अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्य दान को अस्वीकार करना | ashtak-yayaati-sanvaad aur yayaatidvaara doosaronke diye hue puny daan ko asveekaar karana |

मत्स्य पुराण एकतालीसवाँ अध्याय

अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्य दान को अस्वीकार करना

अष्टक उवाच

कतरस्त्वेतयोः पूर्व देवानामेति सात्म्यताम्। 
उभयोर्धावतो राजन् सूर्याचन्द्रमसोरिव ॥ १

अष्टकने पूछा- राजन् ! सूर्य और चन्द्रमाकी तरह अपने-अपने लक्ष्यकी ओर दौड़ते हुए वानप्रस्थ और संन्यासी इन दोनोंमेंसे पहले कौन-सा देवताओंके आत्मभाव (ब्रह्म) को प्राप्त होता है ? ॥ १॥

ययातिरुवाच

अनिकेतगृहस्थेषु कामवृत्तेषु संयतः । 
ग्राम एव चरन् भिक्षुस्तयोः पूर्वतरं गतः ॥ २

अप्राप्यं दीर्घमायुस्तु यः प्राप्तो विकृतिं चरेत् । 
तप्येत यदि तत् कृत्वा चरेत् सोग्रं तपस्ततः ।। ३

यद् वै नृशंसं तदपध्यमाहु- र्यः सेवते धर्ममनर्थबुद्धिः ।
असावनीशः स तथैव राजं- स्तदार्जवं स समाधिस्तदार्यम् ।। ४

ययाति बोले- कामवृत्तिवाले गृहस्थोंके बीच ग्राममें ही वास करते हुए भी जो जितेन्द्रिय और गृहरहित संन्यासी है, वही उन दोनों प्रकारके मुनियोंमें पहले ब्रह्मभावको प्राप्त होता है। जो वानप्रस्थ दुर्लभ दीर्घायुको पाकर भी विषयोंके प्राप्त होनेपर उनसे विकृत हो उन्हींमें विचरने लगता है, उसे यदि विषयोपभोगके अनन्तर पश्चात्ताप होता है तो उसे मोक्षके लिये पुनः तपका अनुष्ठान करना चाहिये। राजन् ! जो पापबुद्धिवाला मनुष्य अधर्मका आचरण करता है, उसका वह आचरण नृशंस (पापमय) और असत्य कहा गया है (एवं उस अजितेन्द्रियका धन भी वैसा ही पापमय और असत्य है); परंतु वानप्रस्थ मुनिका जो धर्मपालन है, वही सरलता है, वही समाधि है और वही श्रेष्ठ आचरण है ॥ २-४॥

अष्टक उवाच

केनाद्य त्वं तु प्रहितोऽसि राजन् युवा स्त्रग्वी दर्शनीयः सुवर्चाः ।
कुत आगतः कतमस्यां दिशि त्व- मुताहोस्वित् पार्थिवं स्थानमस्ति ॥ ५

ययातिरुवाच

इमं भौमं नरकं क्षीणपुण्यः प्रवेष्टुमुर्वी गगनाद् विप्रहीणः ।
उक्त्वाहं वः प्रपतिष्याम्यनन्तरं त्वरन्त्वमी ब्रह्मणो लोकपा ये ॥ ६

सतां सकाशे तु वृतः प्रपात- स्ते सङ्गता गुणवन्तस्तु सर्वे।
शक्राच्च लब्धो हि वरो मयैष पतिष्यता भूमितलं नरेन्द्र ॥ ७

अष्टक उवाच

पृच्छामि त्वां प्रपतन्तं प्रपातं यदि लोकाः पार्थिव सन्ति मेऽत्र।
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिताः क्षेत्रज्ञं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये ॥ ८

अष्टकने पूछा- राजन् ! आपको यहाँ किसने भेजा है? आप अवस्थामें तरुण, फूलोंकी मालासे सुशोभित, दर्शनीय तथा उत्तम तेजसे उद्भासित जान पड़ते हैं। आप कहाँसे आये हैं? अथवा क्या आपके लिये इस पृथ्वीपर ही किसी दिशामें कोई उत्तम वासस्थान है ? ययातिने कहा- मैं अपने पुण्यका क्षय होने से भौमनरकमें प्रवेश करनेके लिये आकाशसे गिर रहा हूँ। ये जो ब्रह्माजीके लोकपाल हैं, वे मुझे गिरनेके लिये जल्दी मचा रहे हैं। अतः (अब) आपलोगोंसे पूछकर- विदा लेकर इस पृथ्वीपर गिरूँगा। नरेन्द्र! मैं जब इस पृथ्वीतलपर गिरनेवाला था, उस समय मैंने इन्द्रसे यह वर माँगा था कि मैं साधु पुरुषोंके समीप गिरूँ। वह वर मुझे मिला, जिसके कारण आप सब सद्गुणी संतोंका सङ्ग प्राप्त हुआ अष्टक बोले- महाराज! मेरा विश्वास है कि आप पारलौकिक धर्मके ज्ञाता हैं। मैं नीचे गिरनेवाले आपसे एक बात पूछता हूँ- 'क्या अन्तरिक्ष या स्वर्गलोकमें मुझे प्राप्त होनेवाले कोई पुण्यलोक भी हैं?' ॥५-८॥

ययातिरुवाच

यावत् पृथिव्यां विहितं गवाश्चं सहारण्यैः पशुभिः पक्षिभिश्च।
तावल्लोका दिवि ते संस्थिता वै तथा विजानीहि नरेन्द्रसिंह ॥ ९

अष्टक उवाच

तांस्ते ददामि मा प्रपत प्रपातं ये मे लोका दिवि राजेन्द्र सन्ति ।
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिता- स्तानाक्रम क्षिप्रममित्रहासि ॥ १०

ययातिने कहा- नरेन्द्रसिंह। इस पृथ्वीपर जंगली पशुओं और पक्षियोंके साथ जितने गाय, घोड़े आदि पशु रहते हैं, स्वर्गमें तुम्हारे लिये उतने ही लोक विद्यमान हैं। तुम इसे निश्चय जानो अष्टक बोले- राजेन्द्र ! स्वर्गमें मेरे लिये जो लोक विद्यमान हैं, उन्हें मैं आपको देता हूँ, परंतु आपका पतन न हो। अन्तरिक्ष या द्युलोकमें मेरे लिये जो स्थान हैं, उनमें आप शीघ्र ही चले जाय; क्योंकि आप शत्रुओंका संहार करनेवाले हैं॥ ९-१०॥

ययातिरुवाच

नास्मद्विधो ब्राह्मणो ब्रह्मविच्च प्रतिग्रहे वर्तते राजमुख्य ।
यथा प्रदेयं सततं द्विजेभ्य- स्तथा ददे पूर्वमहं नरेन्द्र ॥ ११

नाब्राह्मणः कृपणे जातु जीवेद् याच्ञापि स्याद् ब्राह्मणी वीरपत्नी।
सोऽहं यदेवाकृतपूर्व चरेयं विधित्समानः किमु तत्र साधुः ॥ १२

ययातिने कहा- नृपश्रेष्ठ! ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण ही प्रतिग्रह लेता है, मेरे जैसा क्षत्रिय कदापि नहीं। नरेन्द्र! जैसे दान करना चाहिये, उस विधिसे मैंने पहले भी सदा उत्तम ब्राह्मणोंको बहुत दान दिये हैं। जो ब्राह्मण नहीं है, उसे दीन याचक बनकर कभी जीवन नहीं बिताना चाहिये। याचना तो विद्यासे दिग्विजय करनेवाले विद्वान् ब्राह्मणकी पत्नी है अर्थात् ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणको ही याचना करनेका अधिकार है। मुझे सत्कर्म करनेकी इच्छा है, अतः ऐसा कोई अकार्य कैसे कर सकता हूँ, जो पहले कभी न किया हो॥ ११-१२॥

प्रतर्दन उवाच

पृच्छामि त्वां स्पृहणीयरूप प्रतर्दनोऽहं यदि मे सन्ति लोकाः ।
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिताः क्षेत्रज्ञं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये ॥ १३

प्रतर्दन बोले- वाञ्छनीय रूपवाले श्रेष्ठ पुरुष! मैं प्रतर्दन हूँ और आपसे पूछता हूँ, यदि अन्तरिक्ष अथवा स्वर्गमें मेरे भी लोक हों तो बताइये। मैं आपको पारलौकिक धर्मका ज्ञाता मानता हूँ ॥ १३ ॥

ययातिरुवाच

सन्ति लोका बहवस्ते नरेन्द्र अप्येकैकं सप्त सप्तान्यहानि।
मधुच्युतो घृतवन्तो विशोका- स्ते नान्तवन्तः प्रतिपालयन्ति ॥ १४

प्रतर्दन उवाच

तांस्ते ददामि पतमानस्य राजन् ये मे लोकास्तव ते वै भवन्तु ।
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिता- स्तानाक्रम क्षिप्रमपेतमोहः ॥ १५

ययातिने कहा- नरेन्द्र ! तुम्हारे तो बहुत लोक हैं, यदि एक-एक लोकमें सात-सात दिन रहा जाय तो भी उनका अन्त नहीं है। वे सब के सब अमृतके झरने बहाते हैं एवं घृत (तेज) से युक्त हैं। उनमें शोकका सर्वथा अभाव है। वे सभी लोक तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं प्रतर्दन बोले- महाराज! वे सभी लोक मैं आपको देता हूँ, आप नीचे न गिरें। जो मेरे लोक हैं, वे सब आपके हो जाय। वे अन्तरिक्षमें हों या स्वर्गमें, आप शीघ्र मोहरहित होकर उनमें चले जाइये ॥ १४-१५ ॥

ययातिरुवाच

न तुल्यतेजाः सुकृतं हि कामये योगक्षेमं पार्थिवात् पार्थिवः सन् ।
दैवादेशादापदं प्राप्य विद्वां- श्चरेन्नृशंसं हि न जातु राजा ॥ १६

धर्म्य मार्ग चिन्तयानो यशस्यं कुर्यान्नृपो धर्ममवेक्षमाणः ।
न मद्विधो धर्मबुद्धिर्हि राजा होवं कुर्यात् कृपणं मां यथात्थ ॥ १७

कुर्यामपूर्व न कृतं यदन्यै- र्विधित्समानः किमु तत्र साधुः ।
बुवाणमेवं नृपतिं ययातिं नृपोत्तमो वसुमानब्रवीत्तम् ॥ १८

ययातिने कहा- राजन् ! मैं स्वयं एक तेजस्वी राजा होकर दूसरेसे पुण्य तथा योग-क्षेमकी इच्छा नहीं करता। विद्वान् राजा दैववश भारी आपत्तिमें पड़ जानेपर भी कोई पापमय कार्य न करे। धर्मपर दृष्टि रखनेवाले राजाको उचित है कि वह प्रयत्नपूर्वक धर्म और यशके मार्गपर ही चले। जिसकी बुद्धि धर्ममें लगी हो, उस मेरे-जैसे मनुष्यको जान-बूझकर ऐसा दीनतापूर्ण कार्य नहीं करना चाहिये जिसके लिये तुम मुझसे कह रहे हो। जो शुभ कर्म करनेकी इच्छा रखता है वह ऐसा काम नहीं कर सकता, जिसे अन्य राजाओंने नहीं किया हो। (तदनन्तर) इस प्रकारकी बातें कहनेवाले राजा ययातिसे नृपश्रेष्ठ वसुमान् बोले ॥१६-१८ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे सोमवंशे ययातिचरिते एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके सोमवंश-वर्णन प्रसङ्गमें ययाति चरित वर्णन नामक एकतालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ४१ ॥

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