मत्स्य पुराण अठारहवाँ अध्याय
एकोद्दिष्ट और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
सूत उवाच
एकोद्दिष्टमतो वक्ष्ये यदुक्तं चक्रपाणिना।
मृते पुत्रैर्यथा कार्यमाशीचं च पितर्यपि ॥ १
सूतजी कहते हैं- ऋषियों! इसके उपरान्त अब मैं उस 'एकोद्दिष्ट" श्राद्धकी विधि बतला रहा हूँ, जिसका वर्णन स्वयं भगवान् चक्रपाणि विष्णुने किया है। पिताकी मृत्यु हो जानेपर पुत्रोंको शौचपर्यन्त जैसा कार्य करना चाहिये, उसे सुनिये ॥ १ ॥
दशाहं शावमाशौचं ब्राह्मणेषु विधीयते ।
क्षत्रियेषु दश द्वे च पक्षं वैश्येषु चैव हि ॥ २
शूद्रेषु मासमाशीचं सपिण्डेषु विधीयते ।
नैशं वाकृतचूडस्य त्रिरात्रं परतः स्मृतम् ॥ ३
जननेऽप्येवमेव स्यात् सर्ववर्णेषु सर्वदा।
तथास्थिसञ्चयनादूर्ध्वमङ्गस्पर्शी विधीयते ।। ४
प्रेताय पिण्डदानं तु द्वादशाहं समाचरेत्।
पाथेयं तस्य तत् प्रोक्तं यतः प्रीतिकरं महत् ॥ ५
तस्मात् प्रेतपुरं प्रेतो द्वादशाहं न नीयते।
गृहं पुत्रं कलत्रं च द्वादशाहं प्रपश्यति ॥ ६
तस्मान्निधेयमाकाशे दशरात्रं पयस्तथा।
सर्वदाहोपशान्त्यर्थमध्वश्रमविनाशनम् ॥ ७
तत एकादशाहे तु द्विजानेकादशैव तु।
क्षत्रादिः सूतकान्ते तु भोजयेदयुतो द्विजान् ॥ ८
द्वितीयेऽह्नि पुनस्तद्वदेकोद्दिष्टं समाचरेत्।
आवाहनाग्नौकरणं दैवहीनं विधानतः ॥ ९
एकं पवित्रमेकोऽर्घ एकः पिण्डो विधीयते।
उपतिष्ठतामित्येतद् देयं पश्चात्तिलोदकम् ॥ १०
स्वदितं विकिरेद् ब्रूयाद् विसर्गे चाभिरम्यताम् ।
शेषं पूर्ववदत्रापि कार्ये वेदविदा पितुः ॥ ११
अनेन विधिना सर्वमनुमासं समाचरेत्।
सूतकान्ताद् द्वितीयेऽह्नि शय्यां दद्याद् विलक्षणाम् ॥ १२
काञ्चनं पुरुषं तद्वत् फलवस्त्रसमन्वितम् ।
सम्पूज्य द्विजदाम्पत्यं नानाभरणभूषणैः ॥ १३
वृषोत्सर्ग प्रकुर्वीत देवा च कपिला शुभा।
उदकुम्भश्च दातव्यो भक्ष्यभोज्यसमन्वितः ॥ १४
यावदब्दं नरश्रेष्ठ सतिलोदकपूर्वकम् ।
ततः संवत्सरे पूर्ण सपिण्डीकरणं भवेत् ॥ १५
सपिण्डीकरणादूर्ध्वं प्रेतः पार्वणभाग् भवेत्।
वृद्धिपूर्वेषु योग्यश्च गृहस्थश्च भवेत्ततः ॥ १६
ब्राह्मणोंमें दस दिनके अशीचका विधान है। इसी प्रकार क्षत्रियोंमें बारह दिनका, वैश्योंमें पन्द्रह दिनका और शूद्रोंमें एक मासका अशीच लगता है। इस अशौचका विधान सगोत्रमें ही किया गया है। जिसका मुण्डन संस्कार नहीं हुआ हो. ऐसे बच्चेका मरणाशीच एक राततक तथा इससे बड़ी अवस्थाबालेका तीन राततक बतलाया गया है। इसी प्रकार जननाशीच भी सर्वदा सभी वर्षोंके लिये होता है। मरणाशौचमें अस्थिसंचयनके उपरान्त (परिवारवालोंका) अङ्गस्पर्श करनेका विधान है। प्रेतात्माके लिये बारह दिनोंतक पिण्डदान करना चाहिये; क्योंकि वे पिण्ड उस प्रेतके लिये पाथेय (मार्गका कलेवा) बतलाये गये हैं, अतः अतिशय सुखदायी होते हैं। इसी कारण वह प्रेतात्मा बारह दिनोंतक प्रेतपुर (यमपुरी) को नहीं ले जाया जाता। वह बारह दिनोंतक अपने गृह, पुत्र और पत्नीको देखता रहता है। इसलिये उसके समस्त दाहोंकी शान्ति तथा मार्गकी थकावटका विनाश करनेके निमित्त दस राततक आकाशमें (पीपलके वृक्षमें बँधा हुआ) जलघट रखना चाहिये। तत्पश्चात् ग्यारहवें दिन ग्यारह ब्राह्मणोंको भोजन करावे।
इसी प्रकार क्षत्रिय आदि अन्य वर्णवालोंको भी अपने-अपने सूतककी समाप्तिपर (विषम संख्यक) ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये। पुनः दूसरे अर्थात् बारहवें दिन पूर्ववत् विधिपूर्वक एकोद्दिष्ट तथा विश्वेदेवोंका पूजन निषिद्ध है। इस श्राद्धमें एक ही पवित्रक, एक ही अर्घ्य और एक ही पिण्डका विधान है। इसके पश्चात् 'उपतिष्ठताम्' इस शब्दका उच्चारण करके विलसहित जल प्रदान करे और 'स्वदितम् ' इस सम्पूर्ण मन्त्रको बोलकर अन्नको पृथ्वीपर बिखेर दे तथा विसर्जनके समय 'अभिरम्यताम्' ऐसा कहे। इस प्रकार वेदज्ञ पुत्रको अपने पिताका शेष श्राद्ध-कार्य पूर्ववत् करना चाहिये। इसी विधिसे प्रतिमास (पिताकी मृत्यु तिथिपर) सारा कार्य सम्पादित करना चाहिये। सूतक समाप्त होनेके पश्चात् दूसरे दिन काञ्चनपुरुष (सोनेकी प्रतिमा) और फल-वस्त्रसे समन्वित विलक्षण शय्याका दान करना चाहिये। उसी समय अनेकविध वस्त्राभूषणोंसे द्विज-दम्पतीका पूजन करे। तत्पश्चात् वृषोत्सर्ग (सौड़ छोड़ने) का काम सम्पन्न करे। उस समय एक सुन्दर कपिला गौका दान करे। नरश्रेष्ठ। पुनः अनेक प्रकारके भक्ष्य-भोज्य पदार्थोसे युक्त एक जलपात्र, जो तिल और जलसे परिपूर्ण हो, दान करे। इस प्रकारके जलपात्रका दान वर्षपर्यन्त करना चाहिये। इस तरह एक वर्ष पूर्ण होनेपर सपिण्डीकरण बद्ध किया जाता है। सपिण्डीकरण श्राद्धके पश्चात् प्रेतात्मा पार्वणश्राद्धका भागी हो जाता है तथा पूर्वकथित आभ्युदयिक आदि वृद्धि श्राद्धोंमें भाग पानेके योग्य एवं गृहस्थ हो जाता है॥ २-१६ ॥
सपिण्डीकरणे श्राद्धे देवपूर्व नियोजयेत् ।
पितॄनेवासयेत् तन्त्र पृथक् प्रेतं विनिर्दिशेत् ॥ १७
गन्धोदकतिलैर्युक्तं कुर्यात् पात्रचतुष्टयम् ।
अर्घार्थ पितृपात्रेषु प्रेतपात्रं प्रसेचयेत् ॥ १८
तद्वत् संकल्प्य चतुरः पिण्डान् पिण्डप्रदस्तथा।
ये समाना इति द्वाभ्यामन्त्यं तु विभजेत् तथा ॥ १९
चतुर्थस्य पुनः कार्यं न कदाचिदतो भवेत्।
ततः पितृत्वमापन्नः सर्वतस्तुष्टिमागतः ॥ २०
अग्निष्वात्तादिमध्यत्वं प्राप्नोत्यमृतमुत्तमम् ।
सपिण्डीकरणादूर्ध्वं तस्मै तस्मान्न दीयते ॥ २१
पितृष्वेव तु दातव्यं तत्पिण्डो येषु संस्थितः ।
ततः प्रभृति संक्रान्तावुपरागादिपर्वसु ॥ २२
त्रिपिण्डमाचरेच्छाद्धमेकोद्दिष्टे मृतेऽहनि ।
एकोद्दिष्टं परित्यज्य मृताहे यः समाचरेत् ॥ २३
सदैव पितृहा स स्यान्मातृभ्रातृविनाशकः ।
मृताहे पार्वणं कुर्वन्नधोऽधो याति मानवः ॥ २४
सम्पृक्तेष्वाकुलीभावः प्रेतेषु तु यतो भवेत्।
प्रतिसंवत्सरं तस्मादेकोद्दिष्टं समाचरेत् ॥ २५
यावदब्दं तु यो दद्यादुदकुम्भं विमत्सरः ।
प्रेतायान्नसमायुक्तं सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥ २६
आमश्राद्धं यदा कुर्याद् विधिज्ञः श्राद्धदस्तदा।
तेनाग्नौकरणं कुर्यात् पिण्डांस्तेनैव निर्वपेत् ॥ २७
त्रिभिः सपिण्डीकरणे अशेषत्रितये पिता।
यदा प्राप्स्यति कालेन तदा मुच्येत बन्धनात् ॥ २८
मुक्तोऽपि लेपभागित्वं प्राप्नोति कुशमार्जनात् ।
लेपभाजश्चतुर्थाद्याः पित्राद्याः पिण्डभागिनः ।
पिण्डदः सप्तमस्तेषां सापिण्ड्यं साप्तपौरुषम् ॥ २९
सपिण्डीकरण श्राद्धमें सर्वप्रथम विश्वेदेवोंको नियुक्त करे। तत्पश्चात् पितरोंको स्थान दे और प्रेतका स्थान उनसे अलग निश्चित करे। फिर अर्घ्य देनेके लिये चन्दन, जल और तिलसे युक्त चार पात्र तैयार करे और प्रेतपात्रके जलसे पितृपात्रोंको सिक्त कर दे। (अर्थात् प्रेतपात्रके जलको तीन भागमें विभक्त करके उन्हें पितृपात्रोंमें डाल दे।) इसी प्रकार पिण्डदाता चार पिण्डोंका निर्माण करके उन्हें संकल्पपूर्वक (पितरों और प्रेतके स्थानोंपर पृथक् पृथक्) रख दे। फिर 'ये समानाः ०' (वाजस० १९।४५-४६)- इन दो मन्त्रोंद्वारा अन्तके (चौथे प्रेतके) पिण्डको (स्वर्णशलाका या कुशसे) तीन भागोंमें विभक्त कर दे (और एक-एक भागको क्रमशः पितरोंके पिण्डोंमें मिला दे)। इसके पश्चात् उस चौथे पिण्डका कहीं भी कोई उपयोग नहीं रह जाता।
इसके बाद वह प्रेतात्मा सब ओरसे संतुष्ट होकर पितृरूपमें परिवर्तित हो जाता है और 'अग्रिष्वात्त' आदि देवपितरोंके वह प्रेतात्मा जिन पितरोंके बीच स्थित है, उसके पिण्डके मध्य उत्तम एवं अविनाशी पद प्राप्त कर लेता है। इसी कारण सपिण्डीकरणके पश्चात् उसे कुछ नहीं दिया जाता। तीनों भागोंको उन्हीं पितरोंके पिण्डोंमें मिला देना चाहिये। तत्पश्चात् संक्रान्ति अथवा ग्रहण आदि पर्वोके समय त्रिपिण्ड श्राद्ध ही करना चाहिये। एकोद्दिष्ट श्राद्धको प्रेतात्माकी मृत्युके दिन करनेका विधान है। जो श्राद्धकर्ता पिताको मृत्युतिथिपर एकोद्दिष्ट श्राद्धका परित्याग कर (केवल) अन्य श्राद्धोंको करता है, वह सदैव पितृघाती तथा माता और भाईका विनाशक हो जाता है। पिताकी क्षयाहतिथिपर पार्वण श्राद्ध करनेवाला मानव अधम-से-अधम गतिको प्रास होता है।
चूंकि प्रेतोंसे सम्बन्धित हो जानेसे पितृगण व्याकुल हो जाते हैं, इसलिये प्रतिवर्ष एकोद्दिष्ट श्रद्ध करना चाहिये। जो मनुष्य मत्सररहित होकर वर्षपर्यन्त प्रेतके निमित्त अन्न आदि पदार्थोंसे युक्त जलपात्र दान करता रहता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। विधियोंका ज्ञाता श्राद्धकर्ता जब आमश्राद्ध (जिसमें ब्राह्मणोंको भोजन न कराकर कच्चा अन्न दिया जाता है) करे तो विधिपूर्वक अग्रिकरण करे और उसी समय पिण्डदान भी करे। जब पिता सपिण्डीकरण श्राद्धमें अपने पिता, पितामह, प्रपितामहके साथ सम्बन्ध प्राप्त कर लेता है, तब वह बन्धनसे मुक्त हो जाता है। मुक्त होनेपर भी वह कुशके मार्जनसे लेपभागी हो जाता है। इस प्रकार चतुर्थ और पञ्चमसहित तीन पितर लेपभागी और पिता आदि तीन पिण्डभागी हैं। उनमें पिण्डदाता सातवीं संतान है। इस प्रकार सात पीढ़ीतक सपिण्डता मानी जाती है॥ १७-२९॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे सपिण्डीकरणकल्पो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें सपिण्डीकरण नामक अठारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥
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