श्री कृष्णाष्टमी-व्रत की विधि और उसका माहात्म्य | shree krshnaashtamee-vrat kee vidhi aur usaka maahaatmy

मत्स्य पुराण छप्पनवाँ अध्याय

श्री कृष्णाष्टमी-व्रत की विधि और उसका माहात्म्य

श्रीभगवानुवाच

कृष्णाष्टमीमथो वक्ष्ये सर्वपापप्रणाशिनीम्।
शान्तिर्मुक्तिश्च भवति जयः पुंसां विशेषतः ॥ १

श्रीभगवान्ने कहा- नारद ! अब मैं श्रीकृष्णाष्टमी- व्रतका वर्णन कर रहा हूँ, जो समस्त पापोंका विध्वंस करनेवाला है। इस व्रतका अनुष्ठान करनेसे मनुष्योंको विशेषरूपसे शान्ति, मुक्ति और विजयकी प्राप्ति होती है॥ १

शङ्करं मार्गशिरसि शम्भु पौषेऽभिपूजयेत्। 
माघे महेश्वरं देवं महादेवं च फाल्गुने ॥ २

स्थाणुं चैत्रे शिवं तद्वद् वैशाखे त्वर्चयेन्नरः । 
ज्येष्ठे पशुपतिं चार्चेदाषाडे उग्रमर्चयेत् ॥ ३

पूजयेच्छ्रावणे शर्व नभस्ये त्र्यम्बकं तथा। 
हरमाश्वयुजे मासि तथेशानं च कार्त्तिके ॥ ४

कृष्णाष्टमीषु सर्वासु शक्तः सम्पूजयेद् द्विजान्।
गोभूहिरण्यवासोभिः शिवभक्तांश्च शक्तितः ॥ ५

गोमूत्रघृतगोक्षीरतिलान् यवकुशोदकम् ।
गोशृङ्गोदशिरीषार्कबिल्वपत्रदद्धीनि च।
पञ्चगव्यं च सम्प्राश्य शंकरं पूजयेन्निशि ॥ ६

अश्वत्थं च वटं चैवोदुम्बरं प्लक्षमेव च। 
पलाशं जम्बुवृक्षं च विदुः षष्ठं महर्षयः ॥ ७

मार्गशीर्षादिमासाभ्यां द्वाभ्यां द्वाभ्यामिति क्रमात्।
एकैकं दन्तपवनं वृक्षेष्वेतेषु भक्षयेत् ॥ ८

देवाय दद्यादर्घ्य च कृष्णां गां कृष्णवाससम्। 
दद्यात् समाप्ते दध्यन्त्रं वितानध्वजचामरम् ॥ ९

द्विजानामुदकुम्भांश्च पञ्चरत्नसमन्वितान् ।
गावः कृष्णाः सुवर्ण च वासांसि विविधानि च।
अशक्तस्तु पुनर्दद्यात् गामेकामपि शक्तितः ॥ १०

न वित्तशाठ्यं कुर्वीत कुर्वन् दोषमवाप्नुयात्।
कृष्णाष्टमीमुपोष्यैव सप्तकल्पशतत्रयम् । 
पुमान् सम्पूजितो देवैः शिवलोके महीयते ॥ ११

मनुष्यको अगहनमासमें शङ्करकी और पौषमासमें शम्भुकी पूजा करनी चाहिये। माघमासमें देवाधिदेव महेश्वरका, फाल्गुनमासमें महादेवका, चैत्रमासमें स्थाणुका, और उसी प्रकार वैशाखमासमें शिवका पूजन करना उचित है। ज्येष्ठ- मासमें पशुपतिकी और आषाढ़मासमें उग्रकी अर्चना करे। श्रावणमासमें शर्वकी, भाद्रपदमासमें त्र्यम्बककी, आश्विनमासमें हरकी तथा कार्तिकमासमें ईशानकी पूजा करनी चाहिये। धन-सम्पत्तिसे सम्पन्न व्रतीको चाहिये कि कृष्णपक्षकी सभी अष्टमी तिथियोंमें अपनी शक्तिके अनुसार गौ, पृथ्वी, सुवर्ण और वस्त्रद्वारा शिव-भक्त ब्राह्मणोंकी सम्यक् प्रकारसे पूजा करे। रातमें गोमूत्र, गोघृत, गोदुग्ध, तिल, यव, कुशोदक, गो-शृङ्गोदक, शिरीष (मौलसिरी) का पुष्प, मन्दार-पुष्प, बिल्वपत्र और दधि-एकत्र मिश्रित हुए इन पदार्थोंका अथवा केवल पञ्चगव्य (गोदुग्ध, गोघृत, गोदधि, गोमूत्र और गोमय) का प्राशन करके शङ्करजीकी पूजा करे। 

महर्षिगण मार्गशीर्षसे प्रारम्भकर कार्तिकतक तथा क्रमशः दो-दो मासोंमें पीपल, बरगद, गूलर, पाकड़, पलाश और छठे जामुनकी दातुनोंको पूरे वर्षभर इस व्रतमें विशेष उपकारी मानते हैं। (इन वृक्षोंमेंसे एक-एक वृक्षकी दातुन दो-दो मासके क्रमसे करनी चाहिये, अर्थात् दो महीनेतक एक वृक्षकी दातुन करे, पुनः तीसरे चौथे माससे दूसरे वृक्षकी करे।) फिर प्रधान देवताके निमित्त अर्घ्य देना चाहिये तथा काली गौ और काला वस्त्र दान करना चाहिये। व्रतकी समाप्तिके अवसरपर दही, अन्न, वितान (तम्बू, चंदोवा आदि), ध्वज, चंवर, पञ्चरनसे युक्त जलपूर्ण घड़ा, काली गौ, सुवर्ण, अनेकों प्रकारके रंग-विरंगे वस्त्र आदि ब्राह्मणोंको देनेका विधान है। जो उपर्युक्त वस्तुएँ देनेमें असमर्थ हो, वह अपनी शक्तिके अनुसार एक ही गौका दान करे। दान देनेमें कृपणता नहीं करनी चाहिये। यदि करता है तो वह दोषका भागी होता है। जो मनुष्य इस श्रीकृष्णाष्टमी व्रतका अनुष्ठान करता है, वह इक्कीस सौ कल्पोंतक देवताओंद्वारा सम्मानित होकर शिवलोकमें पूजित होता है॥ १-११॥

इति श्रीमाल्ये महापुराणे कृष्णाष्टमीव्रतं नाम षट्‌पञ्चाशोऽध्यायः ॥ ५६ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें श्रीकृष्णाष्टमी व्रत नामक छप्पनयाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ५६ ॥

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