मनुका मत्स्यभगवान्‌ से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकों की सृष्टि करने के विषय में प्रश्न | Manuka Matsya Question to Lord Brahma about Brahma being four-faced and creating the worlds

मत्स्य पुराण तीसरा अध्याय

मनुका मत्स्यभगवान्‌ से ब्रह्मा के चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करने के विषय में प्रश्न एवं मत्स्य भगवान्द्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन


मनुरुवाच

चतुर्मुखत्वमगमत् कस्माल्लोकपितामहः । 
कथं तु लोकानसृजद् ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः ॥ १

मनुने पूछा- भगवन् ! ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ लोक- पितामह ब्रह्मा चतुर्मुख कैसे हुए तथा उन्होंने (सभी) लोकोंकी रचना किस प्रकार की ? ॥ १॥

मत्स्य उवाच

तपश्चचार प्रथमममराणां पितामहः । 
आविर्भूतास्ततो वेदाः साङ्गोपाङ्गपदक्रमाः ॥ २

पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम् । 
नित्यं शब्दमयं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम् ॥ ३

अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः ।
मीमांसान्यायविद्याश्च प्रमाणाष्टकसंयुताः ॥ ४

वेदाभ्यासरतस्यास्य प्रजाकामस्य मानसाः । 
मनसः पूर्वसृष्टा वै जाता यत् तेन मानसाः ॥ ५

मरीचिरभवत् पूर्वं ततोऽत्रिर्भगवानृषिः । 
अङ्गिराश्चाभवत् पश्चात् पुलस्त्यस्तदनन्तरम् ॥ ६

ततः पुलहनामा वै ततः क्रतुरजायत । 
प्रचेताश्च ततः पुत्रो वसिष्ठश्चाभवत् पुनः ॥ ७

पुत्रो भृगुरभूत् तद्वन्नारदोऽप्यचिरादभूत् । 
दशेमान् मानसान् ब्रह्मा मुनीन् पुत्रानजीजनत् ॥ ८

शारीरानथ वक्ष्यामि मातृहीनान् प्रजापतेः ।
अङ्गुष्ठाद् दक्षिणाद् दक्षः प्रजापतिरजायत ।। ९

धर्मः स्तनान्तादभवद्धृदयात् कुसुमायुधः । 
धूमध्यादद्भवत् क्रोधो लोभश्चाधरसम्भवः ॥ १०

बुद्धेर्मोहः समभवदहंकारादभून्मदः । 
प्रमोदश्चाभवत् कण्ठान्मृत्युर्लोचनतो नृप ॥ ११

भरतः करमध्यात्तु ब्रह्मसूनुरभूत्ततः ।
एते नव सुता राजन् कन्या च दशमी पुनः। 
अङ्गजा इति विख्याता दशमी ब्रह्मणः सुता ॥ १२

मत्स्यभगवान् कहने लगे- राजर्षे। देवताओंके पितामह ब्रह्माने पहले बड़ा ही कठोर तप किया था, जिसके प्रभावसे अङ्ग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्द), उपाङ्ग (पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्मशास्त्र), पद (वैदिक मन्त्रोंका पद-पाठ निर्धारित करना) और क्रम (वेद-पाठकी एक विशेष प्रणाली) सहित वेदोंका प्रादुर्भाव हुआ। सम्पूर्ण शास्त्रोंकी उत्पत्तिके पूर्व ब्रह्माने उस पुराणका स्मरण किया, जो अविनाशी, शब्दमय, पुण्यशाली एवं सौ करोड़ श्लोकोंमें विस्तृत है। तदनन्तर ब्रह्माके मुखोंसे वेद, आठ प्रमाणोंसहित मीमांसा और न्यायशास्त्रका आविर्भाव हुआ। तत्पश्चात् वेदाभ्यासमें निरत रहनेवाले ब्रह्माने पुत्र उत्पन्न करनेकी कामनासे युक्त होकर पूर्वनिर्धारित दस मानस पुत्रोंको उत्पन्न किया। मानसिक संकल्पसे उत्पन्न होनेके कारण वे सभी मानस पुत्रके नामसे प्रख्यात हुए। उन पुत्रोंमें सर्वप्रथम मरीचि, तदनन्तर ऐश्वर्यशाली महर्षि अत्रि हुए। पुनः अङ्गिरा और उनके बाद पुलस्त्य हुए। तदनन्तर पुलह और तत्पश्चात् क्रतु उत्पन्न हुए। उसके बाद प्रचेता नामक पुत्र हुए। पुनः वसिष्ठजीका जन्म हुआ। तत्पश्चात् भृगु पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए तथा शीघ्र ही नारदका भी आविर्भाव हुआ। इन्हीं दस पुत्रोंको ब्रह्माने अपने मनसे उत्पन्न किया, जो सभी मुनि रूपसे विख्यात हुए। राजन् । अब मैं ब्रह्माके शरीरसे उत्पन्न हुए मातृ-विहीन पुत्रोंका वर्णन करता हूँ। प्रजापति ब्रह्माके दाहिने अँगूठेसे दक्ष प्रजापति प्रकट हुए। उनके स्तनान्तभागसे धर्म और हृदयसे कुसुमायुध (कामदेव) का जन्म हुआ। भ्रूमध्यसे क्रोध और होंठसे लोभकी उत्पत्ति हुई। बुद्धिसे मोहका तथा अहंकारसे मदका जन्म हुआ। कण्ठसे प्रमोद और नेत्रोंसे मृत्युको उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् हथेलीसे ब्रह्मपुत्र भरत प्रकट हुए। राजन्। ये नौ पुत्र ब्रह्माके शरीरसे प्रकट हुए हैं। ब्रह्माकी दसर्वी संतान (एक) कन्या है, जो अङ्गजा नामसे विख्यात हुई ॥ २-१२॥

मनुरुवाच

बुद्धेर्मोहः समभवदिति यत् परिकीर्तितम्। 
अहंकारः स्मृतः क्रोधो बुद्धिर्नाम किमुच्यते ॥ १३

मनुने पूछा- भगवन्! आपने जो यह बतलाया कि बुद्धिसे मोहकी उत्पत्ति हुई और (इसी प्रसङ्गमें) अहंकार, क्रोध एवं बुद्धिका भी नाम लिया, सो ये सब क्या हैं? (इनपर प्रकाश डालिये) ॥ १३ ॥ 

मत्स्य उवाच

सत्त्वं रजस्तमश्चैव गुणत्रयमुदाहृतम् । 
साम्यावस्थितिरेतेषां प्रकृतिः परिकीर्तिता ॥ १४

केचित् प्रधानमित्याहुरव्यक्तमपरे जगुः । 
एतदेव प्रजासृष्टिं करोति विकरोति च ॥ १५

गुणेभ्यः क्षोभमाणेभ्यस्त्रयो देवा विजज्ञिरे। 
एका मूर्तिस्त्रयो देवा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥ १६

सविकारात् प्रधानात्तु महत्तत्त्वं प्रजायते। 
महानिति यतः ख्यातिर्लोकानां जायते सदा ॥ १७

अहंकारश्च महतो जायते मानवर्धनः।
इन्द्रियाणि ततः पञ्च वक्ष्ये बुद्धिवशानि तु। 
प्रादुर्भवन्ति चान्यानि तथा कर्मवशानि तु ॥ १८

श्रोत्रं त्वक् चक्षुषी जिह्वा नासिका च यथाक्रमम्। 
पायूपस्थं हस्तपादं वाक् चेतीन्द्रियसंग्रहः ॥ १९

शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः ।
उत्सर्गानन्दनादानगत्यालापाश्च तत्क्रियाः ॥ २०

मन एकादशं तेषां कर्मबुद्धिगुणान्वितम्।
इन्द्रियावयवाः सूक्ष्मास्तस्य मूर्ति मनीषिणः ॥ २१

श्रयन्ति यस्मात् तन्मात्राः शरीरं तेन संस्मृतम् । 
शरीरयोगाज्जीवोऽपि शरीरी गद्यते बुधैः ॥ २२

मनः सृष्टिंट विकुरुते चोद्यमानं सिसृक्षया।
आकाशं शब्दतन्मात्रादभूच्छब्दगुणात्मकम् ॥ २३

आकाशविकृतेर्वायुः शब्दस्पर्शगुणोऽभवत् ।
वायोश्च स्पर्शतन्मात्रात्तेजश्चाविरभूत्ततः ॥ २४

त्रिगुणं तद्विकारेण तच्छब्दस्पर्शरूपवत् ।
तेजोविकारादभवद् वारि राजंश्चतुर्गुणम् ॥ २५

रसतन्मात्रसम्भूतं प्रायो रसगुणात्मकम् ।
भूमिस्तु गन्धतन्मात्रादभूत् पञ्चगुणान्विता ॥ २६

प्रायो गन्धगुणा सा तु बुद्धिरेषा गरीयसी।
एभिः सम्पादितं भुङ्क्ते पुरुषः पञ्चविंशकः ॥ २७

ईश्वरेच्छावशः सोऽपि जीवात्मा कथ्यते बुधैः ।
एवं षड्विंशकं प्रोक्तं शरीरमिह मानवैः ॥ २८

सांख्यं संख्यात्मकत्वाच्च कपिलादिभिरुच्यते ।
एतत्तत्त्वात्मकं कृत्वा जगद् वेधा अजीजनत् ॥ २९

मत्स्यभगवान् कहने लगे - राजयें। सत्त्व, रजस् और तमस् जो ये तीनों गुण बतलाये गये हैं, इनकी साम्यावस्थाको प्रकृति कहा जाता है। कुछ लोग इसे प्रधान कहते हैं। दूसरे लोग इसे अव्यक्त नामसे भी निर्देश करते हैं। यही प्रकृति प्रजाकी सृष्टि करती है और (यही सृष्टिको) बिगाड़‌ती भी है। इन्हीं तीनों गुणोंके क्षुब्ध होनेपर इनसे तीन देवता उत्पन्न होते हैं। इन (तीनों देवों) की मूर्ति तो एक ही है, परंतु वह ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर- इन तीन देवताओंके रूपमें विभक्त हो जाती है। तदनन्तर प्रधानके विकृत होनेपर उससे महत्तत्त्वकी उत्पत्ति होती है, जिससे लोकोंके मध्यमें उसकी सदा 'महान्' रूपसे ख्याति होती है। उस महत्तत्त्वसे मानको बढ़ानेवाला अहंकार प्रकट होता है। उस अहंकारसे दस इन्द्रियाँ आविर्भूत होती है, जिनमें पाँच बुद्धि (ज्ञान) के वशीभूत रहती हैं और दूसरी पाँच कर्मके अधीन रहती हैं। इस इन्द्रिय समुदायमें क्रमशः श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा पायु (गुदा), उपस्थ (मूत्रेन्द्रिय), हस्त, पाद और वाणी- ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। इन दसों इन्द्रियोंके क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, उत्सर्ग (मल एवं अपानवायु आदिका त्याग), आनन्दन (आनन्दप्रदान), आदान (ग्रहण करना), गमन और आलाप-ये दस कार्य हैं। इन दसों इन्द्रियोंके अतिरिक्त मननामक ग्यारहवीं इन्द्रिय है, जिसमें कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियोंके समस्त गुण वर्तमान हैं। इन इन्द्रियोंके जो सूक्ष्म अवयव उस मनीषीके शरीरका आश्रय लेते हैं, वे तन्मात्र कहलाते हैं और जिसके सम्पर्कसे तन्मात्रकी उत्पत्ति होती है, उसे शरीर कहा जाता है। उस शरीरका सम्बन्ध होनेके सृष्टिकी रचना करता है। उस समय शब्दतन्मात्रसे शब्दरूप कारण विद्वान्‌लोग जीवको भी 'शरीरी' कहते हैं। जब सृष्टि करनेकी इच्छासे मनको प्रेरित किया जाता है, तब वही गुणवाला आकाश प्रकट होता है। इसी आकाशके विकृत होनेपर वायुकी उत्पत्ति होती है, जो शब्द और स्पर्श-दो गुणोंवाली है। तत्पश्चात् वायु और स्पर्शतन्मात्रसे तेजका आविर्भाव होता है, जो शब्द, स्पर्श और रूपनामक तीन विकारोंसे युक्त होनेके कारण त्रिगुणात्मक हुआ। राजन्। इस त्रिगुणात्मक तेजमें विकार उत्पन्न होनेसे चार गुणोंवाले जलका प्राकट्य होता है, जो रस-तन्मात्रसे उद्भूत होनेके कारण प्रायः रसगुणप्रधान ही होता है। तत्पश्चात् पाँच गुणोंसे सम्पन्न पृथ्वीका प्रादुर्भाव होता है। वह प्रायः गन्ध-गुणसे ही युक्त रहती है। यही (इन सबका यथार्थ ज्ञान रखना हो) श्रेष्ठ बुद्धि है। इन्हीं चौबीस (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच महाभूत, पाँच तन्मात्र, एक मन, एक बुद्धि, एक अव्यक्त, अहंकार) तत्त्वोंद्वारा सम्पादित सुख-दुःखात्मक कर्मका पचीसवाँ पुरुषनामक तत्त्व भोग करता है। वह भी ईश्वरकी इच्छाके वशीभूत रहता है, इसीलिये विद्वान्‌लोग उसे जीवात्मा कहते हैं। इस प्रकार इस मानव योनिमें यह शरीर छब्बीस तत्त्वोंसे संयुक्त बतलाया जाता है। कपिल आदि महर्षियोंने संख्यात्मक होनेके कारण इसे 'सांख्य' (ज्ञान) नामसे अभिहित किया है तथा इन्हीं तत्त्वोंका आश्रय लेकर ब्रह्माने जगत्‌की रचना की है ॥ १४-२९॥

सावित्रीं लोकसृष्ट्यर्थं हृदि कृत्वा समास्थितः ।
ततः संजपतस्तस्य भित्त्वा देहमकल्मषम् ॥ ३०

स्त्रीरूपमर्धमकरोदर्थं पुरुषरूपवत् ।
शतरूपा च सा ख्याता सावित्री च निगद्यते ॥ ३९

सरस्वत्यथ गायत्री ब्रह्माणी च परंतप । 
ततः स्वदेहसम्भूतामात्मजामित्यकल्पयत् ॥ ३२

दृष्ट्वा तां व्यथितस्तावत् कामबाणार्दितो विभुः ।
अहो रूपमहो रूपमिति चाह प्रजापतिः ॥ ३३

ततो वसिष्ठप्रमुखा भगिनीमिति चुक्क्रुशुः ।
ब्रह्मा न किंचिद् ददृशे तन्मुखालोकनादृते ॥ ३४

अहो रूपमहो रूपमिति प्राह पुनः पुनः।
ततः प्रणामनम्नां तां पुनरेवाभ्यलोकयत् ॥ ३५

अथ प्रदक्षिणं चक्रे सा पितुर्वरवर्णिनी। 
पुत्रेभ्यो लज्जितस्यास्य तद्रूपालोकनेच्छया ॥ ३६

आविर्भूतं ततो वक्त्रं दक्षिणं पाण्डुगण्डवत्।
विस्मयस्फुरदोष्ठं च पाश्चात्यमुदगात्ततः ॥ ३७

चतुर्थमभवत् पश्चाद् वामं कामशरातुरम् । 
ततोऽन्यदभवत्तस्य कामातुरतया तथा ॥ ३८

उत्पतन्त्यास्तदाकारा आलोकनकुतूहलात् । 
सृष्ट्यर्थं यत् कृतं तेन तपः परमदारुणम् ॥ ३९

तत् सर्वं नाशमगमत् स्वसुतोपगमेच्छया।
तेनोर्ध्वं वक्त्रमभवत् पञ्चमं तस्य धीमतः ।
आविर्भवज्जटाभिश्च तद् वक्त्रं चावृणोत् प्रभुः ॥ ४०

जब ब्रह्माने जगत्‌की सृष्टि करनेकी इच्छासे हृदयमें सावित्रीका ध्यान करके तपश्चरण प्रारम्भ किया। उस समय जप करते हुए उनका निष्पाप शरीर दो भागोंमें विभक्त हो गया। उनमें आधा भाग स्त्रीरूप और आधा पुरुषरूप हो गया। परंतप ! वह स्त्री सरस्वती, 'शतरूपा' नामसे विख्यात हुई। वही सावित्री, गायत्री और ब्रह्माणी भी कही जाती है। इस प्रकार ब्रह्माने अपने शरीरसे उत्पन्न होनेवाली सावित्रीको अपनी पुत्रीके रूपमें स्वीकार किया; परंतु तत्काल ही उस सावित्रीको देखकर वे सर्वश्रेष्ठ प्रजापति ब्रह्मा मुग्ध हो उठे और यों कहने लगे 'कैसा मनोहर रूप है। कैसा सौन्दर्यशाली रूप है।' ब्रह्माको सावित्रीके मुखकी ओर अवलोकन करनेके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं दीखता था। वे बारंबार यही कह रहे थे- 'कैसा अद्भुत रूप है। कैसी अनोखी सुन्दरता है।' तत्पश्चात् जब सावित्री झुककर उन्हें प्रणाम करने लगी, तब ब्रह्मा पुनः उसे देखने लगे। तदनन्तर सुन्दरी सावित्रीने अपने पिता ब्रह्माकी प्रदक्षिणा की। इसी समय सावित्रीके रूपका अवलोकन करनेकी इच्छा होनेके कारण ब्रह्माके मुखके दाहिने पार्श्वमें पीले गण्डस्थलोंवाला (एक दूसरा) नूतन मुख प्रकट हो गया। पुनः विस्मययुक्त एवं फड़कते हुए होंठोंवाला दूसरा (तीसरा) मुख पीछेकी ओर उन्द्भूत हुआ तथा उनकी बायर्थी ओर कामदेवके बाणोंसे व्यथित- से दीखनेवाले एक अन्य (चौथे) मुखका आविर्भाव हुआ। सावित्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेके कारण ब्रह्माद्वारा सृष्टि-रचनाके लिये जो अत्यन्त उग्र तप किया गया था, उसका सारा फल नष्ट हो गया तथा उसी पापके परिणामस्वरूप बुद्धिमान् ब्रह्माके मुखके ऊपर एक पाँचवाँ मुख आविर्भूत हुआ, जो जटाओंसे व्याप्त था। ऐश्वर्यशाली ब्रह्माने उस मुखको भी वरण (स्वीकार) कर लिया ॥ ३०-४० ॥

ततस्तानब्रवीद् ब्रह्मा पुत्रानात्मसमुद्भवान् ।
प्रजाः सृजध्वमभितः सदेवासुरमानुषीः ॥ ४१

एवमुक्तास्ततः सर्वे ससृजुर्विविधाः प्रजाः ।
गतेषु तेषु सृष्ट्यर्थं प्रणामावनतामिमाम् ॥ ४२

उपयेमे स विश्वात्मा शतरूपामनिन्दिताम् ।
सम्बभूव तया सार्धमतिकामातुरो विभुः । 
सलज्जां चकमे देवः कमलोदरमन्दिरे ॥ ४३

यावदब्दशतं दिव्यं यथान्यः प्राकृतो जनः ।
ततः कालेन महता तस्याः पुत्रोऽभवन्मनुः ॥ ४४

स्वायम्भुव इति ख्यातः स विराडिति नः श्रुतम्।
तद्रूपगुणसामान्यादधिपूरुष उच्यते ।। ४५

वैराजा यत्र ते जाता बहवः शंसितव्रताः । 
स्वायम्भुवा महाभागाः सप्त सप्त तथापरे ॥ ४६

स्वारोचिषाद्याः सर्वे ते ब्रह्मतुल्यस्वरूपिणः । 
औत्तमिप्रमुखास्तद्वद् येषां त्वं सप्तमोऽधुना ॥ ४७

 तदनन्तर ब्रह्माने अपने उन मरीचि आदि मानस पुत्रोंको आज्ञा दी कि तुमलोग भूतलपर चारों ओर देवता, असुर और मानवरूप प्रजाओंकी सृष्टि करो। पिताद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर उन पुत्रोंने अनेकों प्रकारकी प्रजाओंकी रचना की। सृष्टि-कार्यके लिये अपने उन पुत्रोंके चले जानेपर विश्वात्मा ब्रह्माने प्रणाम करनेके लिये चरणोंमें पड़ी हुई उस अनिन्दिता शतरूपा का पाणिग्रहण किया। तदनन्तर अधिक समय व्यतीत होनेके उपरान्त शतरूपाके गर्भसे मनु नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, जो स्वायम्भुव नामसे विख्यात हुआ। उसे विराट् भी कहा जाता है तथा अपने पिता ब्रह्माके रूप और गुणकी समानताके कारण उसे लोग अधिपुरुष भी कहते हैं- ऐसा हमने सुना है। उस ब्रह्म-वंशमें सात-सातके विभागसे जो बहुत-से महाभाग्यशाली एवं नियमोंका पालन करनेवाले स्वारोचिष आदि तथा उसी प्रकार औत्तमि आदि स्वायम्भुव मनु हुए हैं, वे सभी ब्रह्माके समान ही स्वरूपवाले थे। उन्हींमें इस समय तुम सातवें मनु हो ॥ ४१-४७ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे आदिसर्गे मुखोत्पत्तिर्नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके आदिसर्गमें मुखोत्पत्तिनामक तीसरा अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ३॥

टिप्पणियाँ