मत्स्य पुराण एक सौ तीसवाँ अध्याय
दानव श्रेष्ठ मय द्वारा त्रिपुर की रचना
सूत उवाच
इति चिन्तायुतो दैत्यो दिव्योपायप्रभावजम्।
चकार त्रिपुरं दुर्गं मनः संचारचारितम् ॥ १
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! इस प्रकार सोच- विचारकर (महाशिल्पी) मयदानव दिव्य उपायोंके प्रभावसे बननेवाले तथा मनके संकल्पानुसार चलने वाले त्रिपुर नामक दुर्गकी रचना करनेको उद्यत हुआ। १
प्राकारोऽनेन मार्गेण इह वामुत्र गोपुरम्।
इह चाट्टालकद्वारमिह चाट्टालगोपुरम् ॥ २
राजमार्ग इतश्चापि विपुलो भवतामिति।
रथ्योपरथ्याः सदृशा इह चत्वर एव च ॥ ३
इदमन्तः पुरस्थानं रुद्रायतनमत्र च।
सवटानि तडागानि हृात्र वाप्यः सरांसि च ॥ ४
आरामाश्च सभाश्चात्र उद्यानान्यत्र वा तथा।
उपनिर्गमो दानवानां भवत्यत्र मनोहरः ॥ ५
इत्येवं मानसं तत्राकल्पयत् पुरकल्पवित्।
मयेन तत्पुरं सृष्टं त्रिपुरं त्विति नः श्रुतम् ॥ ६
कार्णायसमयं यत्तु मयेन विहितं पुरम्।
तारकाख्योऽधिपस्तत्र कृतस्थानाधिपोऽवसत् ॥ ७
यत्तु पूर्णेन्दुसंकाशं राजतं निर्मितं पुरम्।
विद्युन्माली प्रभुस्तत्र विद्युन्माली त्विवाम्बुदः ॥ ८
सुवर्णाधिकृतं यच्च मयेन विहितं पुरम्।
स्वयमेव मयस्तत्र गतस्तदधिपः प्रभुः ॥ ९
तारकस्य पुरं तत्र शतयोजनमन्तरम् ।
विद्युन्मालिपुरं चापि शतयोजनके ऽन्तरे ॥ १०
उसने सोचा कि इस मार्गमें परकोटा बनेगा, यहाँ अथवा वहाँ गोपुर (नगरका फाटक) रहेगा, यहाँ अट्टालिकाका दरवाजा तथा यहाँ महलका मुख्य द्वार रखना उचित है। इधर विशाल राजमार्ग होना चाहिये, यहाँ दोनों ओर पगडंडियोंसे युक्त सड़कें और गलियाँ होनी चाहिये, यहाँ चबूतरा रखना ठीक है, यह स्थान अन्तः पुरके योग्य है, यहाँ शिव मन्दिर रखना अच्छा होगा, यहाँ वट- वृक्षसहित तड़ागों, बावलियों और सरोवरोंका निर्माण उचित होगा। यहाँ बगीचे, सभाभवन और वाटिकाएँ रहेंगी तथा यहाँ दानवोंके निकलनेके लिये मनोहर मार्ग रहेगा। इस प्रकार नगर रचनामें निपुण मयने केवल मनः संकल्पमात्रसे उस दिव्य त्रिपुर नगरकी रचना कर डाली थी, ऐसा हमने सुना है। मयने जो काले लोहेका पुर निर्मित किया था, उसका अधिपति तारकासुर हुआ। वह उसपर अपना आधिपत्य जमाकर वहाँ निवास करने लगा। दूसरा जो पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान कान्तिमान् रजतमय पुर निर्मित हुआ, उसका स्वामी विद्युन्माली हुआ। यह विद्युत्समूहोंसे युक्त बादलकी तरह जान पड़ता था। मयद्वारा जिस तीसरे स्वर्णमय पुरकी रचना हुई, उसमें सामर्थ्यशाली मय स्वयं गया और उसका अधिपति हुआ। जिस प्रकार तारकासुरके पुरसे विद्युन्मालीका पुर सौ योजनकी दूरीपर था, उसी प्रकार विद्युन्माली और मयके पुरोंमें भी सौ योजनका अन्तर था। मयदानवका विशाल पुर मेरुपर्वतके समान दीख पड़ता था ॥२-१० ॥
मेरुपर्वतसंकाशं मयस्यापि पुरं महत्।
पुष्यसंयोगमात्रेण कालेन स मयः पुरा ॥ ११
कृतवांस्त्रिपुरं दैत्यस्त्रिनेत्रः पुष्पकं यथा।
येन येन मयो याति प्रकुर्वाणः पुरं पुरात् ॥ १२
प्रशस्तास्तत्र तत्रैव वारुण्या मालया स्वयम् ।
रुक्मरूप्यायसानां च शतशोऽथ सहस्त्रशः ॥ १३
रत्नाचितानि शोभन्ते पुराण्यमरविद्विषाम् ।
प्रासादशतजुष्टानि कूटागारोत्कटानि च ॥ १४
सर्वेषां कामगानि स्युः सर्वलोकातिगानि च।
सोद्यानवापीकूपानि सपद्मसरवन्ति च ॥ १५
अशोकवनभूतानि कोकिलारुतवन्ति च।
चित्रशालविशालानि चतुःशालोत्तमानि च ॥ १६
सप्ताष्टदशभौमानि सत्कृतानि मयेन च।
बहुध्वजपताकानि स्त्रग्दामालङ्कृतानि च ॥ १७
किङ्किणीजालशब्दानि गन्धवन्ति महान्ति च।
सुसंयुक्तोपलिप्तानि पुष्पनैवेद्यवन्ति च ॥ १८
यज्ञधूमान्धकाराणि सम्पूर्णकलशानि च।
गगनावरणाभानि हंसपङ्क्तिनिभानि च ॥ १९
पक्तीकृतानि राजन्ते गृहाणि त्रिपुरे पुरे।
मुक्ताकलापैर्लम्बद्भिर्हसन्तीव शशिश्रियम् ॥ २०
जिस प्रकार पूर्वकालमें त्रिलोचन भगवान् शंकरने पुष्पककी रचना की थी, उसी प्रकार मयदानवने केवल पुष्यनक्षत्रके संयोगसे कालकी व्यवस्था करके त्रिपुरका निर्माण किया। पुरकी रचना करता हुआ मय जिस-जिस मार्गसे एक पुरसे दूसरे पुरमें जाता था, वहाँ-वहाँ वरुणकी दी हुई मालाद्वारा उत्पन्न चमत्कारसे सोने, चाँदी और लोहेके सैकड़ों-हजारों भवन स्वयं ही बनते जाते थे। उन देव-शत्रुओंके पुर रत्नखचित होनेके कारण विशेष शोभा पा रहे थे। वे सैकड़ों महलोंसे युक्त थे। उनमें ऊँचे-ऊँचे कूटागार (छतके ऊपरकी कोठरियाँ) बने थे। उनमें सभी लोग स्वच्छन्द विचरण करते थे। वे (सुन्दरतामें) सभी लोकोंका अतिक्रमण करनेवाले थे। उनमें उद्यान, बावली, कुआँ और कमलोंसे युक्त सरोवर शोभा पा रहे थे। उनमें अशोक वृक्षके बहुतेरे वन थे, जिनमें कोयलें कूजती रहती थीं। उनमें बड़ी- बड़ी चित्रशालाएँ और उत्तम अटारियाँ बनी थीं। मयने क्रमशः सात, आठ और दस तल्लेवाले भवनोंका बड़ी सुन्दरताके साथ निर्माण किया था। उनपर बहुसंख्यक ध्वज और पताकाएँ फहरा रही थीं। वे मालाकी लड़ियोंसे अलंकृत थे। उनमें लगी हुई क्षुद्र घण्टिकाओंके शब्द हो रहे थे। वे उत्कृष्ट गन्धयुक्त पदार्थोंसे सुवासित थे। उन्हें समुचितरूपसे उपलिप्त किया गया था। उनमें पुष्प, नैवेद्य आदि पूजन-सामग्री सैंजोयी गयी थी और जलपूर्ण कलश स्थापित थे। वे यज्ञजन्य धुएँसे अन्धकारित हो रहे थे। उस त्रिपुर नामक पुरमें आकाशसरीखे नीले तथा हंसोंकी पङ्क्तिके समान उज्ज्वल भवन कतारोंमें सुशोभित हो रहे थे। उनमें लटकती हुई मोतियोंकी झालरें ऐसी प्रतीत होती थीं, मानो चन्द्रमाकी शोभाका उपहास कर रही हैं॥ ११-२०॥
मल्लिकाजातिपुष्पाद्यैर्गन्धधूपाधिवासितैः ।
पञ्चेन्द्रियसुखैर्नित्यं समैः सत्पुरुषैरिव ॥ २१
हैमराजतलौहाद्यमणिरत्नाञ्जनाङ्किताः ।
प्राकारास्त्रिपुरे तस्मिन् गिरिप्राकारसंनिभाः ॥ २२
एकैकस्मिन् पुरे तस्मिन् गोपुराणां शतं शतम्।
सपताकाध्वजवतां दृश्यन्ते गिरिशृङ्गवत् ॥ २३
नूपुरारावरम्याणि त्रिपुरे तत्पुराण्यपि।
स्वर्गातिरिक्तश्रीकाणि तत्र कन्यापुराणि च ॥ २४
आरामैश्च विहारैश्च तडागवटचत्वरैः ।
सरोभिश्च सरिद्भिश्च वनैश्चोपवनैरपि ॥ २५
दिव्यभोगोपभोगानि नानारत्नयुतानि च।
पुष्पोत्करैश्च सुभगास्त्रिपुरस्योपनिर्गमाः ।
परिखाशतगम्भीराः कृता मायानिवारणैः ॥ २६
निशम्य तदुर्गविधानमुत्तमं कृतं मयेनाद्भुतवीर्यकर्मणा।
दितेः सुता दैवतराजवैरिणः सहस्त्रशः प्रापुरनन्तविक्रमाः ॥ २७
तदा सुरैर्दर्पितवैरिमर्दनै- र्जनार्दनैः शैलकरीन्द्रसंनिभैः ।
बभूव पूर्ण त्रिपुरं तथा पुरा यथाम्बरं भूरिजलैर्जलप्रदैः ॥ २८
वे नित्य मल्लिका, चमेली आदि सुगन्धित पुष्यों तथा गन्ध, धूप आदिसे अधिवासित होनेसे पाँचों इन्द्रियोंके सुखोंसे समन्वित सत्पुरुषोंकी तरह सुशोभित हो रहे थे। उस त्रिपुरमें सोने, चाँदी और लोहेके प्राचीर बने हुए थे, जिनमें मणि, रत्न और अंजन (काले पत्थर) जड़े हुए थे। वे ऐसे प्रतीत होते थे मानो पर्वतोंकी चहारदीवारी हो। उस एक-एक पुरमें सैकड़ों गोपुर बने थे, जिनपर ध्वजा और पताकाएँ फहरा रही थीं। वे पर्वत-शिखरके समान दीख रहे थे। उस त्रिपुरमें नूपुरोंकी झनकार होती थी, जिससे वे अत्यन्त रमणीय लग रहे थे। उन पुरोंका सौन्दर्य स्वर्गसे भी बढ़कर था। उनमें कन्यापुर भी बने हुए थे। वे बगीचों, विहारस्थलों, तड़ागों, वटवृक्षके नीचे बने चबूतरों, सरोवरों, नदियों, वनों और उपवनोंसे सम्पन्न थे। वे दिव्य भोगकी सामग्रियों और नाना प्रकारके रत्नोंसे परिपूर्ण थे। उस त्रिपुरके बाहर निकलनेवाले मार्गोंपर पुष्प बिखेरे गये थे, जिससे वे बड़े सुन्दर लग रहे थे। उनमें मायाको निवारण करनेवाले उपकरणोंद्वारा सैकड़ों गहरी खाइयाँ बनायी गयी थीं। अद्भुत पराक्रमयुक्त कर्म करनेवाले मयके द्वारा निर्मित उस उत्तम दुर्गकी रचनाका वृत्तान्त सुनकर देवराज इन्द्रके शत्रु अनन्त पराक्रमी हजारों दैत्य वहाँ आ पहुँचे। उस समय वह त्रिपुर गर्वीले शत्रुओंका मान मर्दन करनेवाले, जनताके लिये कष्टदायक तथा पर्वतीय गजेन्द्रोंके समान विशालकाय असुरोंसे उसी प्रकार खचाखच भर गया, जैसे अधिक जलवाले बादलोंसे आकाश आच्छादित हो जाता है॥ २१-२८॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे त्रिपुरोपाख्याने त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३० ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके त्रिपुरोपाख्यानमें एक सौ तीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १३० ॥
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