साठ व्रतों का विधान और माहात्म्य | saath vraton ka vidhaan aur maahaatmy |

मत्स्य पुराण एक सौ एकवाँ अध्याय

साठ व्रतों का विधान और माहात्म्य

नन्दिकेश्वर उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि व्रतषष्टिमनुत्तमाम्। 
रुद्रेणाभिहितां दिव्यां महापातकनाशिनीम् ॥ १

नन्दिकेश्वर बोले- नारदजी। अब मैं उन साठ सर्वोत्तम व्रतोंका वर्णन कर रहा हूँ, जो साक्षात् शंकरजीद्वारा कथित, दिव्य एवं महापातकोंके विनाशक हैं। १

नक्तमब्दं चरित्वा तु गवा सार्धं कुटुम्बिने। 
हैमं चक्रं त्रिशूलं च दद्याद् विप्राय वाससी ॥। २

शिवरूपस्ततोऽस्माभिः शिवलोके स मोदते। 
एतद्देवव्रतं नाम महापातकनाशनम् ॥ ३

यस्त्वेकभक्तेन क्षिपेत् समो हैमवृषान्वितम्।
धेनुं तिलमयीं दद्यात् स पदं याति शाङ्करम्। 
एतद् रुद्रव्रतं नाम पापशोकविनाशनम् ॥ ४

यस्तु नीलोत्पलं हैमं शर्करापात्रसंयुतम् । 
स वैष्णवं पदं याति नीलव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ५

एकान्तरितनक्ताशी समान्ते वृषसंयुतम्
आषाढादिचतुर्मासमभ्यङ्गं वर्जयेन्नरः ।
भोजनोपस्करं दद्यात् स याति भवनं हरेः।
जनप्रीतिकरं नृणां प्रीतिव्रतमिहोच्यते ॥ ६

वर्जयित्वा मधौ यस्तु दधिक्षीरघृतैक्षवम्। 
दद्याद् वस्त्राणि सूक्ष्माणि रसपात्रैश्च संयुतम् ॥ ७

सम्पूज्य विप्रमिथुनं गौरी मे प्रीयतामिति। 
एतद् गौरीव्रतं नाम भवानीलोकदायकम् ॥ ८

जो मनुष्य एक वर्षतक रात्रिमें एक बार भोजन कर स्वर्णनिर्मित चक्र और त्रिशूल तथा दो वस्त्र गौके साथ कुटुम्बी ब्राह्मणको दान करता है, वह शिवस्वरूप होकर शिवलोकमें हमलोगोंके साथ आनन्द मनाता है। यह महापातकोंका विनाश करनेवाला 'देवव्रत' है। जो मनुष्य एक वर्षतक दिनमें एक बार भोजन कर स्वर्णनिर्मित वृषसहित तिलमयी धेनुका दान करता है, वह शिवलोकको प्राप्त होता है। यह पाप एवं शोकका क्षयकारक 'रुद्रव्रत' है।जो मनुष्य एक दिनके अन्तरसे रातमें एक बार भोजन करके वर्षकी समाप्तिके अवसरपर शक्करसे पूर्ण पात्रसहित स्वर्णनिर्मित नील कमलको वृषभके साथ दान करता है वह विष्णुलोकको जाता है; यह 'नीलव्रत' कहा जाता है। जो मनुष्य आषाढ़से लेकर चार मासतक शरीरमें तेल नहीं लगाता और भोजनकी सामग्री दान करता है वह श्रीहरिके लोकको जाता है। इस लोकमें यह मनुष्योंमें प्रत्येक व्यक्तिको प्रिय लगनेवाला 'प्रीतिव्रत' नामसे कहा जाता है। जो मनुष्य चैत्रमासमें दही, दूध, घी और शक्करका त्याग कर देता है और 'गौरी मुझपर प्रसन हों'- इस भावनासे ब्राह्मण दम्पतिकी भलीभाँति पूजा करके रसपूर्ण पात्रोंके साथ महीन वस्त्रोंका दान करता है (वह गौरीलोकमें जाता है)। गौरीलोककी प्राप्ति करानेवाला यह 'गौरीव्रत' है॥ -८ ॥

पुष्यादौ यत्त्रयोदश्यां कृत्वा नक्तमथो पुनः । 
अशोकं काञ्चनं दद्यादिक्षुयुक्तं दशाङ्गुलम् ॥ ९

विप्राय वस्त्रसंयुक्तं प्रद्युम्नः प्रीयतामिति।
कल्पं विष्णुपदे स्थित्वा विशोकः स्यात् पुनर्नरः । 
एतत् कामव्रतं नाम सदा शोकविनाशनम् ॥ १०

आषाढादिव्रतं यस्तु वर्जयेन्नखकर्तनम् । 
वार्त्ताकं च चतुर्मासं मधुसर्पिर्घटान्वितम् ॥ ११

कार्तिक्यां तत्पुनर्व्हेमं ब्राह्मणाय निवेदयेत्। 
स रुद्रलोकमाप्नोति शिवव्रतमिदं स्मृतम् ॥ १२

वर्जयेद् यस्तु पुष्पाणि हेमन्तशिशिरावृतू । 
पुष्पत्रयं च फाल्गुन्यां कृत्वा शक्त्या च काञ्चनम् ।। १३

दद्याद् विकालवेलायां प्रीयेतां शिवकेशवी। 
दत्त्वा परं पदं याति सौम्यव्रतमिदं स्मृतम् ॥ १४

फाल्गुन्यादितृतीयायां लवणं यस्तु वर्जयेत्। 
समान्ते शयनं दद्याद् गृहं चोपस्करान्वितम् ॥ १५

सम्पूज्य विप्रमिथुनं भवानी प्रीयतामिति। 
गौरीलोके वसेत् कल्पं सौभाग्यव्रतमुच्यते ॥ १६

संध्यामौनं नरः कृत्वा समान्ते घृतकुम्भकम्। 
वस्त्रयुग्मं तिलान् घण्टां ब्राह्मणाय निवेदयेत् ॥ १७

सारस्वतं पदं याति पुनरावृत्तिदुर्लभम् । 
एतत् सारस्वतं नाम रूपविद्याप्रदं व्रतम् ॥ १८

पुनः जो मनुष्य पुष्यनक्षत्रसे युक्त त्रयोदशी तिथिको रातमें एक बार भोजन कर (दूसरे दिन) दस अङ्गुल लम्बा सोनेका अशोक वृक्ष बनवाकर उसे वस्त्र और गन्नेके साथ 'प्रद्युम्न मुझपर प्रसन्न हों' इस भावनासे ब्राह्मणको दान करता है, वह एक कल्पतक विष्णुलोकमें निवास करके पुनः शोकरहित हो जाता है। सदा शोकका विनाश करनेवाला यह 'कामव्रत' है। जो मनुष्य चौमासेमें- आषाढ़ पूर्णिमासे लेकर कार्तिकतक नख (बाल) नहीं कटवाता और भाँटा नहीं खाता, पुनः कार्तिकी पूर्णिमाको मधु और घीसे भरे हुए घड़ेके साथ स्वर्णनिर्मित भाँटा ब्राह्मणको दान करता है वह रुद्रलोकको प्राप्त होता है। इसे 'शिवव्रत' कहा जाता है। 

जो मनुष्य हेमन्त और शिशिर ऋतुओंमें पुष्पोंको काममें नहीं लेता और फाल्गुनमासकी पूर्णिमा तिथिको अपनी शक्तिके अनुकूल सोनेके तीन पुष्प बनवाकर उन्हें सायंकालमें 'भगवान् शिव और केशव मुझपर प्रसन्न हों'- इस भावनासे दान करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है। यह 'सौम्यव्रत' कहलाता है। जो मनुष्य फाल्गुनमासकी आदि तृतीया तिथिको नमक खाना छोड़ देता है तथा वर्षान्तके दिन 'भवानी मुझपर प्रसन्न हों'- इस भावनासे द्विज-दम्पतिकी भलीभाँति पूजा करके गृहस्थीके उपकरणोंसे युक्त गृह और शय्या दान करता है, वह एक कल्पतक गौरीलोकमें निवास करता है। इसे 'सौभाग्यव्रत' कहा जाता है। जो मनुष्य संध्याकी वेलामें मौन रहनेका नियम पालन कर वर्षकी समाप्तिमें घृतपूर्ण घट, दो वस्त्र, तिल और घंटा ब्राह्मणको दान करता है, वह पुनरागमनरहित सारस्वत पदको प्राप्त होता है। सौन्दर्य और विद्या प्रदान करनेवाला यह 'सारस्वत' नामक व्रत है ॥ ९-१८॥

लक्ष्मीमभ्यर्च्य पञ्चम्यामुपवासी भवेन्नरः ।
समान्ते हेमकमलं दद्याद् धेनुसमन्वितम् ॥ १९

स वैष्णवं पदं याति लक्ष्मीवान् जन्मजन्मनि ।
एतत् सम्पद्वतं नाम दुःखशोकविनाशनम् ॥ २०

कृत्वोपलेपनं शम्भोरग्रतः केशवस्य च।
यावदब्दं पुनर्दद्याद् धेनुं जलघटान्विताम् ॥ २१

जन्मायुतं स राजा स्यात् ततः शिवपुरं व्रजेत् ।
एतदायुव्रतं नाम सर्वकामप्रदायकम् ॥ २२

अश्वत्थं भास्करं गङ्गां प्रणम्यैकत्र वाग्यतः ।
एकभक्तं नरः कुर्यादब्दमेकं विमत्सरः ॥ २३

व्रतान्ते विप्रमिथुनं पूज्यं धेनुत्रयान्वितम् ।
वृक्षं हिरण्मयं दद्यात् सोऽश्वमेधफलं लभेत्। 
एतत् कीर्तिव्रतं नाम भूतिकीर्तिफलप्रदम् ॥ २४

घृतेन स्त्रपनं कुर्याच्छम्भोर्वा केशवस्य च।
अक्षताभिः सपुष्पाभिः कृत्वा गोमयमण्डलम् ॥ २५

तिलधेनुसमोपेतं समान्ते हेमपङ्कजम् ।
शुद्धमष्टाङ्गुलं दद्याच्छिवलोके महीयते।
सामगाय ततश्चैतत् सामव्रतमिहोच्यते ॥ २६

जो मनुष्य पञ्चमी तिथिको निराहार रहकर लक्ष्मीकी पूजा करता है और वर्षकी समासिके दिन गौके साथ स्वर्ण-निर्मित कमलका दान करता है, वह विष्णुलोकको जाता है और प्रत्येक जन्ममें लक्ष्मीसे सम्पन्न रहता है। यह 'सम्पद्वत' है, जो दुःख और शोकका विनाश करनेवाला है। जो मनुष्य एक वर्षतक भगवान् शिव और केशवकी मूर्तिके सामनेकी भूमिको लीपकर वहाँ जलपूर्ण घटसहित गौका दान करता है, वह दस हजार वर्षीतक राजा होता है और मरणोपरान्त शिवलोकमें जाता है। यह 'आयुव्रत' है, जो सभी मनोरथोंको सिद्ध करनेवाला है। जो मनुष्य एक वर्षतक मत्सरहित हो दिनमें एक बार भोजन कर मौन धारणपूर्वक एक ही स्थानपर पीपल, सूर्य और गङ्गाको प्रणाम करता है तथा व्रतकी समाप्तिमें पूजनीय ब्राह्मण दम्पतिको तीन गौओंके साथ स्वर्णनिर्मित वृक्षका दान करता है, उसे अश्वमेध- यज्ञके फलको प्राप्ति होती है। यह 'कीर्तिव्रत' है, जो वैभव और कीर्तिरूपी फलका प्रदाता है। जो मनुष्य एक वर्षतक गोबरसे मण्डल बनाकर वहाँ भगवान् शिव अथवा केशवको घीसे खान कराकर पुष्प, अक्षत आदिसे पूजा करता है और वर्षान्तमें तिल धेनुसहित आठ अङ्गुल लम्बा शुद्ध स्वर्णनिर्मित कमल सामवेदी ब्राह्मणको दान करता है, वह शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसे इस लोकमें 'सामव्रत' कहा जाता है॥१९-२६ ॥

नवम्यामेकभक्तं तु कृत्वा कन्याश्च शक्तितः ।
भोजयित्वाऽऽसनं दद्याद्वैमकञ्चुकवाससी ॥ २७

हैमं सिंहं च विप्राय दत्त्वा शिवपदं व्रजेत्।
जन्मार्बुदं सुरूपः स्याच्छत्रुभिश्चापराजितः । 
एतद् वीरव्रतं नाम नारीणां च सुखप्रदम् ॥ २८

यावत्समा भवेद् यस्तु पञ्चदश्यां पयोव्रतः ।
समान्ते श्राद्धकृद् दद्यात् पञ्च गास्तु पयस्विनीः ॥ २९

वासांसि च पिशङ्गानि जलकुम्भयुतानि च।
स याति वैष्णवं लोकं पितॄणां तारयेच्छतम् ।
कल्पान्ते राजराजः स्यात् पितृव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ३०

चैत्रादिचतुरो मासान् जलं दद्यादयाचितम्।
व्रतान्ते माणिकं दद्यादन्नवस्त्रसमन्वितम् ।। ३१

तिलपात्रं हिरण्यं च ब्रह्मलोके महीयते।
कल्पान्ते भूपतिर्नूनमानन्दव्रतमुच्यते ॥ ३२

जो मनुष्य नवमी तिथिको दिनमें एक बार भोजन करके अपनी शक्तिके अनुसार कन्याओंको भोजन कराकर उन्हें आसन और सोनेके तारोंसे खचित चोली एवं साड़ी तथा ब्राह्मणको स्वर्णनिर्मित सिंह दान करता है, वह शिवलोकमें जाता है और एक अरब जन्मोंतक सौन्दर्यसम्पन्न एवं शत्रुओंके लिये अजेय हो जाता है। यह 'बीरव्रत' है, जो नारियोंके लिये सुखदायक है। जो मनुष्य एक वर्षतक पूर्णिमा तिथिको केवल दूध पीकर व्रत करता है और वर्षकी समाप्तिके दिन श्राद्ध करके लालिमायुक्त भूरे रंगके वस्त्र और जलपूर्ण घंटोंके साथ पाँच दुधारू गायें दान करता है, वह विष्णुलोकको जाता है और अपने सौ पीढ़ीतकके पितरोंको तार देता है। पुनः एक कल्प व्यतीत होनेपर वह भूतलपर राजराजेश्वर होता है। यह 'पितृव्रत' कहलाता है। जो मनुष्य चैत्रसे आरम्भ कर चार मासतक बिना याचना किये जलका दान देता है अर्थात् पीसला चलाता है तथा व्रतके अन्तमें अन्न एवं वस्त्रसे युक्त मिट्टीका घड़ा, तिलसे भरा पात्र और सुवर्णका दान करता है, वह ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। एक कल्पके व्यतीत होनेपर वह निश्चय ही भूपाल होता है। यह 'आनन्दव्रत' कहा जाता है ॥ २७-३२॥

पञ्चामृतेन स्त्रपनं कृत्वा संवत्सरं विभोः ।
वत्सरान्ते पुनर्दद्याद् धेनुं पञ्चामृतेन हि ॥ ३३

विप्राय दद्याच्छद्धं च स पदं याति शाङ्करम् । 
राजा भवति कल्पान्ते धृतिव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ३४

वर्जयित्वा पुमान् मांसमब्दान्ते गोप्रदो भवेत्।
तद्वद्धेममृगं दद्यात् सोऽश्वमेधफलं लभेत्। 
अहिंसाव्रतमित्युक्तं कल्पान्ते भूपतिर्भवेत् ॥ ३५

माघमास्युषसि स्त्रानं कृत्वा दाम्पत्यमर्चयेत्।
भोजयित्वा यथाशक्त्या माल्यवस्त्रविभूषणैः ।
सूर्यलोके वसेत् कल्पं सूर्यव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ३६

आषाढादि चतुर्मासं प्रातःस्त्रायी भवेन्नरः ।
विप्रेभ्यो भोजनं दद्यात् कार्तिक्यां गोप्रदो भवेत्। 
स वैष्णवं पदं याति विष्णुव्रतमिदं शुभम् ॥ ३७

अयनादयनं यावद् वर्जयेत् पुष्पसर्पिषी। 
तदन्ते पुष्पदामानि घृतधेन्वा सहैव तु ॥ ३८

दत्त्वा शिवपदं गच्छेद् विप्राय घृतपायसम् ।
एतच्छीलव्रतं नाम शीलारोग्यफलप्रदम् ॥ ३९

संध्यादीपप्रदो यस्तु घृतं तैलं विवर्जयेत् । 
समान्ते दीपिकां दद्याच्चक्रशूले च काञ्चने ॥ ४०

वस्त्रयुग्मं च विप्राय तेजस्वी स भवेदिह।
रुद्रलोकमवाप्नोति दीप्तिव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ४१

जो एक वर्षतक पञ्चामृत (दूध, दही, घी, मधु, शक्कर) से भगवान्‌की मूर्तिको स्रान कराता है, पुनः वर्षान्तमें पञ्चामृतसहित गौ और शङ्ख ब्राह्मणको दान करता है, वह शिवलोकमें जाता है और एक कल्पके बाद भूतलपर राजा होता है। यह 'धृतिव्रत' कहा जाता है। जो मनुष्य एक वर्षतक मांस खाना छोड़कर वर्षान्तमें गौ दान करता है तथा उसके साथ स्वर्णनिर्मित मृग भी देता है, वह अश्वमेधयज्ञके फलका भागी होता है और कल्पान्तमें राजा होता है। यह 'अहिंसाव्रत' कहलाता है। जो मनुष्य माघमासमें ब्राह्मवेलामें स्नान कर अपनी शक्तिके अनुसार एक द्विज-दम्पतिको भोजन कराकर पुष्पमाला, वस्त्र और आभूषण आदिसे उनकी पूजा करता है, वह एक कल्पतक सूर्यलोकमें निवास करता है। यह 'सूर्यव्रत' कहा जाता है। जो मनुष्य आषाढ़से आरम्भकर चार महीनेतक नित्य प्रातः काल स्नान करता है और ब्राह्मणोंको भोजन देता है तथा कार्तिकी पूर्णिमाको गो-दान करता है, वह विष्णुलोकको जाता है। यह मङ्गलमय 'विष्णुव्रत' है। जो मनुष्य एक अयनसे दूसरे अयनतक (उत्तरायणसे दक्षिणायन अथवा दक्षिणायनसे उत्तरायणतक) पुष्प और घीका त्याग कर देता है और व्रतान्तके दिन घृत, धेनुसहित पुष्पोंकी मालाएँ एवं घी और दूधसे बने हुए खाद्य पदार्थ ब्राह्मणको दान करता है, वह शिवलोकको जाता है। यह 'शीलव्रत' है, जो सुशीलता एवं नीरोगतारूप फल प्रदान करता है। जो एक वर्षतक नित्य सायंकाल दीप- दान करता है और तेल-घी खाना छोड़ देता है, पुनः वर्षान्तमें ब्राह्मणको स्वर्णनिर्मित चक्र, त्रिशूल और दो वस्त्रके साथ दीपकका दान देता है, वह इस लोकमें तेजस्वी होता है और मरणोपरान्त रुद्रलोकको प्राप्त होता है। यह 'दीप्तिव्रत' कहलाता है ॥ ३३-४१ ॥




कार्तिक्यादितृतीयायां प्राश्य गोमूत्रयावकम्। 
नक्तं चरेदब्दमेकमब्दान्ते गोप्रदो भवेत् ॥ ४२
गौरीलोके वसेत् कल्पं ततो राजा भवेदिह।
एतद् रुद्रव्रतं नाम सदा कल्याणकारकम् ॥ ४३

जो एक वर्षतक कार्तिकमाससे प्रारम्भ कर तृतीया तिथिको गोमूत्र एवं जौसे बने हुए खाद्य पदार्थोंको खाकर नक्तव्रतका पालन करता है और वर्षान्तमें गोदान करता है, वह एक कल्पतक गौरीलोकमें निवास करता है और (पुण्य क्षीण होनेपर) भूतलपर राजा होता है। यह 'रुद्रव्रत' है जो सदाके लिये कल्याणकारी है। जो चैत्रमासमें सुगन्धित वस्तुओंका अनुलेपन छोड़ देता है अर्थात् शरीरमें सुगन्धित पदार्थ नहीं लगाता और व्रतान्तमें ब्राह्मणको दो श्वेत वस्त्रोंके साथ गन्धधारियोंकी शुक्ति (गन्धद्रव्यविशेष) का दान करता है वह वरुणलोकको प्राप्त होता है। यह 'दृढव्रत' कहलाता है। जो वैशाख- मासमें पुष्प और नमकका परित्याग कर व्रतान्तमें गोदान करता है वह एक कल्पतक विष्णुलोकमें निवास करके (पुण्य क्षीण होनेपर) इस लोकमें राजा होता है। यह कान्तिव्रत' है, जो कान्ति और कीर्तिरूपी फलका प्रदाता है। जो किसी पुण्यप्रद दिनमें अपनी शक्तिके अनुसार तीन पलसे अधिक सोनेका ब्रह्माण्ड बनवाकर तिलकी राशिपर स्थापित कर देता है और तीन दिनतक ब्राह्मणसहित अग्रिको संतुष्ट करके तिलका दान देता रहता है, पुनः चौथे दिन एक विप्र दम्पतिकी पुष्पमाला, वस्त्र और आभूषण आदिसे विधिपूर्वक पूजा करके 'विश्वात्मा मुझपर प्रसन्न हों' इस भावनासे वह ब्रह्माण्ड दान कर देता है, वह पुनर्जन्मरहित परब्रह्मको प्राप्त हो जाता है। यह' ब्रह्मव्रत' है, जो मोक्षपदका दाता है। जो दिनभर पयोव्रतका पालन (दूधका आहार) करके अधिक-से-अधिक सोनेकी बनी हुई उभयमुखी (दो मुखवाली अथवा सवत्सा) गौका दान करता है, वह पुनरागमनरहित परमपदको प्राप्त हो जाता है। यह 'धेनुव्रत' है। जो तीन दिनतक पयोव्रतका पालन करके अपनी शक्तिके अनुसार एक पलसे अधिक सोनेका कल्पवृक्ष बनवाकर उसे चावलको राशिपर स्थापित करके दान कर देता है वह ब्रह्मपदको प्राप्त हो जाता है। इसे 'कल्पव्रत' कहा जाता है। जो एक मासतक निराहार रहकर ब्राह्मणको सुन्दर गौका दान करता है वह विष्णुलोकको जाता है। यह 'भीमव्रत' कहलाता है ॥ ४२-५१ ॥

दद्याद् विंशत्पलादूर्ध्व महीं कृत्वा तु काञ्चनीम्।
दिनं पयोव्रतस्तिष्ठेद् रुद्रलोके महीयते।
धराव्रतमिदं प्रोक्तं सप्तकल्पशतानुगम् ।। ५२

माघे मासेऽथवा चैत्रे गुडधेनुप्रदो भवेत्।
गुडव्रतस्तृतीयायां गौरीलोके महीयते।
महाव्रतमिदं नाम परमानन्दकारकम् ॥ ५३

पक्षोपवासी यो दद्याद् विप्राय कपिलाद्वयम् ।
ब्रह्मलोकमवाप्नोति देवासुरसुपूजितम्।
कल्पान्ते राजराजः स्यात् प्रभाव्रतमिदं स्मृतम् ।। ५४

वर्जयेच्चैत्रमासे च यश्च गन्धानुलेपनम्।
शुक्तिं गन्धभृतां दत्त्वा विप्राय सितवाससी।
वारुणं पदमाप्नोति दृढव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ४४

वैशाखे पुष्पलवणं वर्जयित्वाथ गोप्रदः ।
भूत्वा विष्णुपदे कल्पं स्थित्वा राजा भवेदिह।
एतत् कान्तिद्व्रतं नाम कान्तिकीर्तिफलप्रदम् ॥ ४५

ब्रह्माण्ड काञ्चनं कृत्वा तिलराशिसमन्वितम् ।
त्र्यहं तिलप्रदो भूत्वा वह्नि संतर्प्य सद्विजम् ॥ ४६

सम्पूज्य विप्रदाम्पत्यं माल्यवस्त्रविभूषणैः ।
शक्तितस्त्रिपलादूर्ध्व विश्वात्मा प्रीयतामिति ॥ ४७

पुण्येऽह्नि दद्यात् स परं ब्रह्म यात्यपुनर्भवम् ।
एतद् ब्रह्मव्रतं नाम निर्वाणपददायकम् ॥ ४८

यश्चोभयमुखीं दद्यात् प्रभूतकनकान्विताम्।
दिनं पयोव्रतस्तिष्ठेत् स याति परमं पदम् ।
एतद् धेनुव्रतं नाम पुनरावृत्तिदुर्लभम् ॥ ४९

त्र्यहं पयोव्रते स्थित्वा काञ्चनं कल्पपादपम्।
पलादूर्ध्वं यथाशक्त्या तण्डुलैस्तूपसंयुतम्।
दत्त्वा ब्रह्मपदं याति कल्पन्नतमिदं स्मृतम् ॥५०

मासोपवासी यो दद्याद् धेनुं विप्राय शोभनाम् ।
स वैष्णवं पदं याति भीमव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ५१

वत्सरं त्वेकभक्ताशी सभक्ष्यजलकुम्भदः ।
शिवलोके वसेत् कल्पं प्राप्तिव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ५५

नक्ताशी चाष्टमीषु स्याद् वत्सरान्ते च धेनुदः ।
पौरन्दरं पुरं याति सुगतिव्रतमुच्यते ॥ ५६

विप्रायेन्धनदो यस्तु वर्षादिचतुरो ऋतून् ।
घृतधेनुप्रदोऽन्ते च स परं ब्रह्म गच्छति।
वैश्वानरव्रतं नाम सर्वपापविनाशनम् ।। ५७

एकादश्यां च नक्ताशी यश्चक्रं विनिवेदयेत् ।
समान्ते वैष्णवं हैमं स विष्णोः पदमाप्नुयात्।
एतत् कृष्णव्रतं नाम कल्पान्ते राज्यभाग् भवेत् ॥ ५८

पायसाशी समान्ते तु दद्याद् विप्राय गोयुगम् ।
लक्ष्मीलोकमवाप्नोति ह्येतद् देवीव्रतं स्मृतम् ॥ ५९

सप्तम्यां नक्तभुग् दद्यात् समान्ते गां पयस्विनीम् ।
सूर्यलोकमवाप्नोति भानुव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ६०

चतुर्थ्यां नक्तभुग्दद्यादब्दान्ते हेमवारणम्।
व्रतं वैनायकं नाम शिवलोकफलप्रदम् ॥ ६१

महाफलानि यस्त्यक्त्वा चतुर्मासं द्विजातये।
हैमानि कार्तिके दद्याद् गोयुगेन समन्वितम्।
एतत् फलव्रतं नाम विष्णुलोकफलप्रदम् ॥ ६२

यश्चोपवासी सप्तम्यां समान्ते हेमपङ्कजम्।
गाश्च वै शक्तितो दद्याद्धेमान्नघटसंयुताः ।
एतत् सौरव्रतं नाम सूर्यलोकफलप्रदम् ॥ ६३

जो दिनभर पयोव्रतका पालन कर बीस पलसे अधिक सोनेसे पृथ्वीकी मूर्ति बनवाकर दान करता है, वह रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसे 'धराव्रत' कहते हैं, जो सात सौ कल्पोंतक दाताका अनुगमन करता रहता है। जो माघ अथवा चैत्रमासमें तृतीया तिथिको गुडव्रतका पालन कर गुडधेनुका दान करता है वह गौरीलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यह परमानन्द प्रदान करनेवाला 'महाव्रत' है। जो एक पक्षतक निराहार रहकर ब्राह्मणको दो कपिला गौका दान करता है वह देवताओं एवं असुरोंद्वारा सुपूजित ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है और एक कल्प बीतनेपर भूतलपर राजाधिराज होता है। इसे 'प्रभाव्रत' कहते हैं। जो एक वर्षतक दिनमें एक ही बार भोजन करके व्रतान्तमें खाद्य पदार्थोसहित जलपूर्ण घटका दान करता है, वह एक कल्पतक शिवलोकमें निवास करता है। इसे 'प्राप्तिव्रत' कहा जाता है। जो प्रत्येक मासकी अष्टमी तिथियोंमें रातमें एक बार भोजन करता है और वर्षके अन्तमें गोदान करता है, वह इन्द्रलोकमें जाता है। इसे 'सुगतिव्रत' कहा जाता है। जो वर्षा ऋतुसे लेकर चार ऋतुओंतक ब्राह्मणको ईंधनका दान देता है और व्रतान्तमें घृत-धेनु प्रदान करता है, वह परब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।

सम्पूर्ण पापोंका विनाश करनेवाला यह 'वैश्वानरव्रत' है। जो एकादशी तिथिको रातमें एक बार भोजन करते हुए वर्षके अन्तमें सोनेका विष्णु-चक्र बनवाकर दान करता है, वह विष्णुलोकको प्राप्त होता है और एक कल्पके बीतनेपर भूतलपर राज्यका भागी होता है। यह 'कृष्णव्रत' है। जो खीरका भोजन करते हुए वर्षके अन्तमें ब्राह्मणको दो गौ दान करता है, वह लक्ष्मीलोकको प्राप्त होता है। इसे 'देवीव्रत' कहा जाता है। जो सप्तमी तिथिको रातमें एक बार भोजन करते हुए वर्षकी समाप्तिमें दुधारू गौका दान करता है, वह सूर्यलोकको प्राप्त होता है। यह 'भानुव्रत' कहलाता है। जो चतुर्थी तिथिको रातमें एक बार भोजन करते हुए वर्षकी समाप्तिके अवसरपर सोनेका हाथी दान करता है, वह शिवलोकको प्राप्त होता है। शिवलोकरूप फल प्रदान करनेवाला यह 'विनायकव्रत' है। जो चौमासेमें (बेल, जामुन, बेर, कैथ और बीजपुर नीबू) इन पाँच महाफलोंका परित्याग कर कार्तिकमासमें सोनेसे इन फलोंका निर्माण कराकर दो गौओंक साथ दान करता है, वह विष्णुलोकको जाता है। विष्णुलोकरूप फल प्रदान करनेवाला यह 'फलव्रत' है। जो सप्तमी तिथिको निराहार रहते हुए वर्षके अन्तमें अपनी शक्तिके अनुसार स्वर्णनिर्मित कमल तथा सुवर्ण, अन्न और घटसहित गौओंका दान करता है, वह सूर्यलोकमें जाता है। सूर्यलोकरूप फलका प्रदाता यह 'सौरव्रत' है॥ ५२-६३॥

द्वादश द्वादशीर्यस्तु समाप्योपोषणेन च।
गोवस्त्रकाञ्चनैर्विप्रान् पूजयेच्छक्तितो नरः।
परमं पदमाप्नोति विष्णुव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ६४

कार्तिक्यां च वृषोत्सर्गं कृत्वा नक्तं समाचरेत्।
शैवं पदमवाप्नोति वार्षव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ६५

कृच्छ्रान्ते गोप्रदः कुर्याद् भोजनं शक्तितः पदम् ।
विप्राणां शाङ्करं याति प्राजापत्यमिदं व्रतम् ॥ ६६

चतुर्दश्यां तु नक्ताशी समान्ते गोधनप्रदः ।
शैवं पदमवाप्नोति त्रैयम्बकमिदं व्रतम् ॥ ६७

सप्तरात्रोषितो दद्याद् घृतकुम्भं द्विजातये।
घृतव्रतमिदं प्राहुर्ब्रह्मलोकफलप्रदम् ॥ ६८

आकाशशायी वर्षासु धेनुमन्ते पयस्विनीम्।
शक्रलोके वसेन्नित्यमिन्द्रव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ६९

अनग्निपक्वमश्नाति तृतीयायां तु यो नरः।
गां दत्त्वा शिवमभ्येति पुनरावृत्तिदुर्लभम् ।
इह चानन्दकृत् पुंसां श्रेयोव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ७०

हैमं पलद्वयादूर्ध्वं रथमश्वयुगान्वितम् ।
ददन् कृतोपवासः स्याद् दिवि कल्पशतं वसेत् ।
कल्पान्ते राजराजः स्यादश्वव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ७१

तद्वद्धेमरथं दद्यात् करिभ्यां संयुतं नरः।
सत्यलोके वसेत् कल्पं सहस्त्रमथ भूपतिः ।
भवेदुपोषितो भूत्वा करिव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ७२

उपवासं परित्यज्य समान्ते गोप्रदो भवेत्।
यक्षाधिपत्यमाप्नोति सुखव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ७३

निशि कृत्वा जले वासं प्रभाते गोप्रदो भवेत्।
वारुणं लोकमाप्नोति वरुणव्रतमुच्यते ॥ ७४

चान्द्रायणं च यः कुर्याद्धेमचन्द्रं निवेदयेत्।
चन्द्रव्रतमिदं प्रोक्तं चन्द्रलोकफलप्रदम् ॥ ७५

ज्येष्ठे पञ्चतपाः सायं हेमधेनुप्रदो दिवम्।
यात्यष्टमीचतुर्दश्यो रुद्रव्रतमिदं स्मृतम् ।। ७६

जो मनुष्य बारहों द्वादशियोंको उपवास करके यथाशक्ति गौ, वस्त्र और सुवर्णसे ब्राह्मणोंकी पूजा करता है, वह परमपदको प्राप्त हो जाता है। इसे 'विष्णुव्रत' कहा जाता है। जो कार्तिककी पूर्णिमा तिथिको वृषोत्सर्ग करके नक्तव्रतका पालन करता है, वह शिवलोकको प्राप्त होता है। यह 'वार्यव्रत' कहलाता है। जो कृच्छ्र-चान्द्रायण व्रतकी समाप्तिपर गोदान करके यथाशक्ति ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, वह शिवलोकको जाता है। यह 'प्राजापत्यव्रत' है। जो चतुर्दशी तिथिको रातमें एक बार भोजन करता है और वर्ष समाप्त होनेपर गोधनका दान करता है, वह शिवलोकको प्राप्त होता है। यह 'त्रैयम्बकव्रत है। जो सात राततक उपवास कर ब्राह्मणको घृतपूर्ण घटका दान करता है, वह ब्रह्मलोकमें जाता है। यह ब्रह्मलोकरूप फल प्रदान करनेवाला 'घृतव्रत' है। जो वर्षा त्रऋतुमें आकाशके नीचे (खुले मैदानमें) शयन करता है और व्रतान्तमें दुधारू गौका दान करता है, वह सदाके लिये इन्द्रलोकमें निवास करता है। इसे 'इन्द्रव्रत' कहा जाता है। जो मनुष्य तृतीया तिथिको बिना अग्रिमें पकाया हुआ पदार्थ भोजन करता है और व्रतान्तमें गौ-दान देता है, वह पुनरागमनरहित शिवलोकको प्राप्त होता है। मनुष्योंको इस लोकमें आनन्द प्रदान करने वाला यह' श्रेयोव्रत' कहलाता है।

जो निराहार रहकर दो पलसे अधिक सोनेसे दो घोड़ोंसे जुता हुआ रथ बनवाकर दान करता है. वह सौ कल्पोंतक स्वर्गलोकमें वास करता है और कल्पान्तमें भूतलपर राजाधिराज होता है। इसे 'अश्वव्रत' कहते हैं। इसी प्रकार जो मनुष्य निराहार रहकर दो हाथियोंसे जुता हुआ सोनेका रथ दान करता है, वह एक हजार कल्पोंतक सत्यलोकमें निवास करता है और (पुण्य- क्षीण होनेपर भूतलपर) राजा होता है। यह 'करिव्रत' कहलाता है। इसी प्रकार जो मनुष्य वर्षके अन्तमें उपवासका परित्याग कर गोदान करता है, वह यक्षोंका अधीश्वर होता है। इसे 'सुखव्रत' कहा जाता है। जो रातभर जलमें निवास कर प्रातःकाल गोदान करता है, वह वरुणलोकको प्राप्त करता है। इसे 'वरुणव्रत' कहते हैं। जो मनुष्य चान्द्रायण- व्रतका अनुष्ठान कर स्वर्णनिर्मित चन्द्रमाका दान करता है, वह चन्द्रलोकको जाता है। चन्द्रलोकरूप फलका प्रदाता यह 'चन्द्रव्रत' कहलाता है। जो ज्येष्ठमासकी अष्टमी तथा चतुर्दशी तिथियोंमें पञ्चाग्नि तपकर सार्यकाल स्वर्णनिर्मित गौका दान करता है, वह स्वर्गलोकको जाता है। यह 'रुद्रव्रत' नामसे विख्यात है॥ ६४-७६ ॥

सकृद् वितानकं कुर्यात् तृतीयायां शिवालये।
समान्ते धेनुदो याति भवानीव्रतमुच्यते ॥ ७७

माघे निश्यार्द्रवासाः स्यात् सप्तम्यां गोप्रदो भवेत्।
दिवि कल्पमुषित्वेह राजा स्यात् पवनं व्रतम् ॥ ७८

त्रिरात्रोपोषितो दद्यात् फाल्गुन्यां भवनं शुभम् । 
आदित्यलोकमाप्नोति धामव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ७९

त्रिसंध्यं पूज्य दाम्पत्यमुपवासी विभूषणैः । 
अन्नं गाश्च समाप्नोति मोक्षमिन्द्रव्रतादिह ।। ८०

दत्त्वा सितद्वितीयायामिन्दोर्लवणभाजनम् । 
समान्ते गोप्रदो याति विप्राय शिवमन्दिरम् । 
कल्पान्ते राजराजः स्यात् सोमव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ८१

प्रतिपद्येकभक्ताशी समान्ते कपिलाप्रदः ।
वैश्वानरपदं याति शिवव्रतमिदं स्मृतम् ॥ ८२

दशम्यामेकभक्ताशी समान्ते दशधेनुदः ।
दिशश्च काञ्चनैर्दद्याद् ब्रह्माण्डाधिपतिर्भवेत् । 
एतद् विश्वव्रतं नाम महापातकनाशनम् ॥ ८३

यः पठेच्छृणुयाद् वापि व्रतषष्टिमनुत्तमाम्। 
मन्वन्तरशतं सोऽपि गन्धर्वाधिपतिर्भवेत् ॥ ८४

षष्टिव्रतं नारद पुण्यमेतत् तवोदितं विश्वजनीनमन्यत् ।
श्रोतुं तवेच्छा तदुदीरयामि प्रियेषु किं वाकथनीयमस्ति ।। ८५

जो तृतीया तिथिको शिवालयमें एक बार चंदोवा या चाँदनी लगा देता है और वर्षके अन्तमें गोदान करता है, वह भवानीलोकको जाता है। इसे 'भवानीव्रत' कहते हैं। जो माघमासमें सप्तमी तिथिको रातभर गीला वस्त्र धारण किये रहता है और प्रातःकाल गौका दान करता है, वह एक कल्पतक स्वर्गमें निवास करके भूतलपर राजा होता है। 'यह पवनव्रत' है। जो तीन राततक उपवास करके फाल्गुनमासकी पूर्णिमा तिथिको सुन्दर गृह दान करता है, वह सूर्यलोकको प्राप्त होता है। यह 'धामव्रत' नामसे प्रसिद्ध है। जो निराहार रहकर तीनों (प्रातः, मध्याह्न, सायं) संध्याओंमें आभूषणोंद्वारा ब्राह्मण-दम्पतिकी पूजा करता है, उसे इस लोकमें इन्द्रव्रतसे भी बढ़कर अधिक मात्रामें अत्र एवं गोधनकी प्राप्ति होती है तथा अन्तमें वह मोक्षलाभ करता है। जो शुक्लपक्षकी द्वितीया तिथिको चन्द्रमाके उद्देश्यसे नमकसे परिपूर्ण पात्र ब्राह्मणको दान करता है 

और वर्षकी समाप्तिमें गोदान देता है, वह शिवलोकको जाता है और एक कल्प व्यतीत होनेपर भूतलपर राजराजेश्वर होता है। यह 'सोमव्रत' नामसे विख्यात है। जो प्रतिपदा तिथिको दिनमें एक बार भोजन करता है और वर्षान्तमें कपिला गौका दान देता है, वह वैश्वानरलोकको जाता है। इसे 'शिवव्रत' कहते हैं। जो दशमी तिथिको दिनमें एक बार भोजन करता है और वर्षकी समाप्तिके अवसरपर स्वर्णनिर्मित दसों दिशाओंकी प्रतिमाके साथ दस गायें दान करता है वह ब्रह्माण्डका अधीश्वर होता है। यह 'विश्वव्रत' है जो महापातकोंका विनाशक है। जो इस सर्वोत्तम 'षष्टिव्रत' (६० व्रतोंकी चर्चा) को पढ़ता अथवा श्रवण करता है, वह भी सौ मन्वन्तर्तक गन्धर्वलोकका अधिपति होता है। नारद! यह पष्टिव्रतं परम पुण्यप्रद और सभी जीवोंके लिये लाभदायक है, मैंने आपसे इसका वर्णन कर दिया। अब यदि आपकी और भी कुछ सुननेकी इच्छा हो तो मैं उसका वर्णन करूँगा क्योंकि प्रियजनोंके प्रति भला कौन-सी वस्तु अकथनीय हो सकती है॥ ७७-८५॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे षष्टिवतमाहात्म्यं नामैकाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०१ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें पष्टिव्रतमाहात्म्य नामक एक सौ एकयाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १०१ ॥

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