गोमेदक द्वीप और पुष्कर द्वीप का वर्णन | gomedak dveep aur pushkar dveep ka varnan

मत्स्य पुराण एक सौ तेईसवाँ अध्याय

गोमेदक द्वीप और पुष्कर द्वीप का वर्णन

सूत उवाच

गोमेदकं प्रवक्ष्यामि षष्ठं द्वीपं तपोधनाः ।
सुरोदकसमुद्रस्तु गोमेदेन समावृतः ॥ १

सूतजी कहते हैं- तपोधन ऋषियो। अब मैं छठे गोमेदक द्वीपका वर्णन कर रहा हूँ। गोमेदक द्वीपसे सुरोदकसागर घिरा हुआ है। इसका विस्तार शाल्मलद्वीपके विस्तारसे दुगुना है। १

शाल्मलस्य तु विस्ताराद् द्विगुणस्तस्य विस्तरः । 
तस्मिन् द्वीपे तु विज्ञेयौ पर्वतौ द्वौ समाहितौ ॥ २

प्रथमः सुमना नाम भात्यञ्जनमयो गिरिः । 
द्वितीयः कुमुदो नाम सर्वोषधिसमन्वितः ॥ ३

शातकौम्भमयः श्रीमान् विज्ञेयः सुमहाचितः ।
समुद्रेक्षुरसोदेन वृतो गोमेदकश्च सः ॥ ४

षष्ठेन तु समुद्रेण सुरोदाद् द्विगुणेन च।
धातकी कुमुदश्चैव हव्यपुत्रौ सुविस्तृतौ ॥ ५

सौमनं प्रथमं वर्षं धातकीखण्डमुच्यते। 
धातकिनः स्मृतं तद् वै प्रथमं प्रथमस्य तु ॥ ६

गोमेदं यत्स्मृतं वर्ष नाम्ना सर्वसुखं तु तत् । 
कुमुदस्य द्वितीयस्य द्वितीयं कुमुदं ततः ॥ ७

एतौ द्वौ पर्वतौ वृत्तौ शेषौ सर्वसमुच्छ्रितौ। 
पूर्वेण तस्य द्वीपस्य सुमनाः पर्वतः स्थितः ॥ ८

प्राक्पश्चिमायतैः पादैरासमुद्रादिति स्थितः ।
पश्चार्थ कुमुदस्तस्य एवमेव स्थितस्तु वै ॥ ९

एतैः पर्वतपादैस्तु स देशो वै द्विधा कृतः ।
दक्षिणार्थे तु द्वीपस्य धातकीखण्डमुच्यते ॥ १०

कुमुदं तूत्तरे तस्य द्वितीयं वर्षमुत्तमम् । 
एतौ जनपदौ द्वौ तु गोमेदस्य तु विस्तृतौ ॥ ११

उस द्वीपमें उच्च शिखरोंवाले दो पर्वत हैं-ऐसा जानना चाहिये। उनमें पहलेका नाम सुमना है। यह पर्वत अञ्जनके समान काले रंगसे सुशोभित है। दूसरा पर्वत कुमुद नामवाला है, जो सभी प्रकारकी ओषधियोंसे सम्पन्न, सुवर्णमय, शोभाशाली और वृक्षादिकी समृद्धियोंसे युक्त है। यह गोमेदक द्वीप छठे सुरोदसागरकी अपेक्षा दुगुने परिमाणवाले इक्षुरसोदसागरसे घिरा हुआ है। इसमें धातकी और कुमुद नामक दो अत्यन्त विस्तृत प्रदेश हैं, जो 'हव्यपुत्र' नामसे विख्यात हैं। सुमना पर्वतका जो प्रथम वर्ष है, उसीको धातकीखण्ड कहते कहलाता है। गोमेद नामसे जो वर्ष कहा गया है, उसीको हैं। यही धातकी नामक प्रथम पर्वतका प्रथम वर्ष सर्वसुख भी कहते हैं। इसके बाद दूसरे कुमुदपर्वतका प्रदेश भी कुमुद नामसे विख्यात है। ये दोनों पर्वत अन्य सभी पर्वतोंसे ऊँचे हैं। इस गोमेदक द्वीपके पूर्वभागमें सुमना नामक पर्वत स्थित है, जो पूर्वसे पश्चिम समुद्रतक फैला हुआ है। इसी प्रकार इस द्वीपके पश्चिमार्थ भागमें कुमुद नामक पर्वत स्थित है। इन पर्वतोंके चरण-प्रान्तोंसे वह देश दो भागोंमें विभक्त हो गया है। इस द्वीपका दक्षिणार्थ भाग धातकीखण्ड कहलाता है तथा इसके उत्तरार्ध भागमें कुमुद नामक दूसरा श्रेष्ठ वर्ष है। गोमेदक द्वीपके ये दोनों प्रदेश अत्यन्त विस्तृत माने जाते हैं ॥२-११॥

इतः परं प्रवक्ष्यामि सप्तमं द्वीपमुत्तमम् । 
समुद्रेक्षुरसं चैव गोमेदाद् द्विगुणं हि सः ॥ १२

आवृत्य तिष्ठति द्वीपः पुष्करः पुष्करैर्वृतः ।
पुष्करेण वृतः श्रीमांश्चित्रसानुर्महागिरिः ॥ १३

कूटैश्चित्रैर्मणिमयैः शिलाजालसमुद्भवैः ।
द्वीपस्यैव तु पूर्वार्धे चित्रसानुः स्थितो महान् ॥ १४

परिमण्डलसहस्त्राणि विस्तीर्णः सप्तविंशतिः । 
ऊर्ध्वं स वै चतुर्विशद् योजनानां महाचलः ॥ १५

द्वीपार्धस्य परिक्षिप्तः पश्चिमे मानसो गिरिः। 
स्थितो वेलासमीपे तु पूर्वचन्द्र इवोदितः ॥ १६

योजनानां सहस्त्राणि सार्धं पञ्चाशदुच्छ्रितः । 
तस्य पुत्रो महावीतः पश्चिमार्थस्य रक्षिता ॥ १७

पूर्वार्धे पर्वतस्यापि द्विधा देशस्तु स स्मृतः । 
स्वादूदकेनोदधिना पुष्करः परिवारितः ॥ १८

विस्तारान्मण्डलाच्चैव गोमेदाद् द्विगुणेन तु। 
त्रिंशद्वर्षसहस्त्राणि तेषु जीवन्ति मानवाः ॥ १९

विपर्ययो न तेष्वस्ति एतत् स्वाभाविकं स्मृतम् । 
आरोग्यं सुखबाहुल्यं मानसीं सिद्धिमास्थिताः ॥ २०

इसके बाद अब मैं सातवें सर्वोत्तम द्वीपका वर्णन कर रहा हूँ, जो पुष्करों (कमलों) से व्याप्त होनेके कारण पुष्कर नामसे प्रसिद्ध है। यह परिमाणमें गोमेदकद्वीपसे दुगुना है और इक्षुरसोदक सागरको घेरकर स्थित है। पुष्करद्वीपमें चित्रसानु (विचित्र शिखरोंवाला) नामक शोभाशाली महान् पर्वत है। यह अनेकों चित्र-विचित्र मणिमय शिखरों तथा शिलासमूहोंसे सुशोभित है। यह महान् पर्वत चित्रसानु द्वीपके पूर्वार्ध भागमें स्थित है। यह महान् गिरि सत्ताईस योजन विस्तृत और चौबीस योजन ऊँचा है। इस द्वीपके पश्चिमार्थ भागमें समुद्रतटपर मानस नामक पर्वत स्थित है, जो पूर्व दिशामें निकले हुए चन्द्रमाके समान शोभायमान है। यह साढ़े पचास हजार योजन ऊँचा है। मानस पर्वतके पूर्वार्धमें स्थित रहते हुए भी इसका पुत्र महावीत नामक पर्वत द्वीपके पश्चिमार्ध भागकी रक्षा करता है। इस प्रकार वह प्रदेश दो भागोंमें विभक्त कहा जाता है। पुष्करद्वीप स्वादिष्ट जल वाले महासागरसे घिरा हुआ है। यह विस्तार एवं मण्डल (घेराव) में गोमेदक द्वीपसे दुगुना है। इस द्वीपके अन्तःस्थित प्रदेशोंके मानव तीस हजार वर्षतक जीवित रहते हैं। उनमें वृद्धावस्थाका प्रवेश नहीं होता। वे स्वाभाविक रूपसे युवावस्था, नीरोगता, अत्यधिक सुख और मानसी सिद्धिसे युक्त होते हैं ॥ १२-२० ॥

सुखमायुश्च रूपं च त्रिषु द्वीपेषु सर्वशः ।
अधमोत्तमौ न तेष्वास्तां तुल्यास्ते वीर्यरूपतः ॥२१

न तत्र वध्यवधकौ नेर्ष्यासूया भयं तथा।
न लोभो न च दम्भो वा न च द्वेषः परिग्रहः ॥ २२

सत्यानृते न तेष्वास्तां धर्माधर्मों तथैव च।
वर्णाश्रमाणां वार्ता च पाशुपाल्यं वणिक् कृषिः ।। २३

त्रयीविद्या दण्डनीतिः शुश्रूषा दण्ड एव च।
न तत्र वर्ष नद्यो वा शीतोष्णं न च विद्यते ॥ २४

उद्भिदान्युदकानि स्युर्गिरिप्रस्त्रवणानि च।
तुल्योत्तरकुरूणां तु कालस्तत्र तु सर्वदा ॥ २५

सर्वतः सुखकालोऽसौ जराक्लेशविवर्जितः ।
सर्गस्तु धातकीखण्डे महावीते तथैव च ॥ २६

एवं द्वीपाः समुद्रस्तु सप्त सप्तभिरावृताः ।
द्वीपस्यानन्तरो यस्तु समुद्रस्तत्समस्तु वै ॥ २७

एवं द्वीपसमुद्राणां वृद्धिज्ञेया परस्परम्।
अपां चैव समुद्रेकात् समुद्र इति संज्ञितः ॥ २८

ऋषद्वसन्त्यो वर्षेषु प्रजा यत्र चतुर्विधाः। 
ऋषिरित्येष गमने वर्ष त्वेतेन तेषु वै ॥ २९

उदयतीन्दौ पूर्वे तु समुद्रः पूर्यते सदा। 
प्रक्षीयमाणे बहुले क्षीयतेऽस्तमिते च वै ॥ ३०

आपूर्यमाणो ह्युदधिरात्मनैवाभिपूर्यते। 
ततो वै क्षीयमाणे तु स्वात्मन्येव हापां क्षयः ॥ ३१

तीनों द्वीपोंमें सर्वत्र सुख, दीर्घायु और सुन्दर रूपकी सुलभता रहती है। उनमें ऊँच-नीचका भाव नहीं होता। पराक्रम और रूपकी दृष्टिसे वे एकतुल्य होते हैं। उनमें न कोई वध करनेयोग्य होता है और न मारनेवाला ही पाया जाता है। उनमें ईर्ष्या, असूया, भय, लोभ, दम्भ, द्वेष और संग्रहका नामतक नहीं है। उनमें सत्य-असत्य एवं धर्म-अधर्मका विवाद, वर्णाश्रमकी चर्चा, पशुपालन, व्यवसाय, खेती, त्रयीविद्या, दण्डनीति (शत्रुओं या अपराधियोंको दण्ड देकर वशमें करनेकी नीति), नौकरी और परस्पर दण्ड-विधान भी नहीं पाया जाता। वहाँ न तो वर्षा होती है, न नदियाँ ही हैं तथा सर्दी गरमी भी नहीं पड़ती। पर्वतोंसे टपकते हुए जल ही अन्न और जलका काम पूरा करते हैं। वहाँ सर्वदा उत्तरकुरु देशके सदृश समय बना रहता है। 

वहाँ सब लोग सर्वत्र वृद्धावस्थाके कष्टसे रहित सुखमय समय व्यतीत करते हैं। यही स्थिति धातकीखण्ड तथा महावीत दोनों प्रदेशोंमें पायी जाती है। इस प्रकार सातों द्वीप पृथक् पृथक् सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं। जो समुद्र जिस द्वीपके बाद पड़ता है, वह परिमाणमें उसी द्वीपके बराबर माना गया है। इस प्रकार द्वीपों और समुद्रोंकी परस्पर वृद्धि समझनी चाहिये। जलकी सम्यक् प्रकारसे वृद्धि होनेके कारण इस जलराशिको समुद्र कहते हैं। 'ऋषि' धातुका अर्थ गमन है, इसीसे 'वर्ष' शब्द बनता है। उन वर्षोंमें चार प्रकारकी प्रजाएँ सुखपूर्वक निवास करती हैं। पूर्व दिशामें चन्द्रमाके उदय होनेपर समुद्र सर्वदा जलसे पूर्ण हो जाता है अर्थात् उसमें ज्वार आ जाता है और वही चन्द्रमा जब अस्त हो जाते हैं तब समुद्रका बढ़ा हुआ जल अत्यन्त क्षीण हो जाता है अर्थात् भाटा हो जाता है। जलकी वृद्धिके समय समुद्र अपनी मर्यादाके भीतर ही बढ़ता है और क्षीण होते समय मर्यादाके अंदर ही उसके जलका क्षय होता है॥ २१-३१॥

उदयात् पयसां योगात् पुष्णन्त्यायो यथा स्वयम् ।
तथा स तु समुद्रोऽपि वर्धते शशिनोदये ॥ ३२

अन्यूनानतिरिक्तात्मा वर्धन्त्यापो हृसन्ति च।
उदयेऽस्तमये चेन्दोः पक्षयोः शुक्लकृष्णयोः ॥ ३३

क्षयवृद्धी समुद्रस्य शशिवृद्धिक्षये तथा।
दशोत्तराणि पञ्चाहुरङ्गुलानां शतानि च ॥ ३४

अपां वृद्धिः क्षयो दृष्टः समुद्राणां तु पर्वसु।
द्विरापत्वात् स्मृतो द्वीपो दधनाच्च्चोदधिः स्मृतः ॥ ३५

निगीर्णत्वाच्च गिरयो पर्वबन्धाच्च पर्वताः ।
शाकद्वीपे तु वै शाकः पर्वतस्तेन चोच्यते ॥ ३६

कुशद्वीपे कुशस्तम्बो मध्ये जनपदस्य तु।
क्रौञ्चद्वीपे गिरिः क्रौञ्चस्तस्य नाम्ना निगद्यते ॥ ३७

शाल्मलिः शाल्मलद्वीपे पूज्यते स महाद्रुमः ।
गोमेदके तु गोमेदः पर्वतस्तेन चोच्यते ।। ३८

न्यग्रोधः पुष्करद्वीपे पद्मवत् तेन स स्मृतः ।
पूज्यते स महादेवैर्ब्रह्मांशोऽव्यक्तसम्भवः ।। ३९

तस्मिन् स वसति ब्रह्मा साध्यैः सार्ध प्रजापतिः । 
तत्र देवा उपासन्ते त्रयस्त्रिंशन्महर्षिभिः ॥ ४०

स तत्र पूज्यते देवो देवैर्महर्षिसत्तमैः । 
जम्बूद्वीपात् प्रवर्तन्ते रत्नानि विविधानि च ॥ ४१ 

जिस प्रकार चन्द्रमाके उदय होनेपर चन्द्र-किरणोंका जलके साथ संयोग होनेसे जल अपने-आप उछलने लगता है, उसी प्रकार समुद्र भी बढ़ने लगता है। यद्यपि शुक्लपक्ष और कृष्णपक्षमें चन्द्रमाके उदय और अस्त-कालमें जल बढ़ता और घटता है, तथापि समुद्रकी मर्यादामें न्यूनता या अधिकता नहीं दीख पड़ती। चन्द्रमाकी वृद्धि और क्षयके अवसरपर समुद्रका भी उत्कर्ष और अपकर्ष होता है। पानीका यह चढ़ाव-उतार एक सौ पंद्रह अङ्गुलतक बतलाया जाता है। पर्वके अवसरोंपर समुद्रकि जलोंका यह ज्वारभाटा स्पष्ट दीखनेमें आता है। दो ओर जलसे घिरा होनेके कारण समुद्रस्थ प्रदेशको द्वीप कहते हैं और जलको धारण करने के कारण समुद्रको उदधि कहा जाता है। (सभी वस्तुओंको)आत्मसात् कर लेनेके कारण 'गिरि' और (पृथ्वीके संधिस्थानको बाँधनेके कारण 'पर्वत' नाम पड़ा है। शाकद्वीपमें शाक नामक पर्वत है, 

इसी कारण उसे शाकद्वीप कहते हैं। कुशद्वीपमें जनपदके मध्यभागमें विशाल कुशस्तम्ब (कुशका गुल्म) है (इसीलिये वह कुशद्वीप कहा जाता है)। क्रौञ्चद्वीपमें क्रौञ्च नामक पर्वत है, अतः उसीके नामपर वह क्रौञ्जद्वीप कहलाता है। शाल्मलद्वीपमें सेमलका महान् वृक्ष है, उसकी वहाँके लोग पूजा करते हैं। (इसीसे उसे शाल्मलद्वीप कहा जाता है।) गोमेदकद्वीपमें गोमेद नामका पर्वत है, अतः उसीके नामपर द्वीपको गोमेदक नामसे पुकारते हैं। पुष्करद्वीपमें कमलके समान बरगदका वृक्ष है, इसी कारण उसे पुष्करद्वीप कहते हैं। वह वटवृक्ष अव्यक्त ब्रह्मके अंशसे समुद्धत हुआ है, इसीलिये प्रधान-प्रधान देवगण उसकी पूजा करते हैं। उस द्वीपमें साध्यगणोंके साथ प्रजापति ब्रह्मा निवास करते हैं। वहाँ महर्षियोंक साथ तैंतीस देवता उपासना करते हैं। वहाँ श्रेष्ठ महर्षियों एवं देवताओंद्वारा देवाधिदेव ब्रह्माकी पूजा की जाती है। जम्बूद्वीपसे अनेकों प्रकारके रन (अन्यान्य द्वीपोंमें) प्रवर्तित होते हैं॥ ३२-४१॥

द्वीपेषु तेषु सर्वेषु प्रजानां क्रमशैस्तु वै। 
आर्जवाद् ब्रह्मचर्येण सत्येन च दमेन च ॥ ४२

आरोग्यायुष्प्रमाणाभ्यां द्विगुणं द्विगुणं ततः । 
द्वीपेषु तेषु सर्वेषु यथोक्तं वर्षकेषु च ॥ ४३

गोपायन्ते प्रजास्तत्र सर्वैः सहजपण्डितैः । 
भोजनं चाप्रयत्नेन सदा स्वयमुपस्थितम् ॥ ४४

षड्सं तन्महावीर्यं तत्र ते भुञ्जते जनाः। 
परेण पुष्करस्याथ आवृत्यावस्थितो महान् ॥ ४५

स्वादूदकसमुद्रस्तु स समन्तादवेष्टयत् । 
स्वादूदकस्य परितः शैलस्तु परिमण्डलः ॥ ४६

प्रकाशश्चाप्रकाशश्च लोकालोकः स उच्यते। 
आलोकस्तत्र चार्वाक् च निरालोकस्ततः परम् ।। ४७

लोकविस्तारमात्रं तु पृथिव्यर्थं तु बाह्यतः । 
प्रतिच्छन्नं समन्तात् तु उदकेनावृतं महत् ।। ४८

भूमेर्दशगुणाश्चापः समन्तात् पालयन्ति गाम्। 
अद्भ्यो दशगुणश्चाग्निः सर्वतो धारयत्यपः ॥ ४९

अग्रेर्दशगुणो वायुर्धारयज्योतिरास्थितः । 
तिर्यक् च मण्डलो वायुर्भूतान्यावेष्ट्य धारयन् ॥ ५०

दशाधिकं तथाऽऽकाशं वायोर्भूतान्यधारयत्। 
भूतानि धारयन् व्योम तस्माद् दशगुणस्तु वै ॥ ५१

भूतादितो दशगुणं महद्भूतान्यधारयत् । 
महत्तत्त्वं ह्यनन्तेन अव्यक्तेन तु धार्यते ॥ ५२

आधाराधेयभावेन विकारास्ते विकारिणाम्। 
पृथ्यादयो विकारास्ते परिच्छिन्नाः परस्परम् ॥ ५३

परस्पराधिकाश्चैव प्रविष्टाश्च परस्परम् । 
एवं परस्परोत्पन्ना धार्यन्ते च परस्परम् ॥ ५४

उपर्युक्त उन सभी द्वीपों और वर्षोंमें क्रमशः प्रजाओंको सरलता, ब्रह्मचर्य, सत्यवादिता, इन्द्रियनिग्रह, नीरोगता और आयुका प्रमाण एक-दूसरेसे दुगुना बढ़‌ता जाता है। वे सभी स्वाभाविक ही पण्डित होते हैं, अतः उनके द्वारा स्वयं प्रजाओंकी रक्षा होती रहती है। वहाँ भोजन अनायास ही स्वयं उपस्थित हो जाता है, जो छहों रसोंसे युक्त और महान् बलदायक होता है। उसे ही वहाँके निवासी खाते हैं। पुष्करद्वीपके बाद स्वादिष्ट जलसे परिपूर्ण महासागर उस द्वीपको चारों ओरसे घेरकर अवस्थित है। उस स्वादिष्ट जलवाले सागरके चारों ओर एक मण्डलाकार पर्वत है, जो प्रकाश और अन्धकारसे युक्त है। उसीको 'लोकालोक' नामसे पुकारा जाता है। उसका अगला भाग प्रकाशयुक्त तथा पिछला भाग अन्धकारसे आच्छादित रहता है। 

उसका विस्तार लोकोंके विस्तारके बराबर है, किंतु वह बाहरसे पृथ्वीके अर्धभाग-जितना दीख पड़ता है। वह महान् पर्वत चारों ओर जल राशिसे आच्छन्न एवं घिरा हुआ है। पृथ्वीसे दसगुना जल चारों ओरसे पृथ्वीकी रक्षा करता है। जलसे दसगुनी अग्रि सब ओरसे जलको धारण करती है। अग्रिसे दसगुनी वायु तेजको धारण करके स्थित है। वह वायुमण्डल तिरछा होकर समस्त प्राणियोंमें प्रविष्ट हो सबको धारण किये हुए है। वायुसे दसगुना आकाश भूतोंको धारण किये हुए है। उस आकाशसे दसगुना भूतादि अर्थात् तामस अहंकार है। उस भूतादिसे दसगुना महद्भूत (महत्तत्त्व) है और वह महत्तत्त्व अनन्त अव्यक्तद्वारा धारण किया जाता है। इन विकृतिशील तत्त्वोंके विकार आधाराधेयभावसे कल्पित हैं। ये पृथ्वी आदि विकार परस्पर विभक्त हैं, परस्पर एक-दूसरेसे अधिक तथा एक-दूसरेमें घुसे हुए भी हैं। इसी प्रकार ये परस्पर उत्पन्न होते हैं और परस्पर एक-दूसरेको धारण भी करते हैं ॥ ४२-५४॥

यस्मात् प्रविष्टास्तेऽन्योन्यं तस्मात् ते स्थिरतां गताः । 
आसंस्ते ह्यविशेषाश्च विशेषा अन्यवेशनात् ॥ ५५

पृव्यादयस्तु वाय्वन्ताः परिच्छिन्नास्तु तत्र ते। 
भूतेभ्यः परतस्तेभ्यो हालोकः सर्वतः स्मृतः ॥ ५६

तथा ह्यालोक आकाशे परिच्छिन्नानि सर्वशः । 
पात्रे महति पात्राणि यथा हान्तर्गतानि च ॥ ५७

भवन्त्यन्योन्यहीनानि परस्परसमाश्रयात् । 
तथा ह्यालोक आकाशे भेदास्त्वन्तर्गतागताः ॥ ५८

कृतान्येतानि तत्त्वानि अन्योन्यस्याधिकानि च। 
यावदेतानि तत्त्वानि तावदुत्पत्तिरुच्यते ॥ ५९

जन्तूनामिह संस्कारो भूतेष्वन्तर्गतेषु वै। 
प्रत्याख्यायेह भूतानि कार्योत्पत्तिर्न विद्यते ॥ ६०

तस्मात् परिमिता भेदाः स्मृताः कार्यात्मकास्तु वै। 
ते कारणात्मकाश्चैव स्युर्भेदा महदादयः ॥ ६१

इत्येवं संनिवेशोऽयं पृथ्याक्रान्तस्तु भागशः । 
सप्तद्वीपसमुद्राणां याथातथ्येन वै मया ॥ ६२

विस्तारान्मण्डलाच्चैव प्रसंख्यानेन चैव हि।
विश्वरूपं प्रधानस्य परिमाणैकदेशिनः ॥ ६३

एतावत् संनिवेशस्तु मया सम्यक् प्रकाशितः । 
एतावदेव श्रोतव्यं संनिवेशस्य पार्थिव ॥ ६४

चूँकि ये सभी परस्पर एक-दूसरेमें प्रविष्ट से हैं, इसीलिये स्थिरताको प्राप्त हुए हैं। पहले इनमें कोई विशेषता नहीं थी, परंतु एक-दूसरेमें प्रविष्ट हो जानेसे ये विशिष्ट हो गये हैं। पृथ्वीसे लेकर वायुतकके सभी तत्त्व परस्पर विभक्त हैं। इन तत्त्वोंसे परे सारा जगत् निर्जन है। (अन्य सभी तत्त्व) प्रकाशमान आकाशमें सर्वत्र व्याप्त हैं। जिस प्रकार छोटे-छोटे पात्र बड़े पात्रके अन्तर्गत समा जाते हैं और परस्पर समाश्रयण होनेके कारण एक-दूसरेसे छोटे होते जाते हैं, उसी प्रकार ये सारे भेद प्रकाशमान आकाशके अन्तर्गत विलीन हो जाते हैं। ये तत्त्व परस्पर एक-दूसरेसे अधिक परिमाणवाले बनाये गये हैं। जबतक ये तत्त्व वर्तमान रहते हैं, तभीतक प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है। इस जगत्‌में इन्हीं तत्त्वोंके अन्तर्गत प्राणियोंकी व्यवस्थिति होती है। इन तत्त्वोंका प्रत्याख्यान कर देनेपर किसी प्रकार कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसीलिये वे परिमित (पृथ्वीसे वायुतक) तत्त्व कार्यात्मक कहे जाते हैं तथा महत्तत्त्व आदि भेद कारणात्मक हैं। इस प्रकार विभागपूर्वक पृथ्वीसे आच्छादित मण्डल, सातों द्वीपों और सातों समुद्रोंका यथार्थरूपसे गणनासहित विस्तार एवं मण्डल तथा परिमाणमें एकदेशी प्रधान तत्त्वका इसे विश्वरूप जानना चाहिये। राजन्। मैंने इस मण्डलका यहाँतक सम्यक् प्रकारसे वर्णन कर दिया; क्योंकि मण्डल के वृत्तान्तको यहाँतक ही सुनना चाहिये ॥ ५५-६४॥

इति श्रीमात्ये महापुराणे भुवनकोशे सप्त द्वीपनिवेशनं नाम प्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२३ ॥

इस प्रकार श्री मत्स्यमहा पुराण के भुवन कोश-वर्णन-प्रसङ्गमें सप्तद्वीपनिवेशन नामक एक सौ तेईसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १२३ ॥

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