श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग पचीसवाँ अध्याय
शिवहोमार्चा के लिये कुण्ड मेखला निर्माण, अरणिमन्थन, पात्रासादन, आज्य संस्कार, अग्नि संस्कार तथा हवन-विधानका वर्णन
शैलादिरुवाच
शिवाग्निकार्य वक्ष्यामि शिवेन परिभाषितम्।
जनयित्वाग्रतः प्राचीं शुभे देशे सुसंस्कृते ॥ १
पूर्वाग्रमुत्तराग्रं च कुर्यात्सूत्रत्रयं शुभम् ।
चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे कुर्यात्कुण्डानि यत्नतः ॥ २
शैलादि बोले- [हे सनत्कुमार!] अब मैं शैव- अग्निकार्यका वर्णन करूँगा, जिसे [स्वयं] शिवजीने कहा है। सर्वप्रथम [दिक्साधनके विधानसे] पूर्व दिशाका निर्धारण करके शुभ तथा परिष्कृत भूमिपर पवित्र तीन सूत पूर्वाग्र तथा तीन सूत उत्तराग्र रखकर चतुष्कोणीय निर्मित की गयी भूमिमें यत्नपूर्वक कुण्ड बनाना चाहिये ॥ १-२ ॥
नित्यहोमाग्निकुण्डं च त्रिमेखलसमायुतम्।
चतुस्त्रिद्व्यङ्गुलायामा मेखला हस्तमात्रतः ॥ ३
हस्तमात्रं भवेत्कुण्डं योनिः प्रादेशमात्रतः।
अश्वत्थपत्रवद्योनिं मेखलोपरि कल्पयेत् ॥ ४
नित्यहोमके लिये तीन मेखलाओंसे युक्त अग्निकुण्ड होना चाहिये। तीनों मेखलाएँ एक हाथ प्रमाणकी तथा चार अँगुल, तीन अँगुल और दो अँगुल ऊँचाईकी बनानी चाहिये। कुण्ड एक हाथ प्रमाणका होना चाहिये तथा योनि प्रादेशमात्र (अँगूठे तथा तर्जनी अँगुलीके बीचकी दूरी) होनी चाहिये। मेखलाके ऊपर अश्वत्थ (पीपल)- के पत्तेके आकारकी योनि बनानी चाहिये ॥ ३-४ ॥
कुण्डमध्ये तु नाभिः स्यादष्टपत्रं सकणिकम् ।
प्रादेशमात्रं विधिना कारयेद्ब्रह्मणः सुत ॥ ५
षष्ठेनोल्लेखनं प्रोक्तं प्रोक्षणं वर्मणा स्मृतम्।
नेत्रेणालोक्य वै कुण्डं षड्रेखाः कारयेद्बुधः ।। ६
प्रागायतेन विप्रेन्द्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
उत्तराग्राः शिवा रेखाः प्रोक्षयेद्वर्मणा पुनः ॥ ७
शमीपिप्पलसम्भूतामरणीं षोडशाङ्गुलाम् ।
मथित्वा वह्निबीजेन शक्तिन्यासं हृदैव तु ॥ ८
हे ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार। कुण्डके मध्यमें नाभि होनी चाहिये; उसे विधिपूर्वक अष्टदलीय, कर्णिकायुक्त और प्रादेशमात्र प्रमाणकी निर्मित करानी चाहिये। अस्त्रमन्त्रसे उल्लेखन करना कहा गया है तथा कवचमन्त्रसे प्रोक्षण करना बताया गया है; बुद्धिमान्को चाहिये कि कुण्डको नेत्रमन्त्रसे देखकर छः रेखाएँ बनाये। है विप्रेन्द्र ! पूर्वाग्र तीन रेखाएँ ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वरस्वरूप हैं और उत्तराग्र रेखाएँ शिवस्वरूप हैं। इसके बाद कवचमन्त्रसे पुनः प्रोक्षण करना चाहिये ॥ ५-७॥
प्रक्षिपेद्विधिना वह्निमन्वाधाय यथाविधि।
तूष्णीं प्रादेशमात्रैस्तु याज्ञिकैः शकलैः शुभैः ॥ ९
परिसम्मोहनं कुर्याज्जलेनाष्टसु दिक्षु वै।
परिस्तीर्य विधानेन प्रागाद्येवमनुक्रमात् ॥ १०
उत्तराग्रं पुरस्ताद्धि प्रागग्रं दक्षिणे पुनः।
पश्चिमे चोत्तराग्रं तु सौम्ये पूर्वाग्रमेव तु ॥ ११
शमीगर्भस्थ पीपलके काष्ठकी बनी हुई सोलह अँगुल प्रमाणकी अरणीद्वारा वह्निबीज (रं) से मन्थन करके और हृदयमन्त्रसे शक्तिन्यास करके अग्नि उत्पन्न करनी चाहिये। इसके बाद मौन होकर विधिपूर्वक उसे अग्निकुण्डमें रख देना चाहिये। विधानके अनुसार अग्न्याधान करके शान्तिपूर्वक प्रादेशप्रमाणके यज्ञसम्बन्धी शुभ काष्ठकी समिधाओं को उसपर प्राक् आदिके क्रमसे विधिपूर्वक व्यवस्थित करके जलके द्वारा आठों दिशाओंमें परिसम्मोहन करना चाहिये। पूरबमें उत्तराग्र, दक्षिणमें पूर्वाग्र, पश्चिममें उत्तराग्र और उत्तरमें पूर्वाग्र कुश बिछाना चाहिये ॥ ८-११॥
ऐन्द्रे चैन्द्राग्नमावाह्य याम्य एवं विधीयते।
सौम्यस्योपरि चान्द्राग्नं वारुणाग्नमधस्ततः ॥ १२
द्वन्द्वरूपेण पात्राणि बर्हिःष्वासाद्य सुव्रत।
अधोमुखानि सर्वाणि द्रव्याणि च तथोत्तरे ॥ १३
तस्योपरि न्यसेद्दर्भाञ्छिवं दक्षिणतो न्यसेत्।
पूजयेन्मूलमन्त्रेण पश्चाद्धोमं समाचरेत् ॥ १४
पूर्व दिग्भागमें इन्द्राग्निदैवतका आवाहन करके दक्षिण दिग्भागमें यामाग्नि, उत्तर दिग्भागमें चान्द्राग्नि और इसके बाद पश्चिम दिग्भागमें वारुणाग्निका आवाहन किया जाता है। हे सुव्रत! पात्रोंको द्वन्द्वरूपमें अधोमुख करके कुशाओंपर रखकर तथा सभी द्रव्योंको उत्तर भागमें रखकर उसके ऊपर कुशोंको रख देना चाहिये। दक्षिण भागमें शिवको स्थापित करना चाहिये; इसके बाद मूलमन्त्रसे पूजन करना चाहिये, तत्पश्चात् विधिपूर्वक हवन करना चाहिये ॥ १२-१४॥
प्रोक्षणीपात्रमादाय पूरयेदम्बुना पुनः।
प्रादेशमात्रौ तु कुशौ स्थापयेदुदकोपरि ॥ १५
प्लावयेच्च कुशाग्रं तु वसोः सूर्यस्य रश्मिभिः ।
विकीर्य सर्वपात्राणि सुसम्प्रोक्ष्य विधानतः ॥ १६
प्रणीतापात्रमादाय पूरयेदम्बुना पुनः।
अन्योदककुशाग्रैस्तु सम्यगाच्छाद्य सुव्रत ।। १७
हस्ताभ्यां नासिकं पात्रमैशान्यां दिशि विन्यसेत्।
आज्याधिश्रयणं कुर्यात्पश्चिमोत्तरतः शुभम् ॥ १८
भस्ममिश्रांस्तथाङ्गारान् ग्राहयेत्सकलेन वै।
पश्चिमोत्तरतो नीत्वा तत्र चाज्यं प्रतापयेत् ॥ १९
कुशानग्नौ तु प्रज्वाल्य पर्यग्निं त्रिभिराचरेत्।
तान् सर्वास्तत्र निःक्षिप्य चाग्रे चाज्यं निधापयेत् ॥ २०
अङ्गुष्ठमात्रौ तु कुशौ प्रक्षाल्य विधिनैव तु ।
पर्यग्निं च ततः कुर्यात्तैरेव नवभिः पुनः ॥ २१
पर्यग्निं च पुनः कुर्यात्तदाज्यमवरोपयेत् ।
अथापकर्षयेत्पात्रं क्रमेणोत्तरपश्चिमे ।। २२
तदनन्तर प्रोक्षणोपात्र लेकर उसे जलसे भर देना चाहिये और फिर प्रादेशप्रमाणके दो कुशोंको जलके ऊपर स्थापित कर देना चाहिये। अग्नि तथा सूर्यकी किरणोंसे कुशाग्रको प्लावित करना चाहिये। तदनन्तर सभी पात्रोंको फैलाकर विधिपूर्वक प्रोक्षण करके प्रणीतापात्रको लेकर उसे पुनः जलसे पूर्ण करना चाहिये। है सुव्रत! इसके बाद जलमें रखी अन्य कुशाओंके द्वारा उसे भलीभाँति आच्छादित करके दोनों हाथोंसे नासिकापर्यन्त उस पात्रको उठाकर ईशान दिशामें स्थापित कर देना चाहिये तत्पश्चात् वायव्य कोणमें शुभ आज्याश्रयण (मृतस्थापन) करना चाहिये। भस्मयुक्त अंगारोंको लेना चाहिये और उसे वायव्य दिशामें रखकर उसके ऊपर घृतको तपाना चाहिये। तदनन्तर कुशोंको अग्निमें प्रज्वलित करके तीन कुशोंसे पर्यग्निकरण करना चाहिये। फिर उन सभी कुशोंको उस कुण्डमें डालकर घृतको अपने सम्मुख रख लेना चाहिये। इसके बाद अंगुष्ठप्रमाणके दो कुशोंको विधिवत् प्रक्षालित करके उन कुशोंसे तथा अन्य नौ कुशोंसे पर्यग्नि करनी चाहिये, इसके बाद फिर पर्यग्नि करनी चाहिये। तदनन्तर घृतको अग्निपरसे उतार लेना चाहिये और घृतपात्रको क्रमसे उत्तर-पश्चिम दिशामें रख देना चाहिये ॥ १५-२२ ॥
संयुज्य चाग्निं काष्ठेन प्रक्षाल्यारोप्य पश्चिमे।
आज्यस्योत्पवनं कुर्यात्पवित्राभ्यां सहैव तु ॥ २३
पृथगादाय हस्ताभ्यां प्रवाहेण यथाक्रमम्।
अङ्गुष्ठानामिकाभ्यां तु उभाभ्यां मूलविद्यया ।। २४
अभ्युक्ष्य दापयेदग्नौ पवित्रे घृतपङ्किते।
सौवर्णं स्रुक्स्स्रुवं कुर्याद्रत्निमात्रेण सुव्रत ।। २५
राजतं वा यथान्यायं सर्वलक्षणसंयुतम्।
अथवा याज्ञिकैर्वृक्षैः कर्तव्यौ स्बुक्खुवावुभौ ।। २६
अरत्निमात्रमायामं तत्पोत्रे तु बिलं भवेत्।
षडङ्गुलपरीणाहं दण्डमूलं महामुने ।॥ २७
तदर्थं कण्ठनालं स्यात्पुष्करं मूलवद्भवेत्।
गोबालसदृशं दण्डं खुवायं नासिकासमम् ॥ २८
तदनन्तर उपवेषणकाष्ठद्वारा अग्निका संयोजन करके पश्चिम दिशामें रखकर उसे प्रक्षालित करके दोनों हाथोंकी अँगुष्ठ और अनामिका अँगुलियोंद्वारा याज्ञिकोक्त पद्धतिके अनुसार दो पवित्रियोंको ग्रहण करके मूलमन्त्रके द्वारा आज्योत्पवन करना चाहिये। उसके बाद घृतसे भीगी हुई दोनों पवित्रियोंका अभ्युक्षण करके उन्हें अग्निमें डाल देना चाहिये हे सुव्रत । सोने अथवा चाँदीका लुक्-खुव बनाना चाहिये, जो एक हाथ लम्बा हो तथा सभी लक्षणोंसे सम्पन्न हो अथवा यज्ञीय वृक्षोंसे ही खुक्-सुवाका निर्माण करना चाहिये सुव एक हाथ प्रमाणका और उसके मुखपर गहरा गर्त होना चाहिये। हे महामुने। उस सुवका दण्डमूल छः अँगुल चौड़ा और कण्ठनाल तीन अँगुल चौड़ा होना चाहिये। उसका मुख भी मूलकी भाँति बनाना चाहिये। सुबका दण्ड गायकी पूँछके सदृश ऊपर मोटा और क्रमशः नीचेकी ओर पतला होना चाहिये; उसका अग्रभाग नासिकाके समान दो पुटोंसे युक्त तथा मुक्ता आदिसे समन्वित होना चाहिये ॥ २३-२८ ॥
पुटद्वयसमायुक्तं मुक्ताद्येन प्रपूरितम् ।
षत्रिंशदङ्गुलायाममष्टाङ्गुलसविस्तरम् ॥ २९
उत्सेधस्तु तदर्थं स्यात्सूत्रेण समितं ततः ।
सप्ताङ्गुलं भवेदास्यं विस्तरायामतः पुनः ॥ ३०
त्रिभागैकं भवेदयं कृत्वा शेषं परित्यजेत् ।
कण्ठं च द्वयङ्गुलायामं विस्तारं चतुरङ्गुलम् ।। ३१
वेदिरष्टाङ्गुलायामा विस्तारस्तत्प्रमाणतः ।
तस्य मध्ये बिलं कुर्याच्चतुरङ्गुलमानतः ॥ ३२
बिलं सुवर्तितं कुर्यादष्टपत्रं सुकर्णिकम् ।
परितो बिलबाह्ये तु पट्टिकार्थाङ्गुलेन तु ॥ ३३
तद्बाह्ये च विनिद्रं तु पद्मपत्रविचित्रितम्।
यवद्वयप्रमाणेन तद्बाहो पट्टिका भवेत् ॥ ३४
पूर्णाहुतिमें प्रयुक्त होनेवाला सुव छत्तीस अँगुल लम्बा, आठ अँगुल चौड़ा और चार अँगुल मोटा बनाना चाहिये। सूतके द्वारा उसे सम कर लेना चाहिये। उस सुवका मुख सात अँगुल चौड़ा होना चाहिये और बारह अँगुल लम्बा होना चाहिये। खुब का कण्ठ दो अँगुल लम्बा और चार अँगुल चौड़ा होना चाहिये वेदी आठ अँगुल लम्बी तथा उत्तने ही प्रमाणकी अर्थात् आठ अँगुल चौड़ी होनी चाहिये। उसके मध्यमें चार अँगुल प्रमाणका गर्त बनाना चाहिये। गर्त पूर्णरूपसे गोल, अष्टदलयुक्त और सुन्दर कर्णिकामय निर्मित करना चाहिये। उस गर्तके बाहर चारों ओर आधे अँगुलप्रमाणकी पट्टिका, पट्टिकाके बाहर विकसित सुन्दर कमल और पुनः उसके बाहर दो यव-प्रमाणकी पट्टिकाकी रचना करनी चाहिये ॥ २९-३४॥
वेदिकामध्यतो रन्धं कनिष्ठाङ्गुलमानतः ।
खातं यावन्मुखान्तः स्याद् बिलमानं तु निम्नगम् ।। ३५
दण्डं षडङ्गुलं नालं दण्डाग्रे दण्डिकात्रयम्।
अर्धाङ्गुलविवृद्धया तु कर्तव्यं चतुरङ्गुलम् ॥ ३६
त्रयोदशाङ्गुलायामं दण्डमूले घटं भवेत्।
द्वयङ्गुलस्तु भवेत्कुम्भो नाभिं विद्याद्दशाङ्गुलम् ।। ३७
वेदिमध्ये तथा कृत्वा पादं कुर्याच्च द्व्यङ्गुलम्।
पद्मपृष्ठसमाकारं पादं वै कर्णिकाकृतिम् ॥ ३८
गजोष्ठसदृशाकारं तस्य पृष्ठाकृतिर्भवेत्।
अभिचारादिकार्येषु कुर्यात्कृष्णायसेन तु ॥ ३९
पञ्चविंशत्कुशेनैव सुक्खुवौ मार्जयेत्पुनः ।
अग्रमग्रेण संशोध्य मध्यं मध्येन सुव्रत ॥ ४०
वेदीके मध्यमें कनिष्ठा अँगुलिके प्रमाणसे मुखपर्यन्त गम्भीर प्रवाहवाला छिद्र होना चाहिये। दण्डका मूल छः अँगुल-प्रमाणका होना चाहिये, दण्डके अग्रभागमें चार अँगुलके बीच आधे अँगुलकी वृद्धिसे तीन दण्डिकाएँ बनानी चाहिये। दण्डके अग्रभागमें तेरह अँगुलके विस्तारमें घट (शिर) होना चाहिये, उसका कण्ठ दो अंगुल और नाभि अर्थात् मध्य भाग दस अँगुल होना चाहिये। वेदीके मध्यमें वैसे ही दस अँगुलकी पद्मपृष्ठके आकारकी नाभि बनाकर दो अँगुल-प्रमाणका कर्णिकाके आकृतिसदृश पाद बनाना चाहिये। उस खुवके पृष्ठकी आकृति हाथीके ओष्ठके आकारसदृश होनी चाहिये। अभिचार आदि कर्मोंमें कृष्ण लौहसे खुक्-सुवका निर्माण करना चाहिये। तदनन्तर पचीस कुशोंके द्वारा सुक्-स्रुवका मार्जन करना चाहिये। हे सुव्रत! [सुक् स्रुवके] अग्रभागको कुशके अग्रभागसे, मध्यभागको मध्य भागसे और मूलको मूलसे शोधित करके पुनः भलीभाँति हृदयमन्त्रका उच्चारण करके अग्निमें उन्हें तपाना चाहिये ॥ ३५-४० ॥
मूलं मूलेन विधिना अग्नी ताप्य हृदा पुनः ।
आज्यस्थाली प्रणीता च प्रोक्षणी तित्र एव च ॥ ४१
सौवर्णी राजती वापि ताम्री वा मृन्मयी तु वा।
अन्यथा नैव कर्तव्यं शान्तिके पौष्टिके शुभे ॥ ४२
आयसी त्वभिचारे तु शान्तिके मृन्मयी तु वा।
षडङ्गुलं सुविस्तीर्ण पात्राणां मुखमुच्यते ॥ ४३
प्रोक्षणी द्वयङ्गुलोत्सेधा प्रणीता द्वयङ्गुलाधिका।
आज्यस्थाली ततस्तस्या उत्सेधो द्वयङ्गुलाधिकः ॥ ४४
आज्यस्थाली, प्रणीता और प्रोक्षणी- ये तीनों ही पात्र सोने, चाँदी, ताम्र अथवा मिट्टीके होने चाहिये। शान्तिक तथा पौष्टिक शुभ कर्म में अन्य धातुके पात्रों का प्रयोग नहीं करना चाहिये। अभिचार (जारण, मारण आदि) कर्ममें लौहकी और शान्तिकर्ममें मृत्तिकाकी आज्यस्थाली, प्रणीता और प्रोक्षणीपात्र प्रयुक्त करना चाहिये; इन पात्रोंका मुख छः अँगुल चौड़ा होना चाहिये- ऐसा कहा जाता है। प्रोक्षणी दो अँगुल ऊँची, प्रणीता चार अँगुल ऊँची और आज्यस्थाली उससे भी दो अँगुल अधिक अर्थात् छः अँगुल ऊँची होनी चाहिये ॥ ४१-४४ ॥
यैः समिद्धिहुतं प्रोक्तं तैरेव परिधिर्भवेत् ।
मध्याङ्गुलपरीणाहा अवक्रा निर्वाणाः समाः ॥ ४५
द्वात्रिंशदङ्गुलायामास्तिस्त्रः परिधयः स्मृताः ।
द्वात्रिंशदङ्गुलायामैस्त्रिंशद्दर्भः परिस्तरेत् ।। ४६
चतुरङ्गुलमध्ये तु ग्रथितं तु प्रदक्षिणम् ।
अभिचारादिकार्येषु शिवाग्न्याधानवर्जितम् ।। ४७
अकोमलाः स्थिरा विप्र सङ्ग्राह्यास्त्वाभिचारिके।
समग्राः सुसमाः स्थूलाः कनिष्ठाङ्गुलसम्मिताः ॥ ४८
अवक्रा निव्रणाः स्निग्धा द्वादशाङ्गुलसम्मिताः ।
समिथस्थं प्रमाणं हि सर्वकार्येषु सुव्रत ।। ४९
जिन समिधाओंसे हवन बताया गया है, उन्हींसे परिधि बनानी चाहिये। मध्य अँगुलीतुल्य चौड़ी, सीधी व्रणरहित, सम तथा बत्तीस अँगुल लम्बी तीन परिधियाँ कही गयी हैं। चार अँगुलके बीच प्रदक्षिणक्रमसे ग्रथितरूपसे बत्तीस-बत्तीस अँगुल लम्बे तीस कुशोंसे परिस्तरण करना चाहिये। अभिचार आदि कार्योंमें शिवाग्न्याधानसे वर्जित कर्म करना चाहिये। हे विप्र ! अभिचारकर्ममें कठोर और दृढ़ समिधाएँ लेनी चाहिये किंतु शुभ कर्ममें पूर्णरूपसे सम, कनिष्ठा अँगुलिके सदृश मोटी, सीधी, व्रणरहित, कोमल तथा बारह अँगुल लम्बी समिधाएँ ग्रहण करनी चाहिये। हे सुव्रत ! सभी कार्योंमें समिधाका यही प्रमाण सुनिश्चित किया गया है ॥ ४५-४९ ॥
गव्यं घृतं ततः श्रेष्ठं कापिलं तु ततोऽधिकम् ।
आहुतीनां प्रमाणं तु खुवं पूर्ण यथा भवेत् ॥५०
अन्नमक्षप्रमाणं स्याच्छुक्तिमात्रेण वै तिलः ।
यवानां च तदर्थं स्यात्फलानां स्वप्रमाणतः ॥ ५१
क्षीरस्य मधुनो दध्नः प्रमाणं घृतवद्भवेत् ।
चतुःस्रुवप्रमाणेन स्रुचा पूर्णाहुतिर्भवेत् ॥ ५२
तदर्थं स्विष्टकृत्प्रोक्तं शेषं सर्वमथापि वा।
शान्तिकं पौष्टिकं चैव शिवाग्नौ जुहुयात्सदा ॥ ५३
लौकिकाग्नौ महाभाग मोहनोच्चाटनादयः ।
शिवाग्निं जनयित्वा तु सर्वकर्मणि सुव्रत ॥ ५४
सप्त जिह्वाः प्रकल्प्यैव सर्वकार्याणि कारयेत्।
अथवा सर्वकार्याणि जिह्वामात्रेण सिध्यति ॥ ५५
शिवाग्निरिति विप्रेन्द्रा जिह्वामात्रेण साधकः ॥ ५६
हवनके लिये गोघृत श्रेष्ठ होता है, किंतु कपिला गोका घृत उससे भी श्रेष्ठ माना गया है। आहुतिका प्रमाण उतना ही है, जितनेमें सुव पूर्णरूपसे भरा हुआ हो। अन्न (चरु) का प्रमाण एक अक्ष (कर्ष) तथा तिलका प्रमाण एक शुक्ति (सीप) होना चाहिये। जौका प्रमाण उसका आधा अर्थात् आधी शुक्ति और फलोंका प्रमाण अपने इच्छानुसार होना चाहिये। दुग्ध, मधु और दहीका प्रमाण घृतके बराबर होना चाहिये। चार खुवसे सुक्को भरकर आहुति देनेसे पूर्णाहुति होती है। उसके आधे अर्थात् दो सुव-परिमाणके द्वारा अथवा अवशिष्ट भागद्वारा हवनको स्विष्टकृत् कहा गया है शान्तिक और पौष्टिक कर्मोंमें सदा शिवाग्निमें ही हवन करना चाहिये, किंतु हे महाभाग। मोहन, उच्चाटन आदि [अभिचार-कर्म] से सम्बन्धित हवन लौकिकाग्निमें होते हैं। हे सुव्रत। समस्त कर्मोंमें शिवाग्नि उत्पन्न करके सात जिल्लाओंकी कल्पना करके ही सभी कार्य करने चाहिये अथवा शिवाग्नि जिह्वामात्रसे ही सिद्ध हो जाती है, अतः हे विप्रेन्द्रो! साधकको चाहिये कि जिह्वामात्रसे ही समस्त कार्य सम्पन्न करे ॥ ५०-५६॥
ॐ बहुरूपायै मध्यजिह्वायै अनेकवर्णायै दक्षिणोत्तरमध्यगायै
शान्तिकपौष्टिकमोक्षादि- फलप्रदायै स्वाहा ।। ५७
ॐ हिरण्यायै चामीकराभायै ईशानजिह्वायै ज्ञानप्रदायै स्वाहा ॥ ५८
ॐ कनकायै कनकनिभायै रम्यायै ऐन्द्रजिह्वायै स्वाहा ॥ ५९
ॐ रक्तायै रक्तवर्णायै आग्नेयजिह्वायै अनेकवर्णायै विद्वेषणमोहनायै स्वाहा ।। ६०
ॐ कृष्णायै नैर्ऋतजिह्वायै मारणायै स्वाहा ॥ ६१
ॐ सुप्रभायै पश्चिमजिह्वायै मुक्ताफलायै शान्तिकायै पौष्टिकायै स्वाहा ।। ६२
ॐ अभिव्यक्तायै वायव्यजिह्वायै शत्रूच्चाटनायै स्वाहा ॥ ६३
ॐ वह्नये तेजस्विने स्वाहा ॥ ६४
[सात जिह्वाओंका स्वरूप इस प्रकार बताया जाता है-] ॐ बहुरूपायै मध्यजिह्वायै अनेकवर्णायै दक्षिणोत्तरमध्यगायै शान्तिकपौष्टिकमोक्षादिफलप्रदायै स्वाहा। ॐ हिरण्यायै चामीकराभायै ईशानजिह्वायै ज्ञानप्रदायै स्वाहा। ॐ कनकायै कनकनिभायै रम्यायै ऐन्द्रजिह्वायै स्वाहा। ॐ रक्तायै रक्तवर्णायै आग्नेयजिह्वायै अनेकवर्णायै विद्वेषणमोहनायै स्वाहा।
ॐ कृष्णायै नैर्ऋतजिह्वायै मारणायै स्वाहा। ॐ सुप्रभायै पश्चिमजिह्वायै मुक्ताफलायै शान्तिकायै पौष्टिकायै स्वाहा। ॐ अभिव्यक्तायै वायव्यजिह्वायै शत्रूच्चाटनायै स्वाहा ये सात जिह्वामन्त्र हैं और ॐ वह्नये तेजस्विने स्वाहा-यह प्रधान मन्त्र है॥ ५७-६४॥
एतावद्वह्निसंस्कारमथवा वह्निकर्मसु
नैमित्तिके च विधिना शिवाग्निं कारयेत्पुनः ।। ६५
निरीक्षणं प्रोक्षणं ताडनं च षष्ठेन फडन्तेन अभ्युक्षणं
चतुर्थेन खननोत्किरणं षष्ठेन पूरणं समीकरणमाद्येन
सेचनं वौषडन्तेन कुट्टनं षष्ठेन सम्मार्जनोपलेपने
तुरीयेण कुण्डपरिकल्पनं निवृत्त्या त्रिभिरेव कुण्डपरिधानं
चतुर्थेन कुण्डार्चनमाद्येन रेखाचतुष्टय- सम्पादनं षष्ठेन
फडन्तेन वज्रीकरणं चतुष्पदा पादनमाद्यद्येन
एवं कुण्डसंस्कारमष्टादशविधम् ॥ ६६
इस विधिसे वह्निसंस्कार करना चाहिये। अथवा वह्निकार्योंमें और नैमित्तिक कर्ममें विधिपूर्वक शिवाग्नि उत्पन्न करनी चाहिये। [उसकी विधि इस प्रकार है-] फडन्त षष्ठ मन्त्रसे निरीक्षण, प्रोक्षण और ताड़न; चतुर्थ मन्त्रसे अभ्युक्षण; षष्ठ मन्त्रसे खनन तथा उत्किरण; आद्यमन्त्रसे पूरण तथा समीकरण; वौषडन्त आद्यमन्त्रसे सेचनः षष्ठ मन्त्रसे कुट्टन; तुरीय (चतुर्थ) मन्त्रसे सम्मार्जन तथा उपलेपन; अघोर, वामदेव और सद्योजात-इन तीन मन्त्रोंसे कुण्डपरिकल्पन; चतुर्थ मन्त्रसे कुण्डका परिधान (मेखलाकरण); आद्य (प्रथम) मन्त्रसे कुण्डका अर्चन फडन्त षष्ठ मन्त्र से रेखा चतुष्टय करण और प्रथम मन्त्रसे वज्रीकरण और ऐन्द्राग्न आदि चारों देवोंका स्थापन प्रथम मन्त्रसे- इस प्रकार अठारह प्रकारके इन कुण्डसंस्कारोंको करना चाहिये ॥ ६५-६६ ।।
कुण्डसंस्कारानन्तरमक्षपाटनं षष्ठेन
विष्टरन्यासमाद्येन वज्रासने वागीश्वर्यावाहनम् ।। ६७
ॐ ह्रीं वागीश्वरीं श्यामवर्णा विशालाक्षी यौवनोन्मत्तविग्रहाम्।
ऋतुमतीं वागीश्वरशक्तिमा- वाहयामि ।। ६८
ॐ वागीश्वरीं पूजयामि ॥ ६९
ॐ पुनर्वागीश्वरावाहनम् ।। ७०
एकवक्त्रं चतुर्भुजं शुद्धस्फटिकाभं वरदाभयहस्तं परशुमृगधरं
जटामुकुटमण्डितं सर्वाभरणभूषित मावाहयामि ।। ७१
ॐ ई वागीश्वराय नमः। आवाहनस्थापन- सन्निधानसन्निरोधपूजान्तं
वागीश्वरीं सम्भाव्य गर्भाधानवह्निसंस्कारम् ॥ ७२
कुण्डसंस्कारके पश्चात् षष्ठ मन्त्रसे अक्षपाटन और प्रथम मन्त्रसे विष्टरन्यास करके वज्रासन (हॉरेके आसन) पर भगवती वागीश्वरीका आवाहन करना चाहिये। [वागीश्वरीके आवाहनका मन्त्र इस प्रकार है-] ॐ ह्रीं वागीश्वरी श्यामवर्णा विशालार्थी यौवनोन्मत्तविग्रहाम्। ऋतुमर्ती वागीश्वरशक्ति- मावाहयामि। वागीश्वरीं पूजयामि। इसके अनन्तर वागीश्वरका आवाहन करना चाहिये। [मन्त्र इस प्रकार है-] एकवक्त्रं चतुर्भुजं शुद्धस्फटिकाभं वरदाभयहस्तं परशुमृगधरं जटामुकुटमण्डितं सर्वाभरणभूषितमा- वाहयामि। ॐ ई वागीश्वराय नमः। इस प्रकार आवाहन, स्थापन, सन्निधान तथा सन्निरोध पूजापर्यन्त करके वागीश्वरीको सत्कृतकर गर्भाधान, वहिसंस्कार करना चाहिये ॥ ६७-७२ ॥
अरणीजनितं कान्तोद्भवं वा अग्निहोत्रजं वा ताम्रपात्रे शरावे वा
आनीय निरीक्षणताडनाभ्युक्षणप्रक्षालन- माद्येन क्रव्यादाशिव
परित्यागोऽपि प्रथमेन वलेस्त्रैकारणं जठरभूमध्यादावाह्याग्निं
वैकारणमूर्तावाग्नेयेन उद्दीपनमाद्येन पुरुषेण संहितया धारणा
धेनुमुद्रां तुरीयेणावगुण्ठ्य जानुभ्यामवनिं गत्वा शरावोत्थापनं
कुण्डोपरि निधाय प्रदक्षिणमावर्त्य तुरीयेणात्मसम्मुखां वागीश्वरीं
गर्भनाड्यां गर्भाधानान्तरीयेण कमलप्रदानमाहोन वौषडन्तेन
कुशार्घ्य दत्त्वा इन्धनप्रदानमाद्येन प्रज्वालनं गर्भाधानं च सोनाद्येन
पूजनं पुंसवनं वामेन पूजनं द्वितीयेन सीमन्तोन्नयनमधोरेण तृतीयेन पूजनम् ॥ ७३
[ संस्कारविधि इस प्रकार है- अरणीसे उत्पन्न, सूर्यकान्तमणिसे उत्पन्न अथवा अग्निहोत्रसे उत्पन्न अग्निको ताम्रपात्र या मिट्टीके शराव (कसोरा) में लाकर आद्यमन्त्रसे निरीक्षण, ताड़न, अभ्युक्षण तथा प्रक्षालन करके पुनः आद्य मन्त्रसे ही क्रव्यादांश तथा अशिवका परित्यागकर जठर और भ्रूमध्यसे वह्निके त्रैकारण (त्रिवर्गसाधन) का आवाहन करके उस आवाहित मूर्तिमें वह्निमन्त्रसे उद्दीपन करके तत्पुरुषमन्त्रसहित आद्यमन्त्रके द्वारा धारणा तथा संहितामन्त्रसे धेनुमुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिये। तत्पश्चात् चतुर्थ मन्त्रसे अवगुण्ठन करके दोनों घुटनोंको भूमिपर टेककर कसोरेको उठाकर कुण्डके ऊपर रखकर चतुर्थ मन्त्रसे प्रदक्षिणक्रमसे चारों ओर घुमाकर अपने सम्मुख विराजमान वागीश्वरीका ध्यान करके गर्भनालमें गर्भाधानकी रीतिसे वौषडन्त आद्यमन्त्रसे कमल प्रदान करके कुशार्घ्य देकर तथा प्रथम मन्त्रसे ईंधन देकर सद्योजातमन्त्रसे प्रज्वालन तथा गर्भाधान करना चाहिये। तदनन्तर प्रथम सद्योजातमन्त्रसे पूजन, वामदेव मन्त्र से पुंसवन, उसी द्वितीय मन्त्रसे पुनः पूजन, अघोरमन्त्रसे सीमन्तोन्नयन और पुनः उसी तृतीय मन्त्रसे पूजन करना चाहिये ॥ ७३ ॥
अवयवव्याप्तिर्वक्त्रोद्घाटनं वक्कानिष्कृतिरिति
तृतीयेन गर्भजातकर्मपुरुषेण पूजनं तुरीयेण षष्ठेन
प्रोक्षणं सूतकशुद्धये चाग्निसूनुरक्षाकुशास्त्रेण वक्त्रे
णाऽग्नौ मूलमीशाग्रं नैऋतिमूलं वायव्याग्रं वायव्य-
मूलमीशाग्रमिति कुशास्तरणमिति पूर्वोक्तमिध्ममग्र-
मूलघुताक्तं लालापनोदाय षष्ठेन जुहुयात् ॥ ७४
अंगोंकी व्याप्ति, वक्त्रोद्घाटन और वक्त्रनिष्कृति तृतीय मन्त्रसे करना चाहिये। गर्भजातकर्म तत्पुरुषमन्त्रसे, पूजन चतुर्थ मन्त्रसे, सूतकशुद्धिके लिये प्रोक्षण षष्ठ मन्त्रसे और अग्निरूप पुत्रकी रक्षा कुशास्त्र मन्त्रसे करे। तत्पश्चात् वक्त्रमन्त्रसे अग्निकोणमें कुशमूल, ईशानमें कुशका अग्रभाग, नैऋत्यमें कुशमूल, वायव्यमें अग्रभाग, वायव्यमें कुशमूल और ईशानमें अग्रभाग इस भाँति पूर्वोक्त रीतिसे कुशास्तरण करके घृतमें भींगी हुई समिधाका अग्निकी लालानिवृत्तिके लिये षष्ठ मन्त्रसे हवन करना चाहिये ॥ ७४ ॥
पञ्चपूर्वातिक्रमेण परिधिविष्टरन्यासोऽपि आद्येन
विष्टरोपरि हिरण्यगर्भहरनारायणानपि पूजयेत् ॥ ७५
इन्द्रादिलोकपालांश्च पूजयेत् ॥ ७६
वज्रावर्तपर्यन्तानपि पूजयेत् ।। ७७
वागीश्वरवागीश्वरीपूजाद्येनमुद्वास्य हुतं विसर्ज येत् ॥ ७८
वामदेव आदि चार मन्त्रोंसे परिधियुक्त विष्टरका स्थापन करके आद्यमन्त्रसे विष्टरके ऊपर ब्रह्मा, शिव तथा नारायणका पूजन करना चाहिये। इसी प्रकार इन्द्र आदि लोकपालों तथा वज्रसे लेकर त्रिशूलपर्यन्त उनके आठ आयुधोंकी भी पूजा करनी चाहिये। वागीश्वर तथा वागीश्वरीकी पूजा आदि करके इन वागीश्वरका उद्घासनकर होमद्रव्यका हवन करना चाहिये ॥ ७५-७८ ॥
सुक्खुवसंस्कारमथो निरीक्षणप्रोक्षणताडना-
भ्युक्षणादीनि पूर्ववत् खुक् स्स्रुवं च हस्तद्वये
गृहीत्वा संस्थापनमाद्येन ताडनमपि स्रुक्स्रुवोपरि
दर्भानुलेखनमूलमध्यमाग्रेण त्रित्वेन खुशक्तिं स्तुवमपि
शम्भुं दक्षिणपाश्र्वे कुशोपरि शक्तये नमः शम्भवे नमः ॥ ७९
ततो ह्यन्तिसूत्रेण सुक्नुवौ तुरीयेण वेष्टयेदर्चयेच्च ॥ ८०
धेनुमुद्रां दर्शयित्वा तुरीयेणावगुण्ठ्य षष्ठेन रक्षां
विधाय स्रुक्स्रुवसंस्कारः पूर्वमेवोक्तः ॥ ८१
इसके पश्चात् सुक्-सुवका संस्कार बताया जाता है- पूर्वकी भाँति निरीक्षण, प्रोक्षण, ताड़न, अभ्युक्षण आदि करके दोनों हाथोंमें खुक्-स्रुव ग्रहणकर प्रथम मन्त्रसे संस्थापन तथा ताड़न करके सुक्-स्रुवके ऊपर कुशके मूल, मध्य और अग्रभागसे तीन प्रकारसे अनुलेखन करके सुक्को शक्ति और सुवको शिव मानकर उन्हें दक्षिण भागमें कुशके ऊपर 'शक्तये नमः', 'शम्भवे नमः' इन मन्त्रोंके द्वारा स्थापित करना चाहिये तदनन्तर समीपवर्ती सूत्रसे सुक्-सुवको चतुर्थ मन्त्रका उच्चारण करके वेष्टित करना चाहिये और पुनः अर्चन करना चाहिये। इसके बाद धेनुमुद्रा दिखाकर चतुर्थ मन्त्रसे अवगुण्ठन तथा षष्ठ मन्त्रसे रक्षाकर्म सम्पन्न करके सुक् सुव संस्कार करना चाहिये ॥ ७९ -८१ ॥
पुनराज्यसंस्कारः पूर्वमेवोक्तः निरीक्षणप्रोक्षणताडना भ्युक्षणादीनि पूर्ववत् ॥ ८२
आज्यप्रतापनमैशान्यां वा षष्ठेन वेद्युपरि विन्यस्य घृतपात्रं वितस्तिमात्रं
कुशपवित्रं वामहस्ताङ्गुष्ठा नामिकाग्रं गृहीत्वा दक्षिणाङ्गुष्ठानामिकामूलं
गृही- त्वाग्निज्वालोत्पवनं स्वाहान्तेन तुरीयेण पुनः षड् दर्भान् गृहीत्वा
पूर्ववत्स्वात्मसम्प्लवनं स्वाहान्तेनाद्येन कुशद्वयपवित्रबन्धनं चाद्येन
घृते न्यसेदिति पवित्री- करणम् ॥ ८३
आज्यसंस्कार पूर्वमें बताया गया है, पूर्वकी भाँति निरीक्षण, प्रोक्षण, ताड़न, अभ्युक्षण आदि करना चाहिये। इसके बाद षष्ठ मन्त्रसे ईशानकोणमें घृतको तपाकर घृतपात्रको वेदीके ऊपर रखकर वितस्तिमात्र (बारह अंगुल) कुशाके पवित्रकका अग्रभाग अपने वाम हस्तके अंगुष्ठ और अनामिकासे ग्रहण करके तथा दक्षिण हस्तके अँगुष्ठ और अनामिकासे पवित्रकका मूल ग्रहण करके स्वाहान्त चतुर्थ मन्त्रसे अग्निज्वालाका उत्प्लवन करना चाहिये। इसके बाद छः कुश लेकर स्वाहान्त प्रथम मन्त्रसे पूर्वकी भाँति अपने देहमें सम्प्लवन करके दो कुशोंका पवित्रक बनाकर प्रथम मन्त्रसे उसे घृतमें डाल देना चाहिये- यह पवित्रीकरण है।॥ ८२-८३ ॥
दर्भद्वयं प्रगृह्याग्निप्रज्वालनं घृतं त्रिधा वर्तयेत्।
सम्प्रोक्ष्याग्नौ निधापयेदिति नीराजनम् ॥ ८४
पुनर्दर्भान् गृहीत्वा कीटकादि निरीक्ष्याघ्र्येण
सम्प्रोक्ष्य दर्भानग्नौ निधाय इत्यवद्योतनम् ।। ८५
दर्भद्वयं गृहीत्वाग्निज्वालया घृतं निरीक्षयेत् ॥ ८६
दर्भेण गृहीत्वा तेनाग्रद्वयेन शुक्लपक्षद्वयेनाद्येनेति
कृष्णपक्षसम्पातनं घृतं त्रिभागेन विभज्य स्रुवेणैकभागेनाज्येनाग्नये
स्वाहा द्वितीयेनाज्येन सोमाय स्वाहा आज्येन
ॐ अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा आज्येनाग्नये स्विष्टकृते स्वाहा ॥ ८७
घृतप्लुत दो दर्भ लेकर उसे प्रज्वलित करके घृतके ऊपर तीन बार घुमाये और पुनः सम्प्रोक्षण करके अग्निमें डाल दे यह नीराजन है। पुनः दौंको लेकर कीट आदि देख करके अध्र्ध्वजलसे सम्प्रोक्षण करके दर्भाको अग्निमें डाल देना चाहिये-यह अवद्योतन है। दो दर्भ लेकर अग्निमें प्रज्वलित करके घृतको देखे- यह निरीक्षण है इसके बाद अन्य दर्भके साथ दो पवित्रक लेकर उनमें शुक्लपक्षद्वयकी भावना करे तथा उन दोनोंके सहित घृतको सद्योजातमन्त्रसे पृथक् कर दे, शेषको कृष्णपक्षकी भावनासे पृथक् करे; इस प्रकार घीको तीन भागोंमें विभक्त करके सुवद्वारा घृतके एक भागको 'अग्नये स्वाहा', घृतके द्वितीय भागको 'सोमाय स्वाहा' और घृतके तृतीय भागको 'अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा' तथा अवशिष्ट घृतको 'अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा'- ऐसा कहकर होम करे॥ ८४-८७॥
पुनः कुशेन गृहीत्वा संहिताभिमन्त्रेण नमोऽन्तेनाभिमन्त्रयेत् ॥ ८८
अभिमन्त्र्य धेनुमुद्राप्रदर्शनकवचावगुण्ठनास्त्रेण रक्षाम्।
अथ संस्कृते निधापयेद् आज्यसंस्कारः ॥ ८९
आज्येन स्स्रुग्वदनेन चक्राभिघारणं शक्तिबीजादी- शानमूर्तये स्वाहा।
पूर्ववत्पुरुषवक्त्राय स्वाहा अघोरहृदयाय स्वाहा वामदेवाय
गुह्यगय स्वाहा सद्योजातमूर्तये स्वाहा। इति वक्त्रोद्घाटनम् ॥ ९०
ईशानमूर्तये तत्पुरुषवक्त्राय स्वाहा तत्पुरुषवक्त्राय
अघोरहृदयाय स्वाहा अघोरहृदयाय वामगुह्याय
सद्योजातमूर्तये स्वाहा इति वक्त्रसन्धानम् ॥ ९१
ईशानमूर्तये तत्पुरुषाय वकवाय अघोरहृदयाय वामदेवाय
गुह्याय सद्योजाताय स्वाहा इति वक्त्रैक्यकरणम् ॥ ९२
तत्पश्चात् कुशयुक्त पवित्रक लेकर अन्तमें नमः लगाकर संहिता मन्त्रसे घृतको अभिमन्त्रित करना चाहिये। अभिमन्त्रित करके धेनुमुद्रा प्रदर्शित करे। कवचसे अवगुण्ठन और अस्त्रमन्त्रसे रक्षण करना चाहिये, इसके बाद संस्कारित पवित्रकोंको अग्निमें डाल देना चाहिये-यह आज्यसंस्कार है खुवमें भरकर लिये गये घृतसे शक्तिबीजमन्त्र (ह्रीं) के द्वारा आहुति दे- यह चक्राभिधारण है। इसके बाद ईशानमूर्तये स्वाहा, तत्पुरुषवक्त्राय स्वाहा, अघोरहृदयाय स्वाहा, वामदेवगुह्याय स्वाहा सद्योजातमूर्तये स्वाहा-इन [पाँच] मन्त्रोंसे आहुति दे-यह वक्त्रोद्घाटन है। ईशानमूर्तये तत्पुरुषवक्त्राय स्वाहा, तत्पुरुषवक्त्राय अघोरहृदयाय स्वाहा, अघोरहृदयाय वामगुह्याय सद्योजातमूर्तये स्वाहा- इन मन्त्रोंसे आहुति दे-यह वक्त्रसन्धान है। ईशानमूर्तये तत्पुरुषाय वक्त्राय अघोरहृदयाय वामदेवाय गुह्याय सद्योजाताय स्वाहा इस मन्त्रसे आहुति दे-यह वक्त्रैक्यकरण है॥ ८८-९२॥
शिवाग्निं जनयित्वैवं सर्वकर्माणि कारयेत्।
केवलं जिह्वया वापि शान्तिकाद्यानि सर्वदा ॥ ९३
गर्भाधानादिकार्येषु वहेः प्रत्येकमव्यय।
दश आहुतयो देया योनिबीजेन पञ्चधा ।। ९४
शिवाग्नौ कल्पयेद्दिव्यं पूर्ववत्परमासनम् ।
आवाहनं तथा न्यासं यथा देवे तथार्चनम् ॥ ९५
मूलमन्त्रं सकृज्जप्त्वा देवदेवं प्रणम्य च।
प्राणायामत्रयं कृत्वा सगर्भ सर्वसम्मतम् ॥ ९६
परिषेचनपूर्व च तदिध्ममभिघार्य च।
जुहुयादग्निमध्ये तु ज्वलितेऽथ महामुने ॥ ९७
इस प्रकार शिवाग्नि उत्पन्न करके समस्त कार्य सम्पन्न करने चाहिये अथवा केवल अग्निजिह्वासे भी शान्तिक आदि कार्य सदा करने चाहिये। हे अव्यय! गर्भाधान आदि प्रत्येक संस्कारोंमें योनिबीजसे अग्निमें दस-दस या पाँच-पाँच आहुतियाँ प्रदान करनी चाहिये शिवाग्निमें पूर्वकी भाँति परम दिव्य आसन कल्पित करना चाहिये और उसपर देवका आवाहन, स्थापन तथा पूजन करना चाहिये। हे महामुने। मूलमन्त्रका एक बार जप करके देवदेवको प्रणामकर फिर तीन बार सर्वसम्मत सगर्भ प्राणायाम करके परिषेचनपूर्वक उस समिधाको आधारहोमको उद्देश्य करके प्रज्वलित अग्निके मध्यमें हवन करना चाहिये ॥ ९३-९७ ॥
आघारावपि चाधाय चाज्येनैव तु षण्मुखे ।
आज्यभागौ तु जुहुयाद्विधिनैव घृतेन च ॥ ९८
चक्षुषी चाज्यभागौ तु चाग्नये च तथोत्तरे।
आत्मनो दक्षिणे चैव सोमायेति द्विजोत्तम ॥ ९९
प्रत्यङ्मुखस्य देवस्य शिवाग्नेर्ब्रह्मणः सुत।
अक्षि वै दक्षिणं चैव चोत्तरं चोत्तरं तथा ॥ १००
दक्षिणं तु महाभाग भवत्येव न संशयः ।
आज्येनाहुतयस्तत्र मूलेनैव दशैव तु ॥ १०१
चरुणा च यथावद्धि समिद्भिश्च तथा स्मृतम् ।
पूर्णाहुतिं ततो दद्यान्मूलमन्त्रेण सुव्रत ॥ १०२
सर्वांवरणदेवानां पञ्चपञ्चैव पूर्ववत् ।
ईशानादिक्रमेणैव शक्तिबीजक्रमेण च ॥ १०३
प्रायश्चित्तमघोरेण स्वेष्टान्त पर्ववत्मतप ।
त्रिप्रकारं मया प्रोक्तमग्निकार्य सुशोभनम्॥ १०४
सुवमें दो-दो आधारहोम-निमित्तक तथा आज्यभाग- होमनिमित्तक आहुतियाँ लेकर विधिपूर्वक सद्योजात आदि छः मन्त्ररूप मुखवाली अग्निमें उनका हवन करना चाहिये। हे द्विजश्रेष्ठ! अग्नये स्वाहा ऐसा कहकर अपने उत्तरमें एवं सोमाय स्वाहा ऐसा कहकर अपने दक्षिणमें नेत्रस्वरूप दोनों आज्यभागोंकी आहुतियाँ देनी उत्तरकी ओर तथा बायाँ नेत्र दक्षिणकी ओर होता है, चाहिये। हे ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार। हे महाभाग! पश्चिमकी और मुखवाले शिवाग्निरूप महादेवका दाहिना नेत्र इसमें सन्देह नहीं है घृत, चरु तथा समिधाओंसे मूलमन्त्रके द्वारा यथाविधि दस आहुतियाँ देनी चाहिये- ऐसा कहा गया है। हे सुव्रत! तदनन्तर मूल मन्त्रसे पूर्णाहुति प्रदान करनी चाहिये। ईशान आदि मन्त्रोंके क्रमसे तथा शक्तिबीज (डी) के क्रमसे सभी आवरण देवताओंके लिये पूर्वकी भाँति पाँच-पाँच आहुतियाँ देनी चाहिये। अघोरमन्त्रसे प्रायश्चित्तहोम तथा स्विष्टकृत्पर्यन्त पूर्वकी भाँति कहा गया है। इस प्रकार मैंने अत्यन्त सुन्दर तीन प्रकारके अग्निकार्यका वर्णन कर दिया ॥ ९८-१०४॥
यथावसरमेवं हि कुर्यानित्यं महामुने।
जीवितान्ते लभेत्स्वर्ग लभते अग्निदीपनम्॥ १०५
नरक॑ चेव नाप्नोति यस्य कस्यापि कर्मण:।
अहिंसकं चरेद्धोमं॑ साधको मुक्तिकाइश्षक: ॥ १०६
हृदिस्थं चिन्तयेदग्निं ध्यानयज्ञेन होमयेत्।
देहस्थं सर्वभूतानां शिवं सर्वजगत्पतिम्॥ १०७
तं ज्ञात्वा होमयेद्धक्त्या प्राणायामेन नित्यश: ।
बाह्मयहोमप्रदाता तु पाषाणे दर्दुरों भवेत्॥ १०८
हे महामुने। जो [मनुष्य] यथासमय नित्य इसे करता है, वह मृत्युके अनन्तर स्वर्ग प्राप्त करता है, अग्निके समान दीप्ति प्राप्त करता है। किसी भी प्रकारके कर्मके लिये उसे नरककी प्राप्ति नहीं होती है। त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) की इच्छावाला अहिंसक (परनाशशून्य) होम करे और मुक्तिकी इच्छावाला शिवाग्निको अपने हृदयमें स्थित समझकर चिन्तन करे एवं ध्यानयज्ञके द्वारा हवन करे। सभी प्राणियोंके देहमें स्थित तथा सम्पूर्ण जगत्के स्वामी उन शिवको जानकर प्राणायामके द्वारा भक्तिपूर्वक प्रतिदिन हवन करना चाहिये। शिवध्यानसे रहित होकर होम करनेवाला पाषाणमें मेढक होता है ॥ १०५-१०८ ॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे शिवाग्निकार्यवर्णनं नाम पञ्चविंशतितमोऽध्यायः ॥ २५ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'शिवाग्निकार्यवर्णन' नामक पचीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥
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