रजताचलके दान की विधि और उसका माहात्म्य | rajataachal ke daan kee vidhi aur usaka maahaatmy |

मत्स्य पुराण इक्यानबेवाँ अध्याय

रजताचल के दान की विधि और उसका माहात्म्य

ईश्वर उवाच

अतः परं प्रवक्ष्यामि रौप्याचलमनुत्तमम् । 
यत्प्रदानान्नरो याति सोमलोकमनुत्तमम् ॥ १

ईश्वरने कहा- नारद! इसके बाद मैं सर्वश्रेष्ठ रौप्याचल अर्थात् रजतशैलका वर्णन कर रहा हूँ, जिसका दान करनेसे मनुष्य सर्वश्रेष्ठ चन्द्रलोकको प्राप्त करता है।

दशभिः पलसाहखैरुत्तमो रजताचलः ।
पञ्चभिर्मध्यमः प्रोक्तस्तदर्थेनाधमः स्मृतः ॥ २

अशक्तो विंशतेरूर्वं कारयेच्छक्तितस्तदा।
विष्कम्भपर्वतांस्तद्वत् तुरीयांशेन कल्पयेत् ।। ३

पूर्ववद् राजतान् कुर्वन् मन्दरादीन् विधानतः ।
कलधौतमयांस्तद्वल्लोकेशानर्चयेद् बुधः ॥ ४

ब्रह्मविष्ण्वर्कवान् कायों नितम्बोऽत्र हिरण्मयः ।
राजतं स्याद् यदन्येषां कार्य तदिह काञ्चनम् ॥ ५

शेषं तु पूर्ववत् कुर्याद्धोमजागरणादिकम्। 
दद्यात् ततः प्रभाते तु गुरवे रौप्यपर्वतम् ॥ ६

विष्कम्भशैलानृत्विग्भ्यः पूज्य वस्त्रविभूषणैः । 
इमं मन्त्रं पठन् दद्याद् दर्भपाणिर्विमत्सरः ॥ ७

पितृणां वल्लभो यस्माद्धरीन्द्राणां शिवस्य च। 
पाहि राजत तस्मान्नः शोकसंसारसागरात् ॥ ८

इत्थं निवेद्य यो दद्याद् रजताचलमुत्तमम् । 
गवामयुतदानस्य फलं प्राप्नोति मानवः ॥ ९

सोमलोके स गन्धर्वैः किन्नराप्सरसां गणैः। 
पूज्यमानो वसेद् विद्वान् यावदाभूतसम्प्लवम् ॥ १०

दस हजार पल चाँदीसे बना हुआ रजताचल उत्तम, पाँच हजार पलसे बना हुआ मध्यम और ढाई हजार पलसे बना हुआ अधम कहा गया है। यदि दाता ऐसा करनेमें असमर्थ हो तो उसे अपनी शक्तिके अनुसार बीस पलसे कुछ अधिक चाँदीद्वारा पर्वतका निर्माण कराना चाहिये। उसी प्रकार प्रधान पर्वतके चतुर्थांशसे विष्कम्भपर्वतोंकी भी कल्पना करनेका विधान है। पहलेकी तरह चाँदीके द्वारा मन्दर आदि पर्वतोंका निर्माण कर उनके नितम्बभागको सोनेसे सुशोभित कर दे। उनपर लोकपालोंकी स्वर्णमयी मूर्ति स्थापित कर उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और सूर्यकी मूर्तियोंसे भी संयुक्त कर दे। तत्पश्चात् बुद्धिमान् दाता इन सबकी विधिपूर्वक अर्चना करे। सारांश यह है कि अन्य पर्वतोंमें जो उपकरण चाँदीके होते हैं, वे सभी इसमें सुवर्णके होने चाहिये।
शेष हवन, जागरण आदि सारे कार्य धान्यपर्वतकी भाँति ही करे। तत्पश्चात् प्रातःकाल वस्त्र और आभूषण आदिके द्वारा गुरु और ऋत्विजोंका पूजन कर रजताचल गुरुको और विष्कम्भपर्वत ऋत्विजोंको दान कर दे। उस समय मत्सररहित हो हाथमें कुश लेकर इस मन्त्रका पाठ करे- 'रजताचल! तुम पितरोंको तथा श्रीहरि, सूर्य, इन्द्र और शिवको परम प्रिय हो, इसलिये शोकरूपी संसार-सागरसे मेरी रक्षा करो।' जो मानव इस प्रकार निवेदन कर श्रेष्ठ रजताचलका दान करता है, वह दस हजार गो-दानका फल प्राप्त करता है। वह विद्वान् चन्द्रलोकमें गन्धवों, किन्नरों और अप्सराओंके समूहोंसे पूजित होकर प्रलयकालतक निवास करता है॥ १-१०॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे रौप्याचलकीर्तनं नामैकनवतितमोऽध्यायः ॥ ९१ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें रौप्याचलकीर्तन नामक इक्यानबेवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ९१ ॥

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