भीम द्वादशी व्रत का विधान | bheem dvaadashee vrat ka vidhaan |

मत्स्य पुराण उनहत्तरवाँ अध्याय

भीम द्वादशी व्रत का विधान

मास्य उवाच

पुरा रथन्तरे कल्पे परिपृष्टो महात्मना। 
मन्दरस्थो महादेवः पिनाकी ब्रह्मणा स्वयम् ॥ १

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् । प्राचीन रथन्तरकल्पकी बात है, पिनाकधारी भगवान् शंकर मन्दराचलपर विराजमान थे। उस समय महात्मा ब्रह्माजीने स्वयं ही उनके पास जाकर प्रश्न किया ॥१॥

ब्रह्मोवाच

कथमारोग्यमैश्वर्यमनन्तममरेश्वर।
स्वल्पेन तपसा देव भवेन्मोक्षोऽथवा नृणाम् ॥ २

किमज्ञातं महादेव त्वत्प्रसादादधोक्षज । 
स्वल्पकेनाथ तपसा महत्फलमिहोच्यताम् ॥ ३

ब्रह्माजीने पूछा- देवेश्वर। थोड़ी-सी तपस्यासे मनुष्योंको नीरोगता, अनन्त ऐश्वर्य और मोक्षकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? महादेव। आपके लिये कुछ अज्ञात तो है नहीं, अर्थात् आप सर्वज्ञ हैं, इसलिये अधोक्षज! आपकी कृपासे थोड़ी-सी तपस्याद्वारा इस लोकमें महान् फलकी प्राप्तिका क्या उपाय है? यह बतलाइये ॥ २-३ ॥

मत्स्य उवाच

एवं पृष्टः स विश्वात्मा ब्रह्मणा लोकभावनः । 
उमापतिरुवाचेदं मनसः प्रीतिकारकम् ॥ ४

मत्स्यभगवान्ने कहा- ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रश्न करने पर जगत्की उत्पत्ति एवं वृद्धि करनेवाले विश्वात्मा उमानाथ शिव मनको प्रिय लगनेवाले वचन बोले ॥ ४॥

ईश्वर उवाच

अस्माद् रथन्तरात् कल्पात् त्रयोविंशात् पुनर्यदा।
वाराहो भविता कल्पस्तस्य मन्वन्तरे शुभे ॥ ५

वैवस्वताख्ये संजाते सप्तमे सप्तलोककृत्।
द्वापराख्यं युगं तद्वदष्टाविंशतिमं जगुः ॥ ६

तस्यान्ते स महादेवो वासुदेवो जनार्दनः ।
भारावतरणार्थाय त्रिधा विष्णुर्भविष्यति ॥ ७

द्वैपायनऋषिस्तद्वद् रौहिणेयोऽथ केशवः ।
कंसादिदर्पमथनः केशवः क्लेशनाशनः ॥ ८

पुरीं द्वारवतीं नाम साम्प्रतं या कुशस्थली।
दिव्यानुभावसंयुक्तामधिवासाय शाङ्गिणः।
त्वष्टा ममाज्ञया तद्वत् करिष्यति जगत्पतेः ॥ ९

तस्यां कदाचिदासीनः सभायाममितद्युतिः ।
भार्याभिर्वृष्णिभिश्चैव भूभृद्धिर्भूरिदक्षिणैः ॥ १०

कुरुभिर्देवगन्धर्वैरभितः कैटभार्दनः ।
प्रवृत्तासु पुराणीषु धर्मसंवर्धिनीषु च ॥ ११

कथान्ते भीमसेनेन परिपृष्टः प्रतापवान् । 
त्वया पृष्टस्य धर्मस्य रहस्यस्यास्य भेदकृत् ॥ १२

भविता स तदा ब्रह्मन् कर्ता चैव वृकोदरः । 
प्रवर्तकोऽस्य धर्मस्य पाण्डुपुत्रो महाबलः ॥ १३

यस्य तीक्ष्णो वृको नाम जठरे हव्यवाहनः । 
मया दत्तः स धर्मात्मा तेन चासौ वृकोदरः ॥ १४

मतिमान् दानशीलश्च नागायुतबलो महान् । 
भविष्यत्यजरः श्रीमान् कंदर्प इव रूपवान् ॥ १५

धार्मिकस्याप्यशक्तस्य तीव्राग्नित्वादुपोषणे । 
इदं व्रतमशेषाणां व्रतानामधिकं यतः ॥ १६

कथयिष्यति विश्वात्मा वासुदेवो जगद्गुरुः ।
अशेषयज्ञफलदमशेषाघविनाशनम् ॥ १७

अशेषदुष्टशमनमशेषसुरपूजितम् ।
पवित्राणां पवित्रं च मङ्गलानां च मङ्गलम्। 
भविष्यं च भविष्याणां पुराणानां पुरातनम् ॥ १८

ईश्वरने कहा- ब्रह्मन् । इस तेईसवें रथन्तरकल्पके पश्चात् जब पुनः वाराहकल्प आयेगा, तब उसके सातवें वैवस्वत नामक मङ्गलमय मन्वन्तरके प्राप्त होने पर अट्ठाईसवें द्वापर नामक युगके अन्तमें सातों लोकोंके रचयिता देवाधिदेव जनार्दन भगवान् विष्णु वासुदेवरूपसे पृथ्वीका भार दूर करनेके लिये अपनेको महर्षि द्वैपायन, रोहिणीनन्दन बलराम और केशवरूपसे तीन भागोंमें विभक्त करके अवतीर्ण होंगे। वे कष्टहारी केशव कंस आदि राक्षसोंके मदको चूर्ण करेंगे। शार्ङ्गधनुषधारी उन जगत्पतिके निवासके लिये मेरी आज्ञासे विश्वकर्मा द्वारवती (द्वारका) नामकी पुरीका निर्माण करेंगे, जो समस्त दिव्य भावोंसे युक्त होगी। वह इस समय कुशस्थली नामसे विख्यात है। 

वहीं कभी जब द्वारकाकी सभामें दानवराज कैटभके संहारक अमिततेजस्वी भगवान् श्रीकृष्ण अपनी पत्नियों, वृष्णिवंशी पुरुषों, प्रचुर दक्षिणा देने वाले राजाओं, कौरवों और देव-गन्धर्वोसे घिरे हुए बैठे रहेंगे और धर्म की वृद्धि करनेवाली पौराणिक कथाएँ होती रहेंगी, तब कथाकी समाप्तिपर भीमसेन प्रतापी श्रीकृष्णसे वैसा ही प्रश्न करेंगे, जो तुम्हारे द्वारा पूछा गया है और इस धर्मके रहस्यके भेदको प्रकट करनेवाला है। ब्रह्मन् । उस समय पाण्डुपुत्र महाबली भीमसेन इस धर्मके कर्ता एवं प्रवर्तक होंगे। उनके उदरमें मेरे द्वारा दिये गये वृक नामक तीक्ष्ण अग्रिका निवास होगा, इसी कारण वे धर्मात्मा 'वृकोदर' नामसे विख्यात होंगे। वे श्रेष्ठ बुद्धिसम्पन्न, दानशील, दस हजार हाथियोंके सदृश बलशाली, महत्त्वयुक्त, जरारहित, लक्ष्मीवान् और कामदेव- सदृश सौन्दर्यशाली होंगे। भीमसेनके धर्मात्मा होनेपर भी उदरमें तीव्र अग्निके स्थित रहनेके कारण उपवासमें असमर्थ जानकर विश्वात्मा जगद्गुरु भगवान् वासुदेव उन्हें यह व्रत बतलायेंगे; क्योंकि यह सम्पूर्ण व्रतोंमें श्रेष्ठ है। यह समस्त यज्ञोंका फलदाता, सम्पूर्ण पापोंका विनाशक, अखिल दोषोंका शामक, समस्त देवताओंद्वारा सम्मानित, सम्पूर्ण पवित्र पदार्थोंमें परम पवित्र, निखिल मङ्गलोंमें श्रेष्ठ मङ्गलरूप, भविष्यमें सर्वाधिक भव्य और पुरातनोंमें विशेष पुरातन है॥ ५-१८॥

वासुदेव उवाच

यद्यष्टमीचतुर्दश्योर्द्वादशीष्वथ भारत।
अन्येष्वपि दिनक्षेषु न शक्तस्त्वमुपोषितुम् ॥ १९

ततः पुण्यां तिथिमिमां सर्वपापप्रणाशिनीम् । 
उपोष्य विधिनानेन गच्छ विष्णोः परं पदम् ॥ २०

माघमासस्य दशमी यदा शुक्ला भवेत् तदा। 
घृतेनाभ्यञ्जनं कृत्वा तिलैः स्त्रानं समाचरेत् ॥ २१

तथैव विष्णुमभ्यर्च्य नमो नारायणाय च। 
कृष्णाय पादौ सम्पूज्य शिरः सर्वात्मने नमः ॥ २२

वैकुण्ठायेति वै कण्ठमुरः श्रीवत्सधारिणे।
शङ्खिने चक्रिणे तद्वद् गदिने वरदाय वै। 
सर्व नारायणस्यैवं सम्पूज्या बाहवः क्रमात् ॥ २३

भगवान् वासुदेव कहेंगे- भारत ! यदि तुम अष्टमी, चतुर्दशी, द्वादशी तिथियोंमें तथा अन्यान्य दिनों और नक्षत्रोंमें उपवास करनेमें असमर्थ हो तो मैं तुम्हें एक पापविनाशिनी तिथिका परिचय देता हूँ। उस दिन निम्नाङ्कित विधिसे उपवास कर तुम श्रीविष्णुके परम धामको प्राप्त करो। जिस दिन माघमासके शुक्लपक्षकी दशमी तिथि आये, उस दिन (व्रतीको चाहिये कि) समस्त शरीरमें घी लगाकर तिलमिश्रित जलसे स्नान करे तथा 'ॐ नमो नारायणाय' इस मन्त्रसे भगवान् श्रीविष्णुका पूजन करे।' श्रीकृष्णाय नमः' कहकर दोनों चरणोंकी और 'सर्वात्मने नमः' कहकर मस्तककी पूजा करे। 'वैकुण्ठाय नमः' इस मन्त्रसे कण्ठकी और' श्रीवत्सधारिणे नमः' इससे वक्षःस्थलकी अर्चा करे। फिर 'शङ्खिने नमः', 'चक्रिणे नमः', 'गदिने नमः', वरदाय नमः तथा 'सर्वं नारायणस्य' (सब कुछ नारायणका ही है) - ऐसा कहकर आवाहन आदिके क्रमसे भगवान्‌की बाहुओंकी पूजा करे ॥ १९-२३॥

दामोदरायेत्युदरं मेढूं पञ्चशराय वै।
ऊरू सौभाग्यनाथाय जानुनी भूतधारिणे ॥ २४

नमो नीलाय वै जड्डे पादौ विश्वसृजे नमः ।
नमो देव्यै नमः शान्त्यै नमो लक्ष्म्यै नमः श्रियै ॥ २५

नमः पुष्ट्यै नमस्तुष्टयै धृष्टट्यै हृष्टयै नमो नमः।
नमो विहङ्गनाथाय वायुवेगाय पक्षिणे।
विषप्रमाथिने नित्यं गरुडं चाभिपूजयेत् ॥ २६

एवं सम्पूज्य गोविन्दमुमापतिविनायकौ।
गन्धैर्माल्यैस्तथा धूपैर्भक्ष्यैर्नानाविधैरपि ॥ २७

गव्येन पयसा सिद्धां कृसरामथ वाग्यतः ।
सर्पिषा सह भुक्त्वा च गत्वा शतपदं बुधः ॥ २८

न्यग्रोधं दन्तकाष्ठमथवा खादिरं बुधः। 
गृहीत्वा धावयेद् दन्तानाचान्तः प्रादुदङ्मुखः ॥ २९

ब्रूयात् सायंतनीं कृत्वा संध्यामस्तमिते रवौ।
नमो नारायणायेति त्वामहं शरणं गतः ॥ ३०

'इसके बाद 'दामोदराय नमः' कहकर उदरका, 'पञ्चशराय नमः' इस मन्त्रसे जननेन्द्रियका, 'सौभाग्यनाथाय नमः' इससे दोनों जंघोंका, 'भूतधारिणे नमः' से दोनों घुटनोंका, 'नीलाय नमः' इस मन्त्रसे पिंडलियों (घुटनेसे नीचेके भाग) का और 'विश्वसृजे नमः' इससे पुनः दोनों चरणोंका पूजन करे। तत्पश्चात् 'देव्यै नमः', 'शान्त्यै नमः', 'लक्ष्म्यै नमः', 'श्रियै नमः', पुष्ट्यै नमः, 'तुष्टयै नमः', 'धृष्टयै नमः', 'हृष्टयै नमः' इन मन्त्रोंसे भगवती लक्ष्मीकी पूजा करे। इसके बाद 'विहङ्गनाथाय नमः', 'वायुवेगाय नमः' 'पक्षिणे नमः', 'विषप्रमाथिने नमः' - इन मन्त्रोंके द्वारा सदा गरुडकी पूजा करनी चाहिये। इस प्रकार गन्ध, पुष्प, धूप तथा नाना प्रकारके पकवानोंद्वारा श्रीकृष्णकी, महादेवजीकी तथा गणेशजीकी भी पूजा करे। फिर गौके दूधकी बनी हुई खीर लेकर घीके साथ मौनपूर्वक भोजन करे। भोजनके अनन्तर विद्वान् पुरुष सौ पग चलकर बरगद अथवा खैरकी दाँतुन ले उसके द्वारा दाँतोंको साफ करे, फिर मुँह धोकर आचमन करे। सूर्यास्त होनेके बाद पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख बैठकर सायंकालीन संध्या करे। उसके अन्तमें यह कहे- 'भगवान् श्रीनारायणको नमस्कार है। भगवन् ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ।' (इस प्रकार प्रार्थना करके रात्रिमें शयन करे।) ॥ २४-३०॥

एकादश्यां निराहारः समभ्यर्च्य च केशवम् ।
रात्रिं च सकलां स्थित्वा स्त्रानं च पयसा तथा ।। ३१

सर्पिषा चापि दहनं हुत्वा ब्राह्मणपुङ्गवैः ।
सहैव पुण्डरीकाक्ष द्वादश्यां क्षीरभोजनम् ॥ ३२

करिष्यामि यतात्माहं निर्विघ्नेनास्तु तच्च मे।
एवमुक्त्वा स्वपेद् भूमावितिहासकथां पुनः ॥ ३३

श्रुत्वा प्रभाते संजाते नदीं गत्वा विशाम्पते। 
स्त्रानं कृत्वा मुदा तद्वत् पाषण्डानभिवर्जयेत् ॥ ३४

उपास्य संध्यां विधिवत् कृत्वा च पितृतर्पणम् ।
प्रणम्य च हृषीकेशं सप्तलोकैकमीश्वरम् ॥ ३५

गृहस्य पुरतो भक्त्या मण्डपं कारयेद् बुधः
दशहस्तमथाष्टौ वा करान् कुर्याद् विशांपते ॥ ३६

चतुर्हस्तां शुभां कुर्याद् वेदीमरिनिषूदन ।
चतुर्हस्तप्रमाणं च विन्यसेत् तत्र तोरणम् ॥ ३७

आरोप्य कलशं तत्र दिक्पालान् पूजयेत् ततः ।
छिद्रेण जलसम्पूर्णमथ कृष्णाजिनस्थितः ।
तस्य धारां च शिरसा धारयेत् सकलां निशाम् ॥ ३८

तथैव विष्णोः शिरसि क्षीरधारां प्रपातयेत्। 
अरत्निमात्रं कुण्डं च कुर्यात् तत्र त्रिमेखलम् ॥ ३९

योनिवक्त्रं च तत् कृत्वा ब्राह्मणैः यवसर्पिषी।
तिलांश्च विष्णुदैवत्यैर्मन्त्रैरेकाग्निवत् तदा ॥ ४०

हुत्वा च वैष्णवं सम्यक् चरुं गोक्षीरसंयुतम्।
निष्पावार्धप्रमाणां वै धारामाज्यस्य पातयेत् ॥ ४१

दूसरे दिन एकादशीको निराहार रहकर भगवान् केशवकी पूजा करे और रातभर बैठा रहकर प्रातःकाल दूध या जलसे स्नान करे। फिर अग्रिमें घीकी आहुति देकर प्रार्थना करे- 'पुण्डरीकाक्ष! मैं जितेन्द्रिय होकर द्वादशीको श्रेष्ठ ब्राहाणोंके साथ ही खीरका भोजन करूँगा। मेरा यह व्रत निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण हो।' यह कहकर इतिहास-पुराणकी कथा सुननेके पश्चात् भूमिपर शयन करे। राजन् ! सबेरा होनेपर जाकर नदीमें प्रसन्नतापूर्वक स्नान करे। पाखण्डियोंके संसर्गसे दूर रहे। विधिपूर्वक संध्योपासन करके पितरोंका तर्पण करे। फिर सातों लोकोंके एकमात्र अधीश्वर भगवान् इषीकेशको प्रणाम करके बुद्धिमान् व्रती घरके सामने भक्तिपूर्वक एक मण्डपका निर्माण कराये। राजन्। वह मण्डप दस अथवा आठ हाथ लम्बा-चौड़ा होना चाहिये। 

शत्रुसूदन ! उसके भीतर चार हाथकी सुन्दर वेदी बनवाये। वेदीके ऊपर चार हाथका तोरण लगाये। फिर (सुदृढ़ खम्भोंके आधारपर) एक कलश रखे और दिक्पालोंकी पूजा करे, उसमें नीचेकी ओर (उड़दके दानेके बराबर) छेद कर दे। तदनन्तर उसे जलसे भरे और स्वयं उसके नीचे काला मृगचर्म बिछाकर बैठ जाय। कलशसे गिरती हुई धाराको सारी रात अपने मस्तकपर धारण करे। उसी प्रकार भगवान् विष्णुके सिरपर दूधकी धारा गिराये। फिर उनके निमित्त एक कुण्ड बनवाये, जो हाथभर लंबा, उतना ही चौड़ा और उतना ही गहरा हो। उसके ऊपरी किनारेपर तीन मेखलाएँ बनवाये। उसमें यथास्थान योनि और मुखके चिह्न बनवाये। तदनन्तर ब्राह्मण (कुण्डमें अग्नि प्रज्वलित कर) एकाग्रिक उपासककी तरह जौ, घी और तिलोंका श्रीविष्णु-सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा हवन करे। फिर गो-दुग्धसे बने हुए चरुका हवन करके विधिपूर्वक वैष्णवयागका सम्पादन करे। फिर कुण्डके मध्यमें मटरकी दालके बराबर मोटी घौकी धारा गिराये ॥ ३१-४१ ॥

जलकुम्भान् महावीर्य स्थापयित्वा त्रयोदश। 
भक्ष्यैर्नानाविधैर्युक्तान् सितवस्त्रैरलंकृतान् ॥ ४२

युक्तानौदुम्बरैः पात्रैः पञ्चरत्नसमन्वितान् । 
चतुर्भिर्बह्वचैहोंमस्तत्र कार्य उदङ्‌मुखैः ॥ ४३

रुद्रजापश्चतुर्भिश्च यजुर्वेदपरायणैः ।
वैष्णवानि तु सामानि चतुरः सामवेदिनः ।
अरिष्टवर्गसहितान्यभितः परिपाठयेत् ॥ ४४

एवं द्वादश तान् विप्रान् वस्त्रमाल्यानुलेपनैः ।
पूजयेदङ्गुलीयैश्च कटकैहॅमसूत्रकैः ॥ ४५

वासोभिः शयनीयैश्च वित्तशाठ्यविवर्जितः । 
एवं क्षपातिवाह्या च गीतमङ्गलनिःस्वनैः ॥ ४६

उपाध्यायस्य च पुनर्द्विगुणं सर्वमेव तु । 
ततः प्रभाते विमले समुत्थाय त्रयोदश ॥ ४७

गां वै दद्यात् कुरुश्रेष्ठ सौवर्णमुखसंयुताः ।
पयस्विनीः शीलवतीः कांस्यदोहसमन्विताः ॥ ४८

रौप्यखुराः सवस्त्राश्च चन्दनेनाभिषेचिताः । 
तास्तु तेषां ततो भक्त्या भक्ष्यभोज्यान्नन्तर्पितान् ॥ ४९

कृत्वा वै ब्राह्मणान् सर्वानन्त्रैर्नानाविधैस्तथा।
भुक्त्वा चाक्षारलवणमात्मना च विसर्जयेत् ॥ ५०

महावीर्य! फिर जलसे भरे हुए तेरह कलशोंकी स्थापना करे। वे नाना प्रकारके भक्ष्य पदार्थोंसे युक्त और श्वेत वस्त्रोंसे अलंकृत होने चाहिये। उनके साथ उदुम्बर- पात्र तथा पञ्चरनका होना भी आवश्यक है। वहाँ चार ऋग्वेदी ब्राह्मण उत्तरकी ओर मुख करके हवन करें, चार यजुर्वेदी विप्र रुद्राध्यायका पाठ करें तथा चार सामवेदी ब्राह्मण चारों ओरसे अरिष्टवर्गसहित वैष्णवसामका गान करते रहें। इस प्रकार उपर्युक्त बारहों ब्राह्मणोंको वस्त्र, पुष्प, चन्दन, अँगूठी, कड़े, सोनेकी जंजीर, वस्त्र तथा शय्या आदि देकर उनका पूर्ण सत्कार करे। इस कार्यमें धनकी कृपणता न करे। इस प्रकार गीत और माङ्गलिक शब्दोंके साथ रात्रि व्यतीत करे। उपाध्याय (आचार्य या पुरोहित)- को सब वस्तुएँ अन्य ब्राह्मणोंकी अपेक्षा दूनी मात्रामें अर्पण करे। कुरुश्रेष्ठ । रात्रिके बाद जब निर्मल प्रभातका उदय हो, तब शयनसे उठकर (नित्यकर्मक पश्चात्) मुखपर सोनेके पत्रसे विभूषित की हुई तेरह गौएँ दान करनी चाहिये। वे सब-की-सब दूध देनेवाली और सीधी हों। उनके खुर चाँदीसे मंढ़े हुए हों तथा उन सबको वस्त्र ओढ़ाकर चन्दनसे विभूषित किया गया हो। गौओंके साथ काँसेका दोहनपात्र भी होना चाहिये। गोदानके पश्चात् उन सभी ब्राह्मणोंको भक्तिपूर्वक नाना प्रकारके भक्ष्य-भोज्य पदार्थों से तृप्त करके स्वयं भी क्षार लवणसे रहित अन्नका भोजन करके ब्राह्मणोंको विदा करे ॥ ४२-५० ॥

अनुगम्य पदान्यष्टी पुत्रभार्यासमन्वितः ।
प्रीयतामत्र देवेशः केशवः क्लेशनाशनः ॥ ५१

शिवस्य हृदये विष्णुर्विष्णोश्च हृदये शिवः ।
यथान्तरं न पश्यामि तथा मे स्वस्ति चायुषः ॥ ५२

एवमुच्चार्य तान् कुम्भान् गाश्चैव शयनानि च।
वासांसि चैव सर्वेषां गृहाणि प्रापयेद् बुधः ॥ ५३

अभावे बहुशय्यानामेकामपि सुसंस्कृताम्।
शय्यां दद्याद् द्विजातेश्च सर्वोपस्करसंयुताम् ॥ ५४

इतिहासपुराणानि वाचयित्वातिवाहयेत् ।
तद्दिनं नरशार्दूल य इच्छेद् विपुलां श्रियम् ॥ ५५

तस्मात् त्वं सत्त्वमालम्ब्य भीमसेन विमत्सरः ।
कुरु व्रतमिदं सम्यक् स्नेहात् तव मयेरितम् ॥ ५६

त्वया कृतमिदं वीर त्वन्नामाख्यं भविष्यति।
सा भीमद्वादशी होषा सर्वपापहरा शुभा।
या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते ॥ ५७

त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीरवरप्रधान।
यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात् ॥ ५८

पुत्र और स्त्रीके साथ आठ पगतक उनके पीछे- पीछे जाय और इस प्रकार प्रार्थना करे-'हमारे इस कार्य से देवताओं के स्वामी भगवान् श्रीविष्णु, जो सबका क्लेश दूर करनेवाले हैं, प्रसन्न हों। श्रीशिवके हृदय में श्रीविष्णु हैं और श्रीविष्णुके हृदयमें श्रीशिव विराजमान हैं। मैं यदि इन दोनोंमें अन्तर न देखता होऊँ तो इस धारणासे मेरी आयु बढ़े तथा कल्याण हो।' यह कहकर बुद्धिमान् व्रती उन कलशों, गौओं, शय्याओं तथा वस्त्रोंको सब ब्राह्मणके घर पहुँचवा दे। अधिक शय्याएँ सुलभ न हों तो गृहस्थ पुरुष एक ही सुसज्जित एवं सभी उपकरणोंसे सम्पत्र शय्या ब्राह्मणको दान करे। नरसिंह। जिसे विपुल लक्ष्मीकी अभिलाषा हो, उसे वह दिन इतिहास और पुराणोंके श्रवणमें ही बिताना चाहिये। अतः भीमसेन। तुम भी सत्त्वगुणका आश्रय ले, मात्सर्यका त्यागकर इस व्रतका सम्यक् प्रकारसे अनुष्ठान करो। (यह बहुत गुप्त व्रत है, किंतु) स्नेहवश मैंने तुम्हें बता दिया है। बीर। तुम्हारे द्वारा इसका अनुष्ठान होनेपर यह व्रत तुम्हारे ही नामसे प्रसिद्ध होगा। इसे लोग 'भीमद्वादशी' कहेंगे। यह भीमद्वादशी सब पापोंको नाश करनेवाली और शुभकारिणी होगी। प्राचीन कल्पोंमें इस व्रतको 'कल्याणिनी व्रत' कहा जाता था। महान् वीरोंमें श्रेष्ठ वीर भीमसेन! इस वाराहकल्प में तुम इस व्रतके सर्वप्रथम अनुष्ठानकर्ता बनो। इसका स्मरण और कीर्तनमात्र करनेसे मनुष्यका सारा पाप नष्ट हो जाता है और वह देवताओंका राजा इन्द्र बन जाता है ॥ ५१-५८ ॥

कृत्वा च यामप्सरसामधीशा वेश्या कृता ह्यन्यभवान्तरेषु ।
आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे ॥ ५९

जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यभामा ॥ ६०

स्त्रातः पुरा मण्डलमेष तद्वत् तेजोमयं वेदशरीरमाप।
अस्यां च कल्याणतिथौ विवस्वान् सहस्रधारेण सहस्त्ररश्मिः ॥ ६१

इदमेव कृतं महेन्द्रमुख्यै- र्वसुभिर्देवसुरारिभिस्तथा तु।
फलमस्य न शक्यतेऽभिवक्तुं यदि जिह्वायुतकोटयो मुखे स्युः ॥ ६२

जन्मान्तर में एक अहीरको कन्याने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह वेश्या अप्सराओंकी अधीश्वरी हुई। वही इस समय स्वर्गलोकमें उर्वशी नामसे विख्यात है। इसी प्रकार वैश्यकुलमें उत्पन्न हुई एक दूसरी कन्याने भी इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके परिणामस्वरूप वह पुलोम (दानव) की पुत्रीरूपमें उत्पन्न होकर इन्द्रकी पत्नी बनी। उसके अनुष्ठान-कालमें जो उसकी सेविका थी,वही इस समय मेरी प्रिया सत्यभामा है। पूर्वकालमें इस कल्याणमयी तिथिको सहन किरणधारी सूर्यने हजारों धाराओंसे स्नान किया था, इसी कारण उन्हें उस प्रकारका तेजोमय मण्डल और वेदमय शरीर प्राप्त हुआ है। महेन्द्र आदि देवताओं, वसुओं तथा असुरोंने भी इस व्रतका अनुष्ठान किया है। यदि एक मुखमें दस हजार करोड़ जिह्वाएँ हों तो भी इसके फलका पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ ५९-६२॥

कलिकलुषविदारिणीमनन्ता- मिति कथयिष्यति यादवेन्द्रसूनुः ।
अपि नरकगतान् पितॄनशेषा नलमुद्धर्तुमिहैव यः करोति ॥ ६३

य इदमघविदारणं शृणोति भक्त्या परिपठतीह परोपकारहेतोः ।
तिथिमिह सकलार्थभाङ्नरेन्द्र- स्तव चतुरानन साम्यतामुपैति ॥ ६४

कल्याणिनी नाम पुरा बभूव या द्वादशी माघदिनेषु पूज्या।
सा पाण्डुपुत्रेण कृता भविष्य- त्यनन्तपुण्यानघ भीमपूर्वा ॥ ६५

ब्रह्मन् ! कलियुगके पापोंको नष्ट करनेवाली एवं अनन्त फल प्रदान करनेवाली इस कल्याणमयौ तिथिकी महिमाका वर्णन यादवराजकुमार भगवान् श्रीकृष्ण अपने श्रीमुखसे करेंगे। जो इसके व्रतका अनुष्ठान करता है, उसके नरकमें पड़े हुए सम्पूर्ण पितरोंका भी यह उद्धार करनेमें समर्थ है। चतुरानन। जो अत्यन्त भक्तिके साथ इस पापनाशक व्रतकी कथाको सुनता तथा दूसरोंके उपकारके लिये पढ़ता है, वह इस लोकमें जनताका स्वामी और सम्पूर्ण सम्पत्तियोंका भागी हो जाता है तथा परलोकमें आपकी समताको प्राप्त कर लेता है। पूर्वकल्पमें जो माघमासकी द्वादशी परम पूजनीय कल्याणिनी तिथिके नामसे प्रसिद्ध थी, वही पाण्डुनन्दन भीमसेनके व्रत करनेपर अनन्त पुण्यदायिनी 'भीमद्वादशी' के नामसे प्रसिद्ध होगी ॥ ६३-६५ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे भीमद्वादशीवतं नामैकोनसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥ 

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें भीमद्वादशी व्रत नामक उनहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ६९ ॥

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