ग्रहों के रथ का वर्णन और ध्रुव की प्रशंसा | grahon ke rath ka varnan aur dhruv kee prashansa |

मत्स्य पुराण एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय

ग्रहों के रथ का वर्णन और ध्रुव की प्रशंसा

सूत उवाच

ताराग्रहाणां वक्ष्यामि स्वर्भानोस्तु रथं पुनः ।
अथ तेजोमयः शुभ्रः सोमपुत्रस्य वै रथः ॥ १

सूतजी कहते हैं- ऋषियो! अब मैं (ग्रहकक्षानुसार बुधादि) ग्रहों, नक्षत्रों और राहुके रथका वर्णन कर रहा हूँ। सोमपुत्र बुधका रथ उज्वल एवं तेजोमय है। उसमें वायुके समान वेगशाली पीले रंगके दस घोड़े जोते जाते हैं।१

युक्तो हयैः पिशङ्गैस्तु दशभिर्वातरंहसैः ।
श्वेतः पिशङ्गः सारङ्गो नीलः पीतो विलोहितः ॥ २

कृष्णश्च हरितश्चैव पृषतः पृष्णिरेव च।
दशभिस्तु महाभागैरुत्तमैर्वातसम्भवैः ॥ ३

ततो भीमरथश्चापि ह्यष्टाङ्गः काञ्चनः स्मृतः ।
अष्टभिर्लोहितैरश्चैः सध्वजैरग्निसम्भवैः ।
सर्प तेऽसौ कुमारो वै ऋजुवक्रानुवक्रगः ॥ ४

अतश्चाङ्गिरसो विद्वान् देवाचार्यों बृहस्पतिः ।
शोणैरश्चैश्च रौक्मेण स्यन्दनेन विसर्पति ॥ ५

युक्तेनावाजिभिर्दिव्यैरष्टाभिर्वातरंहसैः । 
अब्दं वसति यो राशौ सवर्णस्तेन गच्छति ॥ ६

युक्तेनाष्टाभिरश्चैश्च सध्वजैरग्निसंनिभैः ।
रथेन क्षिप्रवेगेन भार्गवस्तेन गच्छति ॥ ७

ततः शनैश्चरोऽप्यश्चैः सबलैर्वातरंहसैः ।
कार्णायसं समारुह्य स्यन्दनं यात्यसौ शनिः ॥ ८

स्वर्भानोस्तु यथाष्टाश्वाः कृष्णा वै वातरंहसः ।
रथं तमोमयं तस्य वहन्ति स्म सुदंशिताः ॥ ९

आदित्यनिलयो राहुः सोमं गच्छति पर्वसु।
आदित्यमेति सोमाच्च तमसोऽन्तेषु पर्वसु ॥ १०

ततः केतुमतस्त्वश्वा अष्टौ ते वातरंहसः ।
पलालधूमवर्णाभाः क्षामदेहाः सुदारुणाः ॥ ११

एते वाहा ग्रहाणां वै मया प्रोक्ता रथैः सह।
सर्वे ध्रुवे निबद्धास्ते निबद्धा वातरश्मिभिः ॥ १२

उनके नाम हैं-वेत, पिशङ्ग, सारङ्ग, नील, पीत, विलोहित, कृष्ण, हरित, पृषत और पृष्णि। इन्हीं महान् भाग्यशाली, अनुपम एवं वायुसे उत्पन्न दस घोड़ोंसे वह रथ युक्त है। इसके बाद मङ्गलका रथ सुवर्णनिर्मित बतलाया जाता है। वह रथके सम्पूर्ण आठों अङ्गॉसे संयुक्त है तथा लाल रंगवाले आठ घोड़ोंसे युक्त है। उसपर अग्निसे प्रकट हुआ ध्वज फहराता रहता है उसपर सवार होकर किशोरावस्थाके मङ्गल कभी सीधी एवं कभी वक्र गतिसे विचरण करते हैं। अङ्गिराके पुत्र देवाचार्य विद्वान् बृहस्पति पीले रंगके तथा वायुके-से वेगशाली आठ दिव्य अश्वोंसे जुते हुए सुवर्णमय रथपर चलते हैं। वे एक राशिपर एक वर्षतक रहते हैं, इसलिये इस रथके द्वारा स्वाधिष्ठित राशिकी दिशाकी ओर (दोनों गतियों) से अपने वर्गसहित जाते हैं। 

शुक्र भी अपने वेगशाली रथपर आरूढ़ होकर भ्रमण करते हैं। उनके रथमें अग्निके समान रंगवाले आठ घोड़े जुते रहते हैं और वह ध्वजाओंसे सुशोभित रहता है। शनैश्वर अपने लोहनिर्मित रथपर सवार होकर चलते हैं। उसमें वायुतुल्य वेगशाली एवं बलवान् घोड़े जुते रहते हैं। राहुका रथ तमोमय है। उसे कवच आदिसे सुसज्जित वायुके समान वेगवाले काले रंगके आठ घोड़े खींचते हैं। सूर्यके भवनमें निवास करनेवाला वह राहु पूर्णिमा आदि पर्वोंमें चन्द्रमाके पास चला जाता है और अमावास्या आदि पर्वोंमें चन्द्रमाके पाससे सूर्यके निकट लौट आता है। इसी प्रकार केतुके रथमें भी वायुके समान शीघ्रगामी आठ घोड़े जोते जाते हैं। उनके शरीरकी कान्ति पुआलके धुँएके सदृश है। वे दुबले-पतले शरीरवाले और बड़े भयंकर हैं। ये सभी वायुरूपी रस्सीसे ध्रुवके साथ सम्बद्ध हैं। इस प्रकार मैंने ग्रहों के रथोंके साथ-साथ घोड़ोंका वर्णन कर दिया ॥२-१२॥

एते वै भ्राम्यमाणास्ते यथायोगं वहन्ति वै। 
वायव्याभिरदृश्याभिः प्रबद्धा वातरश्मिभिः ॥ १३

परिभ्रमन्ति तबद्धाश्चन्द्रसूर्यग्रहा दिवि। 
यावत्तमनुपर्येति ध्रुवं वै ज्योतिषां गणः ॥ १४

यथा नद्युदके नौस्तु उदकेन सहोह्यते। 
तथा देवगृहाणि स्युरुह्यन्ते वातरंहसा । 
तस्माद्यानि प्रगृह्यन्ते व्योम्नि देवगृहा इति ॥ १५

यावन्त्यश्चैव ताराः स्युस्तावन्तोऽस्य मरीचयः । 
सर्वा ध्रुवनिबद्धास्ता भ्रमन्त्यो भ्रामयन्ति च ॥ १६

तैलपीडाकरं चक्रे भ्रमद् भ्रामयते यथा। 
तथा भ्रमन्ति ज्योतींषि वातबद्धानि सर्वशः ॥ १७

अलातचक्रवद् यान्ति वातचक्रेरितानि तु। 
यस्मात् प्रवहते तानि प्रवहस्तेन स स्मृतः ॥ १८

एवं ध्रुवे नियुक्तोऽसौ भ्रमते ज्योतिषां गणः । 
एष तारामयः प्रोक्तः शिशुमारे ध्रुवो दिवि ॥ १९

वायुरूपी अदृश्य रस्सियोंद्वारा बँधे हुए ये सभी अश्व भ्रमण करते हुए नियमानुसार उन रथोंको खींचते हैं। जिस प्रकार ध्रुवसे बंधे हुए सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह गगनमण्डलमें परिभ्रमण करते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण ज्योतिर्गण ध्रुवके पीछे-पीछे घूमता है। जिस प्रकार नदीके जलमें पड़ी हुई नौका जलके साथ बहती जाती है, उसी तरह देवताओंके गृह भी वायुके वेगसे वहन किये जाते हैं, इसीलिये वे आकाशमण्डलमें देव-गृह नामसे पुकारे जाते हैं। आकाशमण्डलमें जितनी तारकाएँ हैं, उतनी ही ध्रुवकी किरणें भी हैं। ये सभी तारकाएँ ध्रुवसे संलग्न हैं, इसलिये स्वयं घूमती हुई किरणें उन्हें भी घुमाती हैं। जैसे तेल पेरनेवाला चक्र (कोल्हू) स्वयं घूमता है और अपनेसे लगी हुई सभी वस्तुओंको घुमाता है, वैसे ही वायुरूपी रस्सीसे बँधी हुई ज्योतियाँ सब और भ्रमण करती हैं। वातचक्रसे प्रेरित होकर घूमती हुई वे ज्योतियाँ अलातचक्र (जलती हुई बनेठी) की भाँति प्रतीत होती हैं। चूँकि वायु उन ज्योतियोंको वहन करता है, इसलिये वह 'प्रवह' नामसे प्रसिद्ध है। इस प्रकार ध्रुवसे बंधा हुआ यह ज्योतिश्चक्र भ्रमण करता है। इसी प्रकार गगनमण्डलमें स्थित शिशुमारचक्रमें ये ध्रुव तारामय अर्थात् ताराओंसे युक्त कहे जाते हैं। दिनमें जो पाप किया जाता है, वह रात्रिमें उस चक्रको देखनेसे नष्ट हो जाता है॥ १३-१९॥

यदह्ना कुरुते पापं तं दृष्ट्वा निशि मुञ्चति। 
शिशुमारशरीरस्था यावत्यस्तारकास्तु ताः ॥ २०

वर्षाणि दृष्ट्वा जीवेत तावदेवाधिकानि तु। 
शिशुमाराकृतिं ज्ञात्वा प्रविभागेन सर्वशः ॥ २९

उत्तानपादस्तस्याथ विज्ञेयः सोत्तरा हनुः । 
यज्ञोऽधरस्तु विज्ञेयो धर्मों मूर्धानमाश्रितः ॥ २२

हृदि नारायणः साध्या अश्विनौ पूर्वपादयोः । 
वरुणश्चार्यमा चैव पश्चिमे तस्य सक्थिनी ॥ २३

शिश्ने संवत्सरो ज्ञेयो मित्रश्चापानमाश्रितः । 
पुच्छेऽग्निश्च महेन्द्रश्च मरीचिः कश्यपो ध्रुवः ॥ २४

एष तारामयः स्तम्भो नास्तमेति न वोदयम्। 
नक्षत्रचन्द्रसूर्याश्च ग्रहास्तारागणैः सह ।। २५

तन्मुखाभिमुखाः सर्वे चक्रभूता दिवि स्थिताः । 
ध्रुवेणाधिष्ठिताश्चैव ध्रुवमेव प्रदक्षिणम् ॥ २६

परियान्ति सुरश्रेष्ठं मेढीभूतं ध्रुवं दिवि। 
आग्ग्रीधकाश्यपानां तु तेषां स परमो ध्रुवः ॥ २७

एक एव भ्रमत्येष मेरोरन्तरमूर्धनि।
ज्योतिषां चक्रमादाय आकर्षस्तमधोमुखः ॥ २८

मेरुमालोकयन्नेव प्रतियाति प्रदक्षिणम् ॥ २९

शिशुमारचक्रके शरीरमें जितनी तारकाएँ स्थित हैं, उनका दर्शन कर तथा सर्वथा शिशुमारकी आकृतिको जानकर मनुष्य उतने ही अधिक वर्षांतक जीवित रह सकता है। उत्तानपादको उस शिशुमारचक्रका ऊपरी जबड़ा तथा यज्ञको निचला जबड़ा समझना चाहिये। धर्म उसके मस्तकपर स्थित हैं। हृदयमें नारायण और साध्यगणोंको तथा अगले पैरोंमें अश्विनीकुमारौंको जानना चाहिये। वरुण और अर्यमा उसकी पिछली जाँच हैं। शिश्न (जननेन्द्रिय) के स्थानपर संवत्सरको समझिये और गुदास्थानपर मित्र स्थित है। उसकी पूँछमें अग्नि, महेन्द्र, मरीचि, कश्यप और ध्रुव स्थित हैं। ताराओंद्वारा निर्मित यह स्तम्भ नक्षत्र, चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह और तारागणोंके साथ न अस्त होता है न उदय, अपितु ये सभी आकाशमें चक्रकी तरह उसके मुखकी और देखते हुए स्थित हैं। ये ध्रुवसे अधिकृत होकर आकाशस्थित मेढ़ीभूत सुरश्रेष्ठ ध्रुवकी ही प्रदक्षिणा करते हैं। उन आग्रीघ्र तथा कश्यपके वंशमें ध्रुव ही सर्वश्रेष्ठ हैं। ये ध्रुव अकेले ही मेरुके अन्तर्वर्ती शिखरपर ज्योतिक्षक्रको साथ लेकर उसे खींचते हुए भ्रमण करते हैं। उस समय उनका मुख नीचेकी और रहता है। इस प्रकार वे मेरुको प्रकाशित करते हुए उसकी प्रदक्षिणा करते हैं॥ २०-२९॥

इति श्रीमालये महापुराणे भुवनकोशे ध्रुवप्रशंसा नाम सप्तविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ ९२७ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके भुवनकोश-वर्णन प्रसङ्गमें ध्रुव प्रशंसा नामक एक सी सत्ताईसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १२७॥

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