मत्स्य पुराण एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय
सूर्य-रथ पर प्रत्येक मास में भिन्न-भिन्न देवताओं का अधिरोहण तथा चन्द्रमा की विचित्र गति
सूत उवाच
स रथोऽधिष्ठितो देवैर्मासि मासि यथाक्रमम् ।
ततो वहत्यथादित्यं बहुभिऋषिभिः सह । १
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च ग्रामणीसर्पराक्षसैः।
एते वसन्ति वै सूर्ये मासौ द्वौ द्वौ क्रमेण च ॥ २
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। सूर्यका वह रथ प्रत्येक मासमें क्रमशः देवताओंद्वारा अधिष्ठित रहता है। इस प्रकार वह बहुत-से ऋषियों, गन्धों, अप्सराओं, ग्रामणियों, सर्पों और राक्षसोंके साथ सूर्यको वहन करता है। ये सभी देवगण दो-दो मासके क्रमसे सूर्यके निकट निवास करते हैं। २
धातार्यमा पुलस्त्यश्च पुलहश्च प्रजापतिः ।
उरगौ वासुकिश्चैव संकीर्णश्चैव तावुभौ ॥ ३
तुम्बुरुर्नारदश्चैव गन्धर्वी गायतां वरौ।
क्रतुस्थलाप्सराश्चैव तथा वै पुञ्जिकस्थला ॥ ४
ग्रामण्यौ रथकृत्तस्य रथौजाश्चैव तावुभौ।
रक्षो हेतिः प्रहेतिश्च यातुधानावुभौ स्मृतौ ॥ ५
मधुमाधवयोर्दोष गणो वसति भास्करे।
वसन् ग्रीष्मे तु द्वौ मासौ मित्रश्च वरुणश्च वै॥ ६
ऋषिरत्रिर्वसिष्ठश्च नागौ तक्षकरम्भकौ।
मेनका सहजन्या च हाहा हूहूश्च गायकौ ॥ ७
रथन्तरश्च ग्रामण्यौ रथकृच्चैव तावुभौ।
पुरुषादो वधश्चैव यातुधानौ तु तौ स्मृतौ ॥ ८
एते वसन्ति वै सूर्ये मासयोः शुचिशुक्रयोः ।
ततः सूर्ये पुनश्चान्या निवसन्ति स्म देवताः ॥ ९
इन्द्रश्चैव विवस्वांश्च अङ्गिरा भृगुरेव च।
एलापत्रस्तथा सर्पः शङ्खपालश्च पन्नगः ॥ १०
विश्वावसुसुषेणौ च प्रातश्चैव रथश्च हि।
प्रम्लोचेत्यप्सराश्चैव निम्लोचन्ती च ते उभे ॥ ११
यातुधानस्तथा हेतिर्व्याघ्रश्चैव तु तावुभौ।
नभस्यनभसोरेतैर्वसन्तश्च दिवाकरे ॥ १२
धाता और अर्थमा दो देव, प्रजापति पुलस्त्य और प्रजापति पुलह दो ऋषि, वासुकि और संकीर्ण दो नाग, गायकोंमें श्रेष्ठ तुम्बुरु और नारद दो गन्धर्व, ऋतुस्थला और पुञ्जिकस्थला दो अप्सराएँ, रथकृत् और रथौजा दो ग्रामणी, हेति और प्रहेति दो राक्षस- इन सबका दल चैत्र और वैशाखमासमें सूर्यके रथपर निवास करता है। ग्रीष्म ऋतुके ज्येष्ठ और आषाढ़मासमें मित्र और वरुण देवता, अत्रि और वसिष्ठ ऋषि, तक्षक और रम्भक नाग, मेनका और सहजन्या अप्सरा, हाहा और हुहू गन्धर्व, रथन्तर और रथकृत् ग्रामणी, पुरुषाद और वध राक्षस ये सभी सूर्यके निकट रहते हैं। इसी प्रकार श्रवण और भाद्रपद मासमें इन्द्र और विवस्वान् देवता, अङ्गिरा और भृगु ऋषि, एलापत्र और शंखपाल नामक नाग, विश्वावसु और सुषेण गन्धर्व, प्रात और रथ नामक ग्रामणी, प्रम्लोचा और निम्लोचन्ती अप्सरा तथा हेति और व्याघ्र राक्षस- ये सभी सूर्यके रथपर निवास करते हैं ॥ ३-१२॥
मासौ द्वौ देवताः सूर्ये वसन्ति च शरदूतौ।
पर्जन्यश्चैव पूषा च भरद्वाजः सगौतमः ॥ १३
चित्रसेनश्च गन्धर्वस्तथा वा सुरुचिश्च यः।
विश्वाची च घृताची च उभे ते पुण्यलक्षणे ॥ १४
नागश्चैरावतश्चैव विश्रुतश्च धनञ्जयः।
सेनजिच्च सुषेणश्च सेनानीर्याक्रमणीस्तथा ॥ १५
आपो वातश्च द्वावेतौ यातुधानावुभौ स्मृतौ।
वसन्ते ते च वै सूर्ये मासयोश्च त्विषोर्जयोः ॥ १६
हैमन्तिकी च द्वौ मासौ निवसन्ति दिवाकरे।
अंशो भगश्च द्वावेतौ कश्यपश्च क्रतुश्च तौ ॥ १७
भुजङ्गश्च महापद्मः सर्पः कर्कोटकस्तथा।
चित्रसेनश्च गन्धर्वः पूर्णायुश्चैव गायनौ ॥ १८
अप्सराः पूर्वचित्तिश्च तथैव ह्युर्वशी च या।
तक्षावारिष्टनेमिश्च सेनानीर्यामणीश्च तौ ॥ १९
विद्युत्सूर्यश्च तावुग्रौ यातुधानौ तु तौ स्मृतौ।
सहे चैव सहस्ये च वसन्त्येते दिवाकरे ।। २०
ततस्तु शिशिरे चापि मासयोर्निवसन्ति ते।
त्वष्टा विष्णुर्जमदग्निर्विश्वामित्रस्तथैव च ॥ २१
काद्रवेयौ तथा नागौ कम्बलाश्वतरावुभौ ।
गन्धवों धृतराष्ट्रश्च सूर्यवर्चाश्च तावुभौ ॥ २२
तिलोत्तमाप्सराश्चैव देवी रम्भा मनोरमा।
ग्रामणी ऋतजिच्चैव सत्यजिच्च महाबलः ॥ २३
ब्रह्मोपेतश्च वै रक्षो यज्ञोपेतस्तथैव च।
इत्येते निवसन्ति स्म द्वौ द्वौ मासौ दिवाकरे ॥ २४
शरद् ऋतुमें भी दो मासतक देवगण सूर्यके निकट वास करते हैं। पर्जन्य और पूषा देवता, भरद्वाज और गौतम ऋषि, चित्रसेन और सुरुचि गन्धर्व, शुभ लक्षणोंवाली विश्वाची और घृताची अप्सराएँ, ऐरावत और सुप्रसिद्ध धनन्जय नाग, सेनजित् और सेनानायक सुषेण ग्रामणी, आप और वात नामक दो राक्षस-ये सभी आश्विन और कार्तिकमासमें सूर्यके रथपर अधिरोहण करते हैं। हेमन्त ऋतुके दो महीने मार्गशीर्ष और पौषमें अंश और भग देवता, कश्यप और ऋतु ऋषि, महापद्म और कर्कोटक नाग, गानविद्यामें निपुण चित्रसेन और पूर्णायु गन्धर्व, पूर्वचित्ति और उर्वशी अप्सरा, तक्षाव और अरिष्टनेमि नामक सेनापति एवं ग्रामणी,विद्युत् और सूर्य नामक दो उग्र राक्षस ये सभी सूर्यके निकट वास करते हैं। तत्पश्चात् शिशिर ऋतुके माघ और फाल्गुनमासोंमें त्वष्टा और विष्णु देवता, जमदग्रि और विश्वामित्र ऋषि, कडूके पुत्र कम्बल और अश्वतर नाग, धृतराष्ट्र और सूर्यवर्चा गन्धर्व, तिलोत्तमा और मनोहारिणी रम्भा देवी अप्सरा, महाबली ऋतजित् और सत्यजित् ग्रामणी, ब्रह्मोपेत और यज्ञोपेत राक्षस ये सभी सूर्यके रथपर अधिरूढ़ होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक दो मासके अन्तरसे ये सभी क्रमशः सूर्यके निकट निवास करते हैं॥ १३-२४॥
स्थानाभिमानिनो होते गणां द्वादश सप्तकाः ।
सूर्यमापादयन्त्येते तेजसा तेज उत्तमम् ॥ २५
ग्रथितैस्तु वचोभिश्च स्तुवन्ति ऋषयो रविम्।
गन्धर्वाप्सरसश्चैव गीतनृत्यैरुपासते ।। २६
विद्याग्रामणिनो यक्षाः कुर्वन्त्याभीषुसंग्रहम् ।
सर्पाः सर्पन्ति वै सूर्ये यातुधानानुयान्ति च ॥ २७
वालखिल्या नयन्त्यस्तं परिवार्योदयाद् रविम्।
एतेषामेव देवानां यथावीर्यं यथातपः ॥ २८
यथायोगं यथाधर्म यथातत्त्वं यथाबलम्।
तपत्यसौ यथा सूर्यस्तेषां सिद्धिस्तु तेजसा ॥ २९
भूतानामशुभं सर्व व्यपोहति स्वतेजसा।
मानवानां शुभैौतैर्द्धियते दुरितं तु वै ॥ ३०
दुरितं हि प्रचाराणां व्यपोहन्ति क्वचित् क्वचित् ।
एते सहैव सूर्येण भ्रमन्ति सानुगा दिवि ॥ ३१
तपन्तश्च जपन्तश्च ह्लादयन्तश्च वै प्रजाः।
गोपायन्ति स्म भूतानि ईहन्ते हानुकम्पया ॥ ३२
स्थानाभिमानिनां होतत्स्थानं मन्वन्तरेषु वै।
अतीतानां गतानां च वर्तन्ते साम्प्रतं च ये ॥ ३३
एवं वसन्ति वै सूर्ये सप्तकास्ते चतुर्दश।
चतुर्दशेषु वर्तन्ते गणा मन्वन्तरेषु वै ॥ ३४
ग्रीष्मे हिमे च वर्षासु मुञ्चमानो धर्म हिमं च वर्षं च दिनं निशां च।
गच्छत्यसावनुदिनं परिवृत्य रश्मीन् देवान् पितूंश्च मनुजांश्च सुतर्पयन् वै ।। ३५
शुक्ले तु पूष्णें तदहः क्रमेण तं कृष्णपक्षे विबुधाः पिबन्ति ।
पीतं तु सोमं द्विकलावशिष्टं सुवृष्टये रश्मिषु रक्षितं तु ॥ ३६
स्वधामृतं तत्पितरः पिबन्ति देवाश्च सौम्याश्च तथैव कव्यम्।
सूर्येण गोभिर्हि विवर्धिताभि- रद्भिः पुनश्चैव समुच्छ्रिताभिः ॥ ३७
वृष्ट्ह्याभिवृष्टाभिरथौषधीभि- मंर्त्या अथान्नेन क्षुधं जयन्ति।
तृप्तिश्चाप्यमृतेनार्थमासं सुराणां मासं स्वाहाभिः स्वधया पितृणाम् ॥ ३८
ये बारह सप्तक (देव, ऋषि, नाग, गन्धर्व, अप्सरा, ग्रामणी और राक्षस) गण अपने-अपने स्थानके अभिमानी देवता हैं। ये अपने तेजसे सूर्यके तेजको उत्कृष्ट कर देते हैं। वहाँ ऋषिगण स्वरचित वचनों- स्तोत्रोंद्वारा सूर्यका स्तवन करते हैं तथा गन्धर्व और अप्सराएँ नाच-गानके द्वारा सूर्यकी उपासना करती हैं। सूत-विद्यामें निपुण यक्षगण (सूर्यके रथके अश्वोंकी) बागडोर संभालते हैं। सर्प सूर्यमण्डलमें इधर-उधर दौड़ते तथा राक्षसगण सूर्यका अनुगमन करते हैं। बालखिल्य नामक ऋषि उदयकालसे ही सूर्यको घेरकर अस्ताचलको ले जाते हैं। इन देवताओंका जैसा पराक्रम, तपोबल, योगबल, धर्म, तत्त्व और शारीरिक बल होता है, उसीके अनुसार उनके तेजसे समृद्ध हुए सूर्य तपते हैं। वे अपने तेजसे प्राणियोंके सभी अमङ्गलको दूर कर देते हैं तथा इन्हीं मङ्गलमय उपादानोंद्वारा मनुष्योंके पापका अपहरण करते हैं। ये सहायकगण अपनी ओर अभिमुख होनेवालोंके पापको नष्ट कर देते हैं और अपने अनुचरोंसहित आकाशमण्डलमें सूर्यके साथ हो भ्रमण करते हैं। ये जप-तप करके सभी प्रजाओंको प्रसन रखते हुए उनकी रक्षा करते हैं और दयावश सभी प्राणियोंकी शुभ-कामना करते हैं। भूत, भविष्य और वर्तमानकालके इन स्थानाभिमानियोंका वह स्थान प्रत्येक मन्वन्तरमें वर्तमान रहता है।
इस प्रकार दो-दोके हिसाबसे उन सातों गणोंक चौदह देवता सूर्यके रथपर निवास करते हैं और चौदहों मन्वन्तराँतक वर्तमान रहते हैं। इस प्रकार सूर्य ग्रीष्म, हेमन्त और वर्षा ऋतुओंमें क्रमशः अपनी किरणोंको परिवर्तित कर धूप, हिम और जलकी वर्षा करके देवताओं, पितरों और मानवोंको भलीभाँति तृप्त करते हुए प्रतिदिन रात-दिन चलते रहते हैं। जो शुद्ध अमृत उत्तम वृष्टिके लिये सूर्यकी किरणोंमें सुरक्षित रहता है, उसे देवगण प्रत्येक मासमें चन्द्रमामें प्रविष्ट होनेपर शुक्ल एवं कृष्णपक्षमें दिनके क्रमसे काल-क्षयके अनुसार पीते हैं। सभी देवगण तथा पितर कव्यस्वरूप उस अमृत चन्द्रमाका पान करते हैं। मानवगण सूर्यकी किरणोंद्वारा पोषित, जलद्वारा परिवर्षित और वृष्टिद्वारा सिंचित ओषधियों और अन्नसे अपनी क्षुधा शान्त करते हैं। उस स्वाहारूप अमृतसे देवताओंकी तृप्ति पंद्रह दिनतक तथा उस स्वधारूप अमृतसे पितरोंकी तृप्ति एक महीनेतक होती है। मनुष्य अन्नरूप अमृतसे सर्वदा जीवन धारण करते हैं। वह अमृत सूर्यकी किरणोंमें स्थित है, अतः सूर्य अपनी किरणोंद्वारा सबका पालन करते हैं॥ २५-३८ ॥
अन्नेन जीवन्त्यनिशं मनुष्याः सूर्यः श्रितं तद्धि विभर्ति गोभिः ।
इत्येष एकचक्रेण सूर्यस्तूर्ण प्रसर्पति।
तत्र तैरक्रमैरश्चैः सर्पतेऽसौ दिनक्षये ॥ ३९
हरिर्हरिद्भिह्रियते तुरङ्गमैः पिबत्यथाऽपो हरिभिः सहस्रधा।
ततः प्रमुञ्चत्यथ ताश्च यो हरिः संमुह्यमानो हरिभिस्तुरङ्गमैः ॥ ४०
अहोरात्रं रथेनासावेकचक्रेण वै भ्रमन् ।
सप्तद्वीपसमुद्रांश्च सप्तभिः सप्तभिद्रुतम् ॥ ४९
छन्दोरूपैश्च तैरश्वैर्यतश्चक्रं ततः स्थितिः ।
कामरूपः सकृद्युक्तैः कामगैस्तैर्मनोजवैः ॥ ४२
हरितैरव्यथैः पिङ्गैरीश्वरैर्ब्रह्मवादिभिः ।
बाह्यतोऽनन्तरं चैव मण्डलं दिवसः क्रमात् ॥ ४३
कल्पादौ सम्प्रयुक्ताश्च वहन्त्याभूतसम्प्लवम्।
आवृतो वालखिल्यैश्च भ्रमते राज्यहानि तु ॥ ४४
ग्रथितैः स्ववचोभिश्च स्तूयमानो महर्षिभिः ।
सेव्यते गीतनृत्यैश्च गन्धर्वाप्सरसां गणैः ॥ ४५
पतंगः पतगैरश्चैर्भाम्यमाणो दिवस्पतिः ।
वीथ्याश्रयाणि चरति नक्षत्राणि तथा शशी ॥ ४६
ह्रासवृद्धी तथैवास्य रश्मयः सूर्यवत् स्मृताः ।
त्रिचक्रोभयतोऽश्वश्च विज्ञेयः शशिनो रथः ।। ४७
अपां गर्भसमुत्पन्नो रथः साश्वः ससारथिः ।
सहारैस्तैस्त्रिभिश्चक्रैर्युक्तः शुक्लैर्हयोत्तमैः ॥ ४८
दशभिस्तुरगैर्दिव्यैरसङ्गैस्तन्मनोजवैः ।
सकृद्युक्ते रथे तस्मिन् वहन्तस्त्वायुगक्षयम् ॥ ४९
संगृहीता रथे तस्मिञ्श्वेताश्चक्षुः श्रवाश्च वै।
अश्वास्तमेकवर्णास्ते वहन्ते शङ्खवर्चसः ॥ ५०
अजश्च त्रिपथश्चैव वृषो वाजी नरो हयः।
अंशुमान् सप्तधातुश्च हंसो व्योममृगस्तथा ॥ ५१
इत्येते नामभिश्चैव दश चन्द्रमसो हयाः ।
एवं चन्द्रमसं देवं वहन्ति स्मायुगक्षयम् ॥ ५२
इस प्रकार सूर्य अपने एक पहियेवाले रथसे शीघ्रतापूर्वक गमन करते हैं। दिनके व्यतीत हो जानेपर भी वे उन सात अश्वोंद्वारा चलते ही रहते हैं। हरे रंगवाले घोड़े सूर्यको वहन करते हैं। सूर्य अपनी किरणोंद्वारा हजारों प्रकारसे जल खींचते हैं। पुनः हरे रंगवाले घोड़ोंद्वारा वहन किये जाते हुए वे ही सूर्य उस जलको बरसाते हैं। इस तरह सूर्य अपने एक पहियेवाले रथसे दिनके क्रमानुसार मण्डलके बाहर और भीतर होते हुए सात-सातके क्रमसे सातों समुद्रोंमें दिन-रात वेगपूर्वक घूमते रहते हैं। जहाँ वह चक्र पहुँचता है, वहीं उनकी स्थिति मानी जाती है। उनके रथके (समुद्रसे उत्पन्न श्यामकर्ण) अश्व छन्दः स्वरूप, स्वेच्छानुसार रूप धारण करनेवाले, एक ही बार जुते हुए इच्छानुरूप गमन करनेवाले और मनके समान शीघ्रगामी हैं। उनके शरीरका रंग हरा और पीला है। उन्हें थकावट नहीं होती। वे शक्तिशाली और ब्रह्मवादी हैं। वे कल्पके आरम्भमें रथमें जोते जाते हैं और प्रलय- पर्यन्त उस रथको वहन करते हैं। इस प्रकार वालखिल्य ऋषियोंद्वारा समावृत सूर्य रात-दिन भ्रमण करते रहते हैं।
उस समय महर्षिगण स्वरचित वचनोंद्वारा सूर्यकी स्तुति करते हैं। गन्धवों और अप्सराओंका समुदाय नाच-गानद्वारा सूर्यकी सेवा करता है। दिनके स्वामी सूर्य पक्षियोंके समान वेगशाली अश्वोंद्वारा सदा भ्रमण कराये जाते हुए नक्षत्रसम्बन्धिनी वीथियोंका आश्रय लेकर भ्रमण करते हैं। इसी प्रकार चन्द्रमा भी चक्कर लगाते हैं। इनकी भी हास-वृद्धि और किरणें सूर्यके समान ही बतलायी गयी हैं। चन्द्रमाका रथ तीन पहियेका है और उसमें दोनों ओर घोड़े जुते रहते हैं। घोड़े सारथि और हारसे सुशोभित तथा तीन पहियोंसे युक्त रथके साथ चन्द्रदेव (समुद्र मन्थनके समय) जलके मध्यसे प्रकट हुए थे। उसमें श्वेत रंगवाले तथा दस उत्तम घोड़े जुते हुए थे। वे अश्व दिव्य, अनुपम और मनके समान वेगशाली हैं। वे एक बार उस रथमें जोत दिये जानेपर युगप्रलयपर्यन्त उस रथको वहन करते हैं। उस रथमें जुते हुए चक्षुः श्रवानामक घोड़े चन्द्रमाको वहन करते हैं, उनके नेत्र और कान भी श्वेत रंगके हैं। वे सभी शङ्खके समान उज्वल एक ही रंगके हैं। चन्द्रमाके उन दस अश्वोंका नाम अज, त्रिपथ, वृष, वाजी, नर, हय्, अंशुमान्, सप्तधातु, हंस और व्योममृग है। इस प्रकार वे अश्व युगप्रलयपर्यन्त चन्द्रदेवको वहन करते हैं। चन्द्रमा पितरोंसहित देवताओंद्वारा घिरे हुए गमन करते हैं॥ ३९-५२ ॥
देवैः परिवृतः सोमः पितृभिः सह गच्छति।
सोमस्य शुक्लपक्षादौ भास्करे परतः स्थिते ॥ ५३
आपूर्वते परो भागः सोमस्य तु अहः क्रमात्।
ततः पीतक्षयं सोमं युगपद्व्यापयन् रविः ॥ ५४
पीतं पञ्चदशाहं च रश्मिनैकेन भास्करः ।
आपूरयन् ददौ तेन भागं भागमहः क्रमात् ॥ ५५
सुषुम्नाप्यायमानस्य शुक्ले वर्धन्ति वै कलाः।
तस्माद्धसन्ति वै कृष्णे शुक्ले ह्याप्याययन्ति च ॥ ५६
इत्येवं सूर्यवीर्येण चन्द्रस्याप्यायते तनुः ।
पौर्णमास्यां प्रदृश्येत शुक्लः सम्पूर्णमण्डलः ॥ ५७
एवमाप्यायते सोमः शुक्लपक्षेष्वहः क्रमात् ।
ततो द्वितीयाप्रभृति बहुलस्य चतुर्दशी ॥ ५८
अपां सारमयस्येन्दो रसमात्रात्मकस्य च।
पिबन्त्यम्बुमयं देवा मधु सौम्यं तथामृतम् ॥ ५९
सम्भृतं त्वर्धमासेन ह्यमृतं सूर्यतेजसा।
भक्षार्थमागताः सोमं पौर्णमास्यामुपासते ॥ ६०
एकरात्रं सुराः सार्धं पितृभिऋषिभिश्च वै।
सोमस्य कृष्णपक्षादौ भास्कराभिमुखस्य वै ॥ ६१
प्रक्षीयते परो ह्यात्मा पीयमानकलाक्रमात्।
त्रयश्च त्रिंशता सार्धं त्रीणि चैव शतानि तु ॥ ६२
त्रयस्त्रिंशत् सहस्त्राणि देवाः सोमं पिबन्ति वै।
इत्येवं पीयमानस्य कृष्णा वर्धन्ति ताः कलाः ॥ ६३
क्षीयन्ते च ततः शुक्लाः कृष्णा ह्याप्याययन्ति च।
एवं दिनक्रमात् पीते देवैश्चापि निशाकरे ।। ६४
पीत्वार्धमासं गच्छन्ति अमावास्यां सुराश्च ते।
पितरश्चोपतिष्ठन्ति ह्यमावास्यां निशाकरम् ॥ ६५
ततः पञ्चदशे भागे किञ्चिच्छेषे निशाकरे।
ततोऽपराले पितरो बदन्यदिवसे पुनः ॥ ६६
पिबन्ति द्विकलं कालं शिष्टास्तस्य तु याः कलाः ।
विनिःसृष्टं त्वमावास्यां गभस्तिभ्यः स्वधामृतम् ॥ ६७
अर्धमाससमाप्तौ तु पीत्वा गच्छन्ति तेऽमृतम् ।
सौम्या बर्हिषदश्चैव अग्निष्वात्ताश्च ये स्मृताः ॥ ६८
काव्याश्चैव तु ये प्रोक्ताः पितरः सर्व एव ते।
संवत्सरास्तु वै काव्याः पञ्चाब्दा ये द्विजैः स्मृताः ।। ६९
शुक्लपक्षके प्रारम्भ में सूर्यके परभागमें स्थित होनेपर बन्द्रमाका परभाग दिनके क्रमसे पूर्ण होता है। उस समय (देवताओंद्वारा अमृत) पी लेनेसे क्षीण हुए चन्द्रमाको सूर्य एक ही बारमें पूर्ण कर देते हैं। इस प्रकार पंद्रह दिनोंतक देवताओंद्वारा चूसे गये चन्द्रमाके एक-एक भागको सूर्य अपनी एक ही किरणद्वारा दिनके क्रमसे परिपूर्ण करते रहते हैं। सूर्यकी सुषुम्रा नामक किरणद्वारा परिवर्धित चन्द्रमाकी कलाएँ शुक्लपक्षमें वृद्धिको प्राप्त होती हैं तथा कृष्णपक्षमें क्षीण हो जाती हैं। पुनः शुक्लपक्षमें वे बढ़ती जाती हैं। इस प्रकार सूर्यके पराक्रमसे चन्द्रमाका शरीर वृद्धिगत होता है और धीरे-धीरे पूर्णिमा तिथिको पूर्ण होकर सम्पूर्ण मण्डल श्वेत वर्णका दिखायी पड़ता है। इस प्रकार शुक्लपक्षमें दिनके क्रमसे चन्द्रमा वृद्धिको प्राप्त होते हैं। तदनन्तर जलके सारभूत एवं रसमात्रात्मक चन्द्रमाके मधु-सदृश जलमय अमृतको देवगण कृष्णपक्षकी द्वितीयासे लेकर चतुर्दशी तिथितक पान करते हैं।
पंद्रह दिनोंतक सूर्यके तेजसे सञ्चित किये हुए अमृतको खानेके लिये पूर्णिमा तिथिको चन्द्रमाके निकट आये हुए देवगण उस समय महर्षिगण स्वरचित वचनोंद्वारा सूर्यकी स्तुति करते हैं। गन्धवों और अप्सराओंका समुदाय नाच-गानद्वारा सूर्यकी सेवा करता है। दिनके स्वामी सूर्य पक्षियोंके समान वेगशाली अश्वोंद्वारा सदा भ्रमण कराये जाते हुए नक्षत्रसम्बन्धिनी वीथियोंका आश्रय लेकर भ्रमण करते हैं। इसी प्रकार चन्द्रमा भी चक्कर लगाते हैं। इनकी भी हास-वृद्धि और किरणें सूर्यके समान ही बतलायी गयी हैं। चन्द्रमाका रथ तीन पहियेका है और उसमें दोनों ओर घोड़े जुते रहते हैं। घोड़े सारथि और हारसे सुशोभित तथा तीन पहियोंसे युक्त रथके साथ चन्द्रदेव (समुद्र मन्थनके समय) जलके मध्यसे प्रकट हुए थे। उसमें श्वेत रंगवाले तथा दस उत्तम घोड़े जुते हुए थे। वे अश्व दिव्य, अनुपम और मनके समान वेगशाली हैं। वे एक बार उस रथमें जोत दिये जानेपर युगप्रलयपर्यन्त उस रथको वहन करते हैं। उस रथमें जुते हुए चक्षुः श्रवानामक घोड़े चन्द्रमाको वहन करते हैं, उनके नेत्र और कान भी श्वेत रंगके हैं। वे सभी शङ्खके समान उज्वल एक ही रंगके हैं। चन्द्रमाके उन दस अश्वोंका नाम अज, त्रिपथ, वृष, वाजी, नर, हय्, अंशुमान्, सप्तधातु, हंस और व्योममृग है। इस प्रकार वे अश्व युगप्रलयपर्यन्त चन्द्रदेवको वहन करते हैं। चन्द्रमा पितरोंसहित देवताओंद्वारा घिरे हुए गमन करते हैं॥ ५३-३९ ॥
सौम्यास्तुऋतवो ज्ञेयाः मासा बर्हिषदस्तथा।
अग्निष्वात्तास्तथा पक्षः पितृसर्गस्थिता द्विजाः ॥ ७०
पितृभिः पीयमानायां पञ्चदश्यां तु वै कलाम् ।
यावच्च क्षीयते तस्माद् भागः पञ्चदशस्तु सः ॥ ७१
अमावास्यां तथा तस्य अन्तरा पूर्यते परः ।
वृद्धिक्षयौ वै पक्षादौ षोडश्यां शशिनः स्मृतौ ।
एवं सूर्यनिमित्ते ते क्षयवृद्धी निशाकरे ॥ ७२
इस प्रकार दिनके क्रमसे देवगण पंद्रह दिनतक चन्द्रमाके अमृतका पान करते हैं और अमावास्या तिथिको वे वहाँसे चले जाते हैं। तब पितृगण अमावास्या तिथिमें चन्द्रमाके पास आते हैं। तदनन्तर चन्द्रमाके पंद्रहवें भागके कुछ शेष रहनेपर वे पितर दूसरे दिन अपराह्नके समय उन सभी अवशिष्ट कलाओंको केवल दो कला समयतक ही पान करते हैं। अमावास्यातक पंद्रह दिन पर्यन्त चन्द्रमाकी किरणोंसे निकलते हुए स्वधारूपी अमृतका पानकर पितृगण अमर हो जाते हैं। वे सभी पितर सौम्य, बर्हिषद्, अग्रिष्वात्त और काव्य नामसे कहे गये हैं। पाँच वर्षके कार्यकालवाले जो पितर हैं, जिन्हें द्विजगण काव्य कहते हैं, वर्ष हैं। सौम्य नामक पितरोंको पक्ष ऋतु जानना चाहिये। दो बर्हिषद् और अग्निष्वात्तको मास- ये तीनों पितृलोकमें निवास करनेवाले द्विज हैं। पूर्णिमा तिथिको पितरोंद्वारा पान की जाती हुई कलाका जितना अंश क्षीण होता है, वह पंद्रहवाँ भाग है। अमावास्याके बाद चन्द्रमाका रिक्त भाग पूर्ण होता है। चन्द्रमाकी वृद्धि और क्षय दोनों पक्षोंके प्रारम्भमें ही माना गया है, उसे सोलहवीं कला कहते हैं। इस प्रकार चन्द्रमाकी क्षय-वृद्धि सूर्यके निमित्तसे ही होती है॥ ६४-७२॥
इति श्रीमालये महापुराणे भुवनकोशे सूर्यादिगमनं नाम षड्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२६ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके भुवनकोश-वर्णन-प्रसङ्गमें सूर्यादिगमन नामक एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १२६ ॥
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