श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग बयालीसवाँ अध्याय
सुवर्णगज दान विधि
सनत्कुमार उवाच
गजदानं प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः।
द्विजाय वा शिवायाथ दातव्यः पूज्य पूर्ववत् ॥ १
सनत्कुमार बोले- अब मैं क्रमके अनुसार सुवर्णगजदानका यथावत् वर्णन करूँगा। पूर्वकी भाँति उसका विधिवत् पूजन करके उसे शिवजीको अथवा ब्राह्मणको अर्पित कर देना चाहिये ॥ १॥
गजं सुलक्षणोपेतं हैमं वा राजतं तु वा।
सहस्त्रनिष्कमात्रेण तदर्धेनापि कारयेत् ॥ २
तदर्धार्थेन वा कुर्यात्सर्वलक्षणभूषितम् ।
पूर्वोक्तदेशकाले च देवाय विनिवेदयेत् ॥ ३
अष्टम्यां वा प्रदातव्यं शिवाय परमेष्ठिने।
ब्राह्मणाय दरिद्राय श्रोत्रियायाहिताग्नये ॥ ४
शिवमुद्दिश्य दातव्यं शिवं सम्पूज्य पूर्ववत्।
एतद्यः कुरुते दानं शिवभक्तिसमाहितम् ॥ ५
स्थित्वा स्वर्गे चिरं कालं राजा गजपतिर्भवेत् ॥ ६
शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न सुवर्ण अथवा चाँदीका गज एक हजार निष्क परिमाणसे अथवा उसके आधे अर्थात् पाँच सौ निष्कसे बनवाना चाहिये; अथवा उसके आधेके भी आधे परिमाणसे सभी लक्षणोंसे युक्त गजका निर्माण कराना चाहिये और पूर्वोक्त देश तथा कालमें उसे महादेवको अर्पित करना चाहिये। [पूर्वोक्त देशकालके अभावमें] उसे परमेष्ठी शिवको अष्टमी तिथिमें अर्पण करना चाहिये अथवा शिवको उद्देश्य करके किसी धनहीन श्रोत्रिय अग्निहोत्री ब्राह्माणको इसे प्रदान करना चाहिये; पूर्वकी भाँति भगवान् शिवका सम्यक् पूजन करके इसे प्रदान करना चाहिये। जो मनुष्य शिवभक्तिसे युक्त होकर इस गजदानको करता है, वह स्वर्गमें दीर्घकालतक निवास करके [अगले जन्ममें] गजपति (सार्वभौम) राजा होता है॥ २-६॥
।। इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे गजदानविधानवर्णनं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'गजदानविधानवर्णन' नामक बयालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४२ ॥
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