मन्दार सप्तमी व्रत की विधि और उसका माहात्म्य | mandar saptami vrat ki vidhi aura usaka mahatmya |

मत्स्य पुराण उन्यासीवाँ अध्याय

मन्दार सप्तमी व्रत की विधि और उसका माहात्म्य

ईश्वर उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि सर्वपापप्रणाशिनीम्।
सर्वकामप्रदां पुण्यां नाम्ना मन्दारसप्तमीम् ॥ १

ईश्वरने कहा- ब्रह्मन् ! अब में परम पुण्यप्रदायिनी मन्दारसप्तमीका वर्णन करता हूँ, जो समस्त पापोंकी विनाशिनी एवं सम्पूर्ण कामनाओंकी प्रदात्री है॥ १

माघस्यामलपक्षे तु पञ्चम्यां लघुभुङ्नरः ।
दन्तकाष्ठं ततः कृत्वा षष्ठीमुपवसेद् बुधः ॥ २

विप्रान् सम्पूजयित्वा तु मन्दारं प्राशयेन्निशि ।
ततः प्रभात उत्थाय कृत्वा स्त्रानं पुनर्द्विजान् ॥ ३

भोजयेच्छक्तितः कुर्यात् मन्दारकुसुमाष्टकम् । 
सौवर्णं पुरुषं तद्वत् पद्महस्तं सुशोभनम् ॥ ४

पद्म कृष्णतिलैः कृत्वा ताम्रपात्रेऽष्टपत्रकम् ।
हेममन्दारकुसुमैर्भास्करायेति पूर्वतः ॥ ५

नमस्कारेण तद्वच्च सूर्यायेत्यानले दले।
दक्षिणे तद्वदर्काय तथार्यम्णेति नैर्ऋते ॥ ६

पश्चिमे वेदधाने च वायव्ये चण्डभानवे।
पूष्णेत्युत्तरतः पूज्यमानन्दायेत्यतः परम् ॥ ७

कर्णिकायां च पुरुषं स्थाप्य सर्वात्मनेति च।
शुक्लवस्त्रैः समावेष्ट्य भक्ष्यैर्माल्यफलादिभिः ॥ ८

बुद्धिमान् व्रतीको चाहिये कि वह माघमासमें शुक्लपक्षकी पञ्चमी तिथिको थोड़ा आहार करके (रात्रिमें शयन करे)। पुनः षष्ठी तिथिको प्रातःकाल दातून कर दिनभर उपवास करे। रातमें ब्राह्मणोंकी पूजा कर मन्दार-पुष्पका भक्षण करे और सो जाय। तत्पश्चात् सप्तमी तिथिको प्रातः काल उठकर स्नान आदि नित्यकर्म सम्पादन कर अपनी शक्तिके अनुसार पुनः ब्राह्मणोंको भोजन करावे। तदनन्तर सोनेके आठ मन्दार पुष्प और एक पुरुषाकार सुन्दर मूर्ति बनवाये, जिसके हाथमें कमल सुशोभित हो। पुनः ताँबेके पात्रमें काले तिलोंसे अष्टदल कमलकी रचना करे। तदनन्तर स्वर्णमय मन्दार-पुष्पोंद्वारा (कमलके आठों दलोंपर वक्ष्यमाण- मन्त्रोंका उच्चारण करके सूर्यका आवाहन करे। यथा) 'भास्कराय नमः' से पूर्वदलपर, 'सूर्याय नमः' से अग्रिकोणस्थित दलपर, 'अर्काय नमः' से दक्षिणदलपर, 'अर्यम्यणे नमः' से नैऋत्यकोणवाले दलपर, 'वेदधाम्ने नमः' से पश्चिमदलपर, 'चण्डभानवे नमः' से वायव्यकोणस्थित दलपर, 'पूष्णे नमः' से उत्तरदलपर, उसके बाद' आनन्दाय नमः 'से ईशानकोणवाले दलपर स्थापना करके कर्णिकाके मध्यमें 'सर्वात्मने नमः' कहकर पुरुषाकार मूर्तिको स्थापित कर दे तथा उसे चेत वस्त्रोंसे बैंककर खाद्य पदार्थ (नैवेद्य), पुष्पमाला, फल आदिसे उसकी अर्चना करे ॥२-८॥

एवमभ्यर्च्य तत् सर्वं दद्याद् वेदविदे पुनः । 
भुञ्जीतातैललवर्ण वाग्यतः प्राङ्मुखो गृही ॥ ९

अनेन विधिना सर्वं सप्तम्यां मासि मासि च। 
कुर्यात् संवत्सरं यावद् वित्तशाठ्यविवर्जितः ।। १०

एतदेव व्रतान्ते तु निधाय कलशोपरि। 
गोभिर्विभवतः सार्धं दातव्यं भूतिमिच्छता ॥ ११

नमो मन्दारनाथाय मन्दारभवनाय च।
त्वं रवे तारवस्वास्मानस्मात् संसारसागरात् ॥ १२

अनेन विधिना यस्तु कुर्यान्मन्दारसप्तमीम्।
विपाप्मा स सुखी मर्त्यः कल्पं च दिवि मोदते ॥ १३

इमामघौघपटलभीषणध्वान्तदीपिकाम् ।
गच्छन् संगृह्य संसारशर्वर्या न स्खलेन्नरः ॥ १४

मन्दारसप्तमीमेतामीप्सितार्थफलप्रदाम् ।
यः पठेच्छृणुयाद् वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १५

इस प्रकार गृहस्थ व्रती उस मूर्तिका पूजन कर पुनः वह सारा सामान वेदज ब्राह्मणको दान कर दे और स्वयं पूर्वाभिमुख बैठकर मौन हो तेल और नमकरहित अन्नका भोजन करे। इस प्रकार एक वर्षतक प्रत्येक मासमें शुक्लपक्षकी सप्तमी तिथिको इसी विधिके अनुसार सारा कार्य सम्पन्न करनेका विधान है। इसमें कृपणता नहीं करनी चाहिये। व्रतकी समाप्तिके समय वैभवकी अभिलाषा रखनेवाला व्रती उस मूर्तिको कलशके ऊपर रखकर अपनी धन-सम्पत्तिके अनुसार प्रस्तुत की गयी गौओंके साथ दान कर दे। (उस समय सूर्यभगवान्से यों प्रार्थना करे) 'सूर्यदेव। आप मन्दारके स्वामी हैं और मन्दार आपका भवन है, आपको नमस्कार है। आप हमलोगोंका इस संसाररूपी सागरसे उद्धार कीजिये।' जो मानव उपर्युक्त विधिके अनुसार इस मन्दारसप्तमीव्रतका अनुष्ठान करता है, वह पापरहित हो सुखपूर्वक एक कल्पतक स्वर्गमें आनन्दका उपभोग करता है। यह सप्तमीव्रत पापसमूहरूप परदेसे आच्छादित होनेके कारण प्रकट हुए भयंकर अन्धकारके लिये दीपकके समान है, जो मनुष्य इसे हाथमें लेकर संसाररूपी रात्रिमें यात्रा करता है, वह कहीं पथभ्रष्ट नहीं होता। जो मनुष्य अभीष्ट फल प्रदान करनेवाली इस मन्दारसप्तमीके व्रतको पढ़ता अथवा श्रवण करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है॥९-१५॥

इति श्रीमात्ये महापुराणे मन्दारसप्तमीक्षतं नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः ॥ ७९ ॥

इस प्रकार श्रीमलयमहापुराणमें मन्दारसप्तमीव्रत नामक उन्यासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥ ७९ ॥

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