शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीप का वर्णन | shakadvip, kushadvip, kraunchadvip aura shalmal dvip ka varnan |

मत्स्य पुराण एक सौ बाईसवाँ अध्याय

शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीप का वर्णन

सूत उवाच

शाकद्वीपस्य वक्ष्यामि यथावदिह निश्चयम्।
कथ्यमानं निबोधध्वं शाकं द्वीपं द्विजोत्तमाः ॥ १

सूतजी कहते हैं-द्विजवरी! अब मैं शाकद्वीपका निश्चितरूपसे यथार्थ वर्णन कर रहा हूँ। आपलोग मेरे कथनानुसार शाकद्वीपके विषयमें जानकारी प्राप्त करें। १

जम्बूद्वीपस्य विस्ताराद् द्विगुणस्तस्य विस्तरः ।
विस्तारात् त्रिगुणश्चापि परिणाहः समन्ततः ॥ २

तेनावृतः समुद्रोऽयं द्वीपेन लवणोदधिः । 
तत्र पुण्या जनपदाश्चिराच्च प्रियते जनः ॥ ३

कुत एव च दुर्भिक्षं क्षमातेजोयुतेष्विह । 
तत्रापि पर्वताः शुभाः सप्तैव मणिभूषिताः ॥ ४

शाकद्वीपादिषु त्वेषु सप्त सप्त नगास्त्रिषु ।
शाकद्वीपादिषु त्वेषु सप्त सप्त नगास्त्रिषु ।
ऋज्वायताः प्रतिदिशं निविष्टा वर्षपर्वताः ॥ ५

रत्नाकराद्रिनामानः सानुमन्तो महाचिताः ।
समोदिताः प्रतिदिशं द्वीपविस्तारमानतः ॥ ६

उभयत्रावगाढौ च लवणक्षीरसागरौ।
शाकद्वीपे तु वक्ष्यामि सप्त दिव्यान् महाचलान् ॥ ७

देवर्षिगन्धर्वयुतः प्रथमो मेरुरुच्यते।
प्रागायतः स सौवर्ण उदयो नाम पर्वतः ॥ ८

तत्र मेघास्तु वृष्ट्यर्थं प्रभवन्त्यपयान्ति च। 
तस्थापरेण सुमहाञ्जलधारो महागिरिः ॥ ९

स वै चन्द्रः समाख्यातः सर्वोषधिसमन्वितः । 
तस्मान्नित्यमुपादत्ते वासवः परमं जलम् ॥ १०

शाकद्वीप का विस्तार जम्बूद्वीप के विस्तार से दुगुना है और चारों ओरसे उसका फैलाव विस्तार से भी तिगुना है। उस द्वीपसे यह लवणसागर घिरा हुआ है। शाकद्वीपमें अनेकों पुण्यमय जनपद हैं। वहाँके निवासी लम्बी आयु भोग कर मरते हैं। भला, उन क्षमाशील एवं तेजस्वी जनोंके प्रति दुर्भिक्षकी सम्भावना कहाँसे हो सकती है। इस द्वीपमें भी मणियोंसे विभूषित श्वेत रंगके सात पर्वत हैं। शाकद्वीप आदि तीन द्वीपोंमें सात-सात पर्वत हैं, जो चारों दिशाओंमें सीधे फैले हुए हैं। ये ही वहाँ वर्षपर्वत कहलाते हैं। ये रत्नाकराद्रि नामवाले वर्षपर्वत ऊँचे शिखरोंसे युक्त तथा वृक्षोंसे सम्पन्न हैं। ये द्वीप विस्तारके परिमाणकी समानतामें चारों दिशाओंमें फैले हुए हैं और एक और क्षीरसागरतक तथा दूसरी ओर लवणसागरतक पहुँच गये हैं। अब मैं शाकद्वीपके सातों दिव्य महापर्वतोंका वर्णन कर रहा हूँ। उनमें पहला पर्वत मेरु कहा जाता है, जो देवो, ऋषियों और गन्धर्वोसे सुसेवित है। वह स्वर्णमय पर्वत पूर्व दिशामें फैला हुआ है। उसका दूसरा नाम 'उदयगिरि' है। वहाँ मेघगण वृष्टि करनेके लिये आते हैं और (जल बरसाकर) चले जाते हैं। उसके पार्श्वभागमें सम्पूर्ण ओषधियोंसे सम्पन जलधार नामक अत्यन्त विशाल पर्वत है। वह चन्द्र नामसे भी विख्यात है। उसी पर्वतसे इन्द्र नित्य अधिक-से-अधिक जल ग्रहण करते हैं ॥२-१०॥

नारदो नाम चैवोक्तो दुर्गशैलो महाचितः । 
तत्राचलौ समुत्पन्नौ पूर्व नारदपर्वतौ ॥ ११

तस्यापरेण सुमहाश्यामो नाम महागिरिः । 
यत्र श्यामत्वमापन्नाः प्रजाः पूर्वमिमाः किल ॥ १२

स एव दुन्दुभिर्नाम श्यामपर्वतसंनिभः । 
शब्दमृत्युः पुरा तस्मिन् दुन्दुभिस्ताडितः सुरैः ॥ १३

रत्नमालान्तरमयः शाल्मलश्चान्तरालकृत्। 
तस्यापरेण रजतो महानस्तो गिरिः स्मृतः ॥ १४

स वै सोमक इत्युक्तो देवैर्यत्रामृतं पुरा। 
सम्भृतं च हृतं चैव मातुरर्थे गरुत्मता ॥ १५

तस्यापरे चाम्बिकेयः सुमनाश्चैव स स्मृतः । 
हिरण्याक्षो वराहेण तस्मिशैले निघूदितः ॥ १६

आम्बिकेयात् परो रम्यः सर्वोषधिनिषेवितः ।
विभ्राजस्तु समाख्यातः स्फाटिकस्तु महान् ‌गिरिः ।। १७

यस्माद् विभ्राजते वह्निर्विभ्राजस्तेन स स्मृतः ।
सैवेह केशवेत्युक्तो यतो वायुः प्रवाति च ॥ १८

वहीं महान् समृद्धिशाली नारद नामक पर्वत है, जिसे दुर्गशैल भी कहते हैं। पूर्वकालमें ये दोनों नारद और दुर्गशैल पर्वत यहीं उत्पन हुए थे। उसके बाद श्याम नामक अत्यन्त विशाल पर्वत है, जहाँ पूर्वकालमें ये सारी प्रजाएँ श्यामलताको प्राप्त हो गयी थीं। श्यामपर्वतके सदृश काले रंगवाला वहीं दुन्दुभि पर्वत भी है, जिसपर प्राचीनकालमें देवताओंद्वारा दुन्दुभिके बजाये जानेपर उसके शब्दसे ही (शत्रुओंकी) मृत्यु हो जाती थी। इसके अन्तः प्रदेशमें रत्नोंके समूह भरे पड़े हैं और यह सेमलके वृक्षोंसे सुशोभित है। उसके बाद महान् अस्ताचल है, जो रजतमय है। उसे सोमक भी कहते हैं। इसी पर्वतपर पूर्वकालमें गरुड़ने अपनी माताके हितार्थ देवताओंद्वारा संचित किये गये अमृतका अपहरण किया था। उसके बाद आम्बिकेय नामक महापर्वत है, जिसे सुमना भी कहते हैं। इसी पर्वतपर वराहभगवान्ने हिरण्याक्षका वध किया था। आम्बिकेय पर्वतके बाद सम्पूर्ण ओषधियोंसे परिपूर्ण एवं स्फटिककी शिलाओंसे व्याप्त परम रमणीय महान् पर्वत है, जो विभ्राज नामसे विख्यात है। इससे अनि विशेष उद्दीप्त होती है, इसी कारण इसे विभ्राज कहते हैं। इसीको 'केशव' भी कहते हैं। यहींसे वायुकी गति प्रारम्भ होती है ॥ ११-१८॥

तेषां वर्षाणि वक्ष्यामि पर्वतानां द्विजोत्तमाः ।
शृणुध्वं नामतस्तानि यथावदनुपूर्वशः ॥ १९

द्विनामान्येव वर्षाणि यथैव गिरयस्तथा।
उदयस्योदयं वर्ष जलधारेति विश्रुतम् ॥ २०

नाम्ना गतभयं नाम वर्ष तत् प्रथमं स्मृतम् ।
द्वितीयं जलधारस्य सुकुमारमिति स्मृतम् ॥ २१

तदेव शैशिरं नाम वर्ष तत् परिकीर्तितम् । 
नारदस्य च कौमारं तदेव च सुखोदयम् ॥ २२

श्यामपर्वतवर्षं तदनीचक्रमिति स्मृतम्। 
आनन्दकमिति प्रोक्तं तदेव मुनिभिः शुभम् ॥ २३

सोमकस्य शुभं वर्ष विज्ञेयं कुसुमोत्करम् । 
तदेवासितमित्युक्तं वर्षं सोमकसंज्ञितम् ॥ २४

आम्बिकेयस्य मैनाकं क्षेमकं चैव तत्स्मृतम्। 
तदेव ध्रुवमित्युक्तं वर्ष विभ्राजसंज्ञितम् ॥ २५

द्विजवरो ! अब मैं उन पर्वतोंके वर्षोंका यथार्थरूप से नामनिर्देशानुसार आनुपूर्वी वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये। जिस प्रकार वहाँक पर्वत दो नामवाले हैं, उसी तरह वर्षोंके भी दो-दो नाम हैं। उदयपर्वतके वर्ष उदय और जलधार नामसे प्रसिद्ध हैं। उनमें जो पहला उदय वर्ष है, वह गतभय नामसे अभिहित होता है। दूसरे जलधार पर्वतके वर्षको सुकुमार कहते हैं। वही शैशिर वर्ष के नामसे भी विख्यात है। नारदपर्वतके वर्षका नाम कौमार है। उसीको सुखोदय भी कहते हैं। श्यामपर्वतका वर्ष अनीचक्र नामसे कहा जाता है। उसी मङ्गलमय वर्षको मुनिगण आनन्दक नामसे पुकारते हैं। सोमक पर्वतके कल्याणमय वर्षको कुसुमोत्कर नामसे जानना चाहिये। उसी सोमक नामवाले वर्षको असित भी कहा जाता है। आम्बिकेय पर्वतके वर्ष मैनाक और क्षेमक नाम से प्रसिद्ध हैं। (सातवें केसर पर्वतके वर्षका नाम) विभ्राज है। वही ध्रुव नामसे भी कहा जाता है॥१९-२५॥

द्वीपस्य परिणाहं च ह्रस्वदीर्घत्वमेव च। 
जम्बूद्वीपेन संख्यातं तस्य मध्ये वनस्पतिम् ॥ २६

शाको नाम महावृक्षः प्रजास्तस्य महानुगाः। 
एतेषु देवगन्धर्वाः सिद्धाश्च सह चारणैः ॥ २७

विहरन्ति रमन्ते च दृश्यमानाश्च तैः सह। 
तत्र पुण्या जनपदाश्चातुर्वर्ण्यसमन्विताः ॥ २८

तेषु नद्यश्च सप्तैव प्रतिवर्ष समुद्रगाः।
द्विनाम्ना चैव ताः सर्वा गङ्गाः सप्तविधाः स्मृताः ॥ २९

प्रथमा सुकुमारीति गङ्गा शिवजला शुभा। 
अनुतप्ता च नाम्नैषा नदी सम्परिकीर्तिता ॥ ३०

सुकुमारी तपःसिद्धा द्वितीया नामतः सती । 
नन्दा च पावनी चैव तृतीया परिकीर्तिता ॥ ३१

शिबिका च चतुर्थी स्याद् द्विविधा च पुनः स्मृता । 
इक्षुश्च पञ्चमी ज्ञेया तथैव च पुनः कुडूः ॥ ३२

वेणुका चामृता चैव षष्ठी सम्परिकीर्तिता। 
सुकृता च गभस्ती च सप्तमी परिकीर्तिता ॥ ३३

एताः सप्त महाभागाः प्रतिवर्ष शिवोदकाः । 
भावयन्ति जनं सर्वं शाकद्वीपनिवासिनम् ।। ३४

अभिगच्छन्ति ताश्चान्या नदनद्यः सरांसि च। 
बहूदकपरिस्त्रावा यतो वर्षति वासवः ॥ ३५

शाकद्वीपका विस्तार तथा लम्बाई-चौड़ाई जम्बूद्वीपके परिमाणसे अधिक है। (यह ऊपर बतला चुके हैं।) इस द्वीपके मध्यभागमें शाक नामका एक महान् वनस्पति है। इस द्वीपकी प्रजाएँ महापुरुषोंका अनुगमन करनेवाली हैं। इन वर्षोंमें देवता, गन्धर्व, सिद्ध और चारण विहार करते हैं और उनकी रमणीयता देखते हुए प्रजाओंके साथ क्रीडा करते हैं। इस द्वीपमें चारों वर्णोंकी प्रजाओंसे सम्पन्न सुन्दर जनपद हैं। इनमें प्रत्येक वर्षमें समुद्रगामिनी सात नदियाँ भी हैं और वे सभी दो नामोंवाली हैं। केवल गङ्गा सात प्रकारकी बतलायी जाती हैं। मङ्गलमयी एवं पुण्यसलिला प्रथमा गङ्गा सुकुमारी नामसे कही जाती हैं। यही नदी अनुतप्ता नामसे भी प्रसिद्ध है। दूसरी गङ्गा तपः सिद्धा सुकुमारी हैं। ये ही सती नामसे भी प्रसिद्ध हैं। तीसरी गङ्गा नन्दा और पावनी नामसे विख्यात हैं। चौथी गङ्गा शिबिका हैं, इन्हींको द्विविधा भी कहा जाता है। इक्षुको पाँचवीं गङ्गा समझना चाहिये। उसी प्रकार पुनः इन्हें कुहू भी कहते हैं। छठी गङ्गा वेणुका और अमृता नामसे प्रसिद्ध हैं। सातवीं गङ्गाको सुकृता और गभस्ती कहा जाता है। कल्याणमय जलसे परिपूर्ण एवं महान् भाग्यशालिनी ये सातों गङ्गाएँ शाकद्वीपके प्रत्येक वर्षके सभी प्राणियोंको पवित्र करती हैं। दूसरे बड़े-बड़े नद, नदियाँ और सरोवर भी इन्हीं गङ्गाको धाराओंमें आकर मिलते हैं, जिसके कारण ये सभी अथाह जल बहानेवाली हैं। इन्हींसे जल ग्रहण कर इन्द्र वर्षा करते हैं॥ २६-३५॥

तासां तु नामधेयानि परिमाणं तथैव च। 
न शक्यं परिसंख्यातुं पुण्यास्ताः सरिदुत्तमाः ॥ ३६

ताः पिबन्ति सदा हृष्टा नदीर्जनपदास्तु ते।
एते शान्तमयाः प्रोक्ताः प्रमोदा ये च वै शिवाः ॥ ३७

आनन्दाश्च सुखाश्चैव क्षेमकाश्च नवैः सह। 
वर्णाश्रमाचारयुता देशास्ते सप्त विश्रुताः ॥ ३८

आरोग्या बलिनश्चैव सर्वे मरणवर्जिताः । 
अवसर्पिणी न तेष्वस्ति तथैवोत्सर्पिणी पुनः ॥ ३९

न तत्रास्ति युगावस्था चतुर्युगकृता क्वचित् । 
त्रेतायुगसमः कालः सदा तत्र प्रवर्तते ॥ ४०

शाकद्वीपादिषु ज्ञेयं पञ्चस्वेतेषु सर्वशः।
देशस्य तु विचारेण कालः स्वाभाविकः स्मृतः ॥ ४१

न तेषु सङ्करः कश्चिद् वर्णाश्रमकृतः क्वचित् ।
धर्मस्य चाव्यभीचारादेकान्तसुखिनः प्रजाः ॥ ४२

न तेषु माया लोभो वा ईर्ष्यासूया भयं कुतः ।
विपर्ययो न तेष्वस्ति तद्वै स्वाभाविकं स्मृतम् ॥ ४३

कालो नैव च तेष्वस्ति न दण्डो न च दाण्डिकः । 
स्वधर्मेण च धर्मज्ञास्ते रक्षन्ति परस्परम् ॥ ४४

उन सहायक नदियोंके नाम और परिमाणको गणना नहीं की जा सकती। ये सभी श्रेष्ठ नदियाँ पुण्यतोया हैं। इनके तटपर निवास करनेवाले जनपदवासी सदा हर्षपूर्वक इनका जल पीते हैं। उनके तटपर स्थित शान्तमय, प्रमोद, शिव, आनन्द, सुख, क्षेमक और नव-ये सात विश्व-विख्यात देश हैं। यहाँ वर्ण और आश्रमके धर्मोका सुचारुरूपसे पालन होता है। यहाँके सभी निवासी नौरोग, बलवान् और मृत्युसे रहित होते हैं। उनमें अवसर्पिणी (अधोगामिनी) तथा उत्सर्पिणी (ऊर्ध्वगामिनी) क्रिया नहीं होती है। वहाँ कहीं भी चारों युगोंद्वारा की गयी युगव्यवस्था नहीं है। वहाँ सदा त्रेतायुगके समान ही समय वर्तमान रहता है। शाकद्वीप आदि इन पाँचों द्वीपोंमें ऐसी ही दशा जाननी चाहिये; क्योंकि देशके विचारसे ही कालकी स्वाभाविक गति जानी जाती है। उन द्वीपोंमें कहीं भी वर्ण एवं आश्रमजन्य संकर नहीं पाया जाता। इस प्रकार धर्मका परित्याग न करनेके कारण वहाँकी प्रजा एकान्त सुखका अनुभव करती है। उनमें न तो माया (छल-कपट) है, न लोभ, तब भला ईर्ष्या, असूया और भय कैसे हो सकते हैं? उनमें धर्मका विपर्यय भी नहीं देखा जाता। धर्म तो उनके लिये स्वाभाविक कर्म माना गया है। उनपर कालका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वहाँ न तो दण्डका विधान है, न कोई दण्ड देनेवाला ही है। वहाँके निवासी धर्मके ज्ञाता हैं, अतः वे स्वधर्मानुसार परस्पर एक-दूसरेको रक्षा करते रहते हैं ॥ ३६-४४॥

परिमण्डलस्तु सुमहान् द्वीपो वै कुशसंज्ञकः ।
 नदीजलैः परिवृतः पर्वतैश्चाधसंनिभैः ॥ ४५

सर्वधातुविचित्रैश्च मणिविद्रुमभूषितैः । 
अन्यैश्च विविधाकारै रम्यैर्जनपदैस्तथा ॥ ४६

वृक्षैः पुष्यफलोपेतैः सर्वतो धनधान्यवान् । 
नित्यं पुष्पफलोपेतः सर्वरत्रसमावृतः ।। ४७

आवृतः पशुभिः सर्वैर्याम्यारण्यैश्च सर्वशः । 
आनुपूर्व्यात् समासेन कुशद्वीपं निबोधत ॥ ४८

अथ तृतीयं वक्ष्यामि कुशद्वीपं च कृत्स्रशः । 
कुशद्वीपेन क्षीरोदः सर्वतः परिवारितः ॥ ४९

शाकद्वीपस्य विस्ताराद् द्विगुणेन समन्वितः । 
तत्रापि पर्वताः सप्त विज्ञेया रत्नयोनयः ॥ ५०

रत्नाकरास्तथा नद्यस्तेषां नामानि मे शृणु। 
द्विनामानश्च ते सर्वे शाकद्वीपे यथा तथा ॥ ५१

प्रथमः सूर्यसंकाशः कुमुदो नाम पर्वतः । 
विद्रुमोच्चय इत्युक्तः स एव च महीधरः ॥ ५२

सर्वधातुमयैः शृङ्गैः शिलाजालसमन्वितैः । 
द्वितीयः पर्वतस्तत्र उन्नतो नाम विश्रुतः ॥ ५३

कुश नामक द्वीप अत्यन्त विशाल मण्डलवाला है। उसके चारों ओर नदियोंका जल प्रवाहित होता रहता है। वह बादल सदृश रंगवाले, सम्पूर्ण धातुओंसे युक्त होनेके कारण रंगे-बिरंगे तथा मणियों और मूँगोंसे विभूषित पर्वतोंद्वारा घिरा हुआ है। उसमें चारों ओर विभिन्न आकारवाले रमणीय जनपद तथा फूल-फलोंसे लदे हुए वृक्षों के समूह शोभायमान हो रहे हैं। वह धन-धान्यसे परिपूर्ण है। वह सदा पुष्पों और फलोंसे युक्त रहता है। उसमें सभी प्रकारके रल पाये जाते हैं। वह सर्वत्र ग्रामीण एवं जंगली पशुओंसे भरा हुआ है। उस कुशद्वीपका संक्षेपमें आनुपूर्वी वर्णन सुनिये। अब मैं तीसरे कुशद्वीपका समग्ररूपसे वर्णन कर रहा हूँ। कुशद्वीपसे क्षीरसागर चारों ओरसे घिरा हुआ है। यह शाकद्वीपके दुगुने विस्तारसे युक्त है। यहाँ भी रनोंकी खानोंसे युक्त सात पर्वत जानना चाहिये। यहाँकी नदियाँ भी रहोंकी भण्डार हैं। अब मुझसे उनका नाम सुनिये। जैसे शाकद्वीपमें सभी पर्वतों और नदियोंके दो नाम थे, वैसे ही यहाँके भी पर्वत एवं नदी दो नामवाली हैं। पहला सूर्यके समान चमकीला कुमुद नामक पर्वत है। वह पर्वत विहुमोच्चय नामसे भी कहा जाता है। वहाँ दूसरा पर्वत उन्नत नामसे विख्यात है। वह सम्पूर्ण धातुओंसे परिपूर्ण एवं शिला-समूहोंसे समन्वित शिखरोंसे युक्त है। वही पर्वत हेमपर्वत नामसे अभिहित होता है॥ ४५-५३॥

हेमपर्वत इत्युक्तः स एव च महीधरः। 
हरितालमयैः शृङ्गैर्दीपमावृत्य सर्वशः ॥ ५४

बलाहकस्तृतीयस्तु भात्यञ्जनमयो गिरिः । 
द्युतिमान् नामतः प्रोक्तः स एव च महीधरः ॥ ५५

चतुर्थः पर्वतो द्रोणो यत्रौषध्यो महाबलाः । 
विशल्यकरणी चैव मृतसंजीवनी तथा ॥ ५६

पुष्पवान् नाम सैवोक्तः पर्वतः सुमहाचितः । 
कङ्कस्तु पञ्चमस्तेषां पर्वतो नाम सारवान् ॥ ५७

कुशेशय इति प्रोक्तः पुनः स पृथिवीधरः ।
दिव्यपुष्यफलोपेतो दिव्यवीरुत्समन्वितः ॥ ५८

षष्ठस्तु पर्वतस्तत्र महिषो मेघसंनिभः। 
स एव तु पुनः प्रोक्तो हरिरित्यभिविश्रुतः ॥ ५९

तस्मिन् सोऽग्निर्निवसति महिषो नाम योऽप्सुजः । 
सप्तमः पर्वतस्तत्र ककुद्यान् स हि भाषते ॥ ६०

मन्दरः सैव विज्ञेयः सर्वधातुमयः शुभः।
मन्द इत्येष यो धातुरपामर्थे प्रकाशकः ॥ ६१

अपां विदारणाच्चैव मन्दरः स निगद्यते।
तत्र रत्नान्यनेकानि स्वयं रक्षति वासवः ॥ ६२

प्रजापतिमुपादाय प्रजाभ्यो विदधत् स्वयम्।
तेषामन्तरविष्कम्भो द्विगुणः समुदाहृतः ॥ ६३

इत्येते पर्वताः सप्त कुशद्वीपे प्रभाषिताः ।
तेषां वर्षाणि वक्ष्यामि सप्तैव तु विभागशः ॥ ६४

कुमुदस्य स्मृतः श्वेत उन्नतश्चैव स स्मृतः ।
उन्नतस्य तु विज्ञेयं वर्ष लोहितसंज्ञकम् ॥ ६५

वेणुमण्डलकं चैव तथैव परिकीर्तितम् ।
बलाहकस्य जीमूतः स्वैरथाकारमित्यपि ॥ ६६

तीसरा बलाहक पर्वत है, जो अञ्जनके समान काला है। यह अपने हरितालमय शिखरोंसे सर्वत्र द्वीपको आवृत किये हुए है। यही पर्वत द्युतिमान् नामसे भी पुकारा जाता है। चौथा पर्वत द्रोण है। इस महान् गिरिपर विशल्यकरणी और मृतसंजीवनी आदि महाबलवती ओषधियाँ पायी जाती हैं। वही महान् समृद्धिशाली पर्वत पुष्पवान् नामसे विख्यात है। उनमें पाँचवाँ कङ्क पर्वत है, जो सारयुक्त पदार्थोंसे सम्पन्न है। इस पर्वतको कुशेशय भी कहते हैं। वहाँ छठा महिष पर्वत है, जो मेघ-सदृश काला है। वह दिव्य पुष्पों एवं फलोंसे युक्त तथा दिव्य वृक्षोंसे सम्पन्न है। वही पुनः हरि नामसे विख्यात है। उस पर्वतपर महिष नामक अग्नि, जो जलसे उत्पन्न हुआ है, 

निवास करता है। वहाँ सातवें पर्वतको ककुद्यान् कहा जाता है। उसीको मन्दर जानना चाहिये। वह सम्पूर्ण धातुओंसे युक्त और अत्यन्त सुन्दर है। जो यह मंद धातु है, वह जलरूप अर्थको प्रकट करनेवाली है, अतः जलका विदारण करके निकलनेके कारण इस पर्वतको मन्दर कहा जाता है। उस पर्वतपर अनेकों प्रकारके रज पाये जाते हैं, जिनकी रक्षा प्रजापतिको साथ लेकर स्वयं इन्द्र करते हैं। साथ ही स्वयं इन्द्र वहाँकी प्रजाओंकी भी देख-भाल करते हैं। इनके अन्तर विष्कम्भ पर्वत परिमाणमें दुगुने बतलाये जाते हैं। कुशद्वीपमें ये सात पर्वत कहे गये हैं। अब मैं इनके सात वर्षोंका विभागपूर्वक वर्णन कर रहा हूँ। कुमुद पर्वतके वर्षका नाम श्वेत है। इसे उन्नत नामसे भी पुकारते हैं। उन्नत पर्वतका लोहित नामक वर्ष जानना चाहिये। इसे वेणुमण्डलक भी कहते हैं। बलाहक पर्वतका वर्ष जीमूत है, इसीका नाम स्वैरथाकार भी है॥ ५४-६६ ॥

द्रोणस्य हरिकं नाम लवणं च पुनः स्मृतम्।
कङ्कस्यापि ककुत्राम धृतिमच्चैव तत् स्मृतम् ॥ ६७

महिषं महिषस्यापि पुनश्चापि प्रभाकरम्। 
ककुद्मिनस्तु तद्वर्ष कपिलं नाम विश्रुतम् ॥ ६८

एतान्यपि विशिष्टानि सप्त सप्त पृथक् पृथक् ।
वर्षाणि पर्वताश्चैव नदीस्तेषु निबोधत ॥ ६९

तत्रापि नद्यः सप्तैव प्रतिवर्ष हि ताः स्मृताः।
द्विनामवत्यस्ताः सर्वाः सर्वाः पुण्यजलाः स्मृताः ॥ ७०

धूतपापा नदी नाम योनिश्चैव पुनः स्मृता।
सीता द्वितीया विज्ञेया सा चैव हि निशा स्मृता ।। ७१

पवित्रा तृतीया विज्ञेया वितृष्णापि च या पुनः ।
चतुर्थी ह्लादिनीत्युक्ता चन्द्रभा इति च स्मृता ।। ७२

विद्युच्च पञ्चमी प्रोक्ता शुक्ला चैव विभाव्यते। 
पुण्ड्रा षष्ठी तु विज्ञेया पुनश्चैव विभावरी ॥ ७३

महती सप्तमी प्रोक्ता पुनश्चैषा धृतिः स्मृता ।
अन्यास्ताभ्योऽपि संजाताः शतशोऽथ सहस्त्रशः ॥ ७४

अभिगच्छन्ति ता नद्यो यतो वर्षति वासवः ।
इत्येष संनिवेशो वः कुशद्वीपस्य वर्णितः ॥ ७५

शाकद्वीपेन विस्तारः प्रोक्तस्तस्य सनातनः ।
कुशद्वीपः समुद्रेण घृतमण्डोदकेन च ॥ ७६

सर्वतः सुमहान् द्वीपश्चन्द्रवत् परिवेष्टितः ।
विस्तारान्मण्डलाच्चैव क्षीरोदाद् द्विगुणो मतः ॥ ७७ 

द्रोणपर्वतके वर्षका नाम हरिक है, इसे लवण भी कहते हैं। कङ्क पर्वतका वर्ष ककुद् है, इसे धृतिमान् भी कहा जाता है। महिष पर्वतके वर्षका नाम महिष है, इसे प्रभाकर नामसे अभिहित किया जाता है। ककुद्मी पर्वतका जो वर्ष है, वह कपिल नामसे विख्यात है। कुशद्वीपमें ये सातों विशिष्ट वर्ष तथा सात पर्वत पृथक् पृथक् हैं। अब उन वर्षोंकी नदियोंको सुनिये। वहीं प्रत्येक वर्षमें नदियाँ भी सात ही बतलायी जाती हैं। वे सभी दो नामोंवाली तथा पुण्यसलिला हैं। उनमें पहली नदीका नाम धूतपापा है, उसे योनि भी कहते हैं। दूसरी नदीको सीता नामसे जानना चाहिये। वही निशा भी कही जाती है। पवित्राको तीसरी नदी समझना चाहिये। उसीका नाम वितृष्णा भी है। चौथी हृादिनी नामसे पुकारी जाती है, यही चन्द्रमा नामसे भी प्रसिद्ध है। पाँचवीं नदीको विद्युत् कहते हैं, यही शुक्ला नामसे भी अभिहित होती है। पुण्ड्राको छठी नदी जानना चाहिये, इसको विभावरी भी कहते हैं। सातवीं नदीका नाम महती है, यही धृति नामसे भी कही जाती है। इनके अतिरिक्त अन्य भी छोटी-बड़ी सैकड़ों-हजारों नदियाँ हैं, जो इन्हीं प्रमुख नदियोंमें जाकर मिली हैं। इन्हींसे जल ग्रहण करके इन्द्र यहाँ वर्षा करते हैं। इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे कुशद्वीपकी संस्थितिका वर्णन कर दिया तथा उसके शाकद्वीपसे दुगुने सनातन विस्तारको भी बतला दिया। यह महान् कुशद्वीप चारों ओरसे चन्द्रमाकी भाँति घृत और मड्डेसे भरे हुए सागरसे घिरा हुआ है। यह विस्तार एवं मण्डल (घेराव) में क्षीरसागरसे दुगुना माना गया है ॥ ६७-७७ ॥

ततः परं प्रवक्ष्यामि क्रौञ्चद्वीपं यथा तथा।
कुशद्वीपस्य विस्ताराद् द्विगुणस्तस्य विस्तरः ॥ ७८ 

घृतोदकः समुद्रो वै क्रौञ्चद्वीपेन संवृतः ।
चक्रनेमिप्रमाणेन वृत्तो वृत्तेन सर्वशः ॥ ७९

तस्मिन् द्वीपे नराः श्रेष्ठा देवनो गिरिरुच्यते ।
देवनात् परतश्चापि गोविन्दो नाम पर्वतः ॥ ८०

गोविन्दात् परतश्चापि क्रौञ्चस्तु प्रथमो गिरिः ।
क्रौञ्चात् परः पावनकः पावनादन्धकारकः ॥ ८१ 

अन्धकारात् परे चापि देवावृन्नाम पर्वतः ।
देवावृतः परेणापि पुण्डरीको महान् गिरिः ॥ ८२

एते रत्नमयाः सप्त क्रौञ्चद्वीपस्य पर्वताः ।
परस्परस्य द्विगुणो विष्कम्भो वर्षपर्वतः ॥ ८३

वर्षाणि तस्य वक्ष्यामि नामतस्तु निबोधत ।
क्रौञ्चस्य कुशलो देशो वामनस्य मनोऽनुगः ॥ ८४

मनोऽनुगात् परे चोष्णस्तृतीयोऽपि स उच्यते।
उष्णात् परे पावनकः पावनादन्धकारकः ॥ ८५ 

अन्धकारकदेशात् तु मुनिदेशस्तथापरः ।
मुनिदेशात् परे चापि प्रोच्यते दुन्दुभिस्वनः ॥ ८६

सिद्धचारणसंकीर्णो गौरप्रायः शुचिर्जनः। 
श्रुतास्तत्रैव नद्यस्तु प्रतिवर्षं गताः शुभाः ॥ ८७

गौरी कुमुद्वती चैव संध्या रात्रिर्मनोजवा । 
ख्यातिश्च पुण्डरीका च गङ्गा सप्तविधा स्मृता ॥ ८८

तासां सहस्रशश्चान्या नद्यः पार्श्वसमीपगाः । 
अभिगच्छन्ति ता नद्यो बहुलाश्च बहूदकाः ॥ ८९

तेषां निसर्गों देशानामानुपूर्येण सर्वशः । 
न शक्यो विस्तराद् वक्तुमपि वर्षशतैरपि ॥ ९०

इसके बाद अब मैं क्रौञ्चद्वीपका यथार्थरूपसे वर्णन कर रहा हूँ। इसका विस्तार कुशद्वीपके विस्तारसे दुगुना है। चक्केकी भाँति गोलाकार उस क्रौञ्चद्वीपसे घृतसागर चारों ओरसे घिरा हुआ है। श्रेष्ठ ऋषियो। इस क्रौञ्चद्वीपमें देवन नामक पर्वत बतलाया जाता है। देवनके बाद गोविन्द नामक पर्वत है। गोविन्दके बाद क्रौञ्च नामक पहला पर्वत है। क्रौञ्चके बाद पावनक, पावनकके बाद अन्धकारक और अन्धकारकके बाद देवावृत् नामक पर्वत है। देवावृत्‌के बाद पुण्डरीक नामक विशाल पर्वत है। क्रौञ्चद्वीपके ये सातों पर्वत रत्नमय हैं। इस द्वीपके वर्ष पर्वतके रूपमें स्थित विष्कम्भ पर्वत परस्पर एक-दूसरेसे दुगुने हैं। अब इस द्वीपके वर्षोंका नाम बतला रहा हूँ, सुनिये। क्रौञ्च पर्वतके प्रदेशका नाम कुशल है। वामन पर्वतका प्रदेश मनोऽनुग कहलाता है। 

मनोऽनुगके बाद तीसरा उष्ण प्रदेश कहा जाता है। उष्णके बाद पावनक, पावनकके बाद अन्धकारक और अन्धकारकके बाद दूसरा मुनिदेश है। मुनिदेशके बाद दुन्दुभिस्वन नामक देश कहा जाता है। यह द्वीप सिद्धों एवं चारणोंसे व्याप्त है। यहाँके निवासी प्रायः गौर वर्णके एवं परम पवित्र होते हैं। इस द्वीपके प्रत्येक वर्षमें मङ्गलमयी नदियाँ भी प्रवाहित होती हैं, ऐसा सुना गया है। वहाँ गौरी, कुमुद्वती, संध्या, रात्रि, मनोजवा, ख्याति और पुण्डरीका ये सात प्रकारकी गङ्गा बतलायी जाती हैं। इनके अगल-बगलमें बहनेवाली अगाध जलसे भरी हुई हजारों अन्य नदियाँ भी हैं, जो इन्हीं प्रमुख नदियोंमें आकर मिली हैं। उन पर्वतीय प्रदेशोंकी सर्वथा आनुपूर्वी स्वाभाविकी स्थितिका तथा वहाँकी प्रजाओंकी सृष्टि एवं संहारका विस्तारपूर्वक वर्णन सैकड़ें वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता ॥ ७८-९०॥ 

सर्गों यश्च प्रजानां तु संहारो यश्च तेषु वै।
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि शाल्मलस्य निबोधत ॥ ९१

शाल्मलो द्विगुणो द्वीपः क्रौञ्चद्वीपस्य विस्तरात् ।
परिवार्य समुद्रं तु घृतमण्डोदकं स्थितः ॥ ९२

तत्र पुण्या जनपदाश्चिराच्च म्रियते जनः । 
कुत एव तु दुर्भिक्षं क्षमातेजोयुता हि ते ॥ ९३

प्रथमः सूर्यसङ्काशः सुमना नाम पर्वतः । 
पीतस्तु मध्यमश्चासीत् ततः कुम्भमयो गिरिः ॥ ९४

नाम्ना सर्वसुखो नाम दिव्यौषधिसमन्वितः । 
तृतीयश्चैव सौवर्णों भृङ्गपत्रनिभो गिरिः ॥ ९५

सुमहान् रोहितो नाम दिव्यो गिरिवरो हि सः । 
सुमनाः कुशलो देशः सुखोदर्कः सुखोदयः ॥ ९६

रोहितो यस्तृतीयस्तु रोहिणो नाम विश्रुतः । 
तत्र रत्नान्यनेकानि स्वयं रक्षति वासवः ॥ ९७

प्रजापतिमुपादाय प्रसन्नो विदधत् स्वयम् । 
न तत्र मेघा वर्षन्ति शीतोष्णं च न तद्विधम् ॥ ९८

वर्णाश्रमाणां वार्ता वा त्रिषु द्वीपेषु विद्यते।
न ग्रहो न च चन्द्रोऽस्ति ईर्ष्यासूया भयं तथा ॥ ९९

उद्भिदान्युदकान्यत्र गिरिप्रस्त्रवणानि च। 
भोजनं षड्रसं तत्र तेषां स्वयमुपस्थितम् ॥ १००

अधमोत्तमं न तेष्वस्ति न लोभो न परिग्रहः । 
आरोग्यबलवन्तश्च एकान्तसुखिनो नराः ॥ १०१

त्रिंशद्वर्षसहस्त्राणि मानसीं सिद्धिमास्थिताः । 
सुखमायुश्च रूपं च धर्मैश्वर्य तथैव च ॥ १०२

शाल्मलान्तेषु विज्ञेयं द्वीपेषु त्रिषु सर्वतः । 
व्याख्यातः शाल्मलान्तानां द्वीपानां तु विधिः शुभः ॥ १०३

परिमण्डलस्तु द्वीपस्य चक्रवत् परिवेष्टितः । 
सुरोदेन समुद्रेण द्विगुणेन समन्वितः ॥ १०४

इसके बाद मैं शाल्मलद्वीपका वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये। शाल्मलद्वीप क्रौञ्चद्वीपके विस्तारसे दुगुना है। यह घृतमण्डोदसागर को घेरकर स्थित है। इसमें पुण्यमय जनपद हैं। वहाँक निवासी क्षमाशील एवं तेजस्वी होते हैं तथा दीर्घायुका उपभोग कर मृत्युको प्रास होते हैं। वहाँ अकालकी कोई सम्भावना ही नहीं है। वहाँ पहले पर्वतका नाम सुमना है, जो सूर्यके समान चमकीला होनेके कारण पीले रंगका है। उसके बाद दूसरा कुम्भमय नामक पर्वत है। उसका दूसरा नाम सर्वसुख है। वह दिव्य ओषधियोंसे सम्पन्न है। तीसरा स्वर्णसम्पन्न एवं भ्रमरके पंखके समान रंगवाला रोहित नामक विशाल पर्वत है। यह पर्वतश्रेष्ठ दिव्य है। सुमना पर्वतका देश कुशल एवं दूसरे सर्वसुख पर्वतका देश सुखोदय है, जो सभी सुखोंको उत्पन्न करनेवाला है। तीसरे रोहित पर्वतका प्रदेश रोहिण नामसे विख्यात है। वहाँ अनेकों प्रकारके रनोंकी खानें हैं, जिनकी रक्षा प्रजापतिको साथ लेकर स्वयं इन्द्र करते हैं और वे ही प्रसत्रतापूर्वक वहाँकी प्रजाओंके लिये कार्यका विधान करते हैं। 

वहाँ न तो मेघ वर्षा करते हैं, न शीत एवं उष्णकी ही अधिकता रहती है। इन तीनों द्वीपोंमें वर्णाश्रमकी चर्चा चलती रहती है। अर्थात् यहाँ वर्णाश्रमका पूर्णरूपसे प्रचार है। यहाँ न ग्रहगण हैं, न चन्द्रमा हैं और न यहाँक निवासियोंमें ईर्ष्या, असूया और भय ही देखा जाता है। यहाँ पर्वतोंसे झरते हुए जल ही अन्नके उत्पादक हैं। वहाँके निवासियोंके लिये षट् रसयुक्त भोजन स्वयं ही प्राप्त हो जाता है। उनमें न तो ऊँच- नीचका भाव है, न लोभ है और न परिग्रह (दान लेनेकी प्रवृत्ति) ही है। वे नीरोग एवं बलवान् होते हैं तथा एकान्त सुखका उपभोग करते हैं। वे लोग तीस हजार वर्षतककी मानसी सिद्धिको प्राप्त होकर सुख, दीर्घायु, सुन्दर रूप, धर्म और ऐश्वर्यका उपभोग करते हुए जीवन-यापन करते हैं। कुश, क्रौञ्श और शाल्मल इन तीनों द्वीपों में यही स्थिति समझनी चाहिये। इस प्रकार मैं इन तीनों द्वीपोंकी शुभमयी विधिका विवरण बतला चुका। इस शाल्मलद्वीपका मण्डल (घेरा) दुगुने परिमाणवाले सुरोदसागरसे चारों ओर चक्रकी भाँति गोलाकार घिरा हुआ है।॥९१-१०४॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे भुवनकोशे द्वीपवर्णने नाम द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२२॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके भुवनकोशवर्णन-प्रसङ्गमें द्वीप वर्णन नामक एक सौ बाईसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १२२ ॥

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