्धनम् ।
आयुर्नाम्ना तु भगवान् पशौ यस्तु प्रणीयते ॥ ३३
आयुषो महिमान् पुत्रो दहनस्तु ततः सुतः ।
पाकयज्ञेष्वभीमानी हुतं हव्यं भुनक्ति यः ॥ ३४
सर्वस्माद् देवलोकाच्च हव्यं कव्यं भुनक्ति यः ।
पुत्रोऽस्य स हितो ह्यग्निरद्भुतः स महायशाः ।। ३५
प्रायश्चित्तेष्वभीमानी हुतं हव्यं भुनक्ति यः।
अद्भुतस्य सुतो वीरो देवांशस्तु महान् स्मृतः ।। ३६
विविधाग्निस्ततस्तस्य तस्य पुत्रो महाकविः ।
विविधाग्निसुतादर्कादग्ग्रयोऽष्टौ सुताः स्मृताः ।। ३७
अब मैं उन आठ विहरणीय अग्रिपुत्रोंका वर्णन कर रहा हूँ। बर्हिष् नामक होत्रिय अग्निके पुत्र हव्यवाहन अग्नि हैं। इसके पश्चात् प्रचेता नामक प्रशंसनीय अग्निकी उत्पत्ति हुई, जिनका दूसरा नाम संसहायक है। पुनः अग्निपुत्र विश्ववेदा हुए, जिन्हें ब्राह्मणाच्छंसि' भी कहा जाता है। जलसे उत्पन्न होनेवाले प्रसिद्ध स्वाम्भ अग्नि सेतु नामसे भी अभिहित होते हैं। इन धिष्ण्यसंज्ञक अग्नियोंका यज्ञमें यथास्थान आवाहन होता है और ब्राह्मणलोग सोम-रसद्वारा इनकी पूजा करते हैं। तत्पश्चात् जो पावक नामक अग्रि हैं, जिन्हें सत्पुरुषगण योग नामसे पुकारते हैं, उन्हींको अवभृथ अग्नि समझना चाहिये। उनकी वरुणके साथ पूजा होती है। हृदय नामक अग्निके पुत्र मन्युमान् हैं, जिन्हें जठराग्नि भी कहते हैं। ये मनुष्योंके उदरमें स्थित रहकर भक्षित पदार्थोंको पचाते हैं। परस्परके संघर्षसे उत्पन्न हुए प्रभावशाली अग्निको, जो जगत्में निरन्तर प्राणियोंको जलाते रहते हैं, विद्धाग्नि कहते हैं। मन्युमान् अग्निके पुत्र संवर्तक हैं जो अत्यन्त भयंकर बताये जाते हैं। वे समुद्रमें बडवामुखद्वारा निरन्तर जलपान करते हुए निवास करते हैं।
समुद्रवासी संवर्तक अग्निके पुत्र सहरक्ष बतलाये जाते हैं। सहरक्ष मनुष्योंके घरोंमें निवास करते हैं और उनकी सभी कामनाओंको सम्पन्न करते रहते हैं। सहरक्षके पुत्र क्रव्यादग्नि हैं, जो मरे हुए पुरुषोंका भक्षण करते हैं। इस प्रकार ये सभी ब्राह्मणोंद्वारा पावक नामक अग्निके पुत्र बतलाये गये हैं। इनके अतिरिक्त जो अन्य पुत्र हैं, उन्हें सौवीर्यसे गन्धर्वों और असुरोंने हरण कर लिया था। अरणीमें मन्थन करनेसे जो अग्नि उत्पन्न होता है, वह तो इन्धनके आश्रित रहता है। पृथु-योनिके लिये जिन अग्निकी नियुक्ति हुई है, उन ऐश्वर्यशाली अग्निका नाम आयु है। आयुके पुत्र महिमान् और उनके पुत्र दहन हैं, जो पाकयज्ञोंके अभिमानी देवता हैं। वे ही उन यज्ञोंमें हवन किये गये हविको खाते हैं। दहनके पुत्र अद्भुत नामक अग्रि हैं, जो समस्त देवलोकोंमें दिये गये हव्य एवं कव्यका भक्षण करते हैं। वे महान् यशस्वी और जनताके हितकारी हैं। ये प्रायश्चित्तनिमित्तक यज्ञोंक अभिमानी देवता हैं, इसी कारण उन यज्ञोंमें हवन किये गये हव्यको खाते हैं। अद्भुतके पुत्र वीर नामक अग्रि हैं, जो देवांशसे उद्भुत और महान् कहे जाते हैं। उनके पुत्र विविधाग्रि हैं और विविधाग्रिके पुत्र महाकवि हैं। विविधाग्रिके दूसरे पुत्र अर्कसे आठ अग्रि-पुत्रोंकी उत्पत्ति बतलायी जाती है।॥ २४-३७॥
काम्यास्विष्टिष्वभीमानी रक्षोहा यतिकृच्च यः ।
सुरभिर्वसुमान् नादो हार्यश्वश्चैव रुक्मवान् ॥ ३८
प्रवर्ग्यः क्षेमवांश्चैव इत्यष्टौ च प्रकीर्तिताः ।
शुच्यग्नेस्तु प्रजा होषा अग्नयश्च चतुर्दश ॥ ३९
इत्येते ह्यग्ग्रयः प्रोक्ताः प्रणीता ये हि चाध्वरे।
समतीते तु सर्गे ये यामैः सह सुरोत्तमैः ॥ ४०
स्वायम्भुवेऽन्तरे पूर्वमग्ग्रयस्तेऽभिमानिनः ।
एते विहरणीयेषु चेतनाचेतनेष्विह ।। ४१
स्थानाभिमानिनोऽग्ग्रीक्षाः प्रागासन् हव्यवाहनाः ।
काम्यनैमित्तिकाद्यास्ते ये ते कर्मस्ववस्थिताः ।। ४२
पूर्वे मन्वन्तरेऽतीते शुकैर्यामैश्च तैः सह।
एते देवगणैः सार्धं प्रथमस्यान्तरे मनोः ॥ ४३
इत्येता योनयो ह्युक्ताः स्थानाख्या जातवेदसाम्।
स्वारोचिषादिषु ज्ञेयाः सवर्णान्तेषु सप्तसु ॥ ४४
तैरेवं तु प्रसंख्यातं साम्प्रतानागतेष्विह।
मन्वन्तरेषु सर्वेषु लक्षणं जातवेदसाम् ॥ ४५
मन्वन्तरेषु सर्वेषु नानारूपप्रयोजनैः ।
वर्तन्ते वर्तमानैश्च यामैर्देवैः सहाग्नयः ॥ ४६
अनागतैः सुरैः सार्धं वत्स्यन्तोऽनागतास्त्वथ।
इत्येष प्रचयोऽग्रीनां मया प्रोक्तो यथाक्रमम्।
विस्तरेणानुपूर्व्या च किमन्यच्छ्रोतुमिच्छथ ॥ ४७
कामना पूर्तिके निमित्त किये जानेवाले यज्ञोंक जो अभिमानी देवता हैं, उनका नाम रक्षोहा अग्नि है। उनका दूसरा नाम यतिकृत भी है। इनके अतिरिक्त सुरभि, वसुरन, नाद, हर्यश्व, रुक्मवान्, प्रवर्य और क्षेमवान्- ये आठ अग्नि कहे गये हैं। ये सभी शुचि नामक अग्रिकी संतान हैं। इन सबकी संख्या चौदह है। इस प्रकार मैंने उन सभी अग्रियोंका वर्णन कर दिया, जिनका यज्ञ-कार्यमें प्रयोग किया जाता है। प्रलयकालमें ये सभी अग्रिपुत्र याम नामक श्रेष्ठ देवताओंके साथ स्वायम्भुव मन्वन्तरमें सभी चेतन एवं अचेतन विहरणीय पदार्थोक अभिमानी देवता थे। इस पूर्व मन्वन्तरके समाप्त हो जानेपर पुनः प्रथम मन्वन्तरमें ये सभी अग्रिगण शुक्र एवं याम नामक देवगणोंके साथ स्थानाभिमानी देवता बनकर अग्रीन नामक अग्निके साथ हव्य-वहनका कार्य करते थे
और काम्य एवं नैमित्तिक आदि जो यज्ञ किये जाते थे, उन कर्मों में अवस्थित रहते थे। इस प्रकार मैंने अग्रियोंकी स्थाननाम्नी योनियोंका वर्णन कर दिया। उन्हें स्वारोचिष् मन्वन्तरसे लेकर सावर्णि मन्वन्तरतकके सातों लोकोंमें वर्तमान जानना चाहिये। ऋषियोंने वर्तमान एवं भविष्यमें आनेवाली सभी मन्वन्तरोंमें इसी प्रकार अग्रियोंके लक्षणका वर्णन किया है। ये सभी अग्नि समस्त मन्वन्तरोंमें नाना प्रकारके रूप और प्रयोजनोंसे समन्वित हो वर्तमानकालीन याम नामक देवताओंके साथ वर्तमान थे और इस समय भी हैं तथा भविष्यमें भी उत्पन्न होकर इन नये उत्पन्न होनेवाले देवगणोंके साथ निवास करेंगे। इस प्रकार मैं अग्रियोंके वंश-समूहका क्रमशः विस्तारपूर्वक आनुपूर्वी वर्णन कर चुका। अब आपलोग और क्या सुनना चाहते हैं? ॥ ३८-४७ ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽग्निवंशो नामैकपञ्चाशोऽध्यायः ॥ ५१ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें अग्निवंश-वर्णन नामक इक्यावनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ५१ ॥
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