मत्स्य पुराण एक सौ सोलहवाँ अध्याय
ऐरावती नदी का वर्णन
सूत उवाच
स ददर्श नदीं पुण्यां दिव्यां हैमवर्ती शुभाम्।
गन्धर्वैश्च समाकीर्णां नित्यं शक्रेण सेविताम् ॥ १
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। वह मङ्गलकारिणी एवं पुण्यमयी दिव्य नदी ऐरावती हिमालयपर्वतसे निकली हुई थी। वह (जलक्रीडार्थ आये हुए) गन्धवाँसे भरी हुई। १
सुरेभमदसंसिक्तां समंतात् तु विराजिताम्।
मध्येन शक्रचापाभां तस्मिन्नहनि सर्वदा ॥ २
तपस्विशरणोपेतां महाब्राह्मणसेविताम्।
ददर्श तपनीयाभां महाराजः पुरूरवाः ॥ ३
सितहंसावलिच्छन्नां काशचामरराजिताम् ।
साभिषिक्तामिव सतां पश्यन् प्रीतिं परां ययौ ॥ ४
पुण्यां सुशीतलां हृद्यां मनसः प्रीतिवर्धिनीम् ।
क्षयवृद्धियुतां रम्यां सोममूर्तिमिवापराम् ॥ ५
सुशीतशीघ्रपानीयां द्विजसंघनिषेविताम् ।
सुतां हिमवतः श्रेष्ठां चञ्चद्वीचिविराजिताम् ॥ ६
अमृतस्वादुसलिलां तापसैरुपशोभिताम् ।
स्वर्गारोहणनिःश्रेणीं सर्वकल्मषनाशिनीम् ॥ ७
अग्यां समुद्रमहिषीं महर्षिगणसेविताम् ।
सर्वलोकस्य चौत्सुक्यकारिणीं सुमनोहराम् ॥ ८
हितां सर्वस्य लोकस्य नाकमार्गप्रदायिकाम्।
गोकुलाकुलतीरान्तां रम्यां शैवालवर्जिताम् ॥ ९
हंससारससंघुष्टां जलजैरुपशोभिताम् ।
आवर्तनाभिगम्भीरां द्वीपोरुजघनस्थलीम् ॥ १०
नीलनीरजनेत्राभामुत्फुल्लकमलाननाम् ।
हिमाभफेनवसनां चक्रवाकाधरां शुभाम्।
बलाकापङ्क्तिदशनां चलन्मत्स्यावलिध्रुवम् ॥ ११
स्वजलोद्भूतमातङ्गरम्यकुम्भपयोधराम् ।
हंसनूपुरसंघुष्टां मृणालवलयावलीम् ॥ १२
इन्द्रद्वारा सदा सेवित, चारों ओरसे ऐरावतके मद- जलसे अभिषिक्त होनेके कारण सुशोभित और मध्य में इन्द्र-धनुषके समान चमक रही थी। उसके तटपर तपस्वियोंके आश्रम बने हुए थे। वह श्रेष्ठ ब्राह्मणोंद्वारा सुसेवित तथा तपाये हुए सुवर्णके समान चमक रही थी। ऐसी नदीको उस दिन महाराज पुरूरवाने देखा। वह श्वेत वर्णवाले हंसोंकी पङ्क्तियोंसे आच्छन्न, काश- पुष्परूपी चैवरसे सुशोभित और सत्पुरुषोंद्वारा नहलायी गयी-सी दीख रही थी। उसे देखकर राजाको परम प्रसन्नता प्राप्त हुई। वह पुण्यमयी नदी शीतल जलसे परिपूर्ण, मनोहारिणी, मनकी प्रसन्नता बढ़ानेवाली, हास और वृद्धिसे संयुक्त, रमणीय, दूसरी चन्द्र मूर्तिके समान उज्वल, अत्यन्त शीतल और बेगसे बहनेवाले जलसे संयुक्त, ब्राह्मणों तथा पक्षिसमूहोंद्वारा सुसेवित, हिमालयकी श्रेष्ठ पुत्रीभूत, लोल लहरों से सुशोभित, अमृतके समान सुस्वादु जलसे परिपूर्ण, तपस्वियोंद्वारा सुशोभित, स्वर्गपर चढ़नेके लिये सोपान सदृश, समस्त पापोंकी विनाशिनी, सर्वश्रेष्ठ, समुद्रकी पटरानी, महर्षिगणोंद्वारा सेवित, सभी लोगोंके मनमें उत्सुकता प्रकट करनेवाली, परम मनोहर, सभी लोगोंकी हितकारिणी, स्वर्गका मार्ग प्रदान करनेवाली, गोसमूहोंसे व्याप्त तट-प्रान्तवाली, परम सुन्दर, सेवाररहित, हंस तथा सारस पक्षियोंके शब्दसे गूंजित, कमलोंसे सुशोभित, भैवररूपी गहरी नाभिसे युक्त, द्वीपरूपी ऊरु एवं जघन भागवाली, नीले कमलरूपी नेत्रकी शोभासे युक्त, खिले हुए कमल-पुष्परूपी मुखवाली, हिम (बर्फ)- तुल्य उज्वल फेनरूपी वस्त्रसे युक्त, चक्रवाकरूपी होंठोंवाली, कल्याणमयी, बगुलोंकी पङ्क्तिरूपी दाँतोंसे युक्त, चञ्चल मछलियोंकी कतारकी-सी भौंहोंवाली, अपने जलके घुमावसे बने हुए हाथीके रमणीय गण्डस्थलरूपी स्तनोंसे युक्त, हंसरूपी नूपुरके झंकारसे संयुक्त तथा कमलनालरूपी कंकणोंसे सुशोभित थी ॥ १-१२॥
तस्यां रूपमदोन्मत्ता गन्धर्वानुगताः सदा।
मध्याह्नसमये राजन् क्रीडन्त्यप्सरसां गणाः ॥ १३
तामप्सरोविनिर्मुक्तं वहन्तीं कुङ्कुमं शुभम्।
स्वतीरद्रुमसम्भूतनानावर्णसुगन्धिनीम् ॥ १४
तरङ्गवातसंक्रान्तसूर्यमण्डलदुर्दृशम् ।
सुरेभजनिताघातविकूलद्वयभूषिताम् ॥ १५
शक्रे भगण्डसलिलैर्देवस्त्रीकुचचन्दनैः।
संयुक्त सलिलं तस्याः षट्पदैरुपसेव्यते ॥ १६
तस्यास्तीरभवा वृक्षाः सुगन्धकुसुमाचिताः ।
तथापकृष्टसम्भ्रान्तभ्रमरस्तनिताकुलाः ॥ १७
यस्यास्तीरे रतिं यान्ति सदा कामवशा मृगाः ।
तपोवनाश्च ऋषयस्तथा देवाः सहाप्सराः ॥ १८
लभन्ते यन्त्र पूताङ्गा देवेभ्यः प्रतिमानिताः ।
स्त्रियश्च नाकबहुलाः पद्येन्दुप्रतिमाननाः ॥ १९
या बिभर्त्ति सदा तोयं देवसौरपीडितम्।
पुलिन्दैर्नृपसङ्गैश्च व्याघ्नवृन्दैरपीडितम् ॥ २०
सतारगगनामलाम् सतामरसपानीयां ।
स तां पश्यन् ययौ राजा सतामीप्सितकामदाम् ॥ २१
यस्यास्तीररुहैः काशैः पूर्णैश्चन्द्रांशुसंनिभैः ।
राजते विविधाकारै रम्यं तीरं महाद्रुमैः ।
या सदा विविधैर्विप्रैर्देवैश्चापि निषेव्यते ॥ २२
याच सदा सकलौघविनाशं भक्तजनस्य करोत्यचिरेण।
यानुगता सरितां हि कदम्बै- र्यानुगता सततं हि मुनीन्द्रैः ॥ २३
या हि सुतानिव पाति मनुष्यान् या च युता सततं हिमसङ्गैः।
याच युता सततं सुरवृन्दै- र्या च जनैः स्वहिताय श्रिता वै ॥ २४
युक्ता च केसरिगणैः करिवृन्दजुष्टा संतानयुक्तसलिलापि सुवर्णयुक्ता।
सूर्याशुतापपरिवृद्धकदम्बवृक्षा शीतांशुतुल्ययशसा ददृशे नृपेण ॥ २५
राजन् ! उस नदीमें दोपहरके समय अपनी सुन्दरताके मदसे उन्मत्त हुई यूथ-की-यूथ अप्सराएँ गन्धवाँके साथ सदा क्रीडा करती थीं। उन अप्सराओंके शरीरसे गिरे हुए सुन्दर कुङ्कुमको बहानेवाली वह नदी अपने तटपर उगे हुए वृक्षोंसे गिरे हुए पुष्पोंके कारण रंग-बिरंगवाली तथा सुगन्धसे व्याप्त थी, उसके तरंगसमूहसे आच्छादित होनेके कारण सूर्यमण्डलका दीखना कठिन हो गया था। वह ऐरावतद्वारा किये गये आघातसे चिह्नित तटोंसे विभूषित थी। उसका जल ऐरावतके गण्डस्थलसे बहते हुए मद-जल तथा देवाङ्गनाओंके स्तनोंपर लगे हुए चन्दनोंसे युक्त था, जिसपर भौरे मँडरा रहे थे। उसके तटपर उगे हुए वृक्ष सुगन्धित पुष्पोंसे लदे हुए तथा सुगन्धके लोभसे आकृष्ट हुए चञ्चल भौरोंकी गुंजारसे व्याप्त थे। जिसके तटपर कामके वशीभूत हुए मृग हिरनियोंके साथ विहार करते थे तथा वहाँ तपोवन, ऋषिगण, अप्सराओंसमेत देवगण, देवताओंके समान सुन्दर एवं पवित्र अङ्गोंवाले अन्य पुरुष एवं कमल और चन्द्रमाकी-सी मुखवाली स्वर्गवासिनी स्त्रियाँ भी पायी जाती थीं, जो देवगणों, पुलिन्दों (जंगली जातियों), नृपसमूहों और व्याघ्रदलोंसे अपीडित अर्थात् परम पवित्र जल धारण करती थी,
जो कमलयुक्त जल धारण करनेके कारण तारिकाओंसहित निर्मल आकाशके समान सुशोभित तथा सत्पुरुषोंकी अभीष्ट कामनाओंको पूर्ण करनेवाली थी, उसे देखते हुए राजा पुरूरवा आगे बढ़े। जिस नदीके रमणीय तट तीरभूमिमें उगे हुए पूर्णिमाके चन्द्रमाकी किरणोंके समान उज्वल काश-पुष्पों तथा अनेकों प्रकारके विशाल वृक्षोंसे सुशोभित थे, जो सदा विविध मतावलम्बी ब्राह्मणों और देवताओंसे सुसेवित थी, जो सदा भक्तजनोंके सम्पूर्ण पापोंका शीघ्र ही विनाश कर देती थी, जिसमें बहुत-सौ छोटी-छोटी नदियाँ आकर मिली थीं, जो निरन्तर मुनीश्वरोंद्वारा सेवित थी, जो पुत्रकी तरह मनुष्योंका पालन करती थी, जो सदा हिम (बर्फ) राशिसे आच्छादित रहती थी, जो निरन्तर देवगणोंसे संयुक्त रहती थी, अपना कल्याण करनेके लिये मनुष्य जिसका आश्रय लेते थे, जिसके किनारे झुंड-के-झुंड सिंह घूमते रहते थे, जो हाथी-समूहोंसे सेवित थी, जिसका जल कल्पवृक्षके पुष्पोंसे युक्त और सुवर्णके समान चमकीला था तथा जिसके तटवर्ती कदम्ब वृक्ष सूर्यकी किरणोंके तापसे बढ़े हुए थे-ऐसी ऐरावती नदीको चन्द्रमा सरीखे निर्मल यशवाले राजा पुरूरवाने देखा ॥ १३-२५॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे भुवनकोषे सुरनदीवर्णनं नाम षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११६ ॥
इस प्रकार श्री मत्स्य महा पुराण के भुवनकोष-वर्णनप्रसंगमें सुरनदी-वर्णन नामक एक सौ सोलहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ११६ ॥
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