श्री कल्कि पुराण सातवाँ अध्याय | Shri Kalki Purana Seventh Chapter

श्री कल्कि पुराण सातवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में

शुक उवाच॥

विष्न्वर्चनं शिवेनोक्तं श्रोतुम् इच्छाम्य् अहं शुभे।
धन्यासि कृतपुण्यासि शिव-शिष्यत्वम् आगता॥१

शुक ने कहा- हे शुभे (कल्याणि), महादेव जी ने विष्णु भगवान् की पूजा की जो विधि तुम्हें बताई है, मैं उसे सुनना चाहता हूँ। तुम धन्य हो, तुम ने पुण्य किए हैं, (क्योंकि) तुम शिवजी की शिष्या हुई हो। मैं भाग्य से ही तुम्हारे पास पहुँचा हूँ। अब मैं तुम से परम आश्चर्य वाली विष्णु भगवान् की पूजाविधि, जो कि मेरे पक्षी-शरीर का निवारण (उद्धार) करने वाली है, सुनूंगा; (क्योंकि) भगवान् विष्णु का जप, ध्यान एवं उनकी पूजा विधि भगवान् की भक्ति देने वाली है और सुनने में सुखद तथा परमानन्द देने वाली है।


यह सुनकर पद्मा जी बोलीं- शिव जी द्वारा बताई गई श्री विष्णु भगवान् की पूजा विधि पवित्र है और इस का श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करने, सुनने और कहने से गुरु-हत्या, गो-हत्या तथा ब्रह्म-हत्या करने वाले मनुष्यों के पाप भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। हे शुक, महादेव जी ने विष्णु भगवान् की पूजा का जैसा वर्णन किया है, उसे तुम मन लगा कर सुनो। प्रातःकाल नित्य कर्म करने के बाद स्नान कर पवित्र हो, हाथ-पाँव आदि धोकर और जल स्पर्श कर पूजा करने वाला अपने आसन पर बैठे। इसके बाद अपने को संयत कर, पूर्व दिशा की ओर मुँह कर के अंगन्यास से (जैसे तिलक आदि लगा कर), शरीर की शुद्धि कर विधिपूर्वक अर्ध्य की स्थापना करे।

इसके बाद केशव अर्थात् भगवान विष्णु का कृत्य अर्थात् पूजन रूपी कार्य का, संकल्प उनके विविध नामों का उच्चारण करते हुए अंगन्यास एवं करन्यास करते- करते विष्णुमय हो जाए और अपने हृदय को उनके लिए आसन कल्पित कर, उस पर उनको (भगवान् विष्णु को) स्थापित करे। तब पूजक हृदयरूपी कमल में विराजमान भगवान् विष्णु की उनके मूल मंत्र (ॐ नमो नारायणाय) से पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, स्नान, वस्त्र एवं आभूषण (समर्पण) आदि षोडषोपचार विधि से (मन-ही-मन) पूजन करके हृदय कमल में विद्यमान भगवान् विष्णु के चरणों से लेकर सिर के बालों तक का ध्यान करे। ध्यान में भगवान् की मुखमुद्रा प्रसन्न हो और ऐसा लग रहा हो कि भगवान् भक्तों को मनोवांछित फल दे रहे हों। (ध्यान के समाप्त होने पर)' ॐ नमो नारायणाय स्वाहा' कहकर इस स्तोत्र का पाठ करे- योग द्वारा सिद्धि प्राप्त करने वाले विद्वान लोग जिन का सदा ध्यान करते हैं, जो लक्ष्मी के आश्रय हैं। तुलसी पत्र अथवा माला से सुभासित भक्त जिन के ऊपर भौरे के समान मँडराने वाले हैं (अथवा जिनके भक्तगण भृङ्ग-रूपी तुलसी का सदा सेवन करते हैं) जिनके लाल रंग के कमल के समान नाखूनों वाली उंगलियों के पत्रों से गंगाजल बह रहा है, मैं ऐसे श्री विष्णु भगवान् के चरण कमलों का आश्रय ग्रहण करता हूँ।

जिन के श्रीचरणों में मणिमाला से गुँथे हुए घुँघरू, जो कि हंस की बोली के समान ध्वनि करते हैं, शोभायमान हैं। जिन चरणों में सोने का त्रिवक्र नाम का वलय बँधा है, उन चरण कमलों का मैं स्मरण करता हूँ।सुपर्ण अर्थात् गुरुड़ जी के गले के आभूषण नीलकान्त मणि की चमक से जिन जंघाओं की कान्ति बढ़ी है, जिन जंघाओं के बीच में (गरुड़ की सवारी के कारण) अत्यन्त सुन्दर लाल मणि के समान लाल चमक वाली गरुड़ जी की चोंच शोभा पा रही है। जिन जंघाओं के नीचे लाल तलुए लटके हुए शोभायमान हैं, संसार की आँखों को सुख देने वाले ऐसे भगवान् विष्णु की उन जंघाओं का मैं स्मरण करता हूँ।

चंचल गरुड़ जिनका यश 'सामवेद' का गान कर गाते हैं। उत्सव के समय कन्धे में पड़े हुए सुन्दर विचित्र रंग के कपड़ों की बिजली की-सी शोभा से युक्त, श्री विष्णु भगवान् की उन दोनों जंघाओं का मैं स्मरण करता हूँ। भगवान् विष्णु की जो कमर ब्रह्मा, यम तथा कामदेव की आधार-भूमि है, जो तीनों गुणों से युक्त प्रकृत रूप अद्भुत पीताम्बर से ढकी रहती है तथा जो जीवों के बीज का आधार है और जहाँ दुपट्टा शोभा पाता है, (ऐसी) गरुड़ की पीठ पर बैठे भगवान् विष्णु की उस कमर का मैं ध्यान करता हूँ।

जिस उदर में तीन बल पड़े शोभा पा रहे हैं और जिस उदर की नाभि रूपी तालाब में ब्रह्मा का जन्म स्थान कमल खिल रहा है। जिस उदर में नाड़ी रूपी नदियों के रस से आन्त्र रूपी समुद्र उफन रहा है व जिस में पतले-पतले रोओं की रेखाएँ शोभित हैं, ऐसे भगवान् विष्णु के उस उदर का मैं स्मरण करता हूँ। जिस हृदय (छाती) पर समुद्र से उत्पन्न हुई लक्ष्मी जी के स्तनों का कुंकुम लग रहा है, जो हृदय-हार तथा कौस्तुभ मणि की चमक से जगमगा रहा है और जिस हृदय पर श्रीवत्स (भगवान् विष्णु की छाती पर भृगु के चरण-प्रहार का चिह्न) शोभा पा रहा है तथा हरिचन्दन के फूलों की माला झूल रही है, ऐसे भगवान् के अति सुन्दर उस हृदय का मैं स्मरण करता हूँ।

भगवान् की जो दाहिनी भुजाएँ सुन्दरता की खान हैं और जो भुजाएँ बाजूबंद (वलय) व अंगद आदि आभूषणों से शोभा पा रही हैं तथा जिन भुजाओं की प्रचण्डता से अनेक दैत्य नष्ट हो गए हैं व जिन भुजाओं की चमक से गदा, चक्र आदि का तेज भी फीका पड़ जाता है, ऐसी उन दो दाहिनी भुजाओं का (मैं) मन से ध्यान करता हूँ। भगवान् विष्णु दोनों बाईं भुजाओं में कमल और शंख धारण किए हुए हैं। हाथी की सूंड के समान साँवले रंग की दोनों भुजाओं में मणि वाले आभूषण हैं। लाल रंग की उँगलियाँ उनके घुटनों का स्पर्श करती हैं, अर्थात् उनके हाथ घुटनों तक पहुँचते हैं। कमल पर बैठी हुई पद्मा जी को प्रसन्न करने वाली श्री विष्णु भगवान् की उन दोनों सुन्दर बाहों का मैं ध्यान करता हूँ।

जो कण्ठ कमल की नाल (डण्ठल) जैसा निर्मल है और जिस कण्ठ में (कमल रूपी मुख की) तीन धारियाँ और वनमाला शोभा पा रही हैं तथा कण्ठ मुक्ति देने वाले मंत्र के उत्तम फल का उद्गम है, श्री विष्णु भगवान् के ऐसे कण्ठ का मैं ध्यान करता हूँ। लाल कमल के समान, लाल-लाल ओंठों के बीच हँसते हुए शोभायमान दाँत वाले, सुन्दर कोमल वचन वाले व मन को प्रसन्न करने वाले तथा अमृत से भरे चंचल नेत्र-पत्र से विचित्र, लोगों के मन को प्रसन्न करने वाले भगवान् श्री विष्णु के कमल रूपी मुख का मैं स्मरण करता हूँ।

जिन भगवान् की भौंहों के प्रभाव मात्र से यमराज के घर की गंध भी नहीं सूँघनी पड़ती, जिनके मध्य सुन्दर नासिका शोभित है और जिन से संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होती है व जिनसे कामदेव का महोत्सव प्रकट होता है तथा जिनके देखने से लक्ष्मी जी का हृदय प्रसन्न होता है, ऐसी श्री भगवान् के मुख मंडल पर शोभा पाने वाली, उन भौंहों का मैं ध्यान करता हूँ। जिन कानों में गालों के पास मछली (मकर) जैसी आकृति वाले चंचल कुण्डल शोभायमान है, जो अनेक दिशाओं तथा आकाश मण्डल को प्रकाश देते हैं। जो कान के आगे लटकते हुए बालों के समूह से कुछ सिकुड़े हुए मालूम होते हैं और जो कान मणियों वाले मुकुट के किनारों पर हैं, ऐसे श्री विष्णु भगवान् के उन कानों का मैं स्मरण करता हूँ।

जिस माथे (भाल) पर मनोहर सुन्दर सुगंधित गोरोचन का तिलक सुशोभित है। जो नेत्रों को आनन्दित करता है। जिस ब्रह्मा भवन रूपी माथे पर मणियों से मण्डित मुकुट जगमगा रहा है, ऐसे मन को लुभाने वाले और सुन्दर नेत्रों वाले श्री विष्णु भगवान् के उस माथे का मैं ध्यान करता हूँ। अपने प्रिय लोगों के आदरपूर्वक तरह-तरह के सुगन्धित फूलों से (सजाकर) जिन बाँके बालों की वेणी (चोटी) बना कर बाँधी है, जिन हिलते हुए बालों की सुन्दरता से कमल पर बैठी श्री लक्ष्मी की वासना से होने वाला विकार (बुराई) शान्त हो जाता है। मैं अपने हृदय कमल में श्री विष्णु भगवान् के बादलों के समान सुन्दर लम्बे केशों का ध्यान करता हूँ।

मेघ के समान वर्ण वाले, चन्द्रमा तथा सूर्य के समान प्रकाशमान, जिनकी भौहें इन्द्रधनुष के सामान अत्यन्त सुन्दर हैं और नासिका उठी हुई है। जिनके नेत्र नील कमल के समान विशाल और सुन्दर हैं तथा जो विद्युत के समान चमकते हुए वस्त्र पहने हैं। तीन लोक से न्यारे ऐसे भगवान् विष्णु का मैं आश्रय करता हूँ (शरण लेता हूँ)। मैं दीन हूँ, वेदों में बताई गई सेवा भी नहीं करता। मेरा शरीर पापों से और दुःखों से भरा है। मैं लोभ से घिरा हूँ और शोक, मोह आदि मानसिक कष्टों से बिंधा हुआ हूँ। हे वासुदेव ! अपनी कृपा दृष्टि से मेरी रक्षा करो।

जो इस विधि के जानने वाले मनुष्य भक्तिपूर्वक श्री विष्णु भगवान् की इस अति मनोहर मूर्ति का ध्यानपूर्वक (उपयुक्त) सोलह श्लोकों रूपी फूलों से स्तुति, नमस्कार तथा पूजन करते हैं, वे शुद्ध, मुक्त (जन्म-मरण से छुटकारा पाकर) ब्रह्मानन्द (परमात्मा की अनुभूति से मिलने वाले आनन्द) को प्राप्त करते हैं। यह (श्री पद्मा जी को) शिव जी द्वारा बताया गया, श्री पद्मा जी का कहा गया स्तोत्र अत्यन्त पवित्र है और धन, यश, आयु, स्वर्ग फल को देने वाला तथा मंगल देने वाला है। यह स्तोत्र परलोक तथा इस लोक में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी फलों को देने वाला है। इसे जो भाग्यवान् लोग पढ़ेंगे, वे सब पापों से छूट जाएँगे।

श्री कल्कि पुराण सातवाँ अध्याय संस्कृत में 

शुक उवाच॥

विष्न्वर्चनं शिवेनोक्तं श्रोतुम् इच्छाम्य् अहं शुभे।
धन्यासि कृतपुण्यासि शिव-शिष्यत्वम् आगता॥१

अहं भाग्यवशादत्र समागम्य तवान्तिकम्।
शृणोमि परमआश्चर्यं कीराकारनिवारणम्॥२

भगवद्-भक्ति-योगञ् च जप-ध्यान-विधिं मुदा।
परमानन्द-सन्दोह-दान-दक्षं श्रुति-प्रियम्॥३

पद्मो’वाच॥

श्री-विष्णोर् अर्चनं पुण्यं शिवेन परि-भाषितम्।
यच् छ्रद्धयाअनुष्ठितस्य श्रुतस्य गदितस्य च॥४

सद्यः पाप-हरं पुंसां गुरु-गो-ब्रह्म-घातिनाम्।
समाहितेन मनसा शृणु कीर यथोदितम्॥५

कृत्वा यथोक्तकर्माणि पूर्वाह्णे स्नानकृच्छुचिः।
प्रक्षाल्य पाणी पादौ च स्पृष्ट्वापः स्वासने वसेत्॥६

प्राचीमुखः संयतात्मा साङ्गन्यासं प्रकल्पयेत्।
भूत-शुद्धिं ततो ऽर्घ्यस्य स्थापनं विधिवच्चरेत्॥७

ततः केशवकृत्यादि-न्यासेन तन्मयो भवेत्।
आत्मानं तन्मयं ध्यात्वा हृदिस्थं स्वासने न्यसेत्॥८

पाद्यअर्घ्यआचमनीयाद्यैः स्नानवासोविभूषणैः।
यथो’पचारैः सम्पूज्य मूल-मन्त्रेण देशिकः॥९

ध्यायेत् पादादि-केशान्तं हृदयाम्बुज-मध्यगम्।
प्रसन्न-वदनं देवं भक्ताभीष्ट-फल-प्रदम्॥१०

ओं नमो नारायणाय स्वाहा।

योगेन सिद्धविबुधैः परिभाव्यमानं लक्ष्म्यालयं तुलसिकाञ्चितभक्तभृङ्गम् ।
प्रोत्तुङ्गरक्तनखरांगुलिपत्रचित्रं गङ्गारसं हरिपदाम्बुजम् आश्रये ऽहम्॥११

गुम्फन्मणिप्रचयघट्टितराजहंस-सिञ्चत्सुनूपुरयुतं पदपद्मवृन्तम् ।
पीताम्बराञ् च लविलोलवलत्पताकं स्वर्ण-त्रिवक्र-वलयञ् च हरेः स्मरामि॥१२

जंघे सुपर्णगलनीलमणिप्रवृद्धे शोभास्पदारुणमणिद्युतिचंचुमद्ये ।
आरक्तपादतललम्बनशोभमाने लोकेक्षणोत्सवकरे च हरेः स्मरामि॥१३

ते जानुनी मखपतेर् भुजमूलसङ्ग-(सङ्ग रङ्गोत्सवावृततडिद्वसने विचित्रे ।
चञ्चत्पतत्रमुखनिर्गतसामगीत-विस्तारितात्मयशसी च हरेः स्मरामि॥१४

विष्नोः कटिं विधिकृतान्तमनोजभूमिं जीवाण्डकोचगणसंगदुकूलमध्याम् ।
नानागुणप्रकृतिपीतविचित्रवस्त्रां ध्यायेन् निबद्धवसनां खगपृष्ठसंस्थाम्॥१५

शातोदरं भगवतस्त्रिवलिप्रकाशम् आवर्तनाभिविकसद्विधि-जन्म-पद्मम् ।
नाडीनदीगणरसोत्थसितान्त्रसिन्धुं ध्यायेऽण्डकोशनिलयं तनु-लोम-रेखम्॥१६

वक्षः पयोधितनयाकुचकुङ्कुमेन हारेण कौस्तुभ-मणि-प्रभया विभातम् ।
श्रीवत्स-लक्ष्म हरिचन्दनजप्रसून-हरसंवरणप्रसूनमालाचितं भगवतः सुभगं स्मरामि॥१७

बाहू सुवेशसदनौ वलयाङ्गदादि शोभास्पदौ दुरित-दैत्य-विनाश-दक्षौ।
तौ दक्षिणौ भगवतश् च गदासुनाभ तेजोर्जितौ सुललितौ मनसा स्मरामि॥१८

वामौ भुजौ मुररिपोर् धृतपद्मशंखौ श्यामौ करीन्द्रकरवन्मणिभूषणाढ्यौ।
रक्ताङ्गुलिप्रचयचुम्बितजानुमध्यौ पद्मालयाप्रियकरौ रुचिरौ स्मरामि॥१९

कण्थं मृणालममलं मुखपङ्कजस्य लेखात्रयेण वनमालिकया निवीतम्।
किंवा विमुक्तिवशमन्त्रकसत्फलस्य वृन्तं चिरं भगवतः सुभगं स्मरामि॥२०

वक्त्राम्बुजं दशनहासविकाशरम्यं रक्ताधरौष्ठवरकोमलवाक्सुधाढ्यम्।
सन्मानसोद्भवचलेक्षणपत्रचित्रं लोकाभिरामममलन्च हरेः स्मरामि॥२१

सूरात्मजावसथगन्धविदं सुनासं भ्रूपल्लवं स्थितिलयोदयकर्म-दक्षम्।
कामोत्सवं च कमलाहृदयप्रकाशं संचिन्तयामि हरिवक्त्रविलासदक्षम्॥२२

कर्णौ लसन्-मकरकुण्डल-गन्डलोलौ नानादिशाञ् च नभसश् च विकासगेहौ।
लोलालकप्रचयचुम्बनकुञ्चिताग्रौ लग्नौ हरेर् मणि-किरीटतटे स्मरामि॥२३

भालं विचित्रतिलकं प्रियचारुगन्ध गोरोचनारचनया ललनाक्षिसख्यम्।
ब्रह्मौक-धाम-मणिकान्तकिरीटजुष्तंध्यायेन् मनोनयनहारकमीश्वरस्य॥२४

श्री-वासुदेवचिकुरं कुटिलं निबद्धं नाना-सुगन्धि-कुसुमैः स्वजनादरेण।
दीर्घं रमाहृदयगाशमनं धृनन्तं ध्यायेऽम्बुवाह-रुचिरं हृदयअब्ज-मध्ये॥२५

मेघाकारं सोम-सूर्य-प्रकाशं सुभ्रून्नसं चक्रचापैकमानम्।
लोकातीतं पुण्डरीकायताक्षं विद्युच्चैलञ् चअश्रये ऽहं त्वपूर्वम्॥२६

दीनं हीनं सेवया वेदवत्या पापैस् तापैः पूरितं मे शरीरम्।
लोभाक्रान्तं शोक-मोहअधिविद्धं कृपादृष्ट्या पाहि मां वासुदेव॥२७

ये भक्त्याद्या ध्यायमानां मनोज्ञां व्यक्तिं विष्नोः षोडस-श्लोक-पुष्पैः
स्तुत्वा नत्वा पूजयित्वा विधिज्ञाः शुद्धा मुक्ता ब्रह्मसौख्यं प्रयान्ति॥२८

पद्मे’रितम् इदं पुण्यं शिवेन परिभाषितम् ।
धन्यं यशस्यम् आयुष्यं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं परम्॥२९

पठन्ति ये महाभागास् ते मुच्यन्ते ऽहसो ऽखिलात्।
धर्मअर्थ-काम-मोक्षाणां परत्रेह फलप्रदम्॥३०

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये हरि-भक्ति-विवरणं-नाम-सप्तमो ऽध्यायः॥७॥

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