सूर्य की गति और उनके रथ का वर्णन | soory kee gati aur unake rath ka varnan |

मत्स्य पुराण एक सौ पचीसवाँ अध्याय

सूर्य की गति और उनके रथ का वर्णन

एवं श्रुत्वा कथां दिव्यामनुर्वैल्लौमहर्षणिम् ।
सूर्याचन्द्रमसोश्चारं ग्रहाणां चैव सर्वशः ॥ १

इस प्रकार सूर्य और चन्द्रमाकी गति तथा सभी ग्रहोंके गति चार की सारी दिव्य कथा को सुनकर शौन कादि ऋऋषिगण लोमहर्षणके पुत्र सूतजीसे बोले ॥ १॥

ऋषय ऊचुः

भ्रमन्ति कथमेतानि ज्योतींषि रविमण्डले।
अव्यूहेनैव सर्वाणि तथा चासंकरेण वा ॥ २

कश्च भ्रामयते तानि भ्रमन्ति यदि वा स्वयम् । 
एतद् वेदितुमिच्छामस्ततो निगद सत्तम ॥ ३

ऋषियोंने पूछा- वक्ताओंमें श्रेष्ठ सूतजी। ये ग्रह, नक्षत्र आदि ज्योतिर्गण तिर्यग्व्यूहमें निबद्ध हो सूर्यमण्डलमें किस प्रकार घूमते हैं? ये सभी परस्पर मिलकर घूमते हैं अथवा पृथक् पृथक् ? इन्हें कोई घुमाता है या ये स्वयं घूमते हैं? हमें इस रहस्यको जाननेकी विशेष उत्कण्ठा है, अतः आप इसका वर्णन कीजिये ॥२-३॥

सूत उवाच

भूतसम्मोहनं होतद् ब्रुवतो मे निबोधत ।
प्रत्यक्षमपि दृश्यं तत् सम्मोहयति वै प्रजाः ॥ ४

योऽसौ चतुर्दशक्षषु शिशुमारो व्यवस्थितः ।
उत्तानपादपुत्रोऽसौ मेढीभूतो ध्रुवो दिवि ॥ ५

सैष भ्रमन् भ्रामयते चन्द्रादित्यौ ग्रहैः सह।
भ्रमन्तमनुसर्पन्ति नक्षत्राणि च चक्रवत् ॥ ६

ध्रुवस्य मनसा यो वै भ्रमते ज्योतिषां गणः ।
वातानीकमयैर्बन्धैर्भुवे बद्धः प्रसर्पति ॥ ७

तेषां भेदाश्च योगश्च तथा कालस्य निश्चयः । 
अस्तोदयास्तथोत्पाता अयने दक्षिणोत्तरे ॥ ८

विषुव‌ग्रहवर्णश्च सर्वमेतद् ध्रुवेरितम्। 
जीमूता नाम ते मेघा यदेभ्यो जीवसम्भवः ॥ ९

द्वितीय आवहन् वायुर्मेधास्ते त्वभिसंश्रिताः । 
इतो योजनमात्राच्च अध्यर्धविकृता अपि ॥ १०

वृष्टिसर्गस्तथा तेषां धारासारः प्रकीर्तितः ।
पुष्करावर्तका नाम ते मेघाः पक्षसम्भवाः ॥ ११

शक्रेण पक्षाश्छिन्ना वै पर्वतानां महौजसा। 
कामगानां समृद्धानां भूतानां नाशमिच्छताम् ॥ १२

पुष्करा नाम ते पक्षा बृहन्तस्तोयधारिणः । 
पुष्करावर्तका नाम कारणेनेह शब्दिताः ॥ १३

नानारूपधराश्चैव महाघोरस्वराश्च ते। 
कल्पान्तवृष्टिकर्तारः कल्पान्ताग्ग्रेर्नियामकाः ॥ १४

सूतजी कहते हैं ऋषियो! यह विषय प्राणियों को मोहमें डाल देनेवाला है; क्योंकि यह प्रत्यक्षरूपसे दृश्य होनेपर भी प्रजाओंको मोहित कर देता है। मैं इसका वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये । आकाशमण्डलमें जो यह (चौदह) नक्षत्रोंके मध्यमें स्थित शिशुमार नामक चक्र है वही उत्तानपादका पुत्र ध्रुव है, जो (उस चक्रमें) मेंढीके समान है। वह ध्रुव स्वयं भ्रमण करता हुआ ग्रहोंके साथ सूर्य और चन्द्रमाको भी घुमाता है। नक्षत्रगण भी चक्रकी भाँति घूमते हुए ध्रुवके पीछे-पीछे चलते हैं। जो ज्योतिर्गण वायुमय बन्धनोंद्वारा ध्रुवमें निबद्ध है, वह ध्रुवके मानसिक संकल्पसे ही घूमता है। उन ज्योतिर्गणोंक भेद, योग, कालका निश्चय, अस्त, उदय, उत्पात, उत्तरायण एवं दक्षिणायनमें गमन, विषुवत् रेखापर स्थिति और ग्रहोंके वर्ण आदि सभी कार्य ध्रुवकी प्रेरणासे होते हैं। 

(भगणके नीचे मेघ हैं।) जिनसे जीवोंकी उत्पत्ति होती है, उन मेघोंको जीमूत कहते हैं। वे मेघ यहाँसे एक योजन दूर आवह नामक दूसरी वायुके आश्रयपर टिके हुए हैं। उनमें कुछ विकार उत्पन्न हो जानेपर वे ही वृष्टि करते हैं, जो महावृष्टि कही जाती है। पूर्वकालमें महान् ओजस्वी इन्द्रने प्राणियोंके कल्याणकी भावनासे स्वच्छन्दचारी एवं समृद्धिशाली पर्वतोंके पंखोंको काट डाला था। उन पंखोंसे उत्पन्न हुए मेघोंको पुष्करावर्तक कहते हैं। पर्वतोंके पंखोंका नाम पुष्कर था, वे बहुत बड़े-बड़े और जलसे भी परिपूर्ण थे, इसी कारण वे मेघ भी पुष्करावर्तक नामसे कहे गये हैं। ये अनेकों प्रकारके रूप धारण करनेवाले, महान् भयंकर गर्जनासे युक्त, कल्पान्तके समय वृष्टि करनेवाले, कल्पान्तकी अग्रिके प्रशामक, अमृतयुक्त और कल्प अर्थात् प्रलयके साधक हैं॥४-१४॥

वाय्वाधारा वहन्ते वै सामृताः कल्पसाधकाः । 
यान्यस्याण्डस्य भिन्नस्य प्राकृतान्यभवंस्तदा ॥ १५

यस्मिन् ब्रह्या समुत्पन्नश्चतुर्वक्त्रः स्वयं प्रभुः । 
तान्येवाण्डकपालानि सर्वे मेघाः प्रकीर्तिताः ॥ १६

तेषामाप्यायनं धूमः सर्वेषामविशेषतः । 
तेषां श्रेष्ठश्च पर्जन्यश्चत्वारश्चैव दिग्गजाः ॥ १७

गजानां पर्वतानां च मेघानां भोगिभिः सह। 
कुलमेकं द्विधाभूतं योनिरेका जलं स्मृतम् ॥ १८

पर्जन्यो दिग्गजाश्चैव हेमन्ते शीतसम्भवम् । 
तुषारवर्ष वर्षन्ति वृद्धा ह्यन्नविवृद्धये ॥ १९

षष्ठः परिवहो नाम वायुस्तेषां परायणः । 
योऽसौ बिभर्ति भगवान् गङ्गामाकाशगोचराम् ॥ २०

दिव्यामृतजलां पुण्यां त्रिपथामिति विश्रुताम् । 
तस्या विस्पन्दितं तोयं दिग्गजाः पृथुभिः करैः ॥ २१

शीकरान् सम्प्रमुञ्चन्ति नीहार इति स स्मृतः ।
दक्षिणेन गिरियर्योऽसौ हेमकूट इति स्मृतः ॥ २२

उदन् हिमवतः शैलस्योत्तरे चैव दक्षिणे। 
पुण्डूं नाम समाख्यातं नगरं तत्र वै स्मृतम् ॥ २३

तस्मिन् प्रवर्तते वर्ष तत् तुषारसमुद्भवम् । 
ततो हिमवतो वायुर्हिमं तत्र समुद्भवम् ॥ २४

आनयत्यात्मवेगेन सिञ्चमानो महागिरिम्। 
हिमवन्तमतिक्रम्य वृष्टिशेषं ततः परम् ॥ २५

इभास्ये च ततः पश्चादिदं भूतविवृद्धये। 
वर्षद्वयं समाख्यातं सम्यग् वृष्टिविवृद्धये ॥ २६

वे वायुके आधारपर चलते-फिरते हैं। इस अण्डके विदीर्ण होनेपर उससे जो प्राकृतिक कपाल निकले थे और जिसमें सामर्थ्यशाली स्वयं चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न हुए थे, उन्हीं अण्डकपालोंको सभी मेघोंके रूपमें बतलाया जाता है। उन सभी मेघोंको समानरूपसे तृप्त करनेवाला धूम है। उनमें पर्जन्य नामक मेघ सबसे श्रेष्ठ है। इसके अतिरिक्त ऐरावत, वामन, अञ्जन आदि चार दिग्गज हैं। हाथी, पर्वत, मेघ और सर्प-इन सबका कुल एक है जो दो भागोंमें विभक्त हो गया है; परंतु इनकी योनि (उत्पत्ति-स्थान) एक ही है, जो जल नामसे कही जाती है। पर्जन्य मेघ और चारों वृद्ध दिग्गज हेमन्त ऋतुमें अन्नकी वृद्धिके लिये शीतसे उत्पन्न हुए तुषारकी वर्षा करते हैं। परिवह नामक छठी वायु इनका आश्रय है। यह ऐश्वर्यशाली पवन आकाशगामिनी गङ्गाको, जो दिव्य अमृतरूपी जलसे परिपूर्ण, पुण्यमयी तथा त्रिपथगा नामसे विख्यात हैं, धारण करता है, गङ्गासे निकले हुए जलको दिग्गज अपने मोटे-मोटे शुण्डोंसे फुहारेके रूपमें छोड़ते हैं। उसे नीहार (कुहासा) कहते हैं। दक्षिण पार्श्वमें जो पर्वत है, 

वह हेमकूट नामसे प्रसिद्ध है। वह हिमालय पर्वतके उत्तर और दक्षिण- दोनों दिशाओंमें फैला हुआ है। वहाँ पुण्ड्र नामक एक प्रसिद्ध नगर है। उसी नगरमें वह तुषारसे उत्पन्न हुई वर्षा होती है। तदनन्तर हिमवान् पर्वतसे उद्भूत हुई वायु वहाँ उत्पन्न हुए शीकरों को अपने साथ ले आती है और बड़े वेगसे उस महान् गिरिको सींचती हुई उसका अतिक्रमण करके इभास्य नामक वर्षमें निकल जाती है। तत्पश्चात् प्राणियोंकी वृद्धिके लिये वहाँ शेष वृष्टि होती है। पहले जिन दो वर्षोंका वर्णन किया गया है, उनमें अच्छी तरह वृष्टि होती है। इस प्रकार मैंने मेघों तथा उनसे उत्पन्न हुई सारी वृष्टिका वर्णन कर दिया ॥ १५-२६॥

मेघाश्चाप्यायनं चैव सर्वमेतत् प्रकीर्तितम्। 
सूर्य एव तु वृष्टीनां स्त्रष्टा समुपदिश्यते ॥ २७

वर्ष धर्मं हिमं रात्रिं संध्ये चैव दिनं तथा। 
शुभाशुभफलानीह ध्रुवात् सर्वं प्रवर्तते ॥ २८

ध्रुवेणाधिष्ठिताश्चापः सूर्यो संगृह्य तिष्ठति। 
सर्वभूतशरीरेषु त्वापो ह्यानुश्चिताश्च याः ॥ २९

दह्यमानेषु तेष्वेह जङ्गमस्थावरेषु च। 
धूमभूतास्तु ता ह्यापो निष्क्रमन्तीह सर्वशः ॥ ३०

तेन चाब्भ्राणि जायन्ते स्थानमब्भ्रमयं स्मृतम्। 
तेजोभिः सर्वलोकेभ्य आदत्ते रश्मिभिर्जलम् ॥ ३१

समुद्राद् वायुसंयोगाद् वहन्त्यापो गभस्तयः। 
ततस्त्वृतुवशात्काले परिवर्तन् दिवाकरः ॥ ३२

नियच्छत्यापो मेघेभ्यः शुक्लाः शुक्लैस्तु रश्मिभिः । 
अब्धस्थाः प्रपतन्त्यापो वायुना समुदीरिताः ॥ ३३

ततो वर्षति षण्मासान् सर्वभूतविवृद्धये। 
वायुभिः स्तनितं चैव विद्युतस्त्वग्निजाः स्मृताः ॥ ३४

मेहनाच्च मिहेर्धातोर्मेधत्वं व्यञ्जयन्ति च। 
न भ्रश्यन्ते ततो ह्यापस्तस्मादब्भ्रस्य वै स्थितिः । 
स्त्रष्टासौ वृष्टिसर्गस्य ध्रुवेणाधिष्ठितो रविः ॥ ३५

ध्रुवेणाधिष्ठितो वायुर्वृष्टि संहरते पुनः। 
ग्रहान्निवृत्त्या सूर्यात्तु चरते ऋक्षमण्डलम् ॥ ३६

सूर्य ही सब प्रकारको वृष्टियोंके मूल कारण कहे जाते हैं। इस लोकमें वर्षा, धूप, हिम, रात्रि, दिन, दोनों संध्याएँ और शुभ एवं अशुभ कर्मोंके फल ध्रुवसे प्रवर्तित होते हैं। ध्रुवद्वारा अधिष्ठित जलको सूर्य ग्रहण करते हैं। जल सभी प्राणियोंके शरीरोंमें परमाणुरूपसे स्थित है। इसी कारण स्थावर-जङ्गम सभी प्राणियोंके  शरीरों के जलाये जाने पर उनमेंसे वह जल धुएँके रूपमें बाहर निकलता है। उसी धूमसे बादल बनते हैं, इसलिये धूमको अभ्रमय स्थान कहा जाता है। सूर्य अपनी तेजोमयी किरणोंद्वारा सभी लोक (स्थानों) से जल  ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार वे ही किरणें वायुके संयोगसे समुद्रसे भी जल खींचती हैं। तदनन्तर सूर्य ऋतुओंके अनुसार समय-समयपर जलको परिवर्तित कर अपनी श्वेत किरणोंद्वारा वह शुद्ध जल मेघोंको देते हैं। 

तब वायुद्वारा प्रेरित हुआ वह मेघस्थित जल वर्षकि रूपमें भूतलपर गिरता है इस प्रकार सूर्य सभी प्राणियोंकी समृद्धिके निमित्त छः महीनेतक वर्षा करते हैं। उस समय वायुके आघातसे मेघ-निर्घोष भी होता है। (बिजली भी चमकती है।) ये बिजलियाँ अग्ग्रिसे प्रादुर्भूत बतलायी जाती हैं ।' 'मिह सेचने' अर्थात् 'मिह' धातु सेचन अथवा मेहनके अर्थमें प्रयुक्त होती है, इसलिये 'मिह' - धातुसे मेघ शब्द निष्पन्न होता है। इसी प्रकार 'अपो विश्वति' या 'न भ्रश्यन्ते आपो यस्मात्' जिससे जल नहीं गिरते, उसे अब्ध्र या अभ्र कहते हैं। इस तरह ध्रुवद्वारा अधिकृत सूर्य वृष्टिसर्गकी सृष्टि करते हैं। पुनः ध्रुवद्वारा नियुक्त वायु उस वृष्टिका संहार करती है। नक्षत्रमण्डल सूर्यमण्डलसे निवृत्त होकर विचरण करता है और जब विचरण समाप्त हो जाता है, तब ध्रुवद्वारा अधिष्ठित सूर्यमें प्रविष्ट हो जाता है॥ २७-३६ ॥

चारस्यान्ते विशत्यकै ध्रुवेण समधिष्ठितम्। 
अतः सूर्यरथस्यापि सन्निवेशं प्रचक्षते।
स्थितेन त्वेकचक्रेण पञ्चारेण त्रिणाभिना ।। ३७

हिरण्मयेनाणुना वै अष्टचक्रैकनेमिना। 
चक्रेण भास्वता सूर्यः स्यन्दनेन प्रसर्पिणा ॥ ३८

शतयोजनसाहस्रो विस्तारायाम उच्यते । 
द्विगुणश्च रथोपस्थादीषादण्डः प्रमाणतः ॥ ३९

स तस्य ब्रह्मणा सृष्टो रथो ह्यर्थवशेन तु। 
असङ्गः काञ्चनो दिव्यो युक्तः पवनगैर्हयैः ॥ ४०

छन्दोभिर्वाजिरूपैस्तैर्यथाचक्रं समास्थितैः । 
वारुणस्य रथस्येह लक्षणैः सदृशश्च सः ॥ ४१

तेनासौ चरति व्योम्नि भास्वाननुदिनं दिवि। 
अधाङ्गानि तु सूर्यस्य प्रत्यङ्गानि रथस्य च। 
संवत्सरस्यावयवैः कल्पितानि यथाक्रमम् ॥ ४२

अहर्नाभिस्तु सूर्यस्य एकचक्रस्य वै स्मृतः । 
अराः संवत्सरास्तस्य नेम्यः षडूतवः स्मृताः ।। ४३

रात्रिर्वरूथो घर्मश्च ध्वज ऊर्ध्वं व्यवस्थितः । 
अक्षकोट्योर्युगान्यस्य आर्तवाहाः कलाः स्मृताः ॥ ४४

तस्य काष्ठा स्मृता घोणा दन्तपङ्क्तिः क्षणास्तु वै। 
निमेषश्चानुकर्षोऽस्य ईषा चास्य कला स्मृता ।। ४५ 

इसके बाद अब सूर्यके रथकी रचना बतलायी जाती है। उसमें एक पहिया, पाँच अरे (अरगजे) और तीन नाभियाँ हैं। उस चक्रकी नेमि (घेरे) में स्वर्णमयी आठ छोटी-छोटी पुद्धियाँ लगी हैं। ऐसे उद्दीप्त एवं शीघ्रगामी रथपर बैठकर सूर्य विचरण करते हैं। उस रथकी लम्बाई एक लाख योजन बतलायी जाती है। उसका ईषादण्ड (हरसा) रथके उपस्थ (मध्यभाग)- से प्रमाणमें दुगुना है। ब्रह्माने किसी मुख्य प्रयोजनवश उस रथका निर्माण किया था। उसका असङ्ग (वह रस्सी, जिससे घोड़े रथमें बँधे रहते हैं) दिव्य एवं स्वर्णमय है। उसमें पवनके समान शीघ्रगामी घोड़े जुते हुए हैं। चक्रके अनुकूल चलनेवाले छन्द ही उन घोड़ोंके रूपमें उपस्थित होते हैं। वह रथ वरुणके रथके लक्षणोंसे मिलता-जुलता-सा है। उसी रथसे सूर्य प्रतिदिन गगन-मण्डलमें विचरते हैं। सूर्यके अन्नों तथा रथके अवयवोंकी समतामें क्रमशः कल्पना की गयी है। दिनको सूर्यके एक पहियेवाले रथकी नाभि कहा जाता है। वर्ष उसके अरे और छहों ऋतुएँ उसकी नेमि कहलाती हैं। रात्रि उसका वरूध (कवच, बख्तर) और धूप ऊपर फहरानेवाला ध्वज है। चारों युग इसके धुरेके दोनों छोर हैं और कलाएँ आर्तवाह कही गयी हैं। काष्ठा उसकी नासिका तथा क्षण उसके दाँतोंकी प‌ङ्क्तियाँ है। निमेषको इसका अनुकर्ष (रथका तला) और कलाको ईषा (हरसा) कहते हैं। उनके जुएके दोनों छोर अर्थ और काम कहलाते हैं॥ ३७-४५॥

युगाक्षकोटी ते तस्य अर्थकामावुभौ स्मृतौ।
सप्ताश्वरूपाश्छन्दांसि वहन्ते वायुरंहसा ।। ४६

गायत्री चैव त्रिष्टुप् च जगत्यनुष्टुप्तथैव च।
प‌ङ्क्तिश्च बृहती चैव उष्णिगेव तु सप्तमः ।॥ ४७

वैवस्वते संयमने मध्याह्ने तु रविर्यदा।
सुखायामथ वारुण्यामुत्तिष्ठन् स तु दृश्यते ॥ २९

विभावर्यामर्धरात्रं माहेन्द्रयामस्तमेव च।
सुखायामध वारुण्यां मध्याह्ने तु रविर्यदा ॥ ३०

विभावर्यां सोमपुर्यामुत्तिष्ठति विभावसुः । 
महेन्द्रस्यामरावत्यामुद्गच्छति दिवाकरः ॥ ३१

सुखायामथ वारुण्यां मध्याह्ने तु रविर्यदा।
स शीघ्रमेव पर्येति भानुरालातचक्रवत् ॥ ३२

गायत्री, त्रिष्टुप्, जगती, अनुष्टुप्, प‌ङ्क्ति, बृहती और उष्णिक् ये सातों छन्द सातों घोड़ोंके रूपमें हैं, जो वायु-वेगसे रथको वहन करते हैं। इसी प्रकार जब सूर्य मध्याह्नकालमें यमराजकी संयमनी- पुरीमें पहुँचते हैं, तब वरुणकी सुखानगरीमें उगते हुए और महेन्द्रको वस्वौकसारा (अमरावती) पुरीमें अस्त होते हुए दीखते हैं तथा विभावरी पुरीमें आधी रात होती है। जब दोपहरके समय सूर्य वरुणकी सुखानगरी में पहुँचते हैं, तब चन्द्रदेवकी पुरी विभावरीमें उदय होते हैं। जब सूर्य महेन्द्रकी अमरावतीपुरीमें उदय होते हैं, तब वरुणकी सुखानगरीमें अस्त होते (दीखते) हैं और संयमनीपुरीमें आधी रात होती है। इस प्रकार सूर्य अलातचक्र (जलती बनेठी) की भाँति बड़ी शीघ्रतासे चक्कर लगाते हैं॥ २६-३२॥

भ्रमन् वै भ्रममाणानि ऋक्षाणि चरते रविः ।
एवं चतुर्षु पाश्चेषु दक्षिणान्तेषु सर्पति ॥ ३३

उदयास्तमये वासावुत्तिष्ठति पुनः पुनः ।
पूर्वाह्न चापराहे च द्वौ द्वौ देवालयौ तु सः ॥ ३४

पतत्येकं तु मध्याले भाभिरेव च रश्मिभिः ।
उदितो वर्धमानाभिर्मध्याह्ने तपसे रविः ।। ३५

अतः परं हृसन्तीभिर्गोभिरस्तं स गच्छति ।
उदयास्तमयाभ्यां च स्मृते पूर्वापरे तु वै ॥ ३६

यादृक्युरस्तात्तपति तादृक्यूष्ठे तु पार्श्वयोः । 
यत्रोदयस्तु दृश्येत तेषां स उदयः स्मृतः ॥ ३७

प्रणाशं गच्छते यत्र तेषामस्तः स उच्यते।
सर्वेषामुत्तरे मेरुर्लोकालोकस्तु दक्षिणे ॥ ३८

विदूरभावादर्कस्य भूमेर्लेखावृतस्य च।
ह्रियन्ते रश्मयो यस्मात्तेन रात्रौ न दृश्यते ।। ३९ 

ऊर्ध्वं शतसहस्त्रांशुः स्थितस्तत्र प्रदृश्यते।
एवं पुष्करमध्ये तु यदा भवति भास्करः ॥ ४०

त्रिंशद्भागं च मेदिन्या मुहूर्तेन स गच्छति।
योजनानां सहस्त्रस्य इमां संख्यां निबोधत ।। ४१

पूर्ण शतसहस्राणामेकत्रिंशच्च सा स्मृता ।
पञ्चाशच्च सहस्त्राणि तथान्यान्यधिकानि च ॥ ४२

इस प्रकार स्वयं भ्रमण करते हुए सूर्य नक्षत्रोंको भी भ्रमण कराते हैं। वे चारों दक्षिणान्त पार्श्व भागोंमें चलते रहते हैं। उदय और अस्तके समय वे पुनः पुनः उदय और अस्त होते रहते हैं और पूर्वाह्न एवं अपराह्नमें दो-दो देवपुरियोंमें तथा मध्याहके समय एक पुरीमें पहुँचते हैं। इस प्रकार सूर्य उदय होकर अपनी बढ़ती हुई तेजस्विनी किरणोंसे दोपहरके समय तपते हैं और उसके बाद धीरे-धीरे हासको प्राप्त होती हुई उन्हीं किरणोंके साथ अस्त हो जाते हैं। सूर्यके इसी उदय और अस्तसे पूर्व और पश्चिम दिशाका ज्ञान होता है। यों तो सूर्य जैसे पूर्व दिशामें तपते हैं, उसी तरह पश्चिम तथा पार्श्वभाग (उत्तर और दक्षिण) में भी प्रकाश फैलाते हैं, परंतु उन दिशाओंमें जहाँ सूर्यका उदय दीखता है, वही उदय-स्थान कहलाता है तथा जिस दिशामें सूर्य अदृश्य हो जाते हैं, उसे अस्त-स्थान कहते हैं। मेरुपर्वत सभी पर्वतोंसे उत्तर तथा लोकालोक पर्वत दक्षिण दिशामें स्थित है, इसलिये सूर्यके बहुत दूर हो जाने तथा पृथ्वीकी छायासे आवृत होनेके कारण उनकी किरणें अवरुद्ध हो जाती हैं, इसी कारण सूर्य रातमें नहीं दीख पड़ते। इस प्रकार एक लाख किरणोंसे सुशोभित सूर्य जब पुष्करद्वीपके मध्यभागमें पहुँचते हैं, तब वहाँ ऊँचाईपर स्थित होनेके कारण दीख पड़ते हैं। सूर्य एक मुहूर्त (दो बड़ी) में पृथ्वीके तीसवें भागतक पहुँच जाते हैं। उनकी गतिका प्रमाण योजनोंके हजारोंकी गणनामें सुनिये। सूर्यकी एक मुहूर्तकी गतिका परिमाण एकतीस लाख पचास हजार योजनसे भी अधिक बतलाया जाता है॥ ३३-४२ ॥ 

मौहूर्तिकी गतिर्दोषा सूर्यस्य तु विधीयते।
एतेन क्रमयोगेन यदा काष्ठां तु दक्षिणाम् ॥ ४३

परिगच्छति सूर्योऽसौ मासं काष्ठामुदग्दिनात् ।
मध्येन पुष्करस्याथ भ्रमते दक्षिणायने ।। ४४

चक्रमक्षे निबद्धं तु ध्रुवे चाक्षः समर्पितः ।
सहचक्रो भ्रमत्यक्षः सहाक्षो भ्रमति ध्रुवः ॥ ४८

अक्षः सहैव चक्रेण भ्रमतेऽसौ ध्रुवेरितः ।
एवमर्थवशात् तस्य सन्निवेशो रथस्य तु ॥ ४९

तथा संयोगभागेन सिद्धो वै भास्करो रथः।
तेनाऽसौ तरणिर्देवो नभसः सर्पते दिवम् ॥ ५०

युगाक्षकोटी ते तस्य दक्षिणे स्यन्दनस्य तु।
भ्रमतो भ्रमतो रश्मी तौ चक्रयुगयोस्तु वै ॥ ५१

मण्डलानि भ्रमेतेऽस्य खेचरस्य रथस्य तु।
कुलालचक्रभ्रमवन्मण्डलं सर्वतोदिशम् ॥ ५२

युगाक्षकोटी ते तस्य वातोर्मी स्यन्दनस्य तु।
संक्रमेते ध्रुवमहो मण्डले सर्वतोदिशम् ॥ ५३

भ्रमतस्तस्य रश्मी ते मण्डले तूत्तरायणे।
वर्धते दक्षिणेष्वत्र भ्रमतो मण्डलानि तु ॥ ५४ 

युगाक्षकोटी सम्बद्धौ द्वे रश्मी स्यन्दनस्य ते।
ध्रुवेण प्रगृहीतौ तौ रश्मी धारयता रविम् ॥ ५५ 

आकृष्येते यदा ते तु ध्रुवेण समधिष्ठिते।
तदा सोऽभ्यन्तरे सूर्यो भ्रमते मण्डलानि तु ॥ ५६

अशीतिमण्डलशतं काष्ठयोरुभयोश्चरन् ।
धुवेण मुच्यमानेन पुना रश्मियुगेन च ॥ ५७

तथैव बाह्यतः सूर्यो भ्रमते मण्डलानि तु।
उद्वेष्टयन् वै वेगेन मण्डलानि तु गच्छति ॥ ५८

इसी क्रमसे जब सूर्य दक्षिण दिशामें जाते हैं, तब (वहाँ छः महीनेतक भ्रमण करनेके पश्चात् पुनः) सातवें मासमें उत्तर दिशाकी ओर लौटते हैं। दक्षिणायनके समय सूर्य पुष्करद्वीपके मध्यमें भ्रमण करते हैं। इस रथका चक्र अक्षमें बँधा हुआ है और वह अक्ष ध्रुवसे संलग्र है। इसलिये चक्रके साथ अक्ष और अक्षके साथ ध्रुव घूमता रहता है। इस प्रकार ध्रुवद्वारा प्रेरित अक्ष चक्रके साथ ही घूमता है। किसी मुख्य प्रयोजनवश ब्रह्माने इस रथका निर्माण किया है तथा इस प्रकारके अवयवोंके संयोगसे यह सूर्वका रथ सिद्ध हुआ है। इसी रथसे सूर्यदेव आकाशमण्डलमें भ्रमण करते हैं। उस रथके जुए और धुरेके छोर दाहिनी ओरसे घूमते हैं। जब वह रथ आकाशमें मण्डलाकार घूमता है, उस समय उसकी किरणें भी मण्डलाकार घूमती-सी दीख पड़ती हैं। यह मण्डल कुम्हारके चाककी भाँति चारों दिशाओंमें घूमता है। उस रथकी दोनों युगाक्षकोटि और वातोर्मिके चारों दिशाओंमें मण्डलाकार घूमते समय उस रथकी किरणें बढ़ जाती हैं और दक्षिणायनमें घट जाती हैं। वे दोनों किरणें रथकी युगाक्षकोटिमें बंधी हुई हैं और वे ध्रुवमें निबद्ध हैं। ये सूर्यसे भी सम्बद्ध हैं। ध्रुव जब उन दोनों किरणोंको खींचते हैं, तब सूर्य मण्डलके अन्तर्गत ही भ्रमण करते हैं। उस समय सूर्य दोनों दिशाओंके एक सौ अस्सी मण्डलोंमें चक्कर लगाते हैं। पुनः जब ध्रुव दोनों किरणोंको छोड़ देते हैं, तब सूर्य मण्डलोंके बाह्य भागमें घूमने लगते हैं। उस समय वे मण्डलोंको उद्वेष्टित करते हुए बड़े वेगसे चलते हैं ॥ ४६-५८ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे भुवनकोश सूर्याचन्द्रमसोडारी नाम पञ्चविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२५ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके भुवनकोश-वर्णन प्रसङ्गमें सूर्य-चन्द्रमाकी गति नामक एक सौ पचीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १२५ ॥

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